पिछले महीने एक शादी के
सिलसिले में गांव गया तो भोपाल सिंह भाई जी ने बताया कि सेळ्वाणि
सूख गया
है। यह अप्रत्याशित तो नहीं था फिर भी मुझे धक्का पहुँचा। लग भी रहा था कि
वह सूखने वाला है। क्योंकि इधर कई वर्षों से सेळ्वाणि के ऊपर वाले सैकड़ों
खेत बंजर हो गये हैं। जलवाल गांव व खोला गांव के उन खेतों में फसल नहीं
बोयी जा रही है और जब फसल नहीं तो न हल चलाया जा रहा है और न सिंचाई ही।
फिर वर्षा का औसत भी तो वर्ष दर वर्ष कम हो रहा है। जमीन रिचार्ज कहाँ से होगी? थोड़ा बहुत जो बरसता है वह कब तक रिसेगा?
सेळ्वाणि अर्थात प्राकृतिक जलस्रोत। जिसे गढ़वाल में धारा या मंगरा भी कहा जाता है। सेळ्वाणि शब्द शायद सेळि शब्द से बना है शायद। सेळि अर्थात ठण्डक पड़ना, सकून मिलना। गरम दोपहरी में ठण्डा पानी मिल जाये तो ‘सेळि पड़गी’ या बच्चा देर से घर लौटे तो ‘अब पड़ी जिकुड़ा सेळि’ अक्सर कहा जाता है। सेळि में पाणी शब्द जुड़ने से ही यह सम्भवतः सेळ्वाणि बना होगा। हमारे गांव का सेळ्वाणि मेरे लिये केवल धारा या मंगरा नहीं था, बल्कि इसके साथ मेरी अनेक खट्टी मीठी यादें भी जुड़ी हैं।
पाईप लाईन द्वारा पीने का पानी हमारे
गांव में मेरे जन्म से पहले ही पहुँच गया था। गांव के आगे आंगन की तरह फैले
खेतों में सिंचाई के लिये तीन नहरें है, पानी की कमी नहीं है। फ्रिज का
जमाना नहीं था इसलिये बैसाख-जेठ की प्यास सेळ्वाणि से ही बुझती थी। गरमियों
में स्कूल की छुट्टियां होती और सेळ्वाणि पानी लाने की ड्यूटी लड़कों की
होती। यह गांव से लगभग आधा मील दूर उत्तर-पश्चिम में गाड(पहाड़ी नदी) के
किनारे है। सेळ्वाणि लाने के बहाने अपने-अपने बर्तन लेकर हम शाम को जल्दी
ही निकल पड़ते। रास्ते में हमारी बानर सेना लोगों के खेतों से टमाटर, ककड़ी,
प्याज या कच्चे आम चुराकर गाड में बड़े-बड़े गंगलोढ़ों पर बैठकर घर से लाये
हुये नमक के साथ खाते। लम्बी-लम्बी बातें हांकते, एक-दूसरे से झगड़ते और रोज
डेढ़-दो घण्टा बरबाद करके घर लौटते। घर में अक्सर डांट पड़ती। परन्तु हम थे
कि कभी नहीं सुधरे। सेळ्वाणि से जुड़ा एक किस्सा और भी है। भाषली गांव के
किशोर सिंह पढ़ाई के लिये अपनी फुफू के पास हमारे गांव आया। वह मेरे से एक
क्लास सीनियर था। उसके हाथों में एक बार चर्मरोग हो गया। उसके फूफा (स्व0
भगत सिंह खरोला) ने उसे कहा कि वह रोज सुबह सेळ्वाणि जाकर नहाये, जैसे कोई
सजा सुना दी हो। परन्तु मजबूरन उसने बात मानी और ताज्जुब कि एक-दो माह में
ही रोग दूर हो गया।
नौकरी के दौरान भी गांव जाने पर मदननेगी आते-जाते
मैं सेळ्वाणि में अवश्य रुकता। ठण्डा पानी पीकर वहाँ पर घड़ी भर बैठना भी न
भूलता। फिर मन में खयाली पुलाव पकाता कि यदि कभी बहुत सारा 
सेळ्वाणि अर्थात प्राकृतिक जलस्रोत। जिसे गढ़वाल में धारा या मंगरा भी कहा जाता है। सेळ्वाणि शब्द शायद सेळि शब्द से बना है शायद। सेळि अर्थात ठण्डक पड़ना, सकून मिलना। गरम दोपहरी में ठण्डा पानी मिल जाये तो ‘सेळि पड़गी’ या बच्चा देर से घर लौटे तो ‘अब पड़ी जिकुड़ा सेळि’ अक्सर कहा जाता है। सेळि में पाणी शब्द जुड़ने से ही यह सम्भवतः सेळ्वाणि बना होगा। हमारे गांव का सेळ्वाणि मेरे लिये केवल धारा या मंगरा नहीं था, बल्कि इसके साथ मेरी अनेक खट्टी मीठी यादें भी जुड़ी हैं।
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सेळ्वाणि सूख गया है। घर-घर में अब फ्रिज हैं, इसलिये शायद गांववालों को इसकी कमी नहीं अखरेगी। परन्तु इस तरह हमारे प्राकृतिक जलस्रोत सूख जाना चिन्ता का विषय तो है ही। खेती-बाड़ी से मोहभंग और पलायन का ही परिणाम है यह।