Monday, June 11, 2012

अधूरी जात्रा

               जीवन गुजर ही रहा था यूं ही तुम्हारे बिना, तुम्हारी दूसरी छुट्टी की प्रतीक्षा में. चिट्ठी का इंतजार रहता. नजर लगी रहती  पोस्ट ऑफिस से घर तक आने वाली उस संकरी, घुमावदार व चढ़ाई वाली पगडण्डी पर, एकटक. तुम्हारी वो बातें, वो शरारतें अक्सर याद आती तब और
अब. अब सिर्फ तुम. बस तुम ही ! जब शहीद हो गए तुम लाम पर. तब तुम्हारी शिकायत रहती थी मेरे से और अब मेरी....... नहीं, मै अब शिकायत क्यों जो करूं तुम से. तुम जो मेरे होते मेरे पास ही रहते और मै जो तुम्हारी होती तो तुम अकेले ही क्यों जाते.
             तुम्हें उलाहना नहीं दे रही हूँ. वह जो छाती पर सिल (पत्थर) रखा है न, उसे ही घड़ी-दो-घड़ी के लिए नीचे रखना चाहती हूँ. बस! गाँव से जात्रा जाती है कुंजा देवी के लिए. हर बरस  परम्परा वही, जात्रा वही, रास्ता वही पर उत्साह, उल्लास नया. ढोल नगाड़े के साथ रंग विरंगे परिधानों में सजे गाँव के लोग और नयी चुनरी नए श्रृंगार के साथ कहारों के कंधे पर इतराती इठलाती देवी की डोली. कुंजाधार पर पहुँचने के बाद जात्रा समाप्त होती है पूजा अनुष्ठान के बाद..... पर अपनी जात्रा?  अपनी जात्रा तो अधूरी रह गयी भुवन मेरे ! सच, तुम कितने निरुठे (निष्ठुर) हुए ठहरे.
              दादा जी अक्सर कहते भी कि फौजी निरुठे होते हैं. जब जलमपत्री मिला रहे थे घरवाले. दादी जी बोलती ही रही कि वे कमतर हैं बल. वे गंगाड़ी हैं और हम.....  उनका भात हमारे यहाँ नहीं चलता....... संजोग ही रहा होगा शायद. पिताजी किसी की बात नहीं माने, स्वभाव था उनका. न दादा की और न दादी की ही, माँ तो शायद ही उनके सामने ठीक से मुंह खोल पाई हो कभी...... बैशाख के महीने मिले थे हम पठालधार के मेले में, चलते चलते. मिले क्या देखना ही हुआ वो. जैसे सिनेमा के परदे पर कुछ ठीक से देखे भी न कि सीन बदल जाय...! आग लगे उस ज़माने को.

