यात्रा संस्मरण (पिछले अंक से जारी.....)
प्रताप यह भली भांति जानते थे कि अकबर यद्यपि पश्चिमोत्तर सीमा विवाद में बुरी तरह उलझ गया है किन्तु वापस लौटने पर वह एक बार फिर मेवाड़ पराजय का कलंक मिटाना चाहेगा. अतः प्रताप ने मुग़ल शासित उन क्षेत्रों को नहीं छेड़ा जो पहले से ही मुगलों के अधीन थे. मालवा व गुजरात के मार्गों से गुजरने वाले यात्रियों को स्वतंत्र रूप से जाने दिया. मेवाड़ की आर्थिक समृद्धि के लिए कृषि, व्यापार व उद्योग को बढ़ावा देने की दिशा में तेजी से प्रयास किये जाने लगे. दूसरी ओर प्रताप मेवाड़ का सम्पूर्ण पश्चिमी भाग, सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र तथा चित्तौड़गढ़ व माण्डलगढ़ के अतिरिक्त पूरा पूर्वी भाग भी मुगलों से युद्ध कर वापस लेने में सफल रहे. मुगलों के अधीन 36 थानों में से 32 पर पुनः अपना कब्ज़ा करने में सफल रहे. थानों पर तैनात मुसलमान या तो मार दिए गए या वे स्वतः ही जान बचाकर भाग गए. मेवाड़ पर मान सिंह व जगन्नाथ कछ्वावा द्वारा आक्रमण से व्यथित होकर प्रताप ने बदला लेने के लिए अम्बेर पर चढ़ाई कर दी तथा उनके समृद्ध व संपन्न नगर मालपुरे को तहस-नहस कर डाला.
प्रताप द्वारा मेवाड़ पर पुनः आधिपत्य की सूचना अकबर को जब मिली तो सन 1586 में करौली के राजा गोपालदास जादव को अजमेर का सूबेदार तैनात कर दिया. तथा सन 1590 में जादव की मृत्यु के उपरांत सन 1594 में शिरोजखान को सूबेदार बनाया गया. किन्तु प्रताप की वीरता से भयभीत होकर या अन्य किसी कारण से इन सूबेदारों द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण नहीं किया गया. अपितु यह कहा जाता है कि प्रताप के जीते जी फिर मेवाड़ पर कोई आक्रमण नहीं हुआ. तथापि अतीत को देखते हुए सुरक्षा की दृष्टि से प्रताप ने ऊंचे पर्वतों व घने जंगलों से घिरे चावण्ड गाँव को नयी राजधानी बनाया(जो कि सन 1615 तक मेवाड़ की राजधानी बनी रही). चावण्ड में राणा द्वारा छोटे-छोटे महल व माँ चामुंडा का एक मन्दिर भी बनवाया गया. सम्पूर्ण राज्य की समृद्धि के लिए राणा ने अथक प्रयास किये. युद्ध के समय साथ देने वाले छोटे छोटे शासकों को बड़ी बड़ी जागीरें भेंट की गयी.उन्हें सुरक्षा पर्दान की गयी. और लम्बे युद्ध की विभीषिका से बाहर निकल कर मेवाड़ एक बार फिर संपन्न राज्यों में शुमार हो गया. अन्न धन के भण्डार भरने लगे और घी-दूध की नदियां बहने लगी.
किन्तु विधि का विधान देखिये कि जो प्रताप लगभग सत्रह वर्षों तक मुगलों की बड़ी से बड़ी सेना के खिलाफ निरंतर युद्ध करता रहा, घायल होने पर भी नेतृत्व करने से पीछे नहीं हटा, कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी. वही प्रताप एक बार शिकार खेलते समय कमान जोर से खींचते के कारण घायल हो गए और शय्या पकड़ ली. जिसके चलते 19 जनवरी 1597 को मात्र 57 वर्ष की आयु में चावण्ड में मृत्यु को प्राप्त हो गए. चावण्ड के निकट बन्दोली गाँव के नाले के तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. जहाँ पर संगमरमर पत्थरों से आठ खम्बे वाली एक छतरी बनी हुयी है.
