Wednesday, December 26, 2012

कुमाऊँ - 3 (भगवान बागनाथ जी के चरणों में)


यात्रा संस्मरण  
 बागेश्वर- सरयू नदी का फैलाव और गोमती का संगम 
            ईश्वर को प्रणाम कर, भोजन बागेश्वर में किया जाय यह सोचकर हम आगे बढ़ते हैं. बैजनाथ से कुछ दूरी पर से एक रास्ता बायीं ओर बदरीनाथ को जाता है और दूसरा बागेश्वर को. यहाँ से निरंतर चढ़ाई चढ़ते हुए अठारह किलोमीटर दूरी पर चमोली जिले का एक हिल स्टेशन है ग्वालदम. समुद्रतल से लगभग 2000 मीटर ऊँचाई पर होने के कारण सर्दियों में जमकर हिमपात होता है जो सैलानियों को आकृषित करता है. हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर आदि जगहों से बदरीनाथ जाने वाले लोग ग्वालदम होकर जाते हैं. ग्वालदम का सौन्दर्य प्रकृति प्रेमी को बरबस अपनी ओर आकृषित करने वाला है. हम गोमती नदी के बाएं तट पर बागेश्वर की ओर आगे बढ़ते हैं. समशीतोष्ण जलवायु वाली चौड़ी व इस रमणीक घाटी में गाँव काफी पास-पास हैं और जनसँख्या घनत्व ठीकठाक है. पहाड़ों में बढ़ते पलायन को देखते हुए कहा जा सकता है कि गगास घाटी और यह कत्यूर घाटी अपवाद है. गांवों में हलचल दिखती है. पुरुषों की भागदौड़, महिलाओं की खिलखिलाहट और बच्चों की धमाचौकड़ी से जीवन्तता आज भी बनी हुयी है. कत्यूरी शासन काल में राजधानी होने के साथ साथ कारण यह भी है कि बसासत के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध है. चारा व जलावन लकड़ी हेतु गाँव के पीछे पहाड़ियों पर घना जंगल, आस पास अपेक्षाकृत समतल कृषि योग्य प्रचुर भूमि तथा आवागमन के लिए चौड़ी सड़कें. तीन ओर पहाड़ियां होने से पानी की कमी भी कदाचित ही होती होगी. और सबसे मुख्य यह भी कि गाँव लगभग समतल भाग या हल्की ढलान वाली भूमि पर होने के कारण न भूस्खलन का खतरा है और न ही पहाड़ियों से मलबा गिरने का भय. सड़क के दोनों ओर बसे गांवों में केले, आम, खुबानी और नाशपाती के फलदार पेड़ों की कतारें मन मोह लेती है. नाशपाती के लकदक पेड़ों को देखकर मेरी बेटी ललचाती है और एकाध नाशपाती तोड़ लाने की जिद पकडती है. मना करता हूँ और किसी तरह ही उसे मना पाता हूँ.             
भगवान बागनाथ जी का मन्दिर (पार्श्व ओर  से )
             चालक राणा जी कई वर्षों तक लम्बी दूरी की बसों में ड्राइविंग करता था. इसलिए उसे हमेशा मंजिल पर पहुँचने की जल्दी रहती है. मना करते हैं कि हम लोग घूमने के मकसद से ही घर से निकले हैं इसलिए हमें कहीं पहुँचने की कोई जल्दी नहीं है. जहाँ रात होगी वहीँ पर रुक जायेंगे. नदी के दोनों ओर खेतों में किसानों ने धान की नर्सरी उगा कर खेत के शेष हिस्से में जुताई भी कर दी है. आशमान बरसेगा तो रोपाई कर देंगे. जून का अंतिम सप्ताह चल रहा है किन्तु बारिस का इन्तेजार ख़त्म नहीं हुआ. चाय पीने की इच्छा से सड़क किनारे गाडी रोकते हैं. एक अधेड़ व्यक्ति से हाल चाल पूछता हूँ तो जबाव मिलता है ठेठ कुमाउनी लहजे में " ..... कहाँ हो, इस साल बारिस हुयी ही कहाँ ठहरी, खेतों की तो छोड़ो पीने के पानी का अकाल पड़ा हुआ ठहरा ......"  नीचे गोमती में पानी की एक पतली सी धारा मात्र कहीं कहीं दिखाई दे रही थी और उसके सीने पर बेतरतीब बिखरे छोटे बड़े पत्थर शीशे की मानिंद चमक रहे थे. सन 2003 में सितम्बर माह में यहाँ से गुजरा था तो गोमती नदी किसी अल्हड़ युवती की भांति इठलाती इतराती आगे बढ़ रही थी. नदी किनारे तब कई मछुवारे बगुला बने बैठे थे. गोमती का यह सूखा रूप उदास कर गया. धीरे धीरे रास्ते में कमेरा और कमेड़ी गाँव होते हुए हम बागेश्वर पहुँचते हैं जो कि बैजनाथ से मात्र 23 किलोमीटर की दूरी पर है.
