यात्रा संस्मरण
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हिमालय विलेज रिसोर्ट में चायबागान देखती बिमला रावत |
कत्यूर घाटी का सौन्दर्य मैदानी इलाके जून के अंतिम सप्ताह तक भी दहक रहे थे. ऐसे में रानीखेत
और कौसानी जैसे हिल स्टेशन स्वर्गिक आनंद देते हैं. कौसानी से उत्तर की ओर
चलने पर कुछ सर्पाकार मोड़ों के बाद हम चाय बगीचों के बीच से गुजरते हैं.
हलकी ढलान लिए असिंचित सीढ़ीदार खेतों पर तैयार किये गए इन चाय के बगीचों
के पार्श्व में देवदारु, बांज व चीड़ के जंगल मनमोहक लगते हैं. आज हमारी
यात्रा थी कौसानी से बागेश्वर तक. सड़क के दोनों ओर ठेठ कुमाउनी काष्ट कला के द्योतक सुन्दर मकानों वाले गाँव हैं. सड़क के दायीं तरफ नीचे ढलान की ओर एक क्राफ्ट
सेंटर है. और कुछ आगे ही कौसानी से लगभग छ किलोमीटर दूरी पर बाईं ओर
उत्तराखण्ड (कौसानी) टी एस्टेट है और उसके मध्य है टी फैक्ट्री. पास ही सड़क
किनारे एक दुकान पर हम गए तो वहां पर फैक्ट्री की चाय अलग-अलग वैरायटी व
अलग-अलग वजन के पैकेट में बिक रही थी. अच्छी लगी तो एक पैकेट मैंने भी ले
लिया 'गिरियास टी' ब्रांड के नाम से. तुलनात्मक तौर पर देखा जाय तो
अयारतोली चाय बगीचा यहाँ पर सबसे बड़ा है. चाय बगीचों का इतिहास उत्तराखण्ड
में काफी पुराना है. माना जाता है कि गढ़वाल, कुमाऊँ की पहाड़ियों में चाय
बागान लगाने की शुरुआत ब्रिटिश शासकों द्वारा सन 1836 में शुरू की गयी.
डैंसी, व्हीलर आदि प्रमुख अंग्रेज अफसर थे जिन्हें यह श्रेय जाता है.
ब्रिटिश शासन काल अर्थात बीसवीं सदी के मध्य तक उत्तराखण्ड में आठ हजार
हेक्टेअर भूभाग में चाय बागान थे जो कि सदी के अंतिम दशक तक मात्र पांच सौ
हेक्टेअर तक ही रह गए.
गर्मियों की सुबह कौसानी के आँचल में हो तो फिर क्या कहना. बदलियां पिछली
शाम से ही आशमान में दिखाई दे रही थी. किन्तु बरसने की उम्मीद बाकी थी. धीरे धीरे आगे बढ़ते हैं. हलकी ढलान ख़त्म होती है और समतल भूभाग
में हमारी गाड़ी सरपट दौड़ रही है कि गरुड़ कस्बे में पहुचते हूँ. सन 2003
में गरुड़ में दो दिन रुका था किसी काम के सिलसिले में. नौ साल में काफी कुछ
बदल जाता है. स्वतंत्रता पूर्व गरुड़ मण्डी हुआ करती थी. ग्वालदम, चमोली,
बागेश्वर और सम्पूर्ण कत्यूर घाटी क्षेत्र के लिए। छोटे व्यापारी यहीं
से माल खरीदकर खच्चरों में लाद कर ले जाते थे. आज आवागमन के साधन अच्छे हो गए,
जिससे सामान मैदानी क्षेत्रों की मंडियों से सीधे छोटे दुकानदारों तक पहुच
रहा है. तथापि आज भी गरुड़ में छोटी गाड़ियों और खच्चरों में सामान ढोते हुए
देखा जा सकता हैं. (वर्तमान में गरुड़ बागेश्वर जिले की एक तहसील है) परन्तु
जैसे कि नगरों-महानगरों में अतिक्रमण और अनुशासनहीनता की
स्थिति है, वह गरुड़ में भी
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गरुड़ गंगा व बैजनाथ का विहंगम दृश्य |
है. सड़कें अतिक्रमण के कारण संकरी हो रही है और
लोगों ने जहाँ तहां गाड़ियाँ खड़ी कर जनता को परेशान करने का जैसे मन बना
रखा हो. कभी रेंगते और कभी दौड़ाते हमारे चालक महोदय गाड़ी को गरुड़ से बाहर
निकाल लेते हैं. और शीघ्र ही हम दो कि0मी0 दूर ऐतिहासिक स्थल बैजनाथ
पहुँचते हैं.
