Friday, August 03, 2012

पीतल का भगौना

                                              रामस्वरूप सिंह रौन्छेला 'सरूप'
                        रौन्छेला जी जाना पहचाना नाम भले ही नहीं है, किन्तु गुमनाम भी नहीं. मुंशी प्रेमचंद की भाँती रौन्छेला जी की कहानियों के पात्र व परिवेश पूर्णतः ग्रामीण है. भाषा व शब्दावली सरल तथा गेय है. उत्तराखंड के गाँव, समाज व नारी पीड़ा का वर्णन उनकी कहानियों में बखूबी हुआ है. कहानी पढ़ते हुए लगता है जैसे हम घटना को सामने घटित होते हुए देख रहे हों. वर्ष 1996 में प्रकाशित नौ आंचलिक कहानियों का उनका कथा संग्रह "  तारों की छांव  "   हमारी सांस्कृतिक धरोहर है. मसूरी में निवास कर रहे रौन्छेला जी तिरानबे वर्ष की आयु में भी एक सजग साहित्यकार हैं. अस्वस्थता के बावजूद आज साहित्य के प्रति उनकी रूचि व उत्सुकता में कोई कमी नहीं आयी है. प्रस्तुत कहानी उनकी कथा शैली व शिल्प की बानगी है.  
                        हमारे गाँव में ठग्गू भाई और दिलासू भाभी की लड़ाई एक कहावत बन गयी थी. गाँव में जब भी किसी घर में झगडा होता तो उनका नाम अवश्य आता. लड़ाई-झगड़े तो प्रायः हर घर में कभी कभार होते ही हैं. पति-पत्नी, सास-बहू, देवरानी-जेठानी हो या फिर ननद भाभी का झगड़ा. परन्तु ये झगड़े जैसे शुरू होते हैं वैसे ही ख़त्म भी होते हैं. सुबह का झगड़ा शाम तक और शाम का सुबह तक. उसके बाद सब कुछ सामान्य. न किसी के माथे पर शिकन और न किसी के ओंठों पर खिंचाव. जैसे कुछ हुआ ही न हो. किन्तु दिलासु भाभी और ठग्गू भाई अपवाद थे. झगड़ते तो एक-दो दिन नहीं, हफ़्तों तक ही एक-दूसरे से बात नहीं करते. कोई नहीं बोलता. घर का काम काज संकेतों में होता या फिर अपने-अपने विवेक से. अक्सर थक हार कर ठग्गू भाई को ही सुलह करनी पड़ती. 
                     कई दिनों बाद मै नौकरी से लौटा तो श्रीमती जी ने ठग्गू भाई और दिलासू भाभी के झगड़े की बात सुना दी. सुनकर बहुत दुःख हुआ. सोचा अभी जाकर उनको फटकार दूं. फिर गुस्से में जाना ठीक नहीं सोचकर कल पर टाल दिया. दूसरे दिन ठग्गू भाई के घर जा पहुंचा। उनका घर हमारे घर के पास ही था। ठग्गू भाई घर पर ही मिल गया, वह बरामदे में बैठा तम्बाखू पी रहा था. देखते ही कहने लगा; "आ सरूप ! बैठ, तम्बाखू पी"   कहकर हुक्का मेरी ओर सरका दिया। वह कुछ गंभीर दिखाई दे रहा था. मै इधर उधर की बातें करने लगा। लड़ाई की बात मैंने जानबूझकर नहीं की। दिलासू भाभी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी तो मैंने पूछ ही लिया," भाभी नहीं दिखाई दे रही, क्या कहीं गयी हैं क्या ? "    ठग्गू भाई पहले तो चुप रहा फिर आँख के इशारे से बताया कि वह रसोई में है। मैंने जोर से पुकारकर भाभी को नमस्कार किया और कहा "आज आप अन्दर चुपचाप बैठी हो, क्या बात है ?"    भाभी ने अन्दर रसोई में से ही कहा- "देवर जी, तुम बाहर क्या कर रहे हो, भीतर आ जाओ."    भीतर रसोई में गया तो भाभी को देखकर मुझे अनायास ही हंसी आ गयी। वह भी मुस्करा दी। शायद उसे इस बात का अहसास हो गया था कि मुझे उनकी लड़ाई का पता चल चूका है। चूल्हे से सब्जी उतारकर कहने लगी " बैठो, मै तुम्हारे लिए अभी चाय बनाती हूँ."    चाय बनाकर एक गिलास उसने मुझे पकडाया और दूसरा बाहर ठग्गू भाई को देने का इशारा किया। ठग्गू भाई को चाय देकर मै भीतर भाभी के पास बैठ गया और पूछा कि उसने तो अपने लिए चाय बचाई ही नहीं तो भाभी का जबाव था कि वह ज्यादा चाय नहीं पीती। मै चाय पीते-पीते उसके चेहरे का भाव पढने की कोशिश करने लगा. किन्तु उसके चेहरे पर तैरती सरलता से लगा कि वह रोज-रोज के झगडे की अभ्यस्त हो चुकी है।