प्रताप की मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर खुश होने की बजाय उदास हो गया. "वीर विनोद" पुस्तक के अनुसार उस दौरान एक चारण 'दुरसा आढ़ा' एक स्वरचित 'छप्पय' खूब गाया करता था. अकबर ने जब सुना तो चारण को बुलवाया गया. चारण भय से कांपते कांपते सम्राट अकबर के पास पहुंचा कि शत्रुओं के प्रशंसा गीत गाने पर दंड अवश्य मिलेगा. किन्तु अकबर ने पूरा छप्पय सुनकर उसे ईनाम दिया तो चारण चकित रह गया. छप्पय इस प्रकार था,
"अश लेगो अण दाग, पाघ लेगो अण नामी.
गो आड़ा गबडाय जिको बहतो धुर बामी.
नब रोजे नह गयो, नागो आतशा नवल्ली.
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली........."
अर्थात जिसने अपने घोड़ों को दाग नहीं लगवाया,(तब परम्परा थी कि पराजित होने पर जो घोड़ा शत्रुओं के हाथ पड़ जाता था उसके पुट्ठों पर दाग लगाया जाता था) किसी के सामने अपनी पगड़ी नहीं झुकाई, आड़ा(वीरगाथा) गवाता चला गया, नरोज (नववर्ष की भांति नौ ऱोज तक चलने वाला त्यौहार) के जलसे में नहीं गया, शाही डेरों में नहीं गया, दुनिया जिसका मानकरती थी ......ऐसा प्रताप चला गया"
यह भी हकीकत है कि चारणों ने ही भूतकाल को जीवित रखा. चारण गीतों में राजाओं - महाराजाओं के अनेक किस्से मिलते हैं. चारणों की वीरगाथाओं में ही यह भी मिलता है कि निरंतर युद्ध पर युद्ध और हार पर हार से प्रताप तिलमिला गए थे. हर वक्त डर रहता था कि वे या उनके परिवार का कोई सदस्य कहीं मुगलों के हाथ न पड़ जाये. मेवाड़ के राज परिवार के सदस्य कभी पर्वतों की गुफाओं में पत्थरों पर सोकर रातें गुजारते तो कभी पेड़ों पर बैठे-बैठे दिन काटते थे. जंगली फलों पर गुजारा करते थे. कई बार शत्रुओं से बचने के लिए मामूली भोजन छोड़कर भी भागना पड़ा. केवल इस संकल्प के लिए कि तुर्कों के सामने सिर नहीं झुकायेंगे. किन्तु एक बार उनकी प्रतिज्ञा टूटने लगी, वे झुकने लगे. हुआ यह कि महारानी और युवरानी ने घास के बीज के आटे से रोटी बनाई थी. बच्चों को एक-एक रोटी दी गयी कि वे आधी अभी खा लें और आधी बाद में. प्रताप किनारे बैठे किसी गहन सोच में थे कि उनकी पौत्री की दारुण पुकार उन्हें सुनाई दी. वास्तव में एक जंगली बिल्ली उसके हिस्से की रोटी झपटा मारकर ले गयी थी. महाराणा तिलमिला गए. एक घास की रोटी के लिए राज परिवार की कन्या की ह्रदयभेदी चीत्कार. युद्ध भूमि में अपने सगे क्या अपने पुत्र के वीरगति प्राप्त करने पर भी जो प्रताप कभी विचलित न हुआ हो एक छोटी सी राजकुमारी के दर्द से विचलित हो गए, उनकी आँखों में आंसू आ गए. उन्होंने तुरन्त अकबर को संधि पत्र लिखा.
