Thursday, March 31, 2011

लोक संस्कृति व लोकपरम्परा के सजग प्रहरी हैं बी० मोहन नेगी

नेगी जी का विस्तृत परिचय आपने 28 मार्च व 30 मार्च 2011 की पोस्ट में पढ़ा;
प्रस्तुत है नेगी जी के शिल्प से परिचय का अगला पड़ाव -
2- बिन्दुओं (dots) द्वारा रेखाचित्र- यह विधा मूल रूप से यद्यपि रेखांकन ही है किन्तु इसमें बीच के स्थान को बिन्दुओं द्वारा भर कर नेगी जी ने अभिनव प्रयोग किया है. जिससे इस श्रेणी के रेखांकन सम्मोहित करते से प्रतीत होंते हैं. इन चित्रों के माध्यम से उन्होंने लोकपरम्पराओं व लोकसंस्कृति के विभिन्न रंग उकेरे हैं.          

Tuesday, March 29, 2011

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी है बी0 मोहन नेगी

नेगी जी का विस्तृत परिचय आपने पिछले अंक में पढ़ा;
प्रस्तुत है नेगी जी के शिल्प से परिचय  -
1-रेखाचित्र- इस विधा के माध्यम से उन्होंने हिमालयी सौन्दर्य, लोकजीवन, लोकपरम्परा व श्रृंगार के संयोग व वियोग पक्ष को अभिव्यक्त किया है.                                    




                                           जारी है अगले अंक में ......     

Monday, March 28, 2011

बी0 मोहन नेगी - जिनके आराध्य है रेखा और बिंदु -1

           उत्तराखंड हिमालय ही नहीं अपितु हिंदी की साहित्यिक व सामाजिक सरोकारों वाली पत्र पत्रिकाओं से वास्ता रखने वाले ऐसे विरले ही होंगे जो बी0 मोहन नेगी जी की कला से वाकिफ न हो. सीधी व आड़ी - तिरछी रेखाओं और बिन्दुओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर लगभग पिछले चार दशक से साधनारत है. प्राकृतिक सुषमा से परिवर्धित हिमालय का सम्मोहित करने वाला सौन्दर्य वर्णन हो या हिमालय वासियों की प्रकृति प्रदत्त सहजता, सरलता व निश्चलता हो या फिर अल्हड चंचल बालाओं का स्वाभाविक नख सिख वर्णन अथवा अभावग्रस्त नारी की पीड़ा हो सभी कुछ अभिव्यक्त हुआ है उनके चित्रशिल्प में.
  जो कुछ सीखा प्रकृति के सानिद्ध्य में सीखा. स्कूल कालेज में इस तरह के प्रशिक्षण का सौभाग्य ही नहीं मिल पाया. नेगी जी वार्ता के दौरान कहते हैं "......... अभिभूत करने वाला हिमालय का यह सौन्दर्य स्वयं ही शिक्षक है और  यही सौन्दर्य मेरी प्रेरणा को स्फुरित व अनुप्राणित करता है. हिमालय के पास हमें देने के लिए अपार सम्पदा है...."    
और सच भी है हिमालय के सौन्दर्य पर मर मिटे थे प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पन्त; " 
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, 
तोड़ प्रकृति से भी माया, 
                                         बाले ! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन, ......"  
और अपने काफलपाकू कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल ने लिखा है; "  
   जाने  कितने प्रिय जीवन, 
    किये मैंने तुझको अर्पण, 
           माधुरी मेरे हिमगिरी की. ...."  
यह नेगी जी का हिमालय प्रेम ही है कि देहरादून जन्मस्थली होने के बावजूद वे पौड़ी जाकर बस गए. रेखाओं द्वारा देवी, देवताओं के चित्र उकेरने का सिलसिला किशोरावस्था में शुरू हुआ जो शौक बन गया और फिर साधना. वे कब प्रकृति के मोहपाश में बन्ध गए समझ ही नहीं पाए. जब भान हुआ तो प्रकृति उनकी सहचरी बन चुकी थी. अपने मित्रों के सहयोग से सन 1984 में गोपेश्वर में जब पहली कविता पोस्टर की प्रदर्शनी लगाई तो दर्शक दंग रह गए. सब वाह-वाह कह उठे. तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. देश के विभिन्न नगरों, महानगरों में अपनी चित्रकला की प्रदर्शनी लगा ख्याति अर्जित कर चुके हैं 
परन्तु आज भी चरैवैती, चरैवैती उनका मूल मंत्र है. 
         ऐसा भी नहीं कि नेगी जी ने चित्रकला को धनोपार्जन का साधन बनाया हो. कहते हैं, " जिसमे लालच हो, स्वार्थ हो वह कला कैसी ? कला तो ईश्वर को समर्पित की जानी चाहिए. आजीविका के लिए नौकरी ही काफी है. ......" सच भी है उनसे पत्र या फोन द्वारा निवेदन किया जाय कि इस प्रयोजन हेतु कुछ चित्रों की आवश्यकता है तो मैं समझता हूँ उन्होंने 'ना' कदाचित ही किसी को किया हो. 
         नेगी जी जितने बड़े चित्रशिल्पी हैं उतने ही सरल, मृदुभाषी व व्यवहार कुशल. उनकी स्निग्ध मुस्कान बरबस आकर्षित करती है. आत्मीयता इतनी कि पौड़ी जाना हो तो उनसे मिले बिना नहीं रहा जाता. और संभवतः इसीलिये उनके चाहने वालों की कतार बहुत लम्बी है.
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी भाई नेगी जी की कला को शिल्प की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया जा सकता है, 1 - रेखाचित्र   2 - बिंदुओं (dots) द्वारा रेखाचित्र   3 - कविता पोस्टर और   4 - कोलाज
                                                                                              नेगी जी के शिल्प से परिचय अगले अंक से......
                                                                                                                                    

