Monday, September 28, 2015

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक (5)

 पिछले अंक से जारी..........
शरणार्थियों का बाजार है मिआओं
         मिआओं कस्बा प्रशासनिक दृष्टि से ई0ए0सी0 (एक्स्ट्रा असिस्टेण्ट कमीश्नर) हेडक्वार्टर है। राज्य सरकार के अनेक कार्यालय, हायर सेकेण्ड्री स्कूल, बैंक, सी0आर0पी0 कम्पनी आदि हैं। सी0आर0पी0 के एक जवान से परिचय होता है तो वह बताता हैं कि गत वर्ष तक यहां पर विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित स्व0 दरबान सिंह के पुत्र श्री नारायण सिंह नेगी कम्पनी कमाण्डर के रूप में तैनात थे। नेगी जी दबंग और कानूनप्रिय अफसर थे। रात्रि पी0डब्लू0डी0 विश्राम गृह में बितायी। अरुणाचल में जिलों के नाम नदियों पर हैं उसी भांति इस विश्राम गृह के कमरे भी तिराप जनपद की नदियों के नाम से हैं। जैसे- नामचिक, रीमा, तिराप आदि। नदियों का संगम हमेशा ही देखा किन्तु विपुल जलराशी वाली डिहीगं नदी को दो भागों में बंटा यहीं देखा। मिआओं वासियों ने बताया कि 1897 के विनाशकारी भूकम्प में जमीन पर दरार के कारण डिहींग नदी दो भागों में बंट गयी, जो पूर्ववत बही उसे बूरी (अर्थात बूढी) डिहींग और लम्बवत बहने वाली नई को नोआ (नूतन) डिहींग कहते हैं।
    तिब्बत से भारत के मैत्रीपूर्ण सम्बंध थे और व्यापारिक प्रगाढता भी। तिब्बत रहते हुये भारतवर्ष की उत्तरी सीमा पूरी तरह सुरक्षित थी। परन्तु चीन ने तिब्बत को निगल लिया। तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारतवर्ष में शरण दे दी गयी  और तिब्बतियों को शरणार्थियों के रूप में रहने की स्वतन्त्रता। भारत के सीमान्त क्षेत्रों में आज भी लाखों तिब्बती शरणार्थी रह रहे हैं, जिनमें नेफा भी है। मिआओं के पश्चिम में तीन-चार किलोमीटर पर तिब्बतियन रिफ्यूजी कैम्प है जो खुशहाल व एक भरा-पूरा गांव है। स्थानीय तंग्छा गांवों की अपेक्षा काफी बड़ा है। प्रचुर खेती, बौद्ध मन्दिर, मिडिल स्कूल और कार्पेट बुनाई केन्द्र यहाँ पर है। भारत सरकार तिब्बतियों को भारत की नागरिकता के अतिरिक्त लगभग सभी प्रकार की सुविधायें प्रदान कर रही है। 1960 के आसपास ही बंाग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) के चिट्टगांव की पहाड़ियों और मेमन जिलों से हजारों बौद्ध धर्मावलम्बी चकमा व हाजोंग जनजाति के लोग पूर्वोत्तर भारत में आये। मिआओं, डायून में चकमा व हाजोंग भी हजारों की संख्या में शरणार्थी जीवन यापन कर रहे हैं। बड़ी संख्या में तिब्बती और चकमा आदि शरणार्थियों के बस जाने के कारण यहां का सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक जीवन पूरी तरह प्रभावित हुआ है।
