Thursday, January 24, 2013

कुमाऊँ - 5 (अद्भुत आकर्षक पाताल भुवनेश्वर)

पिछले अंक से आगे 
 सौ-डेढ सौ मीटर का अर्धचन्द्राकार मार्ग पार कर पवित्र गुफा के मुहाने पर पहुँचे। इतनी कम ऊँचाई पर देवदार नहीं उगते किन्तु आश्चर्य है कि गुफा के चारों ओर देवदार व चीड़ का घना जंगल है। देवदार के पेड़ सद्यस्नाता सुन्दरी सा रूप लिये हुये बिल्कुल हरे। गुफा के बाहर एक छोटा सा आंगन जिसमें बीस-पच्चीस लोग भीतर प्रवेश करने की प्रतीक्षा में थे। पहाड़ी को काटकर एक छोटा सा कमरानुमा काउण्टर बनाया गया है जिसमें प्रवेश शुल्क लेकर टिकट दिये जाते हैं और साथ ही कैमरे व कैमरे वाले मोबाईल फोन जमा किये जाते हैं। गुफा द्वार पर एक अभिलेख उत्कीर्ण है जो कि चौदहवीं शताब्दी का बताया जाता है। बाहर एक सिक्योरिटी वाला खड़ा था जो भीतर से दल बाहर आने के बाद ही लोगों को भीतर जाने को कहता। एक बार में पन्द्रह-बीस लोगों को ही भीतर प्रवेश करया जा रहा था।
हमारी बारी आई तो मन्दिरों से प्रायः दूरी रखने वाले चालक राणा जी भी साथ हो लिए। भीतर घुसते ही नजर गई तो गुफा से कुछ लोगों की आवाजें आ रही थी। बेतरतीब छोटी छोटी सीढ़ियां चट्टान काटकर बनाई गई थी। साथ ही सीढ़ियों के दोनों ओर मोटी मोटी दो लोहे की सांकलें लटकाई गई थी। जिससे लोग आसानी से उतर सकें। गुफा का सबसे निम्न स्थल और द्वार के बीच की ऊंचाई का अंतर लगभग 27 मीटर का है। किंतु सीढ़ी में इस संकरे मार्ग से एक ही बार में हम बीस मीटर तक उतर गये। नीचे पहुंचकर देखते हैं पैरों के नीचे ढलवा भूमि है। गुफा की कुल लम्बाई 160 मीटर है। किन्तु चूने पत्थर की इस प्राकृतिक गुफा में जिस प्रकार अनेक दैवीय आकृतियां उभरी हुई हैं उससे ईश्वर के प्रति आस्था होनी स्वाभाविक ही है। गाइड इन विभिन्न आकृतियों को हिन्दू धर्म ग्रंथों में वर्णित देवी देवताओं से जोड़ते हैं।
गाईड बताते हैं कि गुफा के भीतर से एक मार्ग काशी विश्वनाथ (वाराणसी) दूसरा रामेश्वरम व तीसरा कैलाश मानसरोवर तक जाता है किन्तु विभिन्न कालखण्डों में प्रलय आ जाने के कारण यह मार्ग बन्द हो गये हैं। और विश्वास है कि कलियुग समाप्ति अर्थात सतयुग प्रारम्भ होने पर यह मार्ग पुनः खुलेंगे, ऐसा धर्मग्रंथों में वर्णित है। गुफा के भीतर ऐरावत हाथी के दर्जनों पांव, चार युगों के रूप में छोटी-मोटी टीलेनुमा आकृतियां, शिवलिंग व गुफा की छत से स्वतः ही पानी टपकना, शिव की विशाल जटा आदि मुख्य रूप से दर्शनीय हैं। गुफा की छत कहीं 15-20 फुट ऊंची है तो कहीं मात्र 5-6 फीट ही। इन दैवीय स्वरूप लिये आकृतियों को देखकर उस अनाम कोटिनाम ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा उमडनी स्वाभाविक है। लगभग 45 मिनट तक हम प्रकृति के अद्भुत रूप को विस्फारित नेत्रों से देखते रहे। गाईड ने पूरी गुफा के दर्शन करवाने के बाद एक जगह पर सामूहिक रूप से पूजा सम्पन्न की और बाहर जाने को कहा। किन्तु मेरा मन वहीं रुक जाने को हुआ। प्रकृति के इस रूप को निकट से देखने से  मन में रोमांच भर गया था। गर्मी के इस मौसम में बाहर भीषण गर्मी थी लेकिन गुफा के भीतर काफी शीतलता। अनमने भाव से अन्य श्रद्धालुओं के साथ मैं परिवार सहित बाहर निकल आया। भीतर की स्थिति को सटीक शब्दों में बयां कर पाना संभव नहीं।