Thursday, March 24, 2011

शून्य क्षितिज के पार

मन उदास होता है बहुत
जब आती है याद तुम्हारी.
चाहत की आस लिए 
सपनों के पंख लगाकर 
उड़ता है यह मन 
शून्य क्षितिज के उस पार.
और शाम की लालिमा 
उतर आयी है धरा पर .
पक्षियों का कोलाहल 
निश्छल, शांत वातावरण में 
छेड़ जाता है मधुर संगीत 
चुराकर जैसे तुम्हारी आवाज !

आलिंगन में लेने आकाश को
शिखरों सी ऊंची बाहें फैलाये 
आतुर बनी यह धरती,
और जाने क्यों
याद आने लगता है फिर से -  
उन संगमरमरी बाँहों का बंधन,
गंध तुम्हारी देह की 
बसी जो है साँसों में 
असह्य पीड़ा, अपार दुःख लिए यह मन 
लौट आना चाहता है फिर से
तुम्हारे गेसुओं की छांव में !!

Friday, March 18, 2011

हो ली है !!!

  मत जा रे पिया होली आयी रही 
 जिनके पिया परदेश भयो है           
 उनकी नारी रोई रही, मत जा रे पिया.............  
                उत्तराखंड में होली मनाने की कई पद्धतियाँ प्रचलित है. कुमाऊ में होलिका दहन के काफी पहले से बैठ होली मनाई जाती है .इसमें बड़े बुजुर्ग होरी के गीतों को एक स्थान पर बैठ कर गाते हैं और एकादशी से छरड़ी तक गाँव, गाँव घर-घर जाकर यह गीत गाये जाते हैं. गढ़वाल में एकादशी को मेहल की टहनी को होलिका का प्रतीक मानकर पंचायती चौक में गाड़कर पूजा जाता है, उस पर रंगीन कपड़ों के टुकड़े व पैसे बांधकर सजावट की जाती है और उसके चारों ओर घूम-घूम कर होरी गीत गाये जाते हैं............. 
            शहरी क्षेत्रों में गुझिया व अन्य पकवान बनते हैं तो गढ़वाल में भूड़ी-पकोड़ी बनाकर खुशियां मनाई जाती है. होलिका दहन के बाद तो समूचा पहाड़ रंगों से नहा उठता है............ 
                                                                 प्रीतम अपछ्यांण के लेख "  उत्तराखंड के होरी गीत से "  साभार     
        

                   !!!  इब्लॉ हुँने  वाले  !!!