अकबर पत्र पाकर बहुत खुश हुआ. वह पत्र बीकानेर के राजा के भाई पृथ्वीराज को दिखाया जो अकबर के दरबार में राजकवि था. पृथ्वीराज राजपूतों की आखरी आशा और वीर महाराणा की वह चिट्ठी देखकर अत्यंत दुखी हुए. किन्तु प्रत्यक्ष में ढोंग करने लगे कि 'मुझे विश्वास नहीं कि यह चिट्ठी प्रताप की है. मुग़ल साम्राज्य मिलने पर भी प्रताप कभी सिर नहीं झुकाएगा. मै स्वयं ही पता कर लेता हूँ.' पृथ्वीराज महान कवि थे, अतः घुमा फिराकर यह पत्र लिखा;
अकबर समद अथाह, तिहं डूबा हिन्दू तुसक.
मेवाड़ तिड़ माँह, पोयण फूल प्रताप सी.
अकबरिये इकबार, दागल की सारी दुनी,
अण दागल-असवार, चेतक राणा प्रताप सी.
अकबर घोर अंधार, उषीणा हिन्दू अबर,
जागै जगदातार, पोहरे राण प्रताप सी.
हिन्दुपति परताप, पत राखी हिन्दू आण री,
सहो विपत संताप, सत्य सपथ करि आपनी.
चंपा चितोड़ हा, पोरसतणो प्रताप गीं,
सौरभ अकबरशाह, अलि यल आमरिया नहीं.
पातल जो पतशाह, बोले मुखऊ तो बयण.
मीहर पछिम दिश माँह, उगै कासप रावत.
पटके मुद्दां पाया, कि पटकूं निज कर तलद.
दीजै लिख दीवाण, इन दो महली बात इक.
अर्थात अकबर रुपी समुद्र में हिन्दू तुर्क डूब गए हैं, किन्तु मेवाड़ के राणा प्रताप उसमे कमल की तरह खिले हुए हैं. अकबर ने सबको पराजित किया किन्तु चेतक घोड़े पर सवार प्रताप अभी अपराजित हैं. अकबर के अँधेरे में सब हिन्दू ढक गए हैं किन्तु दुनिया का दाता राणा प्रताप अभी उजाले में खड़ा है. हे हिन्दुओं के राजा प्रताप ! हिन्दुओं की लाज रख. अपनी प्रतिज्ञा के पूर्ण होने के लिए कष्ट सहो. चित्तौड़ चंपा का फूल है और प्रताप उसकी सुगंध. अकबर उस पर बैठ नहीं सकता. यदि प्रताप अकबर को अपना बादशाह माने तो भगवान कश्यप का पुत्र सूरज पश्चिम में उदय होगा. हे एकलिंग महादेव के पुजारी प्रताप ! यह लिख दो कि मै वीर बनके रहूँगा या तलवार से अपने को काट डालूँगा.
पृथ्वीराज की इस कविता ने दस हजार सैनिकों का काम किया और प्रताप ने उत्तर में यह लिख भेजा.
तुरुक कहाँ सो मुख पतों, इन तणसुं इकलिंग,
उसै जासु ऊगसी, प्राची बीच पतंग.
अर्थात भगवान एकलिंग जी के नाम से सौगंध खाता हूँ कि मै हमेशा अकबर को तुर्क के नाम से ही पुकारूँगा. जिस दिशा में सूरज हमेशा से उगता आया है वह उसी दिशा में उगता रहेगा. वीर पृथ्वीराज ! सहर्ष मूंछों पर ताव दो, प्रताप की तलवार यवनों के सिरों पर ही होगी.