ऐसा माना जाता है कि यहां पर भगवान शिव अपने भक्तों की प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता से करते हैं और जो भक्त पवित्र गुफा तक पहुंच जाता है उस पर उनकी कृपा सदैव बनी रहती है। द्वादश ज्योर्तिलिंगों में काशी विश्वनाथ, केदारनाथ व रामेश्वरम की पूजा से अधिक महात्म्य पाताल भुवनेश्वर की पूजा का माना जाता है। पाताल भुवनेश्वर में भगवान शिव ही नहीं अपितु हमारे 33 करोड़ देवी देवताओं की शय्या है। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा चण्डीपथ की रचना इसी पवित्र गुफा में बैठकर की गई। स्कन्ध पुराण के मानस खण्ड में विस्तृत विवेचना की गई है कि जो भी मनुष्य उस अलौकिक पारब्रह्म के अस्तित्व को लेकर थोड़ी सी भी शंका करता है उसे पाताल भुवनेश्वर के दर्शन अवश्य कर लेना चाहिए।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण द्वारा यह गुफा खोजी गई। मान्यता है कि रानी दमयंती ने एक बार राजा नल को पराजित किया और रानी दमयंती के रोष से बचने के लिए राजा नल ने ऋतु पर्ण से याचना की कि वह उसे उसकी पत्नी दमयंती से बचाये। ऋतुपर्ण राजा नल को हिमालय के सघन वन क्षेत्र में ले गये और वहां रुकने के लिए कहा। वापसी में राजा ऋतुपर्ण को एक हिरण के सौन्दर्य ने मोह लिया, जो घने जंगलों में भाग गया। उन्होंन हिरण का पीछा किया किन्तु वह कहीं नहीं मिला। थक कर वह एक पेड़ के नीचे लेट गये। सपने में उसी हिरण ने राजा ऋतुपर्ण से कहा कि वह उसका पीछा करना छोड़ दें। नींद टूटी तो उन्होंने अपने को एक गुफा के मुहाने पर पाया। फिर वे गुफा के भीतर जाने के लिए बढ़े तो द्वारपाल ने रोक दिया। परिचय के उपरान्त वहां विराजमान शेषनाग जी ऋतुपर्ण को अपने फन पर बिठाकर गुफा में ले गये और उन्हें उस दिव्यलोक के दर्शन कराये जहां पर तैंतीस करोड़ देवी देवता विराजमान थे।
द्वापर में कुरुक्षेत्र युद्ध के पश्चात अपने गुरुजनों एवं बंधु बांधवों की हत्या के पाप से बचने के लिए पाण्डवों ने हिमालय में प्रस्थान किया। यहां से गुजरते हुए पाण्डवों ने गुफा में कुछ दिन भगवान शिव की आराधना की। माना जाता है कि तत्पश्चात गुफा तब खुली जब आठवीं सदी में कत्यूरी शासनकाल के दौरान आदि शंकराचार्य ने यहां पूजा अर्चना की और इस गुफा का महात्म्य स्थानीय जनों को बताया।(राज्य के अन्य मन्दिरों की भांति इस गुफा का सम्बन्ध भी आदि शंकराचार्य से जोड़ दिया गया है) तब से इस गुफा के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों से आकर पूजा अर्चना की जाती है। प्रायः सभी मंदिरों व धार्मिक स्थलों में ब्राह्मण वर्ग ही पूजा अर्चना करते हैं। किंतु पाताल भुवनेश्वर में भण्डारी जाति के क्षत्रिय उपासक हैं, जिन्हें आदि शंकराचार्य ने इस कार्य हेतु नियुक्त किया है। भुवनेश्वर गांव के ही रावल, गुरौं, दसौनी, द्योण आदि अन्य जातियों के लोग व्यवस्था में सहयोग प्रदान करते हैं।
पाताल भुवनेश्वर से गंगोली हाट वापस आये। कुमाऊं रेजीमेंट की ईष्ट देवी तथा शक्तिपीठ के रूप में विख्यात माँ महाकाली (हाटकालिका) के दर्शन कर आगे के लिए प्रस्थान किया।
                                                                                                                                .............समाप्त  

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