भी लिखाड़ीयों को होली की रं बिरंगी शुकानायें 

Saturday, March 12, 2011

नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में बसंत वर्णन - 2


बसंत को ऋतुराज कहा जाता है. बसंत पंचमी से बसंत का आगमन माना जाता है. किन्तु पहाड़ों में शीत अधिक होने के कारण बसंत का चरम चैत्र मास ही माना जाता है. (चैत्र की शुरुआत तो फाल्गुन पूर्णिमा (होली) के बाद  मानी जाती है. किन्तु नेपाल व पंजाब आदि की भांति उत्तराखंड हिमालय में चन्द्र मास नहीं अपितु सूर्य मास के आधार पर तिथि की गणना होती है और सूर्य मास के अनुसार चैत्र प्रायः 14 या 15 मार्च से प्रारंभ होता है.) बसंत उन्माद का महीना है, रंग विरंगा बसंत जीवन की विविधता को दर्शाता है किन्तु यह भी सत्य है कि बसंत में विरह की तड़प और भी बढ़ जाती है. गढ़ शिरोमणि, गढ़ रत्न आदि अनेकानेक सम्मान व पुरस्कारों से सम्मानित जनता के सरताज और गढ़वाली भाषा के सशक्त हस्ताक्षर भाई नरेन्द्र सिंह नेगी की अनेक कविताओं में बसंत ऋतु और विरह का वर्णन मिलता है. नेगी जी की रचनाओं में बसंती बयार में नायक नायिका का मन मयूर नाच उठता है तो कहीं यही बसंत व्याकुल हृदयों के लिए कसक का कारण बन जाता है. बसंत ऋतु को माध्यम बनाकर गढ़ हिमालय का सौन्दर्य वर्णन उनकी काव्य कला का उत्कर्ष है.    
बसंतऋतु पर नेगी जी की ये कवितायेँ उत्कृष्ट रचनाओं में रखी जा सकती है;
1 . ऋतु चैत की......  2. बसंत ऋतु मा जैई........ 3 . कै बाटा ऐली......... और 4 . हे जी सार्यूं मा बौड़ीगे.......
२. - बसंत ऋतु मा जैई
मेरा डांडी कान्ठ्यूं का मुलुक जैल्यु बसंत ऋतु मा जैई, 
बसंत ऋतु मा जैई.......... 
हैरा बणु मा बुरांशी का फूल जब बणाग लगाणा  होला,
भीटा पाखों थैं फ्यूंली का फूल पिंगल़ा रंग मा रंगाणा होला,
लय्या पय्यां ग्वीर्याळ फुलू न होली धरती सजीं देखि ऐई. बसंत ऋतु मा जैई.......... 
{ भावार्थ:  नेगी जी ने वर्णन किया है कि मेरे पहाड़ों में जब भी जाना चाहोगे तो बसंत ऋतु में जाना. जब हरे भरे जंगलों में सुर्ख लाल रंगों में खिले बुरांश के फूल धधकती हुयी अग्नि का आभास करायेंगे, घाटियों को फ्योंली के फूल बासंती रंग में रंग रही होगी और शेष धरती लाई (सरसों), पय्यां और ग्वीराळ (कचनार) के फूलों से रंगी  अपनी सुन्दरता का बयां कर रही होगी. }
नेगी की गीतों में प्रकृति चित्रण हो या विरह की पीड़ा, विशेषता यह है कि सारे उपमान स्थानीयता से लिए गए हैं. उन्होंने अपने गीतों में पतंग, मोर, कमल पुष्प आदि शब्दों का प्रयोग नहीं किया है. वे अपने गीतों के माध्यम से गढ़वाली के विस्मृत शब्दों को भी सामने लाये हैं. अपने गीतों में जो बिम्ब उन्होंने उभारे हैं  यह उनकी अद्भुत कल्पना शक्ति से ही संभव हुआ है.
