देहरादून शहर के उत्तर-पूरब में लगभग आठ किलोमीटर दूरी पर और ननूरखेड़ा, मंगलूवाला, बझेत, अस्थल व किरसाली गांव के मध्य साल के घने जंगल के बीच लगभग 850 मीटर पर स्थित यह दुर्ग नुमा क्षेत्र वास्तव में बहुत दुर्गम है। आज भले ही वहाँ तक सड़क बन गयी है परन्तु दो सौ साल पूर्व की स्थिति की कल्पना की जा सकती है। वीर गाथा प्रकाशन, विद्याभवन-दोगड़ा-गढ़वाल द्वारा प्रकाशित डॉ0 शिवप्रसाद डबराल की पुस्तक ‘गोरख्याणी’ में ‘खलंगा’ का अभिप्राय ‘सैन्य शिविर’ है। इतिहासकारों के अनुसार गोरखा शासन गढ़वाल, कुमाऊँ व सिरमौर राज्यों के लिये एक काला अध्याय है। गोरखा शासन के मात्र बारह साल के अल्पकाल में जो अत्याचार हुए वह सैकड़ों वर्ष के शासनकाल में मुगलों ने भी नहीं किया और न ही अंग्रेजों ने। प्रजा की दुर्दशा पर मोलाराम की कविता उस काल की साक्षी है।
‘मालक रहा न गढ़ मैं मुल्क षुवार हो गया।
साहेब गुलाम पाजी सब इकसार हो गया।
काजी करै न काज सित्मगार हो गया।
रैयत पै जुल्म जोर बिसियार हो गया।
क्या षूब श्रीनग्र था उजार हो गया।...........’
बहरहाल! इतिहास में इतना कुछ अंकित है कि पढकर रांेगटे खड़े हो जाते हैं।
खलंगा मेले में भ्रमण के दौरान एक मित्र का फोन आया। कहने लगे ‘यह तो गढ़वालियों के लिये गुलामी का प्रतीक है और गढ़वालियों को इसमें शामिल ही नहीं होना चाहिये।’ मैंने कहा कि ‘लाल किला, ताजमहल आदि ही नहीं संसद भवन, गेटवे ऑव इण्डिया आदि भी तो गुलामी के प्रतीक हैं। देहरादून में एफ. आर. आई. के भवन, सर्वे ऑव इण्डिया की व्यवस्था आदि भी तो गुलामी की प्रतीक है। तो क्या हमें उनसे भी
शहर से दूर होने के कारण मेले में ज्यादा भीड़ नहीं थी। मंच पर सांस्कृतिक कार्यक्रम सुबह ग्यारह बजे से देर तक चलते रहे। परन्तु दिन में ध्यान अक्सर भटक जाता है जिससे लोग इतना लुत्फ नहीं उठा पाये। मेले में सेलु रोटी, भुटवा, चना छोला, चोमिन, मोमो आदि खूब बिक रहा था। पहली बार मैंने भी लहसुन प्याज की चटनी के साथ सेलु रोटी खायी। मेला स्थल से लगभग तीन सौ मीटर ऊपर पहाड़ी पर बलभद्र खलंगा युद्ध स्मारक (1814) देखने भी गये। इतनी ऊँचाई से देहरादून का विंहगम दृश्य देखकर बहुत अच्छा लगा। सोचा यदि यह मेला तीन-चार दिन चलता तो परिवार सहित अवश्य आता। वायु ध्वनि प्रदूषण आदि से मुक्त इस घने जंगल के बीच में कुछ पल गुजारना किसे अच्छा नहीं लगेगा।