                          एक दिन गाँव में बैलों का एक ब्यापारी आया। लड़कों को शरारत सूझी और ठग्गू भाई के यहाँ उसे भेज दिया। संयोग से उस दौरान भी पति पत्नी आपस में बात नहीं कर रहे थे। खरीददार ने आवाज लगाई " "  ठग्गू साहब जी घर पर है क्या ?"    दिलासू भाभी ने सोचा कि हो न हो उनका कोई रिश्तेदार हो। शाम को ठग्गू भाई जब लौटा तो देखा कोई मेहमान बरामदे में कम्बल पर बैठकर आराम से चाय पी रहा है। ठग्गू भाई ने सोचा शायद पत्नी के मायके से आया होगा.  नमस्ते कर हुक्का भर लाया और बगल में बैठ गया.  मेहमान के लिए बगीचे से ताज़ी सब्जी तोड़ लाया कि कम से कम दाल के साथ सब्जी तो होनी ही चाहिए। बैलों का खरीददार माजरा भांप गया कि वे गलतफहमी में उसे एक-दूसरे का मेहमान समझ बैठे हैं। बैल उनके यहाँ है नहीं वह देख चुका था। उसने चुप रहने में ही भलाई समझी कि रात तो आराम से कट जायेगी। रात को खाने के बाद गरम दूध का गिलास दिलासू भाभी ने मेहमान के सिरहाने रख दिया। सोचा बड़ी मुश्किल से मेहमान घर आया है और कुछ न खिलाया तो लोग नाम रखेंगे. यह सोचकर दिलासू भाभी ने सुबह नाश्ते में उड़द की दाल के पकौड़े बनाये. खा पीकर मेहमान ने ठग्गू भाई को नमस्कार किया और दिलासू भाभी को " अच्छा बहिन, बैठ फिर" कहकर विदा होने लगा तो ठग्गू भाई को यकीन हो गया कि यह मेरी पत्नी का कोई खास ही है। सोचने लगा मेहमान को खाली हाथ विदा करना भी ठीक नहीं है. कुछ न कुछ तो देना ही चाहिए। वह भीतर गया और एक पीतल का भगौना ले आया। मेहमान के ना करते करते भी ठग्गू भाई ने वह भगौना जबरदस्ती उसके झोले में ठूस दिया।  भगौना जाने का दुःख दोनों को हुआ किन्तु सकून भी हुआ कि चलो मेहमान की खातिरदारी ठीक से हो पाई .
                         अब दूसरे दिन जब भात पकाने के लिए भगौने की जरूरत महसूस हुयी तो दिलासू भाभी भीतर रसोई में अपने आप में ही बडबडा रही थी "  लो, एक भगौना था वह भी चला गया  "   इतना सुनकर ठग्गू भाई भड़क उठा "   अरे, सुना किसको रही हो ? तुम्हारा ही तो भाई था."    "  मेरा भाई ?"   दिलासू भाभी बिफर पड़ी. जब दोनों कुछ देर लड़ लिए, गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला लिए तो तब स्थिति साफ़ हुयी. दोनों ने सर पीट लिया. ....... और उसके बाद ठग्गू भाई और दिलासू भाभी की लड़ाई होते गाँव वालों ने कभी नहीं सुनी.           

10 comments:

  1. :-)
    मौका देख कर चौका ??
    रोचक और शिक्षाप्रद....

    सादर
    अनु

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  2. dono hi galat fahmi ke shikar hueye. kahani ka ant anand de gaya.

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  3. वाह ... बेहतरीन

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  4. बहुत सुंदर रोचक प्रस्तुति!

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  5. रोचक एवं प्रेरक भी......
    _____________
    पी.एस भाकुनी
    _____________

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  6. एक भगौना गया लेकिन हमेशा के लिए 'ओम शान्ति ओम' कर गया, सौदा महँगा नहीं रहा:)

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति , बधाई.

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.

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  8. inspirational instance..

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  9. हा-हा..
    गया भी घर से तो क्या गया इक भगौना,
    मगर रहे न फिर कभी मिंया-बीबी मौना !
    अच्छी शिक्षाप्रद कथा ,परस्पर संवाद कितना महत्वपूर्ण होता है इसे बखूबी दर्शा रहा है !

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  10. प्रणाम सर...!! बहुत रोचक और शिक्षा प्रद...इस तरह पढ़ा की जैसे ....अंतिम लाइन तक सांस रुकी हुई है.....आभार....!!

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