Thursday, May 26, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 3

यात्रा संस्मरण  -  गतांक से आगे....
नुनावल में लंगर की व्यवस्था और तैयारी में अमरनाथ यात्री


          नुनावल (पहलगाम) में सघन जांच के बाद हम सी0 आर0 पी0 एफ0 द्वारा सुरक्षित कैम्प में प्रवेश करते हैं. सुरक्षित अर्थात तारबाड़ से घिरा हुआ और चारों ओर हथियारों से लैस चौकस जवान तैनात. सैकड़ों छोटे-बड़े टैंट, जिनमे छः-सात हज़ार यात्री तक रुकने की व्यवस्था हैं. स्थानीय लोगों को रोजगार देने के उद्देश्य से यह टैंट सरकार द्वारा उन्हें मुहैया कराये गए हैं और वे यात्रियों से किराया वसूल कर अपना गुजारा करते हैं. कैम्प के एक कोने में हिन्दू श्रृद्धालुओं द्वारा दर्ज़न भर से अधिक लंगर (भंडारे) लगाये हैं. यहाँ पर स्वास्थ्य केंद्र, जे0 एंड के0 टूरिज्म का कैम्प कार्यालय, पंजीकरण कार्यालय, दैनिक उपयोग व आगे की यात्रा में काम आने वाले आवश्यक सामान की कई दुकाने है. यात्रा की थकान से उबरने के लिए गुनगुने पानी की बीस रुपये प्रति बाल्टी खरीद कर नहाते हैं. सेना द्वारा यहाँ पर फाइबर की चद्दरों से पर्याप्त लैट्रिन, बाथरूम तैयार करवाए गए हैं. नहाने व लंगर में लजीज भोजन के बाद ऊबड़ खाबड़ टैंट के फर्श तथा पतले गद्दों में भी ऐसी नींद आयी कि सुबह यशपाल ने ही बताया-" भाई साहब, आपके खराटों के शोर में तो लिद्दर का शोर भी दब कर रह गया था."    
चन्दनबाड़ी  में लिद्दर के दोनों और शिविर
             अगली सुबह जल्दी ही तैयार होकर और लंगर में स्वादिष्ट नाश्ता कर चन्दनबाड़ी की ओर बढ़ते हैं. नाश्ता स्वादिष्ट तो था ही, किन्तु लंगर कर्मियों का मृदु व्यवहार इतना आत्मीय व हृदयस्पर्शी था कि भूख न होने के बावजूद कुछ लेना ही पड़ा. पहलगाम बाजार के बीच से गुजरते हुए सन्नाटा पसरा नजर आता है. वह भी समय था जब अनेक हिंदी फिल्मों के अलावा  राजेश खन्ना व मुमताज अभिनीत सुपरहिट फिल्म 'रोटी' यहीं पहलगाम में फिल्माई गयी थी. किन्तु अब होटल स्वामियों और दुकानदारों के चेहरे पर उदासी और बेचारगी के भाव कश्मीर में आतंकवाद की दास्ताँ बयां करते हैं. एक डेढ़ माह चलने वाली इस अमरनाथ यात्रा में पालकी व घोड़े-खच्चरों में यात्री ढोकर या कुली गिरी कर साल भर की रोजी रोटी की व्यवस्था संभव नहीं है. फिर अमरनाथ यात्रा में सैलानी कम और धार्मिक यात्री अधिक होते हैं. हाँ, कभी कभार कोई विदेशी यात्री आ जाते हैं. पहलगाम में लिद्दर पर बने पुल पार करते ही यात्रियों में जाने कैसे उबाल सा आता है और उनके "जय बर्फानी बाबा" "जय भोले" की जय जयकारे से घाटियाँ गुंजायमान होने लगती है. सामाजिक, आर्थिक व बौद्धिक स्तर पर यात्रियों में चाहे कितना ही भेद क्यों न हो किन्तु ऐसी यात्रा में, जहाँ सबका आराध्य एक हो, एक दूसरे के प्रति स्नेह स्वतः ही प्रगाढ़ होता है. मोड़ों को पार करने के बाद ऊँचाई से पहलगाम को देखते हैं वह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है. चन्दनबाड़ी पहुँच कर जब बस कंडक्टर साठ रुपये सवारी किराया मांगता है तो दंग रह जाते हैं. नुनावल से चन्दनबाड़ी तक मात्र सोलह किलोमीटर का किराया साठ रुपये.   