गोमती नदी के बाएं तट पर स्थित यह मन्दिर समूह उत्तराखण्ड के इतिहास में
प्रमुख स्थान रखता है. माना जाता है कि कत्यूर शासकों द्वारा आठवीं शताब्दी
में राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) से बैजनाथ स्थानांतरित की गयी. यहाँ पर
नागर शैली में निर्मित मुख्य मन्दिर शिव को समर्पित होने के साथ साथ सत्रह
और मन्दिर हैं. जो विभिन्न पौराणिक देवी देवताओं - सूर्य, चंडिका,
ब्रह्मा, गणेश, पार्वती, कुबेर आदि को समर्पित है. मुख्य मन्दिर का शिखर
भाग ध्वस्त होने के कारण वर्तमान में धातु की चादर से तैयार किया गया है. इतिहासकार कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित इन मंदिरों का निर्माण काल नौवीं से बारहवीं
शताब्दी के मध्य मानते हैं। बार-बार कुमाऊं पर गोरखों और रुहेलों द्वारा आक्रमण करने और मन्दिरों को क्षति पहुँचाने के कारण मन्दिर आज मूल स्वरुप में ही है, संदेह है।
राष्ट्रीय धरोहर होने के कारण यह मन्दिर समूह आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण
द्वारा अधिगृहित है. मन्दिर से नदी में उतरने के लिए पत्थरों की सीढियां
बनी हुयी है जो कि एक कत्यूरी महारानी द्वारा तैयार करवाई गयी. यहाँ शिव
मन्दिर की मान्यता इसलिए भी अधिक है कि हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार
भगवान शिव और माँ पार्वती का विवाह यहीं गोमती व गरुड़ गंगा के संगम तट पर
संपन्न हुआ था. बैजनाथ मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है. क्योंकि शिव को ही
वैद्यनाथ अर्थात कायिक विज्ञान का ज्ञाता माना जाता है. श्रृद्धालुओं को यह
शांत व साफ़ सुथरा देवस्थान अधिक भाता है तभी हर वक्त भक्तों की भीड़ लगी
रहती है. माँ पार्वती की आदमकद मूर्ति
और उसके सामने ही शिवलिंग की स्थापना
होने से यहाँ का महत्व और भी बढ़ जाता है. पास ही नदी के किनारे पानी को
रोककर तालाब का रूप दे दिया गया है, जिससे उसमे काफी महाशीर मछलियाँ
कलाबाजियां कर रही थी. हमारे चालक राणा जी मछलियों के बड़े शौक़ीन हैं,
देखकर उनके मुंह में पानी आ जाता है. हिन्दू धर्मशास्त्र विष्णु पुराण में भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक "मत्स्य अवतार" भी हैं. शायद इसलिए आस्तिक लोग पास से ही चने व मूंगफली के दाने खरीद कर मछलियों को खिला रहे थे.
