Thursday, February 16, 2012

नीलकंठ - जहाँ सम्भव है क्लेश व संताप से मुक्ति

महाशिव रात्रि पर्व पर विशेष -
गंगाजी, परमार्थ निकेतन व हिमालय- ऋषिकेश
             भारतवर्ष में सभी धर्मों, सभी समाजों में पौराणिक कथायें  व्यापक रूप में है. विशेषतः हिन्दू धर्म में. पुराणों व पौराणिक महाकाव्यों में विस्तार से कथाएं मिलती है. कथा है कि देवताओं और राक्षसों के में सदैव युद्ध चलते रहे. कभी किसी कारणवश और कभी किसी. शीर्ष देवताओं की सलाह पर उनके मध्य तय हुआ कि समुद्र मंथन किया जाय और मंथन से जो भी रत्न प्राप्त होंगे उन्हें समान रूप से आपस में बाँट दिया जायेगा. मंथन से चौदह रत्न प्राप्त हुए. जिसमे एक 'कालकूट' विषकलश भी था, हलाहल. उसके ताप से चारों दिशाओं में व्याकुलता फैलने लगी, त्राहि-त्राहि मचने लगी. निवारण हेतु सभी सुर-असुर भगवान ब्रह्मा व विष्णु के पास गए. उन्होंने भगवान शिव की उपासना करने को कहा. सरल ह्रदय और भक्तों की पुकार पर शीघ्र ही द्रवित होने वाले शिव प्रकट हुए और समस्त प्राणियों के हित को ध्यान में रखते हुए हलाहल को धारण किया. यद्यपि भगवान शंकर ने योगबल से उसे कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया किन्तु उसके प्रभाव से वे बेचैन हो उठे और विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया. तभी से भगवान शिव नीलकंठ कहे जाने लगे.