पिस्सूटॉप से लिद्दर और गुफा को जाता मार्ग
                लिद्दर नदी के दायें तट पर बसे आधार शिविर चन्दनबाड़ी में सुरक्षा कर्मियों द्वारा पुनः जांच होती है. श्रृद्धालुओं द्वारा यहाँ पर अनेक लंगर लगाये गए हैं. लंगर कर्मियों द्वारा भोले शंकर के जयकारे के साथ यात्रियों से कुछ न कुछ खाने का आग्रह किया जाता है और ले लेने पर वे तृप्त होकर इस भाव से विदा करते हैं मानो यात्री श्रीअमरनाथ दर्शन को नहीं बल्कि युद्धभूमि की ओर प्रस्थान कर रहे हों. पीछे साठ रुपये बस किराया देने के बाद यहाँ पर कुली और घोड़े-खच्चरों का भाव पूछा तो पाया कि बताई गयी दरें नुनावल टूरिज्म कैम्प में लिखी गयी दरों से कहीं अधिक है. मोल भाव के बाद एक कुली लेकर व छड़ी के रूप में बीस रुपये की साधारण लकड़ी खरीद लेते हैं. श्रीअमरनाथ श्राईन बोर्ड, जे0 एंड के0 टूरिज्म व पहलगाम विकास प्राधिकरण (जो यात्रा मार्ग का निर्माण व रख रखाव करता है) की यह व्यवस्था बहुत अच्छी है कि कुली/ घोड़ा मालिक /पालकी ढोने वाले अपना फोटो युक्त पहचानपत्र चलने से पहले ही 'बुक' कर ले जाने वाले यात्री को स्वतः ही सौंप देते हैं. जिससे कोई यात्री 'चीट' न हो. चन्दनबाड़ी के दूसरे सिरे पर एक बार फिर सुरक्षा जाँच से गुजरने के बाद पिस्सू टॉप की और बढ़ते हैं. पिस्सू टॉप और चन्दनबाड़ी की ऊँचाई में दो हज़ार फीट का अंतर है तो दूरी में मात्र दो मील का. ऊबड़-खाबड़, पथरीला ओर सर्पाकार मोड़ लिए यह रास्ता भक्तों की पहली परीक्षा है. टॉप पर सुरक्षा चौकी और स्वास्थ्य शिविर लगा था. पिस्सू टॉप के बारे में दन्तकथा यह है कि; भगवान शंकर के दर्शनों के लिए देवता व राक्षस समान रूप से आते थे. एक बार दर्शनार्थ आते किसी बात पर देवता व राक्षसों में टकराव हो गया. राक्षस संख्या में ज्यादा थे तो लड़ते-लड़ते देवता हारने लगे, उन्होंने भगवान शंकर का अहवाह्न किया. भोलेनाथ ने राक्षसों को मारकर उनका चूर्ण बना और यहाँ पर ढेर लगा दिया. 11500 फिट ऊँचाई पर स्थित यह स्थान तब से पिस्सू टॉप कहलाने लगा.