                           बागेश्वर जिला मुख्यालय है. गोमती व सरयू नदी के तट पर निर्मित बागनाथ जी का मन्दिर यहाँ का मुख्य आकर्षण है. बागनाथ भगवान शंकर का ही एक रूप है. बागनाथ जी के नाम से ही इस जगह का नाम बागेशुर पड़ा, जो कालांतर में बागेश्वर हो गया. मन्दिर का मुख्य द्वार उत्तर दिशा में है जहाँ तक पहुँचने के लिए एक सात-आठ फीट चौड़ी सड़क से गुजरना होता है. इस सड़क के दोनों ओर पूजा प्रसाद और श्रृंगार सामग्री आदि का बाजार सजा रहता है. खूब चहल पहल है. कहीं होटल में बैठकर गाँव से आये स्त्री पुरुष जलेबी, समोसा खा रहे थे तो कहीं औरतें हाथो में रंग बिरंगी चूड़ियाँ पहन रही थी. मै पत्नी को बाजार से चूड़ी, बिंदी  खरीदने को कहता हूँ तो वह मुंह बिचका कर आगे बढ़ जाती है. मन्दिर के दक्षिण में गोमती नदी है और पूरब में सरयू. जिन पर स्नानघाट बनाया गया है और पास ही गोमती-सरयू का संगम है. सरयू का जलागम क्षेत्र अधिक होने के कारण इसमें गोमती की अपेक्षा अधिक जलराशि है। मकर सक्रांति को लगने वाला उत्तरायणी मेला बागेश्वर का ही नहीं पूरे कुमाऊँ का प्रसिद्द मेला है. जिसमे
उत्तरखंड की समृद्ध संस्कृति की झलक दिखाई देती है. सरयूं नदी के दोनों ओर बाजार सजता है. मै परिवार सहित मन्दिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करता हूँ. मन्दिर में इक्का दुक्का लोग दिखाई दे रहे थे. भीतर पूजा अर्चना के लिए पुजारी नहीं दिखाई देते हैं तो मै बाहर आता हूँ उसी वक्त एक स्त्री मन्दिर में आती है. मै उस पर गौर नहीं करता हूँ, सोचता हूँ  दर्शनार्थ आई होगी. मै परिवार सहित बाहर ही खड़ा रहा कि कोई पुजारी आयेंगे. तो वह कुमाउनी स्त्री आवाज लगाती है " आईये, आईये !" हम आश्चर्य करते हैं तो फिर वह कहती है -"आईये, मै ही पूजा कर देती हूँ. आज स्त्रियाँ जब हवाई जहाज तक चला रही है तो क्या मै मन्दिर में पूजा नहीं कर सकती? " रावल लोग ही इस मन्दिर के पुजारी हैं और व्यवस्था भी देखते हैं. लोक धारणा है कि यदि कभी सरयू बरसात में विकराल रूप धारण करती है तो मन्दिर का रावल सरयू पुल से कूद कर बागनाथ जी से विनाश को रोकने की प्रार्थना करता है और यह बागनाथ जी की ही महिमा है कि उफनती नदी में कूदे रावल भी बच जाते हैं और मन्दिर व बागेश्वर भी. पूजा से निवृत्त होकर हम सभी बाहर आकर दीवार के सहारे बैठ जाते हैं. बाहर एक पंडित जी फर्श पर पालथी मर कर बैठे हुए थे और गाँव के एक दम्पति को उनकी कुंडली में देखकर राहू, केतु, शनि की दशा और ग्रहों का योग समझा रहे थे, साथ ही निवारण की विधि भी.