इसी गीत की  दूसरी अंतरा में उन्होंने हिमालय की अद्भुत छटा के साथ गढ़वाल की लोकरीति और लोक परंपराओं का वर्णन किया है.
बिन्सिरी देळयूं मा खिल्दा फूल  राति गौं गौं गितान्गु का गीत,
चैती का बोल औज्युं का ढोल  मेरा रौन्तेळl मुल्कै की रीत,
मस्त बिगरैला बैखु का ठुमका बांदू का लसका देखि ऐई.  बसंत ऋतु मा जैई..........    
{भावार्थ : वर्णन है कि मेरे पहाड़ों में बसंत ऋतु में जब जाओगे तो वहां परम्परानुसार मुंह अँधेरे ही देहरी पर फूल डले हुए दिख जायेंगे, तो  गाँव गाँव में लोक कलाकारों द्वारा पूरी-पूरी रात गीत सुनने को मिलेंगे. नयनाभिराम दृश्य समेटे मेरे पहाड़ की लोकरीति के अनुसार पूरे साल नहीं केवल चैत के महीने ही मांग कर गुजारा करने वाले 'चैती' के भावपूर्ण बोल और ढोल वादकों के ढोल पर मंत्रमुग्ध ताल भी आपको सुनने को मिलेगी, वहीं इतराते इठलाते मस्त युवाओं के ठुमके भी देख सकोगे तो चित्ताकर्षक अभिनय करती सुंदरियों का नृत्य भी.}
दूरदर्शन द्वारा कुछ वर्ष पूर्व एक प्रोग्राम आया था " नोस्टाल्जिया ऑफ़ मुकेश ". जिसमे मुकेश की जादू भरी आवाज में ' मेरा जूता है जापानी ......'  ' हम उस देश के वासी हैं ........'  आदि गीतों का प्रसारण किया गया. मुकेश के इन गीतों को किसने लिखा, किसने संगीत दिया नहीं जानता हूँ. किन्तु नेगी ने प्रकृति के सानिदध्य में रहकर सारे गीत स्वयं लिखे हैं,  संगीत भी स्वयं दिया और प्रत्येक गीत को उसके भावानुसार प्रभावी स्तर पर टिकाये रखकर स्वयं गाया है. गीत, संगीत और स्वर, पूरे माद्यम पर उनकी अद्भुत पकड़ है.
इसी गीत की एक और अंतरा में देखिये ;
 सैणा दमाला अर चैते बयार  घस्यारी गीतुन गुन्ज्दी डांडी 
खेल्युं मा रंगमत ग्वैर छोरा  अटगदा गोर घमणान्दी घांडी 
उखी फुंडै होलू खत्युं मेरु बि बचपन उक्रि सकिलि त उक्री क लैयी. बसंत ऋतु मा जैई..........
{भावार्थ : वर्णन है कि दूर- दूर तक फैले हुए समतल बुग्यालों के मेरे पर्वतीय प्रदेश में आपको चैत में मकरंद लिए मदहोश करती मंद-मंद बहती बसंती बयार का अहसास होगा और पहाड़ियों पर विरहा भोगती या अपना दर्द बयां करती कारुणिक आवाज में घसियारिनों के गीत गूंजते सुनोगे. एक ओर जहाँ पालतू पशु जंगल में खा पीकर मस्ती में उछलते कूदते गले में बंधी घंटियों से वातावरण को संगीतमय बना रही होंगी. वहीं ग्वाले खेल में सब कुछ भुलाये बैठे होंगे. और , हाँ ! वहीं आस पास ही कहीं मेरा बचपन बीता है, जिसे याद कर मै भावुक हो जाता हूँ , उन यादों को, उन स्मृतियों को यदि तुम उठाकर ला सकोगे तो अवश्य ले आना.}   
                                                                                            अगले अंक में -  हे जी सार्यूं मा बौड़ीगे.............