         कुछ देर सुस्ताने के बाद शेषनाग की ओर बढ़ते हैं. चार फीट चौड़ा फुटपाथ आने-जाने वाले यात्रियों से खचाखच भरा हुआ. आने वालों के मुखमंडल भोले के दर्शनों से प्रदीप्त और जाने वालों के मनों में उत्सुकता व उत्कंठा. मार्ग में न ज्यादा चढ़ाई और न उतराई. एक ओर नीचे लिद्दर नदी की कल-कल ध्वनि और दूसरी ओर वृक्ष विहीन पहाड़. हाँ, ऊपर पहाड़ पर चरती भेड़ बकरियों से यह डर हर वक्त लगा रहा कि इन निरीह पशुओं के पैरों से गिरा कोई पत्थर किसी को चोटिल न कर दे. दुधिया रंग लिए लिद्दर नदी कहीं बर्फ की चादर के नीचे बहती और कहीं खुले में. नदी के दूसरी ओर हरियाली लिए पहाड़ी पर पेड़ भी हैं और जगह-जगह झरने फूटे हुए. आगे जोजिबाल में श्रृद्धालुओं द्वारा लंगर और स्थानीय लोगों द्वारा दुकानों की व्यवस्था है. एक पांडाल में  डी0 जे0 पर देवी सिंह द्वारा रचित और कैलाश खेर द्वारा गाये भजन पर भक्तगण पूरे जोश से नाच रहे थे- " धन-धन भोलानाथ तुम्हारे कौड़ी नहीं खजाने में, तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में. जटा-जूट का मुकुट शीश पर गले में मुंडों की माला, माथे पर छोटा सा चन्द्रमा कपाल का कर में प्याला, जिसे देखकर भय व्यापे सो गले बीच लिपटा काला, और तीसरे नेत्र में तुम्हारे महाप्रलय की है ज्वाला, पीने को हर वक्त भंग और आक धतूरा खाने में. तीन लोक बस्ती में ......."    रोजमर्रा की भाग दौड़ से दूर जहाँ पर न समय का बंधन हो, न आगे कोई प्रतीक्षारत, न चिंता, न भय. न कोलाहल. है तो सिर्फ साफ़ स्वच्छ मौसम, शांत वादियाँ और पूरी निश्चिंतता. ऐसे में जोश आना भी स्वाभाविक था. पांव स्वतः थिरकने लगे. जी भर नाचने के बाद लंगर छक कर शेषनाग की ओर प्रस्थान कर दिए. दो-ढाई मील पर नागाकोटी की हल्की चढ़ाई के बाद शाम को समुद्रतल से 11730 फिट ऊँचाई पर स्थित शेषनाग पहुँचते हैं. झील का स्वच्छ निर्मल जल हरा व नीला रंग लिए हुए है. इस शेषनाग झील के पार्श्व में ब्रह्मा, विष्णु व महेश नाम की पहाड़ियों से बर्फ पिघलकर आती छोटी-छोटी जलधाराएँ अत्यंत मनमोहक है. यही झील लिद्दर (आगे चलकर झेलम) नदी का यह उद्गम स्थल है. नुनावल/ चन्दनबाड़ी के बाद यात्री शेषनाग में रात्रि विश्राम करते हैं.                  
                                                                                                                                                                 जारी अगले अंक में .....

            
             

Wednesday, May 18, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 2

पातनीटॉप की नैसर्गिक छटा से अभिभूत यशपाल रावत
यात्रा संस्मरण  -  पिछले अंक से आगे....
श्री अमरनाथ जी के दर्शन की अभिलाषा और कश्मीर घाटी के अभिभूत कर देने वाले सौन्दर्य के रसपान की उत्सुकता के साथ जम्मू से हमारी यात्रा आरम्भ हुयी ठीक साढ़े सात बजे सुबह. जम्मू नगर को पीछे छोड़ते हुए गाड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थी मानो उसे भी भोले के दर्शनों की जल्दी हो. मै साथियों से आग्रह कर ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठकर आँखों को पूरी तरह खुला रखता हूँ कोशिश है कि कोई भी दृश्य छूट न पाए. जम्मू से ऊधमपुर तक लगभग मैदानी भूभाग की यात्रा है. ऊधमपुर जिले का जिला मुख्यालय है यह नगर. यहाँ से धीरे-धीरे चढ़ाई शुरू होती है और साथ ही शुरू होते हैं सुन्दर दृश्यावलियाँ. मानो कश्मीर हमें पुकार पुकार कर बुला रहा हो. ऊधमपुर से चालीस किलोमीटर पर छोटा सा क़स्बा पड़ता है कुद. सरदार सतविंदर जी गाडी रोकते हैं, यहाँ पर पंजाब के एक श्रृद्धालु ने लंगर की व्यवस्था की हुयी थी, जम्मू स्टेशन पर सुबह एक चाय ली थी अतः सभी यात्री नाश्ता करते हैं. यहाँ पर कुछ दुकाने व ठीक-ठाक रेस्टोरंट हैं और फिर आठ किलोमीटर दूरी पर स्थित है जम्मू क्षेत्र का प्रसिद्द हिल स्टेशन पातनी टॉप. समुद्र तल से लगभग 2040 मीटर ऊँचाई पर और चीड़, देवदार आदि घने वृक्षों से आच्छादित यह मनोहारी व रमणीक क्षेत्र एक चौरस भूमि पर बसा हुआ है. स्कीइंग, पैराग्लैडिंग आदि खेलों के अतिरिक्त यहाँ पर एक गोल्फ का मैदान भी है. आज की भागम-भाग की जिंदगी में यहाँ होटल, रेसोर्ट्स या गेस्ट हाउस में रूककर कुछ दिन सकून से बिताये जा सकते हैं और प्रकृति का सानिद्ध्य प्राप्त किया जा सकता है. पातनी टॉप से बीस किलोमीटर दूरी पर सुध महादेव का मंदिर है. सावन की पूर्णिमा को यहाँ का दृश्य अत्यंत मनभावन होता है.  