समुद्रतल से लगभग 1130 मीटर ऊँचाई पर स्थित बैजनाथ का पौराणिक व ऐतिहासिक
महत्व
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बैजनाथ मन्दिर समूह |
समान रूप से है. कत्यूरी शासन काल में प्रायः जितने भी मन्दिर बने
उनकी निर्माण शैली और
पत्थरों की प्रकृति एक ही है. केदारनाथ, पांडुकेश्वर मन्दिर हो या बैजनाथ,
द्वाराहाट व जागेश्वर मन्दिर समूह. जैन मन्दिर, दक्षिण भारतीय स्थापत्य
कला व कांगड़ा शैली से हटकर मन्दिर निर्माण की जो शैली विकसित हुयी वह
कत्यूरी शैली कहलाई. कत्यूरी शासन काल स्थापत्य कला के लिए आज भी
प्रसिद्द है. इस शासन काल में Architect ही नहीं अपितु structural इंजिनियर और माइनिंग इंजिनियर की
प्रवीणता का मूल्यांकन इसी बात से किया जा सकता है कि उन्होंने नीस पत्थरों (Gneiss-Metamorphic Rock Types) की खोज की, उनकी 10-12" मोटी व 3 से 6 फीट लम्बी लम्बी स्लैब बनवाकर तैयार करवाई और निर्माण स्थल
तक पहुंचा कर एक अनूठी शैली के मन्दिर बनवाए. सैकड़ों सालों में इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में न जाने कितने भूकम्प इन मन्दिरों ने झेले होंगे किन्तु कहीं कोई क्षति नही।
ऐतिहासिक काल से ही उत्तराखण्ड की भौगोलिक सीमायें पूर्व में काली
नदी, पश्चिम में यमुना की सहायक टोंस नदी, दक्षिण में तराई-भाबर व टनकपुर
का क्षेत्र तथा उत्तर में तिब्बत (चीन) तक विस्तार लिए हुए था. इतिहासकारों
व पुरातत्वविदों के अनुसार उत्तराखण्ड में दूसरी शताब्दी से पांचवीं
शताब्दी के मध्य तक कुणिन्द वंश का साम्राज्य रहा है. कुणिन्द शासकों की ही एक शाखा कत्यूरे हुए, ऐसा माना जाता है, जिसके
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माँ पार्वती की मूर्ती और सम्मुख शिवलिंग |
संस्थापक वासुदेव कत्यूरी हुए. कत्यूरों में मुख्य राजा बिरमदेव (ब्रह्मदेव) हुए. समुद्रगुप्त के
इलाहाबाद प्रशस्ति अभिलेख के अनुसार चौथी शताब्दी में उत्तराखण्ड
कार्तिकेयपुर के नाम से जाना जाता था. तदनंतर उत्तराखण्ड ब्रह्मपुर के नाम
से भी जाना गया. (संभवतः राजा ब्रह्मदेव के कारण) चीनी यात्री व्हेनसांग की सातवीं शताब्दी के यात्रा वर्णन
में यह उल्लेख है. सातवीं सदी से बारहवीं सदी तक उत्तराखंड ही नहीं
पश्चिमी नेपाल तक कत्यूरों का साम्राज्य रहा. कत्यूरी शासनकाल स्वर्णिम युग माना जाता है। किन्तु बारहवीं सदी के अंत
में नेपाल के मल्ल शासकों द्वारा कत्यूरों को पराजित कर इस क्षेत्र पर
अधिकार पा लिया गया. उन्होंने लगभग चौबीस वर्षों तक शासन किया. कालांतर
में कत्यूरी शासन छोटी छोटी रियासतों में बंट गया और वे स्वतंत्र रूप से
शासन करने लगे. कत्यूरी शासक असंगठित रहने व धीरे धीरे उनका प्रभाव कम होने के कारण गढ़वाल में पंवार व कुमाऊँ में चन्द राजवंशों का उदय हुआ.
जिनका शासन अठाहरवीं सदी के अंत तक रहा. असकोट, डोरी, पाली व पछाऊँ में जो छोटे छोटे रजवाड़े रहे उनके क्षत्रप अपने को आज भी कत्यूरी वंशज बताते है।
क्रमशः .........................
ऐतिहासिक जानकारियों से भरपूर है आपका यह यात्रा सस्मरण ।
ReplyDeleteIts like you read my mind! You seem to know so much about this, like
ReplyDeleteyou wrote the book in it or something. I think that you could do with a few pics to drive the message home a
bit, but other than that, this is magnificent blog. A fantastic read.
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जय कत्यूरी राजमाता जिया रानी की जय जयकार नौ लाख कत्यूरी देवताओं की
ReplyDeleteजय हो मारुवा देवता जी की ।जय देवभूमि उत्तराखंड की
जय नौलाख कत्यूरी देवताओं की
ReplyDeleteजय राजमाता श्री जिया रानी जी की
जय महरूवा देवता की ।
Achha hai
ReplyDeleteMahadev is prakriti Ko esse hi bnaye rakhe
Har har Mahadev
अच्छी कोशिश करी गयी है
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