पिछली सदी के आखिरी दशक में पूरा उत्तराखंड आंदोलित रहा। जन-जन की केवल एक ही आवाज थी - " पृथक उत्तराखंड राज्य"। आन्दोलन गति पकड़ चुका था, उसी दौरान "पहाडे खातिर " लिखी गयी मेरी गढ़वाली कविता को पत्र - पत्रिकाओं में खूब स्थान मिला, आज ब्लॉग में डाल रहा हूँ, मित्रों की इच्छानुसार ;
पहाडा खातिर ईमानदार हो न हो,
पर चरित्र सब्भी चांदा पहाड़ जनो ।
पहाड़ी नांगा तिसाला भुखा मरू त मरू,
पर बथौं पाणी सब्बी चांदा पहाड़ जनो ।
चंट हो, चालाक हो, कर्मठ हो, चुप्पा हो,
पर यन नौकर सब्भी चांदा पहाड़ी जनो ।
पहाडे पीड़ा, पहाडा गीत भला लगु न लगु,
पर संगीत सब्भी चांदा पहाड़ जनो ।
जंगल बगीचा साला साल होणा छ उजाड़,
पर फल फूल सब्भी चांदा पहाड़ जनो ।
चोरी, घूस बेमानी को मलाल जरूर छ,
पर रुप्यों को ढेर सब्भी चांदा पहाड़ जनो ।
पहाडे नौकरी, ठेकेदारी, ब्यापार सब्भी ठीक छ,
पर तराश क्वी नि चांदा पहाड़ जनो ।
भला लग्दा पहाडा डांडा-कांठा, रौन्तेला बुग्याल,
पर सड्क्यों कु कष्ट कवी नि चांदा पहाड़ जनो ।
bhai RAWATJI,aapki kavita maa Pahadi character ka ek namoona ko jordaar chitran hoyu chaa..wastav maa aaj haal yi chann..jai tai bi mauka milnu chaa,wo apdi naat-nantaan,poot-santaan ka wasta kamaan chanu cha..jaitai mauka ni mil saknoo,wo yi Duniya ko sab chulay Imaandaar...............
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