              माघ में शादी हो गयी. मै उन्नीस की हुयी तब और तुम तेईस के. मै गाँव में तब सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी थी- आठवीं पास और तुम हुए पलटण में ल्हैंसनैक. यह घमंड करने वाली बात नहीं रही पर  ससुर जी के लोगों से बतियाने और सास के गाँव के बीच रास्तों पर चलने में वह ठसक अक्सर झलक जाती...... शादी के बाद कहाँ रह पाए थे तुम घर, मुश्किल से पांच दिन. "   सारी छुट्टी शादी की ही तैयारी में कट गयी..."    ऐसा तुमने कहा था प्यार के क्षणों में, फिर से जल्दी आने का आश्वासन देते हुए. करते भी क्या, इकलौते बेटे जो ठहरे घर के. 
              मुश्किल से पांच चिट्ठियां ही मिल पायी थी तुम्हारी पूरे सात महीनों में। मै डाकिया को उन दिनों अक्सर कोसती कि तुम्हारी चिट्ठी क्यों नहीं लाता होगा झटपट.  तभी तो जवाब लिख पाऊंगी न. यह सोचते करते आठ माह बाद तुम ही आ गए..... खेतों में फसल पकने लगी थी और बारिस छूट रही थी जो कभी कभार भिगो ही देती. पर मै तो बाहर भीतर भीग रही थी इन दिनों. खेतों में साथ जाना होता, साथ खाना होता और साथ....  तुम अपनी कम पलटण की ज्यादा सुनाते. पलटण में ये होता है, पलटण में वो होता है. और और....... उन पचपन दिनों की दुनिया ही मेरे लिए दुनिया हुयी. और उसके बाद .....?  हाँ ! उसके बाद तो सिर्फ नरक ही हुआ न ? उन पचपन दिनों की याद मैंने सम्भाल रखी है आज तक, गठरी बाँध कर, कभी इस कोने रखती  हूँ और कभी उस कोने..... तुम्हारी धरोहर हैं वे यादें. जिसके सहारे इत्ता लम्बा अरसा कट गया.
              गाँव की गाड (गदेरे) के स्यून्साट के बीच, कभी जंगल की ओर जाती पथरीली पगडंडियों पर चलते-चलते और कभी खेतों की मेड़ पर बैठे-बैठे तुमने साथ जीने मरने का वचन दिया था. मै झट से हथेली तुम्हारे मुंह पर रख देती मरने की बात कहने पर. मरने से बहुत डरने वाली जो हुयी मै. पर तुम फौजियों को तो मरने मारने के सिवा......... और जब तुम्हारे जाने के सात महीने बारह दिन बाद ही तुम्हारे मरने की, नहीं नहीं शहीद होने की (जैसे कि लोग कहते हैं) खबर सुनी तो भरी दोपहरी में बज्र गिरा हो जैसे. शहीद हो गए लाम पर. और चुटकी में ही तोड़ गए सात फेरों, सात वचनों, सात जल्मों का रिश्ता. बन्धन में तो हम दोनों बंधे थे भुवन एक साथ. पर तुम बन्ध कहां पाए, बन्धन के सारे धर्म तो मै निभा रही हूँ और मै ही निभाऊंगी....... वीरगति पा गए तुम जैसे कि तुम्हें व तुम्हारा सामान घर लेकर आये वे हरी वर्दी वाले निर्दयी फौजी कह रहे थे. कुहराम मचा था दोनों घरों में. दादा, दादी की जली-कटी सुनने पर पिताजी को अपने फैसले पर बार-बार अफ़सोस हो रहा था. यह उनके चेहरे पर साफ़ झलकता. मुझे भी लगा था एक बार कि..... किन्तु नहीं. पचपन दिनों का जो अरसा, जितना अरसा मैंने तुम्हारे साथ जिया भुवन मेरे ! वो शेष चालीस-पचास बरस के लिए संजीवनी का काम करेंगे. (अगर जी पाऊंगी तब)   
              जहाँ जहाँ कभी तुम्हारे साथ गयी, तुम्हारे साथ रही, आज जब भी उन पगडंडियों पर चलती हूँ तो लगता है कि तुम लुका छुपी कर आगे पीछे चल रहे हो, खेतों की मेड़ पर तुम बैठे से दिखाई देते हो, पलक झपकती हूँ तो तुम नदारद. गाड में पानी के स्यून्साट की जगह तुम्हारी फुसफुसाहट सी सुनाई देती है जैसे तुम कुछ कह रहे हो. वह अनकहा भी जो तुम कहने से रह गए थे और मै खिच्च से हंस देती हूँ ........ पर तुम तो भुवन, स्वर्गतारा बन गए न अब...... बस, इतना जरूर पूछना चाहती हूँ कि पूरणमासी से लगातार क्षीण होते चांद देखकर तुम्हें पीड़ा नहीं होती क्या ?  या तुम सचमुच निरुठे हो क्या ?
                                                              X X X X X X X 

13 comments:

  1. Very nice post.....
    Aabhar!
    Mere blog pr padhare.

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  2. वाकई बहुत बढ़िया है। बेहद दिल को छू लेने वाला लिखा है सर जी।

    आजाद परिंदा पर भी कुछ है जो आपको पसंद आ सकता है। आपको बधाई !

    ये दूसरे वाले ब्लॉग पर है जिसकी आइ़डी नीचे लिखी है।

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  3. बहुत सुन्दर........
    दिल को छू गयी......

    सादर

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  4. बहुत खूब रावत जी ! सुंदर छवि ...........आभार.

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  5. Nice informative post. Thanks.

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  6. बहुत अच्छी प्रस्तुति,,,दिल को छूता आलेख,,,,,,

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,

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  7. मन को छू गई सुन्दर प्रस्तुति....देर में आने के लिए माफी..

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  8. बहुत सुन्दर रावत जी ! कहानी में स्थानीय भाषा के शब्दों को काफी खूबसूरती से समाविष्ट किया है आपने !

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  9. behad marm aalekh....sir...
    ye bahut gahri peeda hai iska ant kb hoga ye nahi malum..
    waakai mein mann bhar aaya...

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  10. दिल को छू गये एक विधव की मार्मिक व्यथा। जाने कितने सैनिकों की विधवायें इस मनोस्थिति से गुजरती हैं। शुभकामनायें।

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  11. बहुत मार्मिक और सशक्त, आंचलिक शब्दों का प्रयोग इसे और खूबसूरत बना रहा है, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  12. Wow, this paragraph is pleasant, my sister is analyzing these kinds of things, therefore I am going to let know
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