Thursday, October 28, 2010

दिल ढून्ढता है फिर वही.....

                                                                                    Photo-Subir
पिछली बरसात में  खिर्सू जाना हुआ. कुछ ऐसे ही. (वैसे फुर्सत हो तो हर वर्ष वर्षात में कहीं न कहीं निकलने का प्रयास करता हूँ) खिर्सू में पल पल बदलते मौसम का मिजाज देखकर मन आल्हादित हो उठता है. कुदरत के अलग अलग रंग देखने को मिलते हैं यहाँ पर. इस पल पूरी धूप खिली होती है और अगले ही पल कोहरा, और क्षण भर बाद ही झमा-झम बारिस. कभी पहाडी की पूरबी ढलान पर धूप पसरी होती  है तो पश्चिमी ढलान पर कोहरा. कभी यह छोटा सा पहाडी क़स्बा पूरा का पूरा कोहरे के आगोश में चला जाता है. जैसे छोटा बच्चा आँख मिचौनी खेल रहा हो. खिर्सू अपनी रमणीकता के लिए विख्यात तो है ही, किन्तु यहाँ वर्षा सुन्दरी का मनभावन रूप भी सम्मोहित करने वाला होता है. ऐसे में डाक बंगले के वरामदे में बैठकर प्रकृति के इस रूप का आनंद तो उठाया ही जा सकता है.
परन्तु खिर्सू ही क्यों, मन को अभिभूत करने वाला यह सौंदर्य हिमालय अंचल के चप्पे-चप्पे में व्याप्त है. वर्षा ऋतु  में तो समूचा पहाड़ ही सद्ध्य स्नाता सुन्दरी सा दिखता है. पत्ता-पत्ता तक जैसे अपने अस्तित्व  का वोध करता हो. कल-कल करते बहते झरने और अठखेलियाँ करते नदी नाले धरती को अलंकृत ही करते हैं. हरे भरे जंगलों में कहीं पशुओं के गले की घंटियों की टुन टुन और कहीं ग्वालों की बांसुरी पर गूंजती पहाडी धुन, तो कहीं घसियारिनों के  कंठ से फूटते दर्द भरे विरह गीत. सब कुछ  भुला देने के लिए काफी है यह  मनोहारी दृश्य.  ऐसे स्थलों पर सैकड़ों, हजारों विषैले भाव लिए हमारा मन जाने कैसे हल्का सा महसूस करने लगता है. यह सच है कि पहाड़ों पर जैसे जैसे हम ऊँचाई कि ओर उठते जाते हैं हमारा शरीर और मन तनावमुक्त सा होने लगता है, बिलकुल निर्मल. (जैसे ठहरे पानी में गन्दगी तलहटी पर  बैठ जाती  है.) ईश्वर से निकटता सी महसूस होने लगती है. और आधुनिक सुविधाओं से लैस यह रूमानी दुनिया बिलकुल बेमानी सी लगती है.
पहाड़ों की ऊंचाइयों तक पहुँचने के लिए हमें घाटियों से ही होकर गुजरना होता है. घाटियों का सौंदर्य भी अत्यंत सम्मोहक होता है. पहुँच मार्ग तथा अनुकूल मौसम होने के कारण हिमालय की लगभग सभी घाटियों में आश्रम, हट्स तथा रेसोर्ट्स बने हुए हैं. इनमे समय गुजारने  का सौभाग्य विरलों को ही मिल पाता है. तनाव और  चिंता से मुक्त होकर ही प्रकृति से सीधा साक्षात्कार किया जा सकता है. हिमालयी जन जन को  घाटियों में या ऊंचे पहाड़ों पर लम्बे समय तक एकान्तिक सुख भोगने का हक तो विरासत में मिला था. परन्तु हमारे अज्ञान, हमारी लालसा  और हमारी हवश ने हमें इन सबसे वंचित कर दिया है. छानी या खेडा ('temporary huts ) के रूप में हमारे पूर्वज हमें बहुत कुछ दे गए. दूसरे शब्दों में कहें तो ये पंचसितारा रेसोर्ट्स, हट्स या आश्रमों का प्रवास हमारे पुरखों की जीवन शैली की नक़ल मात्र तो है. बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि छानियों का प्रवास हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग था. यह अवश्य शोध का विषय हो सकता  है कि छानियों की शुरुआत कब और कैसे हुयी, कहाँ और क्यों हुयी? छानियों का हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन पर क्या प्रभाव रहा? वर्तमान में छानियों की क्या उपयोगिता है? आदि, आदि .