धर्म कर्म में लीन पण्डित जी और चिन्तित यजमान 
                     उनकी ओर पीठ कर मै पत्नी से इस मन्दिर की ऊँचाई नजरों से नापने को कहता हूँ. सन 1450 में कुमाऊ के राजा लक्ष्मी चन्द द्वारा ग्रेनाईट व नीस पत्थरों से निर्मित और काष्ट छत्र वाला 90 फीट ऊंचा यह मन्दिर आज भी भव्य है, मन्दिर में पूजा कक्ष व बरामदा आकार में इतना बड़ा है कि एक साथ पचास से अधिक लोग खड़े होकर पूजा कर सकते हैं. मन्दिर के चारों ओर भी
सैकड़ों भक्त खड़े हो सकते हैं. मन्दिर थोड़ा बहुत मरम्मत व सफाई मांग रहा है. गोमती की घाटी सरयू की अपेक्षा कुछ संकरी है इसलिए आबादी सरयू के तट पर ज्यादा है. लेकिन दुखद यह है कि आबादी जिस क्षेत्र में बसी है वहां कभी धान की फसलें लहलहाती थी. घाटी में होने और समुद्र तल से ऊँचाई मात्र 1000 मीटर होने के कारण बागेश्वर में काफी गर्मी पड़ती है. माना जाता है कि बागेश्वर के पूरब और पश्चिम दिशा में भीलेश्वर व नीलेश्वर पर्वत हैं तो उत्तर दिशा में सूरज कुण्ड तथा  दक्षिण में अग्निकुंड अवस्थित है. घूमते हुए शाम हो गयी थी अतः आज यहीं रुकने के इरादे से होटल की तलाश शुरू करते हैं ताकि कल की यात्रा के लिए तरोताजा रह सकें.                                                                                                                                                                                      क्रमशः  - - - - -     

Friday, December 21, 2012

कुमाऊँ - 2 (कत्यूर घाटी का सौन्दर्य)

यात्रा संस्मरण  
हिमालय विलेज रिसोर्ट में चायबागान देखती बिमला रावत 
         कत्यूर घाटी का सौन्दर्य  मैदानी इलाके जून के अंतिम सप्ताह तक भी दहक रहे थे. ऐसे में रानीखेत और कौसानी जैसे हिल स्टेशन स्वर्गिक आनंद देते हैं. कौसानी से उत्तर की ओर चलने पर कुछ सर्पाकार मोड़ों के बाद हम चाय बगीचों के बीच से गुजरते हैं. हलकी ढलान लिए असिंचित सीढ़ीदार खेतों पर तैयार किये गए इन चाय के बगीचों के पार्श्व में देवदारु, बांज व चीड़ के जंगल मनमोहक लगते हैं. आज हमारी यात्रा थी कौसानी से बागेश्वर तक. सड़क के दोनों ओर ठेठ कुमाउनी काष्ट  कला के द्योतक सुन्दर मकानों वाले गाँव हैं. सड़क के दायीं तरफ नीचे ढलान की ओर एक क्राफ्ट सेंटर है. और कुछ आगे ही कौसानी से लगभग छ किलोमीटर दूरी पर बाईं ओर उत्तराखण्ड (कौसानी) टी एस्टेट है और उसके मध्य है टी फैक्ट्री. पास ही सड़क किनारे एक दुकान पर हम गए तो वहां पर फैक्ट्री की चाय अलग-अलग वैरायटी व अलग-अलग वजन के पैकेट में बिक रही थी. अच्छी लगी तो एक पैकेट मैंने भी ले लिया 'गिरियास टी' ब्रांड के नाम से. तुलनात्मक तौर पर देखा जाय तो अयारतोली चाय बगीचा यहाँ पर सबसे बड़ा है. चाय बगीचों का इतिहास उत्तराखण्ड में काफी पुराना है. माना जाता है कि गढ़वाल, कुमाऊँ की पहाड़ियों में चाय बागान लगाने की शुरुआत ब्रिटिश शासकों द्वारा सन 1836 में शुरू की गयी. डैंसी, व्हीलर आदि प्रमुख अंग्रेज अफसर थे जिन्हें यह श्रेय जाता है. ब्रिटिश शासन काल अर्थात बीसवीं सदी के मध्य तक उत्तराखण्ड में आठ हजार हेक्टेअर भूभाग में चाय बागान थे जो कि सदी के अंतिम दशक तक मात्र पांच सौ हेक्टेअर तक ही रह गए. 