ओझा आदि विद्वानों ने इसे कपोलकल्पना मात्र माना है. उत्तर में कुम्भल गढ़ से दक्षिण ऋषभदेव की सीमा तक लगभग 90 मील और देबारी से सिरोही तक लगभग 70 मील चौड़ा क्षेत्र सदैव ही राणा के अधिकार में रहा. जिससे कभी खाद्यान की कमी नहीं रही. फिर इस क्षेत्र में फल फूल पर्याप्त मात्रा में थे. सैकड़ों गाँव आबाद थे इसलिए खेती भी ठीक ठाक होती थी.इस पूरे पहाड़ी क्षेत्र को घेरने के लिए लाखों सैनिकों की आवश्यकता होती. हजारों वीर व स्वामिभक्त भील दुश्मन की सेना की चालीस पचास मील तक की हरकत कुछ ही समय में राणा तक पहुंचा देते थे.और राणा योजना बनाकर शत्रुओं का संहार करता था. जिसके कारण बीहड़ प्रदेश में घुसने की की हिम्मत मुगलों ने कभी नहीं की. फिर राणा के पास अकूत सम्पति थी. जिससे वे राज परिवार का ही नहीं अपने सैनिकों व उनके परिवार का भरण पोषण करते थे. भामाशाह एक चतुर व कुशल मंत्री थे. उन्होंने खजाना सुरक्षित स्थान पर रखा था और आवश्यकता अनुसार प्रताप को देते थे. उदयपुर की क्यात और महाराणा की वंशावली से ज्ञात होता है कि राणा की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावत, पंद्रह हजार अश्वारोही, एक सौ हाथी और बीस हजार पैदल थे. अतः इतनी बड़ी सेना का भरण पोषण साधारण खजाने से नहीं हो सकता था. परन्तु पृथ्वीराज और प्रताप के बीच संवाद को पूर्णतया ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता. पृथ्वीराज और प्रताप मौसेरे भाई थे. सम्भव हो अकबर इस बात को जानता हो और अकबर ने ही पृथ्वीराज से पत्र लिखवाया हो कि प्रताप संधि कर ले. किन्तु राजपूताना के प्रति असीम प्रेमवश पृथ्वीराज ने प्रताप से मेवाड़ की रक्षा का वचन ले लिया.
वास्तविकता जो भी हो किन्तु यह सत्य है कि इन किवदंतियों ने राजस्थान में राजपूत धर्म की परम्परा अक्षुण बनाये रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. प्रताप के बारे में जेम्स टाड ने लिखा है कि चित्तौड़ पर से अधिकार समाप्त होने पर प्रताप ने प्रतिज्ञा ली थी कि- 'जब तक चित्तौड़ वापस नहीं ले लेंगे मै और मेरे वंशज सोने चान्दी के वर्तनों पर नहीं पत्तलों पर भोजन करेंगे, घास के बिस्तरों पर सोयेंगे, दाढ़ी नहीं बनायेंगे और नगाड़ा सेना के पीछे बजायेंगे. कमोवेश यह परम्परा आज भी निभाई जाती है. परन्तु यह कथन भी कितना सत्य है कहा नहीं जा सकता.
जो भी हो प्रताप आज साढ़े चार सौ साल बाद भी मेवाड़ ही नहीं पूरे राजस्थान अपितु पूरे हिंदुस्तान में प्रातः स्मरणीय है, पूज्य है, उनकी वीरता के किस्से लोग बड़े गर्व से बयां करते हैं, बड़े चाव से सुनते हैं. उनके नाम पर सौगंध ली जाती है.