नीलकंठ क्षेत्र का विहंगम दृश्य
             विष के प्रभाव से बेचैन भगवान शिव शिवालिक पहाड़ियों की गोद में गंगा तट पर कुछ समय बिताने के बाद वे शांत व शीतल स्थान को खोजते हुए समीप स्थित मणिकूट पर्वत के निकट ही बरगद की छांव तले समाधिस्थ हो गए. (मणिकूट पर्वत को ही चन्द्रकूट के नाम से भी जाना जाता है ). मणिकूट, विष्णुकूट तथा ब्रह्मकूट के मूल में स्थित और मधुमती (मणिभद्रा) व पंकजा (चन्द्रभद्रा) नदियों का संगम होने के कारण यह क्षेत्र शीतलता प्रदान करने वाला है. उधर देवी सती ने व्याकुलता व उन्हें खोजने में चालीस हजार बरस बिता दिए. कैलाश पर्वत पर भी किसी को पता ही नहीं था कि भगवान शंकर कहाँ चले गए. ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देव व उनके परिजन उन्हें खोजने निकल पड़े. तब उन्हें ज्ञात हुआ कि शंकर इस शीतल व रमणीक  स्थल पर ध्यानस्थ होकर कालकूट विष की उष्णता को शांत कर रहे हैं. भगवान शिव के समाधिस्थल से अग्निकोण में पंकजा नदी के उद्गम स्थल के ऊपर बैठकर श्री सती भी तपस्या करने लगी. देवता लोग जब वहां पहुंचे तो जिस पर्वत पर श्री सती ध्यानस्थ थी ब्रह्मा जी उसके शीर्ष पर बैठे, दूसरे पर्वत के शीर्ष पर भगवान विष्णु और एक अन्य पर शेष देवता शिव की समाधि टूटने तक विराजमान रहे.
            श्री सती जहाँ पर साधनारत रही वह स्थल भुवनेश्वरी सिद्धपीठ के नाम से विख्यात हो गया, ब्रह्मा जी के विराजमान होने के कारण ब्रह्मकूट, विष्णु के विराजमान होने के कारण विष्णुकूट तथा तीसरा शिखर मणिकूट के नाम से जाना जाने लगा. श्री सती के बीस हजार वर्षों तक तपस्यारत रहने के बाद अर्थात साठ  हजार वर्षों बाद भगवान शिव की समाधि टूटी. तब समस्त देवताओं द्वारा विनती करने पर वे कैलाश धाम लौटे. जिस वटवृक्ष के मूल में समाधि लगाकर वे बैठे थे कालांतर में वे वहां पर स्वयंभू लिंग रूप में प्रकट हुए.
             ऋषिकेश में गंगा नदी के बाएं तट पर स्थित है स्वर्गाश्रम. गंगा हमारी संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक विरासत है. गंगा की महिमा सुन्दर ढंग से निम्न श्लोक में कही गयी  है. 
स्मृतार्तीनाशिनी गंगा नदीनां प्रवर मुने,   सर्वपापक्षय करी                     सर्वोपद्रवनाशिनी.
सर्वतीर्थाभिषेकाणि यानि पुण्यानि तानि वै, गंगा विन्द्वभिषेकस्य कलां नहिर्न्ति षोडशीम.   
नीलकंठ महादेव मंदिर
स्वर्गाश्रम के निकट अर्थात गंगा के पूरब की ओर जो पर्वत दिखाई देता है वह है मणिकूट पर्वत. जिसके पार्श्व भाग में द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक नीलकंठ महादेव जी विराजमान है. मणिकूट पर्वत का फैलाव गंगा नदी के समानान्तर उत्तर से दक्षिण की ओर है. रामझूला पुल पार कर स्वर्गाश्रम से पैदल ही धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ते हुए पर्वतशिखर की ओर बढ़ते हैं और लगभग एक किलोमीटर बाद चिल्लाह-कुनाव सड़क को सीधे पार करते है. रास्ता हलकी चढ़ाई वाला है व जंगल के बीच से होकर गुजरता है किन्तु जंगल का घनत्व काफी कम है. आगे पानी का एक छोटा सा नाला है. जिस पर नीलकंठ यात्री अपनी प्यास बुझाते हैं. डेढ़-दो किलोमीटर चलते रहने के बाद रास्ते की चढ़ाई कुछ तीखी हो जाती है. किन्तु पांच फीट चौड़ा व पक्का रास्ता होने तथा श्रद्धालुओं के निरंतर आवागमन के कारण चढ़ाई खलती नहीं है. अपितु घना व मिश्रित वन क्षेत्र होने के कारण हम प्रकृति का आनंद उठाते हुए चलते हैं. यह समस्त क्षेत्र हाथी बाहुल्य राजा जी नेशनल पार्क के भीतर है जिससे हाथियों की उपस्थिति काफी ऊपर के जंगलों में भी देखी जा सकती है. जो कि सुरक्षा की लिहाज से चिंताजनक है. लगभग दो-ढाई किलोमीटर चढ़ते रहने के बाद एक जल स्रोत पड़ता है. तेज चढ़ाई पर चढ़ते हुए हम लंगूर, बंदरों व तरह-तरह के पक्षियों की आवाजें सुनते हुए चार-साढ़े चार किलोमीटर बाद पानी की टंकी तक पहुँचते हैं, जहाँ पर एक चाय की दुकान भी है. यहाँ पर सुस्ताने व चाय पीने के बाद मै व साथी बालम सिंह राणा आगे बढ़ जाते हैं. ढाई-तीन सौ मीटर चलने के बाद चढ़ाई वाला मार्ग समाप्त हो जाता है और प्रारंभ होती है पुण्डरासु गाँव के असिंचित खेतों की श्रृंखला. समुद्रतल से लगभग 3750  फीट ऊँचाई पर स्थित इस बिंदु से यदि हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो ऋषिकेश व गंगाजी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है और दूर जौलीग्रांट एयरपोर्ट और देहरादून का कुछ हिस्सा. काश ! हम पैराग्लाईडर होते.    
साथी बालम सिंह राणा व मै
पूरब की ओर मुंह कर खड़े होते हैं तो बायीं ओर मणिकूट, दायीं ओर विष्णुकूट और सामने ब्रह्मकूट और ठीक उसके नीचे भुवनेश्वरी सिद्धपीठ.  कुछ आगे बढ़कर नीलकंठ महादेव जी के दर्शन होते हैं. आह, कितना सुन्दर वर्णन ग्रंथों में मिलता है;
मणिकूटस्थ मूसेतु पित्वातै कालकूटकम,
स्थितः श्री नीलकंठो$सौ भक्तः कल्याण कारकः. 
 श्रृद्धालु भोले बाबा की जय का उद्घोष करने लगते हैं. डेढ़ किलोमीटर की उतराई पर चलने के बाद हम बाबा के दर्शन करते हैं. मंदिर में शिवलिंग पर जल व बेलपत्री चढाने के बाद दूसरी ओर से बाहर निकलते हैं. धूप-अगरबत्ती के लिए बाहर ही तख्ती है. मंदिर से कुछ सीढियां चढ़ने के बाद एक कक्ष में साधू बाबा जलते हवनकुंड से हमें भभूत देते हैं. यह मंदिर हरिद्वार दक्ष मंदिर समिति के अधीन है. पुजारियों की नियुक्ति और मंदिर की व्यवस्था वे ही देखते हैं. ऋषिकेश, हरिद्वार के निकट होने के कारण यहाँ साल भर भक्तों का तांता लगा ही रहता है. किन्तु मुख्य मेला महाशिवरात्रि को संपन्न होता है जिसमे देश-विदेश के लाखों श्रृद्धालु दर्शनार्थ आते हैं. इसके अतिरिक्त सावन व माघ माह के प्रत्येक सोमवार को भी बड़ी संख्या में भक्त पहुँचते हैं. अब मंदिर तक सड़क होने के कारण भक्तों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुयी है. सड़क स्वर्गाश्रम से कुछ दूर गंगा की विपरीत दिशा में बाएं तट पर होते हुए गरुड़ चट्टी, फूल चट्टी के बाद फिर ह्यून्ल नदी के किनारे किनारे बढ़ने के बाद ऊपर चढ़ती है. पंद्रह-सोलह किलोमीटर का यह मार्ग अत्यंत रमणीकता लिए हुए है.



