आज अल्बम में अपनी लगभग तैंतीस बरस पुरानी फोटो देखी और उसी दौरान
लेखकद्वय (मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव) के उपन्यास ‘शह और मात’ पढ़ने
का मौका मिला। उपन्यास में कीर्ती चौधरी की ‘‘सुख’’ कविता याद आ गयी, जो तब
अपने बैचलर जीवन में मैंने न जाने कितनी बार दोहराई होगी। --------------
आज अर्थ ढूंढ रहा हूँ!
रहता तो सब कुछ वही हैये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...
बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
आज अर्थ ढूंढ रहा हूँ!
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बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
क्या बात है रावत जी। बहुत बढ़िया। कभी-कभी ब्लॉग जगत में भी घूम आया कीजिए। सादर।
ReplyDeleteThanx Virendra Jee.
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