बनिहाल - अब जवाहर टनल पास ही है 
            पातनी टॉप से ही आगे चेनाब नदी के पुल तक उतराई वाला रास्ता है. आबादी का घनत्व अत्यंत कम है. बटोट नामक जगह पर किसी महापुरुष भक्त ने लंगर की व्यवस्था कर रखी है इसलिए काफी भीड़ दिखाई देती है. लजीज और स्वादिष्ट खाना देखकर हम भी लंगर छकते हैं और उस भक्त को धन्यवाद करना नहीं भूलते जो श्रृद्धा और प्रेम से हर रोज सैकड़ों, हजारों श्रृद्धालुओं को निष्काम भाव से भोजन करवा रहा है. यहीं पास ही दो ऊंची पहाड़ियों के मध्य चेनाब नदी पर 330 मेगावाट की 'बगलियार जल विद्युत परियोजना' है. चेनाब पुल पार करने के बाद जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग कुछ दूर तक चेनाब नदी के समानांतर है और रामबन नामक स्थान से धीरे-धीरे चढ़ाई शुरू होती है. जुलाई में पहाड़ियों पर जहाँ मौसम सुहावना होता है वहीं उसके विपरीत घाटियाँ अत्यंत गरम होती है. रामबन की गरमी भी असहनीय लग रही थी बाहर उतरे तो कुछ ठंडा पीने का मन हुआ, पर कुछ मिला नहीं. सरदार सतविंदर चालक कम गाइड का काम ज्यादा कर रहे थे और धीरे धीरे औपचारिकता कम होती जा रही थी. अपने पंजाबी लहजे में चिल्लाकर बोले "बियर पियो बद्शाहो" और आजू बाजू दबाकर कुछ बोतलें ले भी आये. ठंडी बीयर ली तो पीकर कुछ आराम सा मिला और हल्की झपकी आने लगी. 
पहलगाम-लिद्दर तट पर सतविंदर, परिचालक व सुरक्षा कर्मी संग लेखक
             गाड़ी निरंतर चढ़ाई पर कई मोड़ों को पार करती हुयी श्रीनगर की ओर बढ़ रही थी. आगे पीछे और भी गाड़ियाँ थी जिनमे कुछ रेगुलर बस सर्विस, ट्रक, कुछ सैलानी तथा कुछ अमरनाथ यात्रियों की गाड़ी और अधिक सेना के वाहन ही थे. झरने, नदी, नाले पीछे छूटते गए. हरियाली लिए ऊंचे पहाड़ और छोटे-छोटे गाँव मन को लुभा रहे थे. रामबन से लगभग तीन घंटे के सफ़र के बाद बनिहाल में काफी संख्या में वाहन खड़े दिखाई दिए. हमारा वाहन भी वहां पर रुक गया. सरदार सतविंदर जी से मालूम हुआ कि आगे आधा किलोमीटर दूरी पर ही जवाहर टनल शुरू हो जाएगी. यहाँ पर लंगर लगा था और काफी कुछ दुकाने भी. अतः हमने दुकानों से ही कुछ हल्का-फुल्का नाश्ता लिया व चाय पी ली. गाड़ियों का काफिला (यहाँ से हमारी गाड़ी भी काफिले में शामिल होती है) जैसे-जैसे