मेरा मानना है कि छानियों की स्थापना के मूल में संभवतः नागा आदिवासियों की भांति झूम खेती (shifting cultivation ) का प्रचलन  रहा हो. थका देने वाली इस अवैज्ञानिक पद्यती से निजात पाने या जंगलों के समाप्त हो जाने के कारण  अर्थात भूमि की अनुपलब्धता ने धीरे धीरे झूम खेती के प्रचालन को समाप्त कर एक ही स्थान को अस्थाई निवास के रूप में चुन लिया गया हो. कृषि यंत्रों का विकास, बीज सरंक्षण और कृषि भूमि को समतल करने की महत्ता को जब हमारे पुरखों ने जाना या समझा होगा तो अधिकाधिक भूमि पर खेती करने की लालसा भी उनके अन्दर पैदा हुयी होगी. इसके अतिरिक्त गाँव में जनसंखया  घनत्व अधिक होने के कारण रिहाइशी भूमि में कमी और घास, चारा व जलावन लकड़ी की समस्या भी छानियों के विकास में सहायक रही होगी.  अत्यधिक शर्दी या अत्यधिक गर्मी से बचने के लिए भी अस्थाई निवास की आवश्यकता महसूस की जाती रही होगी. जैसा कि सीमान्त  क्षेत्र के लोग शीतकाल में मीलों दूर नीचे घाटियों में चले आते हैं.  इसके विपरीत घाटियों के वासिंदे गर्मियों में ऊंची पहाड़ियों पर चले जाते हैं. आज भी ये परंपरा हिमालयी क्षेत्रों में कायम है. इन सब कारणों से अस्थाई निवास के रूप में छानियों का विकास हुआ होगा. एक परंपरा का सूत्रपात हुआ होगा .
छानियों के प्रभाव के विभिन्न पहलुओं पर विवेचना से पूर्व यह जानना होगा कि छानी संस्कृति पर्वतीय लोक जीवन की अमूल्य विरासत है. संयुक्त परिवार में बारी-बारी से भाइयों को छानी में भेजने की परंपरा रही है. जहाँ पर रहकर कड़ी मेहनत कर वे खाद्द्यान्न उत्पादित करते, गाय भैंस पालकर घी, दूध की प्रचुरता बनाये रखते और फुर्सत के क्षणों  में आस पास वृक्षारोपण कर फल-फूलों से स्थान  की शोभा बढ़ाते . छानियों में ही कदाचित बच्चों के अन्दर स्वालंबन और निर्भीकता की भावना का विकास होता होगा. यहीं पर प्रकृति से सीधा साक्षात्कार होता है और छानियों में ही आस्थाएं फलती फूलती होगी. नवदम्पति को अधिकाधिक एकांत प्रदान करने की भावना से भी छानी में भेजने की परंपरा रही है. (अर्थात छानियों का प्रयोग आधुनिक हनीमून हट्स की भांति भी होता रहा है)
छानियां जहाँ नवदम्पतियों के हर्षोल्लास का साक्षी रहा है वहीँ विरह में टेसुए बहाने के लिए भी छानियां उपयुक्त रही है. छानी में  एकाकी जीवन जी रहे नायक की पीड़ा को गढ़वाल के लोकप्रिय कवि नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है;
त्वे  खुनि मेरी मालु भैंसी पालीं छ, घ्यू दै की ठेकी लुकैक धरीं छ,
सैन्त्यु समाल्युं छ कुट्यूं पिस्युं छ, चौंल्ह छड्यां छिन दाल दलीं  छ,       
तेरा बाना छौं  खैरी खानि ऐ जा.......... !
परस्पर सहभागिता,  आत्मनिर्भरता का पाठ,  माटी से जुड़ाव, पशुओं से प्रेम, सीमित साधनों के भीतर जीविका चलाने का सबक और दायित्वों का निर्वाहन नवदम्पति छानियों में ही सीखता रहा होगा. परन्तु गाँव परिवार से दूरी, सामाजिक समारोहों से कटे रहने तथा एकाकी जीवन जीने के कारण बौद्धिक विकास में गतिरोध, तार्किक क्षमता का अभाव तथा बच्चों को उचित शैक्षणिक माहौल न मिलना आदि छानी प्रवास का नकारात्मक पहलू रहा है. संयुक्त परिवारों के टूटने, शिक्षा, नौकरी, रोजगार के लिए समूचे पहाड़ से ही पलायन के कारण छानियां खंडहरों में तब्दील हो गयी है और कहीं सड़क, बाज़ार आदि सुबिधायें मिल जाने के कारण छानियां स्थाई आवास के रूप में बदल गयी है.
आज जनसँख्या वृद्धि ,भ्रष्टाचार, प्रदूषण, गुण्डा गर्दी के कारण जब नगरों महानगरों क्या छोटे कस्बों तक में जीवन सुरक्षित नहीं है,शुद्ध हवा पाणी का अभाव है, शिक्षा, चिकित्सा, आदि बुनियादी सुविधाएँ तक आम आदमी से दूर होती जा रही है. privatisation के इस दौर में सरकारी नौकरी भी अब हाथ में नहीं रही. तो फिर हम कस्बों, नगरों व महानगरों  में क्यों रह रहे हैं. आधुनिक यातायात, संचार साधनों व अन्य सुविधाओं के साथ हम छानियों को फिर जीवित कर सकें तो यह महत्वपूर्ण कदम होगा. पूर्वजों की इस विरासत को हम सहेज सकें तो उनका आशीर्वाद अवश्य हमारे साथ होगा.  हम दुनिया की भागम भाग व रेलम रेल की जिंदगी से हटकर एक उन्मुक्त जीवन जी सकेंगे, एक निर्भय समाज का निर्माण कर सकेंगे. जिन्होंने छानियों का सुख भोगा है उन्हें मै ख्वाबों में ग़ालिब का यह शेर गुनगुनाते हुए सुनता हूँ ;
दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन,
बैठे रहे जाना किये तस्सबूरे हुए ..............       