    मिआओं से आगे सुदूर पूरब में विजयनगर कस्बा है (भारत के मानचित्र पर नजर दौड़ायें तो विजयनगर उस बिन्दु पर पडे़गा जहां भारत-बर्मा सीमा पर चौकान पास है।) अरुणाचल के प्रथम उप राज्यपाल श्री के0 ए0 ए0 राजा की प्रेरणा से मिआओं से विजयनगर तक मीलों लम्बी सड़क बनी तो है किन्तु वर्षा की अधिकता व लगभग आबादी विहीन क्षेत्र होने के कारण इस सड़क का मरम्मत कार्य बन्द हैै। विजयनगर जिला तिराप का ही अंग है। जाने का अवसर तो नहीं मिला पर कुछ लोग बताते है कि विजयनगर कस्बा मूलतः भारत के गढ़वाल, कुमाऊँ सहित विभिन्न प्रान्तों के सेवानिवृत्त सैनिकों द्वारा बसाया गया है जिससे विजयनगर में सम्पूर्ण भारतवर्ष की सांस्कृतिक झलक देखने को मिलती है। वर्तमान में विजयनगर केवल हवाई मार्ग से जुड़ा है।  मिआओं-विजयनगर मार्ग पर ही डिहींग नदी के दोनों ओर मीलों तक फैला हुआ ’नामडफा नेशनल पार्क’ नाम से एक ’टाईगर प्रोजेक्ट’ है।   
    एक दिन मिआओं में बिताकर अगली सुबह मिआओं से डिहींग की विभिन्न धाराओं पर लकड़ी की लम्बी-लम्बी बल्लियों व बांस की खपच्चियों से बने हैं कई छोटे-छोटे पुलों से होकर बूरी डिहींग नदी पार की और डायून की ओर बढ गये। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि मार्गेरिटा से आगे पूरब में डिहींग नदी पर कहीं भी एक भी पक्का या स्थायी पुल नहीं है, जिससे डिहींग के दोनों ओर के आबादी युक्त क्षेत्र बरसात में असम्पृक्त रहते हैं। तब मिआओं से मात्र दस-बारह कि0मी0 दूरी पर स्थित डायून व बरदुम्सा को असम से होते हुये सौ-डेढ़ सौ कि0मी0दूरी तय कर ही पहुंचा जाता है। डायून एक छोटा सा गांव है और धीरे-धीरे एक कस्बे में परिवर्तित होता जा रहा है। डायून में एक प्राईमरी स्कूल और छोटा सा बाजार है। यहां प्लाईवुड मिल के स्वामी गांधी उपनाम वाले व्यक्ति से मुलाकात  हुयी। मिआओं-डायून मार्ग में चकमा व हाजोंग जनजातीय लोगों, की बस्तियां हैं। बांस/लकड़ियों के बने घर, अपने हाथों से बनाए हुए बेंत के फर्नीचर, कार्पेट, साफ-सुथरे आंगन, आस-पास थोड़ी बहुत खेती भी। मूल आदिवासियों की अपेक्षा हाजोंग व चकमाओं का रहन-सहन शालीन व साफ सुथरा है। आजीविका के लिये ये लोग बंेत के फर्नीचर व कार्पेट का व्यापार करते हैं।  
    अरुणाचल वन विभाग में कार्यरत् एस. चक्मा घर पर थे। उन्होंने बैठने के लिए कहा तो इटावा निवासी मित्र अनिल कुमार सिंह ने तुरंत हामी भर दी। चाय पीने की इच्छा हो रही थी। काफी देर तक इधर उधर की बातों के बाद एस. चक्मा ने भरे गले से बताया कि सरकार तिब्बती शरणार्थियों की भांति हाजोंग व चक्माओं को
Photo - Courtesy by Google
सुविधा नहीं दे रही। न आवागमन के साधन, न शिक्षा और न ही चिकित्सा। शिक्षा व उपचार हेतु छः-सात माह निकटस्थ कस्बे मिआंओ तो जा सकते हैं किंतु बरसात में वह भी संभव नहीं है। रोज चार-पांच किलोमीटर चलकर बच्चे प्राथमिक शिक्षा डायून में पा लेते हैं किंतु आगे वे नहीं पढ़ पाते हैं। वे प्रार्थना करते हैं कि विशाल व्यक्तित्व वाले दलाईलामा की भांति कोई उनका धार्मिक व राजनैतिक नेता बने। अंधकारमय व त्रासदीपूर्ण जीवन जी रहे इन चक्मा शरणार्थियों के मन में यह भय कहीं गहरे तक है कि हो सकता है कि अरुणाचल सरकार कभी भी उन्हें राज्य छोड़ने का फरमान जारी कर सकती है। सहानुभूति के दो बोल कहकर द्रवित हृदय लिये हम लौट पड़े।                शेष अगले अंक(6) में...............

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