आगे बढ़ता है टनल देखने व टनल से गुजरने की उत्सुकता में धड़कन बढ़ जाती है. समुद्र तल से लगभग 2300 मीटर की ऊँचाई पर आने व जाने के लिए 2547 मीटर लम्बी दो अलग-अलग टनल. टनल से गुजरने का अलग ही रोमांच है. और टनल के दोनों ओर तथा टनल के ऊपर पहाड़ी पर तैनात हैं भारतमाता के वीर जवान, किसी भी खतरे से निपटने को हर वक्त सजग. "बाबा अमरनाथ की जय "    "  बर्फानी बाबा की जय "   जैसे नारों के उद्घोष के साथ टनल पार करते हैं. दूसरी ओर शुरू होती है ढलान और खुलते हैं स्वर्ग के द्वार. कभी फिल्मों में देखा गया, कहानियों में पढ़ा गया और वर्षों से कल्पना में जिया गया कश्मीर का यह सौन्दर्य आज साक्षात देख रहे थे. विस्फारित नेत्रों से देखता हूँ कुदरत के इस नज़ारे को. बिलकुल उसी अंदाज में जैसे कोई व्यक्ति खदान से बाहर खुली हवा में आकर थोड़ी देर लम्बी सांस लेता है, फेफड़ों में ताजी हवा भर लेना चाहता है. बिलकुल वैसे ही. नजरों के सामने है समतल भूमि, मीलों तक फैले धान के हरे भरे खेत, दूर दूर छितरे हुए ढलुवा छत वाले मकानों के गाँव और गाँव को आपस में जोड़ने वाली लम्बी सड़कें. कई कई पगडंडियाँ. सड़कों के दोनों ओर चिनार आदि पेड़ों की कतारें. मनभावन, मनोहारी दृश्य. और इन्ही के बीच कहीं कछुए की पीठनुमा छोटी छोटी पहाड़ियां. कल्पना की जा सकती है कि सर्दियों में जब बर्फ गिरती होगी तब ये गाँव, खेत, खलिहान बर्फ से भले ही न ढक पाए परन्तु ये कछुए की आकारनुमा ये छोटी-छोटी पहाड़ियां अवश्य चान्दी की बर्क ओढ़ी सी प्रतीत होती होगी. अद्भुत होता होगा वह दैवीय सौन्दर्य ! अप्रतिम !!
               भूविज्ञान की दृष्टि से देखें तो कश्मीर घाटी हिमालय की काराकोरम, जस्कार (या जंस्कार ) तथा पीर पंजाल श्रेणियों के मध्य स्थित है. परन्तु जनश्रुति के आधार पर हम पाते हैं कि कश्मीर के बारे में अनेक दंतकथाएं हैं. एक दंतकथा यह है कि कश्मीर पहले एक विशाल समुद्राकर झील थी जिसमे एक भयानक राक्षस रहता था. ब्रह्मा के पौत्र कश्यप ऋषि और स्वयं पार्वती ने उस राक्षस का संहार किया तथा झील को लगभग खाली करा दिया. विशाल पर्वताकार राक्षस मृत्यु के उपरांत मिटटी पत्थरों के ढेर में तब्दील हो गया, जो कि आज हरी पर्वत के नाम से विख्यात है. 
