पिछले अंक से आगे -
सुबह नहा धोकर जल्दी तैयार हो गये। पिछले दो दिनों से रानीखेत और कौसानी में पानी की तंगी के कारण ढंग से नहीं नहा पाये थे। पानी तो था किन्तु मनोवैज्ञानिक दबाव रहता। होटल वाले यह आगाह करना न भूलते ‘‘साहब ! गरमी के कारण थोड़ा पानी की किल्लत है। आदि आदि.....’’ चाय नाश्ते के बाद हम बागनाथ जी को प्रणाम कर बागेश्वर से पूरब की ओर धीरे-धीरे चढाई वाले मार्ग पर बढते जाते हैं। स्टियरिंग हाथ में हो और चीड़ के जंगलों के बीच से गुजरती हुयी नागिन जैसी काली सड़क हो तो गाड़ी दौड़ाना अच्छा लगता है। जैसे जैसे ऊँचाई पर उठते जाते हैं पीछे बागेश्वर का फैलाव और गोमती व सरयू का संगम का दृश्य और भी मनभावन लगता है। बागेश्वर के लोगों में वन चेतना अधिक है इसीलिये शहर में सभी जगह हरियाली दिखायी देती है। मैं हर मोड़ के बाद गाड़ी रोकता हूँ ताकि नजारों का लुत्फ उठाया जा सके। आगे काण्डा पहुंचते हैं। काण्डा नाम स्थानीयता का परिचायक है। उत्तराखण्ड में काण्डा, काण्डी, काण्डाखाल,काण्डाधार, काण्डयूंसैण आदि कई नाम हैं। काण्डा से गुजरते हुये आसपास की पहाड़ियों पर जगह जगह खड़िया खनन के कारण सफेद रंग के गड्ढे दिखाई देते हैं। हरे भरे खेतों व हरियाली बिखेरते पहाड़ों के बीच जगह जगह ये सफेद दाग ? दुःख होता है हमारा यह खूबसूरत पहाड़ सफेद दाग (ल्यूकोडर्मा) का रोगी हो गया है। दोहन चाहे खनिज पदार्थों का हो या वनों का, पहाड़ का भला होता तो कहीं दिखता नहीं है।
आगे बढते जाते हैं, इस पिथौरागढ-बागेश्वर सड़क पर इक्का दुक्का वाहनों का ही आना जाना था। गावं दूर दूर होने के कारण आबादी का घनत्व इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम ही है। गावों के आसपास सड़क किनारे जगह जगह हैण्डपम्प दिख रहे थे, कुछ सूखे पड़े थे और जिनमें पानी होता उनमें गागर व बण्ठा लिये औरतों की भीड़ दिखती। जिनमें भीड़ कम होती वहां पर लड़कियां व औरतें कपड़ों सहित नहाते हुये दिख जाती। इस गरमी ने सभी को झुलसा कर रख दिया, क्या मैदान क्या पहाड़। इस पर्वत श्रृंखला के पूर्वी ढलान पर फैले चौकोड़ी में रुकने की तीव्र इच्छा थी। पंचाचुली आदि पर्वत श्रेणियों के दर्शन के लिये यह स्थान उपयुक्त माना जाता है। सुदूर उत्तर-पूरब में अभिभूत कर देने वाली हिमालय की धवल चोटियां और सामने गणाई-गंगोलीहाट का विस्तार। उत्तराखण्ड के वास्को-डि-गामा कहे जाने वाले डॉ सुरेन्द्र सिंह पांगती, आई0 ए0 एस0 ने आयुक्त व महानिदेशक, उ0प्र0 पर्यटन निदेशालय रहते हुये जिन गुमनाम स्थानों को पहचान दिलायी चौकोड़ी भी उनमें से एक है। उनके सद्प्रयास से ही कुमाऊँ मण्डल विकास निगम ने यहां पर पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये एक गेस्ट हाऊस बनाया और आज देखते देखते यहां पर धन्ना सेठों के अनेक हट्स व रिसोर्टस तैयार हो गये। और जिस तेजी से ये बढ रहे हैं उससे लगता है कि एक दिन यहां की पूरी कृषि व उपजाऊ भूमि कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो जायेगी।