Thursday, March 10, 2011

नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में बसंत वर्णन


       चैत्र मास शुरू होने में अब एक सप्ताह से भी कम का समय शेष है. वैसे चैत्र की शुरुआत तो फाल्गुन पूर्णिमा (होली) के बाद ही होगी. किन्तु नेपाल देश व पंजाब आदि राज्यों की भांति उत्तराखंड हिमालय में चन्द्र मास नहीं अपितु सूर्य मास के आधार पर तिथि की गणना होती है. और सूर्य मास के अनुसार चैत्र 14 या 15 मार्च से प्रारंभ होता है. बसंत को ऋतुराज कहा जाता है. बसंत पंचमी से बसंत का आगमन माना जाता है किन्तु पहाड़ों में शीत अधिक होने के कारण बसंत का चरम चैत्र मास ही माना जाता है. बसंत उन्माद का महीना है, रंग विरंगा बसंत जीवन की विविधता को दर्शाता है किन्तु पहाड़ की विषमताओं व अभाव के कारण यहाँ का जीवन विरह प्रधान है और बसंत में विरह की तड़प और भी बढ़ जाती है. गढ़ शिरोमणि, गढ़ रत्न आदि अनेकानेक सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित जनता के सरताज और गढ़वाली के सशक्त हस्ताक्षर भाई नरेन्द्र सिंह नेगी की अनेक कविताओं में बसंत ऋतु और विरह का वर्णन मिलता है. नेगी जी की रचनाओं में बसंती बयार में नायक नायिका का मन मयूर नाच उठता है तो कहीं यही बसंत व्याकुल हृदयों के लिए कसक का कारण बन जाता है. बसंत ऋतु को माध्यम बनाकर गढ़ हिमालय का सौन्दर्य वर्णन उनकी काव्य कला का उत्कर्ष है.    
  बसंत ऋतु पर नरेन्द्र सिंह नेगी जी की ये चार कविताएं उत्कृष्ट रचनाओं में रखी जा सकती है;
1 . ऋतु चैत की...  2. बसंत ऋतु मा जैई.... 3 . कै बाटा ऐली.... और 4 . हे जी सार्यूं मा बौड़ीगे.......
 ऋतु चैत की...
 डांडी कांठी को ह्यूं गौळीगी होलू, मेरा मैत कु बोण मौळीगी होलू 
चखुला घोलू छोड़ी उडणा होला, बेटुला मैतुड़ा को पैटणा होला.
घुघूती घुरौंण लगीं मेरा मैत की, बौड़ी बौड़ी ऐगे ऋतु ऋतु चैत की............
(भावार्थ: मायके की याद में दिन गिन रही बेटी बसंत आते ही तड़प उठती है और उसके मुंह से बोल फूट पड़ते हैं कि - पहाड़ों की बर्फ अब पिघल चुकी है, चारागाहों में नयी नयी कोपलें फूट आयी होगी, चिड़ियाएँ भी घोसले से बाहर निकलकर खुली हवा में उड़ रही होगी और बेटियां मायके की तैयारी कर रही होगी. क्योंकि चैत्र मास लौट आया है और घुघूती (फाख्ता )अब अपनी मधुर आवाज में तड़प को और बढ़ा रहा है.)
  इसी गीत की दूसरी अंतरा में गढ़वाल हिमालय का सौन्दर्य वर्णन यहाँ की लोकपरम्परा और लोक जीवन के साथ मिश्रित होकर अनुपम छटा बिखेरता है.
डांडयूं खिलणा होला बुरांशी का फूल, पाख्युं हैंसणी होली फ्योंली मुलमुल.
फुलारी फूलपाती लेकी देळयूं देळयूं जाला, दगडया भाग्यन थड्या चौंफल़ा लगाला.  
घुघूती घुरौंण लगीं मेरा मैत की, बौड़ी बौड़ी ऐगे ऋतु ऋतु चैत की...........
 (भावार्थ: ऊंचे पहाड़ों में जहाँ बुरांश के फूल खिले होंगे वहीं घाटियों में फ्योंली के फूल मंद मंद मुस्करा रही होंगी . बसंत ऋतू के आगमन पर देहरी देहरी पर फूल डालने वाले बच्चे घर घर जायेंगे और भाग्यशाली सहेलियां  थड्या और चौंफल़ा नृत्य पर थिरकंगी. क्योंकि चैत्र मास लौट आया है......... )
                                                                                                           अगले अंक में -  बसंत ऋतु मा जैई....