--समाप्त------
(सामग्री स्रोत साभार-Manorama Yearbook1988 & 2009, युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar &Welcome to Rajsthan- Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा-देवेश दास आदि पुस्तक)
प्रताप यह भली भांति जानते थे कि अकबर यद्यपि पश्चिमोत्तर सीमा विवाद में बुरी तरह उलझ गया है किन्तु वापस लौटने पर वह एक बार फिर मेवाड़ पराजय का कलंक मिटाना चाहेगा. अतः प्रताप ने मुग़ल शासित उन क्षेत्रों को नहीं छेड़ा जो पहले से ही मुगलों के अधीन थे. मालवा व गुजरात के मार्गों से गुजरने वाले यात्रियों को स्वतंत्र रूप से जाने दिया. मेवाड़ की आर्थिक समृद्धि के लिए कृषि, व्यापार व उद्योग को बढ़ावा देने की दिशा में तेजी से प्रयास किये जाने लगे. दूसरी ओर प्रताप मेवाड़ का सम्पूर्ण पश्चिमी भाग, सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र तथा चित्तौड़गढ़ व माण्डलगढ़ के अतिरिक्त पूरा पूर्वी भाग भी मुगलों से युद्ध कर वापस लेने में सफल रहे. मुगलों के अधीन 36 थानों में से 32 पर पुनः अपना कब्ज़ा करने में सफल रहे. थानों पर तैनात मुसलमान या तो मार दिए गए या वे स्वतः ही जान बचाकर भाग गए. मेवाड़ पर मान सिंह व जगन्नाथ कछ्वावा द्वारा आक्रमण से व्यथित होकर प्रताप ने बदला लेने के लिए अम्बेर पर चढ़ाई कर दी तथा उनके समृद्ध व संपन्न नगर मालपुरे को तहस-नहस कर डाला.
प्रताप द्वारा मेवाड़ पर पुनः आधिपत्य की सूचना अकबर को जब मिली तो सन 1586 में करौली के राजा गोपालदास जादव को अजमेर का सूबेदार तैनात कर दिया. तथा सन 1590 में जादव की मृत्यु के उपरांत सन 1594 में शिरोजखान को सूबेदार बनाया गया. किन्तु प्रताप की वीरता से भयभीत होकर या अन्य किसी कारण से इन सूबेदारों द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण नहीं किया गया. अपितु यह कहा जाता है कि प्रताप के जीते जी फिर मेवाड़ पर कोई आक्रमण नहीं हुआ. तथापि अतीत को देखते हुए सुरक्षा की दृष्टि से प्रताप ने ऊंचे पर्वतों व घने जंगलों से घिरे चावण्ड गाँव को नयी राजधानी बनाया(जो कि सन 1615 तक मेवाड़ की राजधानी बनी रही). चावण्ड में राणा द्वारा छोटे-छोटे महल व माँ चामुंडा का एक मन्दिर भी बनवाया गया. सम्पूर्ण राज्य की समृद्धि के लिए राणा ने अथक प्रयास किये. युद्ध के समय साथ देने वाले छोटे छोटे शासकों को बड़ी बड़ी जागीरें भेंट की गयी.उन्हें सुरक्षा पर्दान की गयी. और लम्बे युद्ध की विभीषिका से बाहर निकल कर मेवाड़ एक बार फिर संपन्न राज्यों में शुमार हो गया. अन्न धन के भण्डार भरने लगे और घी-दूध की नदियां बहने लगी.
किन्तु विधि का विधान देखिये कि जो प्रताप लगभग सत्रह वर्षों तक मुगलों की बड़ी से बड़ी सेना के खिलाफ निरंतर युद्ध करता रहा, घायल होने पर भी नेतृत्व करने से पीछे नहीं हटा, कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी. वही प्रताप एक बार शिकार खेलते समय कमान जोर से खींचते के कारण घायल हो गए और शय्या पकड़ ली. जिसके चलते 19 जनवरी 1597 को मात्र 57 वर्ष की आयु में चावण्ड में मृत्यु को प्राप्त हो गए. चावण्ड के निकट बन्दोली गाँव के नाले के तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. जहाँ पर संगमरमर पत्थरों से आठ खम्बे वाली एक छतरी बनी हुयी है.
प्रताप की मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर खुश होने की बजाय उदास हो गया. "वीर विनोद" पुस्तक के अनुसार उस दौरान एक चारण 'दुरसा आढ़ा' एक स्वरचित 'छप्पय' खूब गाया करता था. अकबर ने जब सुना तो चारण को बुलवाया गया. चारण भय से कांपते कांपते सम्राट अकबर के पास पहुंचा कि शत्रुओं के प्रशंसा गीत गाने पर दंड अवश्य मिलेगा. किन्तु अकबर ने पूरा छप्पय सुनकर उसे ईनाम दिया तो चारण चकित रह गया. छप्पय इस प्रकार था,
"अश लेगो अण दाग, पाघ लेगो अण नामी.