             राजनितिक दृष्टि से मंदिर व यह क्षेत्र जनपद पौड़ी गढ़वाल में तहसील व विकासखंड यमकेश्वर के उदयपुर तल्ला पट्टी की पुण्डरासु गाँव में है. व समीपस्थ गाँव आमसौड़, तोली, मराल व भाद्सी आदि हैं. यहाँ पर मराल डाकखाने के अतिरिक्त छोटा सा बाजार, एक थाना व इण्टर कालेज है. मंदिर के चारों ओर काफी रिहाईशी मकान है, जिनमे बड़ी संख्या में श्रृद्धालु मेले के दौरान रुकते हैं. मंदिर के लिए ऋषिकेश (पशुलोक बैराज) से एक रज्जू मार्ग प्रस्तावित तो है किन्तु कब बनेगा पता नहीं. यह भी सोचनीय है कि बद्रीनाथ धाम में मंदिर के चारों ओर जिस प्रकार बेतरतीब मकान बन गए हैं, आबादी बस गयी है उसकी छाया यहाँ पर भी दिखती है.  परन्तु नीलकंठ महादेव जी के दर्शनों से जो तृप्ति व आनंद प्राप्त होता है उसे महसूस कर हम आदि शंकराचार्य जी का यह ब्रह्मवाक्य दुहरा सकते हैं; " ब्रह्म सत्यम जगतमिथ्या "       


       

5 comments:

  1. गंगाजी, परमार्थ निकेतन व हिमालय- ऋषिकेश, नीलकंठ क्षेत्र और नीलकंठ महादेव मंदिर के सुन्दर मनमोहक तस्वीर के साथ सुन्दर यात्रा वर्णन देखकर मन को बहुत अच्छा लगा...अभी तक जा तो नहीं पाए लेकिन आपके इस संस्मरण से लगा हमें भी दर्शन दे गए भोलेनाथ...
    सुन्दर प्रस्तुति हेतु आभार!

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