काजीकुंड क्षेत्र (अनंतनाग) का अनुपम सौन्दर्य
    आगे कुछ दूरी पर टोल पॉइंट है लोअर मुण्डा. आज लगभग सभी राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोल वसूलने के लिए अच्छी व्यवस्था कर ली गयी है, चालक बिना अपनी लेन से हटे, बिना नीचे उतरे ही टोल जमा करते है और वह भी कुछ ही पलों में. परन्तु लोअर मुण्डा में टोल जमा करने में इतनी अव्यवस्था है कि गाड़ियाँ जहाँ-तहां खड़ी होती है और समय भी ज्यादा बर्बाद होता है. लोअर मुण्डा से आगे काजीकुण्ड क़स्बा है. श्रीनगर व आगे घाटी  के लिए भारत सरकार द्वारा यहाँ से रेल लाइन बिछाकर कश्मीर वासियों को एक अच्छी सौगात दी गयी है. शीघ्र ही वह दिन भी आयेगा जब काजीकुंड रेल द्वारा ही जम्मू स्टेशन व शेष भारत से जुड़ेगा. आगे बढ़ते हैं तो खन्नाबल नामक स्थान पर राष्ट्रीय राजमार्ग को छोड़कर हम दायीं ओर मुड़ जाते हैं 45 किलोमीटर दूरी पर स्थित पहलगाम की ओर, जो कि हमारा पड़ाव है. और बायीं ओर 80 किलोमीटर पर श्रीनगर है. रामबन, बनिहाल जहाँ डोडा जिले का हिस्सा है वहीं लोअर मुण्डा, काजीकुण्ड व खन्नाबल अनंतनाग जिले के अंतर्गत है. खन्नाबल से पहलगाम की ओर मार्ग चढ़ाई, उतराई वाला नहीं है लगभग सपाट ही है. हरे खेतों और जंगलों के बीच इठलाती, इतराती दूधिया जलधारा वाली लिद्दर नदी सड़क के बायीं ओर बहते हुए देखना आनंदित करता है और सड़क पर धारा के विपरीत दिशा में आगे बढ़ते हुए किसी नहर के किनारे किनारे चलने का सा अहसास होता है. मौसम जहाँ इतना सुहावना, प्रकृति इतनी स्निग्ध वहीं नीरवता छाई हुयी, हवा कुछ सहमी सहमी सी. सड़क के दोनों और हर दस पंद्रह कदम पर अर्धसैनिक बलों के जवान दिखाई देते हैं अतिरिक्त रूप से चौकस और चौकन्ने. हाथों में लोडेड ए के 47 रायफल या एस एल आर और तर्जनी ट्रिगर पर. मालुम हुआ की कुछ दिन पहले तक अलगाववादियों द्वारा अमरनाथ यात्रियों पर पत्थर फेंके जा रहे थे. जिससे अनेक गाड़ियाँ टूटी और कई यात्री घायल हुए. अर्धसैनिक बलों के जवानों का ही हौसला था कि वे आतंक को रोक पाए. शाम अँधेरा होने से पूर्व हम नुनावल कैम्प (पहलगाम) पहुँच जाते हैं. एक बात जो मै इन बारह घंटों के दौरान गौर कर रहा था कि सरदार सतविंदर सिंह हर उस जगह पर गाड़ी बिना कहे ही रोक दे रहे थे जहाँ पर हमें लग रहा था कि कुछ खाना पीना चाहिये.  मैंने आखिर में यह बात पूछ ही ली तो कहने लगे "अजी, मै कहाँ आपका खियाल रख रहा था, वो तो मेरा पेट ख़राब चल रहा, इसलिए बार-बार गाड़ी रोकनी पड़ रही थी." यह सुनकर सभी लोग ठहाका मार कर हंस पड़े.
                                                                                                                                     अगले अंक में जारी ........                                
     

Wednesday, May 11, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 1

              'धरती पर यदि कही स्वर्ग है तो कश्मीर है', 'कश्मीर भारत का मुकुट है', कितनी उपमाएं, कितने नारे. नब्बे के दशक तक की लगभग हर दूसरी हिंदी फिल्म में कश्मीर का नयनाभिराम दृश्य अवश्य होता. मन को हमेशा ही लुभाते रहे हैं रंग बदलते चिनार के पेड़, डल और वूलर झील का सुना गया सौन्दर्य, हिमाच्छादित चोटियों के नीचे सोनमर्ग और गुलमर्ग के बुग्याल (वैसे 'बुग्याल' ही कश्मीरी भाषा में 'मर्ग' कहलाते हैं) और क्या-क्या नहीं. कश्मीर की बात होती तो मन में एक हूक सी उठती. काश ! मैंने भी कश्मीर देखा होता. जाने की जब भी सोचा घरवाले और शुभचिंतक बाधक बनते. कश्मीर के आतंकवाद ने हमेशा हौसला तोडा है. कश्मीर में ही बर्फानी बाबा श्रीअमरनाथ विराजमान हैं. हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्तियों के मन में यह उत्कंठा अवश्य रहती है कि सभी पावन स्थलों के दर्शन जीते जी कर सके. उत्तराखंड हिमालय तो केदारखंड ही है और केदार (अर्थात 'शिव') के सभी सैकड़ों रूपों के (और न सही, कम से कम द्वादश ज्योतिर्लिंग के ही) दर्शन करने की इच्छा तो रहती ही है. परन्तु ऐसे भाग्यशाली विरले ही हैं. फिर अमरनाथ तो वह पावन भूमि है जहाँ भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरकथा सुनायी थी, जहाँ भगवान शिव अपने बर्फानी रूप में विराजमान हैं. अमरनाथ की यात्रा ही कैलाश मानसरोवर की यात्रा के बाद सबसे ज्यादा रोमांचक और पुण्यप्रद मानी जाती है. सोचा, क्यों न देवादिदेव महादेव 'बाबा अमरनाथ' का जाप करते हुए उनके दर्शन किये जाय और कश्मीर भी देख आये, थोड़ा बहुत ही सही. 