फोन द्वारा स्थानीय मित्र भुवन चन्द्र पन्त से सुबह ही पूछा कि दोपहर के भोजन के लिये कौन सी जगह ठीक है? वे बता चुके थे कि यदि सीधे पिथौरागढ आओगे तो थल में और गंगोलीहाट होते हुये आओगे तो उडयारी बैण्ड। उडयारी बैण्ड में दो राहा है, एक थल-पिथौरागढ/मुनस्यारी के लिये तो दूसरा बेरीनाग-आगर-गंगोलीहाट के लिये। मात्र दो-तीन होटल है उडयारी बैण्ड में। खाना लजीज तो नहीं किन्तु भूख मिटायी जा सकती थी। पहाड़ों पर होटलों में प्रायः थाली सिस्टम होता है अर्थात कितना भी खाओ कीमत निर्धारित है। इसलिये होटल मालिक भी सभी कुछ बजट के भीतर ही रखते हैं। और ग्राहक भी मजबूर होता है कि जो भी मिल रहा है उसे तो खा ही लें।
भोजन करने और कुछ सुस्ताने के बाद दक्षिण की ओर गंगोलीहाट जाना तय करते हैं। चौकोड़ी समुद्रतल से 1980 मीटर ऊँचाई पर स्थित है तो उडयारी बैण्ड मात्र 1800 मीटर पर। महीना भले ही जून का हो किन्तु इतनी ऊँचाई पर धूप में गरमी नहीं रहती है। यहां पर धूप तपा नहीं सहला रही हो जैसे। रास्ते के दोनों ओर सीढीदार खेत और पीछे ऊँचाई पर बांज, बुरांस, देवदार व कैल आदि का मिश्रित वन मनोहारी दृश्य उत्त्पन्न करता है। बसन्त में जब यहां बुरांस फूलते होंगे तो कैसा दिखता होगा, कल्पना ही कर सकता हूँः
जागेश्वर धुरा बुरुंशि फुलि गे छ ऽ
मैं कैहुँ टिपुँ फूला, मेरि हंसा रिसै रै।
कुमाऊँ के मध्य कोई हिमानी न बहने के कारण पहाड़ों की आकृति में गढवाल की भांति पैनापन नहीं है। अपितु अधिकांश पहाड़ियों की बनावट तो कूर्माकार (कछुये जैसी) है। बारह कि0मी0 दूरी तय कर बेरीनाग पहुंचते हैं। डेढ सौ वर्ष पहले अंग्रेजों द्वारा चौकोड़ी बेरीनाग की पहाड़ियों पर चाय बागान लगाये गये थे जो कि आज अच्छी स्थिति में नहीं है।बेरीनाग से गंगोलीहाट की ओर धार पर चलते हुये उत्तर-पूर्व में पूर्वी रामगंगा के जलागम क्षेत्र का विस्तार दिखाई देता है। गुप्ताड़ी से गंगोलीहाट का रास्ता छोड़कर पाताल भुवनेश्वर की ओर बढ़ जाते हैं। बचपन में गावं की रामलीला में पाताललोक के बारे में सुना था कि रावण का भाई अहिरावण था व उसकी सत्ता पाताललोक में थी। रावण के कहने पर वह भगवान राम व लक्ष्मण को अपहरण कर पाताललोक ले गया। तब वीर हनुमान जी ने उन्हें छुड़ाया था जहाँ पर वे अपने पुत्र मकरध्वज को मिलते हैं, आदि आदि। महाभारत में पाताललोक तो नहीं, हां नागलोक का जिक्र अवश्य आता है। सोचता हूँ पाताल भुवनेश्वर नाम क्यांे दिया गया होगा। किन्तु जब कहीं कहीं खड़ी चट्टानों को काटकर बनाई गयी सड़क पर निरन्तर नीचे नीचे उतरते जाते हैं तो तब पाताल भुवनेश्वर नाम की सार्थकता सही लगती है। वास्तव में हम पाताल उतर आये थे।पाताल भुवनेश्वर में सड़क जहाँ समाप्त होती है वहीं पार्किंग भी है, दायीं ओरगाड़ियां पार्क होती है और बायीं ओर आठ-दस दुकानें हैं। सड़क के आखिर में प्रवेशद्वार है और नीचे सीढ़ियां उतरने पर प्राचीन मन्दिर बुद्ध भुवनेश्वर के दर्शन होते हैं। साथ ही नील, काल व बटुक भैरव के मन्दिर भी हैं। समय पर्याप्त हो तो त्रिकोण के बीच बना शिवलिंग, धर्मशाला के आंगन में हनुमान जी की विशाल मूर्ति तथा शेषावतार व सूर्य की मूर्ति भी आकर्षण के केन्द्र है।
क्रमशः......................