गो आड़ा गबडाय जिको बहतो धुर बामी.
नब रोजे नह गयो, नागो आतशा नवल्ली.
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली........."
अर्थात जिसने अपने घोड़ों को दाग नहीं लगवाया,(तब परम्परा थी कि पराजित होने पर जो घोड़ा शत्रुओं के हाथ पड़ जाता था उसके पुट्ठों पर दाग लगाया जाता था) किसी के सामने अपनी पगड़ी नहीं झुकाई, आड़ा(वीरगाथा) गवाता चला गया, नरोज (नववर्ष की भांति नौ ऱोज तक चलने वाला त्यौहार) के जलसे में नहीं गया, शाही डेरों में नहीं गया, दुनिया जिसका मानकरती थी ......ऐसा प्रताप चला गया"
यह भी हकीकत है कि चारणों ने ही भूतकाल को जीवित रखा. चारण गीतों में राजाओं - महाराजाओं के अनेक किस्से मिलते हैं. चारणों की वीरगाथाओं में ही यह भी मिलता है कि निरंतर युद्ध पर युद्ध और हार पर हार से प्रताप तिलमिला गए थे. हर वक्त डर रहता था कि वे या उनके परिवार का कोई सदस्य कहीं मुगलों के हाथ न पड़ जाये. मेवाड़ के राज परिवार के सदस्य कभी पर्वतों की गुफाओं में पत्थरों पर सोकर रातें गुजारते तो कभी पेड़ों पर बैठे-बैठे दिन काटते थे. जंगली फलों पर गुजारा करते थे. कई बार शत्रुओं से बचने के लिए मामूली भोजन छोड़कर भी भागना पड़ा. केवल इस संकल्प के लिए कि तुर्कों के सामने सिर नहीं झुकायेंगे. किन्तु एक बार उनकी प्रतिज्ञा टूटने लगी, वे झुकने लगे. हुआ यह कि महारानी और युवरानी ने घास के बीज के आटे से रोटी बनाई थी. बच्चों को एक-एक रोटी दी गयी कि वे आधी अभी खा लें और आधी बाद में. प्रताप किनारे बैठे किसी गहन सोच में थे कि उनकी पौत्री की दारुण पुकार उन्हें सुनाई दी. वास्तव में एक जंगली बिल्ली उसके हिस्से की रोटी झपटा मारकर ले गयी थी. महाराणा तिलमिला गए. एक घास की रोटी के लिए राज परिवार की कन्या की ह्रदयभेदी चीत्कार. युद्ध भूमि में अपने सगे क्या अपने पुत्र के वीरगति प्राप्त करने पर भी जो प्रताप कभी विचलित न हुआ हो एक छोटी सी राजकुमारी के दर्द से विचलित हो गए, उनकी आँखों में आंसू आ गए. उन्होंने तुरन्त अकबर को संधि पत्र लिखा.
अकबर पत्र पाकर बहुत खुश हुआ. वह पत्र बीकानेर के राजा के भाई पृथ्वीराज को दिखाया जो अकबर के दरबार में राजकवि था. पृथ्वीराज राजपूतों की आखरी आशा और वीर महाराणा की वह चिट्ठी देखकर अत्यंत दुखी हुए. किन्तु प्रत्यक्ष में ढोंग करने लगे कि 'मुझे विश्वास नहीं कि यह चिट्ठी प्रताप की है. मुग़ल साम्राज्य मिलने पर भी प्रताप कभी सिर नहीं झुकाएगा. मै स्वयं ही पता कर लेता हूँ.' पृथ्वीराज महान कवि थे, अतः घुमा फिराकर यह पत्र लिखा;
अकबर समद अथाह, तिहं डूबा हिन्दू तुसक.