अमर पैलेस, जम्मू .
             जहाँ चाह वहां राह ! साथी भी मिल गया- श्री यशपाल रावत. अपने पेशे के कारण वे लगभग पूरा हिमाचल प्रदेश देख चुके हैं. मणिमहेश श्रीखंड महादेव जैसे दुर्गम तीर्थ स्थलों की यात्रायें कर चुके हैं..... जे0 एंड के0 बैंक की स्थानीय शाखा में पंजीकरण के बाद प्रस्थान का दिन तय हुआ जुलाई 24, 2010. ऋषिकेश से हेमकुंठ एक्सप्रेस से जम्मू तक का सफ़र किया. (पत्नी साथ होती तो अच्छा लगता. परन्तु उसने श्रीअमरनाथ की थकाने वाली यात्रा कर सकने में असमर्थतता जताई. वैसे वह मेरे साथ यमुनोत्री, केदारनाथ, वैष्णोदेवी आदि अनेक स्थलों की यात्रा पैदल ही कर चुकी है. क्योंकि हमारा मानना है कि यात्रा का आनंद पैदल में ही है, घोड़े, पालकी में नहीं.) जम्मू मेरे लिए अपरिचित शहर नहीं था. दो बार पहले भी आ चुका था- एक बार व्यक्तिगत काम से और दूसरी बार माँ वैष्णोदेवी के दर्शनार्थ. कश्मीर का प्रवेश द्वार और राज्य की शीतकालीन राजधानी जम्मू एक अत्यंत खूबसूरत शहर है जो कि तवी नदी के दोनों तटों पर बसा हुआ है. अमर महल पैलेस, रघुनाथ मंदिर, बहु फोर्ट, पीरबाबा की मजार आदि अनेक दर्शनीय स्थल इसकी ऐतिहासिकता और खूबसूरती में चार चाँद लगाते हैं.
बहु फोर्ट,जम्मू  
             प्रातः शौच आदि से निवृत्त होने के बाद सात बजे भगवती नगर पहुंचे तो मालुम हुआ कि श्री अमरनाथ के लिए वहां से जत्थे (काफिला) सुबह पाँच बजे से पूर्व ही रवाना हो जाते हैं, मायूसी हुयी. जत्थे के साथ जाने के लिए अगले दिन तक इंतजार करना होगा- पूरे बाईस घंटे. कैम्प के बाहर तैनात सी0 आर0 पी0 के जवानों से आश्वस्त हुए कि जत्थे से हटकर भी प्राइवेट गाड़ी से सफ़र किया जाय तो ज्यादा परेशानी वाली बात नहीं है, जो आतंकवाद का थोड़ा डर है उसे ऊपर वाले पर छोड़ दो. साथी यशपाल से सलाह की तो तय हुआ कि बाहर खड़ी प्राइवेट वाहन से ही पहलगाम पहुंचा जाय. तीन यात्री मध्य प्रदेश, दो महाराष्ट्र से और दो उत्तर प्रदेश मूल के बाहर इस असमंजस में खड़े थे कि क्या किया जाय. थोड़ी बहुत और जानकारी के बाद हम सभी नौ यात्री सरदार सतविंदर सिंह जी की टाटा विन्जर में जाकर बैठ गए. जत्थे में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम होने के कारण प्रायः सभी लोग, विशेषतः बूढ़े, बच्चे और स्त्रियाँ जत्थे में ही यात्रा करना पसंद करते हैं. प्राइवेट गाड़ियों में कम लोग ही रिस्क लेते हैं. 
                                                                                                                 
                                                                                                               अगले अंक में जारी  ..............