आगे बढते जाते हैं, इस पिथौरागढ-बागेश्वर सड़क पर इक्का दुक्का वाहनों का ही आना जाना था। गावं दूर दूर होने के कारण आबादी का घनत्व इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम ही है। गावों के आसपास सड़क किनारे जगह जगह हैण्डपम्प दिख रहे थे, कुछ सूखे पड़े थे और जिनमें पानी होता उनमें गागर व बण्ठा लिये औरतों की भीड़ दिखती। जिनमें भीड़ कम होती वहां पर लड़कियां व औरतें कपड़ों सहित नहाते हुये दिख जाती। इस गरमी ने सभी को झुलसा कर रख दिया, क्या मैदान क्या पहाड़। इस पर्वत श्रृंखला के पूर्वी ढलान पर फैले चौकोड़ी में रुकने की तीव्र इच्छा थी। पंचाचुली आदि पर्वत श्रेणियों के दर्शन के लिये यह स्थान उपयुक्त माना जाता है। सुदूर उत्तर-पूरब में अभिभूत कर देने वाली हिमालय की धवल चोटियां और सामने गणाई-गंगोलीहाट का विस्तार। उत्तराखण्ड के वास्को-डि-गामा कहे जाने वाले डॉ सुरेन्द्र सिंह पांगती, आई0 ए0 एस0 ने आयुक्त व महानिदेशक, उ0प्र0 पर्यटन निदेशालय रहते हुये जिन गुमनाम स्थानों को पहचान दिलायी चौकोड़ी भी उनमें से एक है। उनके सद्प्रयास से ही कुमाऊँ मण्डल विकास निगम ने यहां पर पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये एक गेस्ट हाऊस बनाया और आज देखते देखते यहां पर धन्ना सेठों के अनेक हट्स व रिसोर्टस तैयार हो गये। और जिस तेजी से ये बढ रहे हैं उससे लगता है कि एक दिन यहां की पूरी कृषि व उपजाऊ भूमि कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो जायेगी।
फोन द्वारा स्थानीय मित्र भुवन चन्द्र पन्त से सुबह ही पूछा कि दोपहर के भोजन के लिये कौन सी जगह ठीक है? वे बता चुके थे कि यदि सीधे पिथौरागढ आओगे तो थल में और गंगोलीहाट होते हुये आओगे तो उडयारी बैण्ड। उडयारी बैण्ड में दो राहा है, एक थल-पिथौरागढ/मुनस्यारी के लिये तो दूसरा बेरीनाग-आगर-गंगोलीहाट के लिये। मात्र दो-तीन होटल है उडयारी बैण्ड में। खाना लजीज तो नहीं किन्तु भूख मिटायी जा सकती थी। पहाड़ों पर होटलों में प्रायः थाली सिस्टम होता है अर्थात कितना भी खाओ कीमत निर्धारित है। इसलिये होटल मालिक भी सभी कुछ बजट के भीतर ही रखते हैं। और ग्राहक भी मजबूर होता है कि जो भी मिल रहा है उसे तो खा ही लें।
भोजन करने और कुछ सुस्ताने के बाद दक्षिण की ओर गंगोलीहाट जाना तय करते हैं। चौकोड़ी समुद्रतल से 1980 मीटर ऊँचाई पर स्थित है तो उडयारी बैण्ड मात्र 1800 मीटर पर। महीना भले ही जून का हो किन्तु इतनी ऊँचाई पर धूप में गरमी नहीं रहती है। यहां पर धूप तपा नहीं सहला रही हो जैसे। रास्ते के दोनों ओर सीढीदार खेत और पीछे ऊँचाई पर बांज, बुरांस, देवदार व कैल आदि का मिश्रित वन मनोहारी दृश्य उत्त्पन्न करता है। बसन्त में जब यहां बुरांस फूलते होंगे तो कैसा दिखता होगा, कल्पना ही कर सकता हूँः