मेवाड़ तिड़ माँह, पोयण फूल प्रताप सी.
अकबरिये इकबार, दागल की सारी दुनी,
अण दागल-असवार, चेतक राणा प्रताप सी.
अकबर घोर अंधार, उषीणा हिन्दू अबर,
जागै जगदातार, पोहरे राण प्रताप सी.
हिन्दुपति परताप, पत राखी हिन्दू आण री,
सहो विपत संताप, सत्य सपथ करि आपनी.
चंपा चितोड़ हा, पोरसतणो प्रताप गीं,
सौरभ अकबरशाह, अलि यल आमरिया नहीं.
पातल जो पतशाह, बोले मुखऊ तो बयण.
मीहर पछिम दिश माँह, उगै कासप रावत.
पटके मुद्दां पाया, कि पटकूं निज कर तलद.
दीजै लिख दीवाण, इन दो महली बात इक.
अर्थात अकबर रुपी समुद्र में हिन्दू तुर्क डूब गए हैं, किन्तु मेवाड़ के राणा प्रताप उसमे कमल की तरह खिले हुए हैं. अकबर ने सबको पराजित किया किन्तु चेतक घोड़े पर सवार प्रताप अभी अपराजित हैं. अकबर के अँधेरे में सब हिन्दू ढक गए हैं किन्तु दुनिया का दाता राणा प्रताप अभी उजाले में खड़ा है. हे हिन्दुओं के राजा प्रताप ! हिन्दुओं की लाज रख. अपनी प्रतिज्ञा के पूर्ण होने के लिए कष्ट सहो. चित्तौड़ चंपा का फूल है और प्रताप उसकी सुगंध. अकबर उस पर बैठ नहीं सकता. यदि प्रताप अकबर को अपना बादशाह माने तो भगवान कश्यप का पुत्र सूरज पश्चिम में उदय होगा. हे एकलिंग महादेव के पुजारी प्रताप ! यह लिख दो कि मै वीर बनके रहूँगा या तलवार से अपने को काट डालूँगा.
पृथ्वीराज की इस कविता ने दस हजार सैनिकों का काम किया और प्रताप ने उत्तर में यह लिख भेजा.
तुरुक कहाँ सो मुख पतों, इन तणसुं इकलिंग,
उसै जासु ऊगसी, प्राची बीच पतंग.
अर्थात भगवान एकलिंग जी के नाम से सौगंध खाता हूँ कि मै हमेशा अकबर को तुर्क के नाम से ही पुकारूँगा. जिस दिशा में सूरज हमेशा से उगता आया है वह उसी दिशा में उगता रहेगा. वीर पृथ्वीराज ! सहर्ष मूंछों पर ताव दो, प्रताप की तलवार यवनों के सिरों पर ही होगी.