9 comments:

  1. खिर्सू पर बहुत सुन्दर पोस्ट. उम्मीद है, आगे भी ऐसी ही वर्णात्मक पोस्ट्स पढने को मिलती रहेंगीं.

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  2. त्वे खुनि मेरी मालु भैंसी पालीं छ, घ्यू दै की ठेकी लुकैक धरीं छ,
    सैन्त्यु समाल्युं छ कुट्यूं पिस्युं छ, चौंल्ह छड्यां छिन दाल दलीं छ,
    तेरा बाना छौं खैरी खानि ऐ जा.......... !
    .... bahut sundar prastuti... bahut achhi tarah se aapne bahut see baaten prabhavpurn dhang se prastut ki hain.. aabhar.

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  3. भाई सुबीर रावत जी,
    आपका यह खिर्सू-वर्णन मुझे खिर्सू आने के लिए ललचा गया! सोचता हूँ कि इस बार अपनी इकलौती धर्म-पत्नी जी के साथ उधर ही घूम जाऊँ...! यदि आ सका तो आपको ही सबसे पहले कष्ट दूँगा क्योंकि लालच आपने ही पैदा किया...अब झेलिएगा आप ही! खैर...

    थोड़ा और विस्तार से बताएँ कि पहले कहाँ पहुँचना होगा... फिर वहाँ से किधर...आदि-आदि?

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  4. पहली बार आपको पढ़ रहा हूँ , अच्छा लगा ..पूरा पढ़े बिना नहीं छोड़ा गया ! पहाड़ी जीवन और संस्कृति की झलक दिखलाने के लिए आभार ! आपको दुबारा पढना चाहूँगा ..
    दीपावली की शुभकामनाएं

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  5. Thanks Jitendra jee. Khirsu ke bare me aapne janna chaha to itna batana chahoonga ki khirsu ka mausam ya to barsat me hai ya phir barf girne ke baad.

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  6. Priya Subir ji, aapke aandar iteni pratibha hai, ye main kabhi samajh nahi paya, shayad mujhe hi itena gyan nahi hai, aapke sabhi articles dekh kar main aashcharya chakit huin, But at same time gauranvit bhee mahasoos kar raha huin ki main aapse parichit huin, heads off to u, GD Prasad,DDN.

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  7. धन्यवाद प्रसाद साहब,

    मेरा मान बढाने के लिए मै आपका आभार व्यक्त करता हूँ.........आपको मेरी रचनाये अच्छी लगी, मेरा सौभाग्य है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है.......... पुनः आभार.

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