जागेश्वर धुरा बुरुंशि फुलि गे छ ऽ
मैं कैहुँ टिपुँ फूला, मेरि हंसा रिसै रै।
कुमाऊँ के मध्य कोई हिमानी न बहने के कारण पहाड़ों की आकृति में गढवाल की भांति पैनापन नहीं है। अपितु अधिकांश पहाड़ियों की बनावट तो कूर्माकार (कछुये जैसी) है। बारह कि0मी0 दूरी तय कर बेरीनाग पहुंचते हैं। डेढ सौ वर्ष पहले अंग्रेजों द्वारा चौकोड़ी बेरीनाग की पहाड़ियों पर चाय बागान लगाये गये थे जो कि आज अच्छी स्थिति में नहीं है।बेरीनाग से गंगोलीहाट की ओर धार पर चलते हुये उत्तर-पूर्व में पूर्वी रामगंगा के जलागम क्षेत्र का विस्तार दिखाई देता है। गुप्ताड़ी से गंगोलीहाट का रास्ता छोड़कर पाताल भुवनेश्वर की ओर बढ़ जाते हैं। बचपन में गावं की रामलीला में पाताललोक के बारे में सुना था कि रावण का भाई अहिरावण था व उसकी सत्ता पाताललोक में थी। रावण के कहने पर वह भगवान राम व लक्ष्मण को अपहरण कर पाताललोक ले गया। तब वीर हनुमान जी ने उन्हें छुड़ाया था जहाँ पर वे अपने पुत्र मकरध्वज को मिलते हैं, आदि आदि। महाभारत में पाताललोक तो नहीं, हां नागलोक का जिक्र अवश्य आता है। सोचता हूँ पाताल भुवनेश्वर नाम क्यांे दिया गया होगा। किन्तु जब कहीं कहीं खड़ी चट्टानों को काटकर बनाई गयी सड़क पर निरन्तर नीचे नीचे उतरते जाते हैं तो तब पाताल भुवनेश्वर नाम की सार्थकता सही लगती है। वास्तव में हम पाताल उतर आये थे।पाताल भुवनेश्वर में सड़क जहाँ समाप्त होती है वहीं पार्किंग भी है, दायीं ओरगाड़ियां पार्क होती है और बायीं ओर आठ-दस दुकानें हैं। सड़क के आखिर में प्रवेशद्वार है और नीचे सीढ़ियां उतरने पर प्राचीन मन्दिर बुद्ध भुवनेश्वर के दर्शन होते हैं। साथ ही नील, काल व बटुक भैरव के मन्दिर भी हैं। समय पर्याप्त हो तो त्रिकोण के बीच बना शिवलिंग, धर्मशाला के आंगन में हनुमान जी की विशाल मूर्ति तथा शेषावतार व सूर्य की मूर्ति भी आकर्षण के केन्द्र है।
क्रमशः......................
I'm amazed, I have to admit. Rarely do I come across a blog that's both
ReplyDeleteequally educative and interesting, and let me tell you,
you have hit the nail on the head. The issue is something not enough people
are speaking intelligently about. Now i'm very happy I came across this during my search for something regarding this.
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