ओझा आदि विद्वानों ने इसे कपोलकल्पना मात्र माना है. उत्तर में कुम्भल गढ़ से दक्षिण ऋषभदेव की सीमा तक लगभग 90 मील और देबारी से सिरोही तक लगभग 70 मील चौड़ा क्षेत्र सदैव ही राणा के अधिकार में रहा. जिससे कभी खाद्यान की कमी नहीं रही. फिर इस क्षेत्र में फल फूल पर्याप्त मात्रा में थे. सैकड़ों गाँव आबाद थे इसलिए खेती भी ठीक ठाक होती थी.इस पूरे पहाड़ी क्षेत्र को घेरने के लिए लाखों सैनिकों की आवश्यकता होती. हजारों वीर व स्वामिभक्त भील दुश्मन की सेना की चालीस पचास मील तक की हरकत कुछ ही समय में राणा तक पहुंचा देते थे.और राणा योजना बनाकर शत्रुओं का संहार करता था. जिसके कारण बीहड़ प्रदेश में घुसने की की हिम्मत मुगलों ने कभी नहीं की. फिर राणा के पास अकूत सम्पति थी. जिससे वे राज परिवार का ही नहीं अपने सैनिकों व उनके परिवार का भरण पोषण करते थे. भामाशाह एक चतुर व कुशल मंत्री थे. उन्होंने खजाना सुरक्षित स्थान पर रखा था और आवश्यकता अनुसार प्रताप को देते थे. उदयपुर की क्यात और महाराणा की वंशावली से ज्ञात होता है कि राणा की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावत, पंद्रह हजार अश्वारोही, एक सौ हाथी और बीस हजार पैदल थे. अतः इतनी बड़ी सेना का भरण पोषण साधारण खजाने से नहीं हो सकता था. परन्तु पृथ्वीराज और प्रताप के बीच संवाद को पूर्णतया ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता. पृथ्वीराज और प्रताप मौसेरे भाई थे. सम्भव हो अकबर इस बात को जानता हो और अकबर ने ही पृथ्वीराज से पत्र लिखवाया हो कि प्रताप संधि कर ले. किन्तु राजपूताना के प्रति असीम प्रेमवश पृथ्वीराज ने प्रताप से मेवाड़ की रक्षा का वचन ले लिया.
वास्तविकता जो भी हो किन्तु यह सत्य है कि इन किवदंतियों ने राजस्थान में राजपूत धर्म की परम्परा अक्षुण बनाये रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. प्रताप के बारे में जेम्स टाड ने लिखा है कि चित्तौड़ पर से अधिकार समाप्त होने पर प्रताप ने प्रतिज्ञा ली थी कि- 'जब तक चित्तौड़ वापस नहीं ले लेंगे मै और मेरे वंशज सोने चान्दी के वर्तनों पर नहीं पत्तलों पर भोजन करेंगे, घास के बिस्तरों पर सोयेंगे, दाढ़ी नहीं बनायेंगे और नगाड़ा सेना के पीछे बजायेंगे. कमोवेश यह परम्परा आज भी निभाई जाती है. परन्तु यह कथन भी कितना सत्य है कहा नहीं जा सकता.
जो भी हो प्रताप आज साढ़े चार सौ साल बाद भी मेवाड़ ही नहीं पूरे राजस्थान अपितु पूरे हिंदुस्तान में प्रातः स्मरणीय है, पूज्य है, उनकी वीरता के किस्से लोग बड़े गर्व से बयां करते हैं, बड़े चाव से सुनते हैं. उनके नाम पर सौगंध ली जाती है.
--समाप्त------
(सामग्री स्रोत साभार-Manorama Yearbook1988 & 2009, युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar &Welcome to Rajsthan- Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा-देवेश दास आदि पुस्तक)
Good and Marvalous. Keep it up.
ReplyDeleteThanx. for commments.
Deleteइस श्रेष्ठ आलेख के लिए आपको कोटिशः नमन। इसे पढ़कर रगों में लहू ऊर्जा से भरकर दौड़ने लगा। नत मस्तक हूँ शूरवीर, पराक्रमी महाराणा प्रताप जैसे हस्ती के आगे।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया पोस्ट ....संग्रह करने योग्य ...!!
ReplyDeleteआभार आपको इस पोस्ट के लिये ...!!
A fascinating discussion is worth comment. I think that you need to publish
ReplyDeletemore on this topic, it might not be a taboo matter but generally people
do not discuss these topics. To the next! Many thanks!
!
Also visit my site : online dating
Undeniably believe that that you said. Your favorite justification seemed
ReplyDeleteto be at the web the easiest thing to be aware of.
I say to you, I definitely get irked at the same time as folks consider worries that they plainly don't recognise about.
You managed to hit the nail upon the highest as smartly as defined out the entire thing with no need side-effects ,
other folks can take a signal. Will probably be again to get more.
Thanks
Here is my weblog - free music downloads