Thursday, March 03, 2011

दास्तान मेरे सुल्तान की

बच्चों की जिद और कुछ आस पड़ोस की देखा-देखी,
माँ और पत्नी की लाख मनाही के बावजूद,
पाई, पाई जोड़ कर संकट के लिए रखे पैंसों से
खरीद लाया मै विदेशी नस्ल का एक कुत्ता.
मैथ्स, फिजिक्स के फार्मूलों से कहीं अधिक 
कुत्ते की प्रजातियाँ है याद मेरे होनहार बच्चों को, 
इसलिए पूँछ कटे इस कुत्ते को उन्होंने 'डोबरमैन' बताया.  

इस विदेशी पूँछ कटे कुत्ते की पीठ सहलाते जाने क्यों 
बाबा भारती सा आनन्दित हो जाता हूँ मै,
और भावनाओं के अतिरेक में बह मैंने भी 
नाम 'सुल्तान' रखा है इस पूंछ कटे कुत्ते का.
गाँव में कभी गाय, बैल, भैंसों के सींगों को बार-त्यौहार 
तेल लगा चमकाते जो खुशी होती थी मेरे बड़े- बूढों को
उससे कहीं अधिक पुलकित होता हूँ जब
नहलाता हूँ शैम्पू से सुल्तान को हर इतवार मल-मल कर.

गर्दन पर बंधी मोटी चमकीली सांखल पकड़े
तमगे लटकाए फौजी अफसर सा अकड़ कर मै
कुत्ता घुमाने (नहीं, नहीं , कुत्ता हगाने) के बहाने रोज 
सुबह-सवेरे निकलता हूँ मोहल्ले की सड़कों पर.
मेरी भी थोड़ी इज्ज़त बढ़ गयी है मोहल्ले में 
कल तक वर्मा जी ! वर्मा जी ! कहने वाले पडोसी 
वर्मा साहब कह कर अब पुकारने लगे हैं. 
सड़कों पर अक्सर फब्तियां कसते आवारा लड़के भी
अंकल जी !अंकल ! जी कह अब मान देने लगे हैं.

किताबों से दूर भागने वाला मै पढता हूँ गीता, रामायण की तरह 
अब  'फूडिंग एंड हैबिट्स ऑफ़ डॉग' जैसी किताबें.
वक्त बेवक्त धमक कर चाय सुड़कने वाले पडोसी,या
अख़बार के नाम पर सुबह वक्त ख़राब करने वाले पडोसी 
अब आते हैं सोच-समझ कर ही, क्योंकि अपने गेट के बाहर
मैंने भी लटका दी  है  'यहाँ कुत्ते रहते हैं ' की एक सुन्दर सी तख्ती. 

हर आगुन्तक को शक की नज़र से देखता या 
"  कुत्ता भय से भौंकता है "  की कहावत चरितार्थ करता 
जोर-जोर से भौंकता जब भी , तो न जाने क्यों 
मंत्रोच्चार कर स्वागत करता सा लगता मुझे कुत्ता .
ऊंचा कद, ऊंचे ओहदे वाला ही क्यों न हो आगुन्तक 
सोफे पर शान से उनके बराबर में जा बैठता है कुत्ता. 

पर हकीकत, साल भर बाद सुना रहा हूँ तुम्हे दोस्तों !
कुत्ते की सेहत मेंटेन रखने को हमारी वैष्णवी रसोई में पकने लगा मांस 
हंसी ख़ुशी गुजारा हो जाता था वेतन से, अब एडवांस, लोन लेकर भी 
नहीं बचता पैसा एक भी अपने पास. पहले 
तुलसी, गोमूत्र से गमकता था घर, अब टट्टी,पेशाब से गंधीयाता है घर. 
झूठी शान बखारता मै, मुटिया रहा खूब यह पूंछ कटा कुत्ता .
बीबी के ताने सुनता मै, खाली जेब भटकता, बन गया मै गली का कुत्ता. 
रोज हाथ जोड़ फरियाद करता हूँ खुदा से -कोई खडग सिंह आये और 
इस कलयुगी सुल्तान को धोखे से नहीं, खुशी खुशी लूट ले जाए.