                      गर्मियों की सुबह कौसानी के आँचल में हो तो फिर क्या कहना. बदलियां पिछली शाम से ही आशमान में दिखाई दे रही थी. किन्तु बरसने की उम्मीद बाकी थी. धीरे धीरे आगे बढ़ते हैं. हलकी ढलान ख़त्म होती है और समतल भूभाग में हमारी गाड़ी सरपट दौड़ रही है कि गरुड़ कस्बे में पहुचते हूँ. सन 2003 में गरुड़ में दो दिन रुका था किसी काम के सिलसिले में. नौ साल में काफी कुछ बदल जाता है. स्वतंत्रता पूर्व गरुड़ मण्डी हुआ करती थी. ग्वालदम, चमोली, बागेश्वर और सम्पूर्ण कत्यूर घाटी क्षेत्र के लिए। छोटे व्यापारी यहीं से माल खरीदकर खच्चरों में लाद कर ले जाते थे. आज आवागमन के साधन अच्छे हो गए, जिससे सामान मैदानी क्षेत्रों की मंडियों से सीधे छोटे दुकानदारों तक पहुच रहा है. तथापि आज भी गरुड़ में छोटी गाड़ियों और खच्चरों में सामान ढोते हुए देखा जा सकता हैं. (वर्तमान में गरुड़ बागेश्वर जिले की एक तहसील है) परन्तु जैसे कि नगरों-महानगरों में अतिक्रमण और अनुशासनहीनता की स्थिति है, वह गरुड़ में भी
गरुड़ गंगा व बैजनाथ का विहंगम दृश्य 
है. सड़कें अतिक्रमण के कारण संकरी हो रही है और लोगों ने जहाँ तहां गाड़ियाँ खड़ी कर जनता को परेशान करने का जैसे मन बना रखा हो. कभी रेंगते और कभी दौड़ाते हमारे चालक महोदय गाड़ी को गरुड़ से बाहर निकाल लेते हैं. और शीघ्र ही हम दो कि0मी0 दूर ऐतिहासिक स्थल बैजनाथ पहुँचते हैं.
                गोमती नदी के बाएं तट पर स्थित यह मन्दिर समूह उत्तराखण्ड के इतिहास में प्रमुख स्थान रखता है. माना जाता है कि कत्यूर शासकों द्वारा आठवीं शताब्दी में राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) से बैजनाथ स्थानांतरित की गयी. यहाँ पर नागर शैली में निर्मित मुख्य मन्दिर शिव को समर्पित होने के साथ साथ सत्रह और मन्दिर हैं. जो विभिन्न पौराणिक देवी देवताओं - सूर्य, चंडिका, ब्रह्मा, गणेश, पार्वती, कुबेर आदि को समर्पित है. मुख्य मन्दिर का शिखर भाग ध्वस्त होने के कारण वर्तमान में धातु की चादर से तैयार किया गया है. इतिहासकार कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित इन मंदिरों का निर्माण काल नौवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य मानते हैं। बार-बार कुमाऊं पर गोरखों और रुहेलों द्वारा आक्रमण करने और मन्दिरों को क्षति पहुँचाने के कारण मन्दिर आज मूल स्वरुप में ही है, संदेह है। राष्ट्रीय धरोहर होने के कारण यह मन्दिर समूह आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अधिगृहित है. मन्दिर से नदी में उतरने के लिए पत्थरों की सीढियां बनी हुयी है जो कि एक कत्यूरी महारानी द्वारा तैयार करवाई गयी. यहाँ शिव मन्दिर की मान्यता इसलिए भी अधिक है कि हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव और माँ पार्वती का विवाह यहीं गोमती व गरुड़ गंगा के संगम तट पर संपन्न हुआ था. बैजनाथ मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है. क्योंकि शिव को ही वैद्यनाथ अर्थात कायिक विज्ञान का ज्ञाता माना जाता है. श्रृद्धालुओं को यह शांत व साफ़ सुथरा देवस्थान अधिक भाता है तभी हर वक्त भक्तों की भीड़ लगी रहती है. माँ पार्वती की आदमकद मूर्ति और उसके सामने ही शिवलिंग की स्थापना होने से यहाँ का महत्व और भी बढ़ जाता है. पास ही नदी के किनारे पानी को रोककर तालाब का रूप दे दिया गया है, जिससे उसमे काफी महाशीर मछलियाँ कलाबाजियां कर रही थी. हमारे चालक राणा जी मछलियों के बड़े शौक़ीन हैं, देखकर उनके मुंह में पानी आ जाता है. हिन्दू धर्मशास्त्र विष्णु पुराण में भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक "मत्स्य अवतार" भी हैं. शायद इसलिए आस्तिक लोग पास से ही चने व मूंगफली के दाने खरीद कर मछलियों को खिला रहे थे.
                        समुद्रतल से लगभग 1130 मीटर ऊँचाई पर स्थित बैजनाथ का पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व
बैजनाथ मन्दिर समूह 
समान रूप से है. कत्यूरी शासन काल में प्रायः जितने भी मन्दिर बने उनकी निर्माण शैली और पत्थरों की प्रकृति एक ही है. केदारनाथ, पांडुकेश्वर मन्दिर हो या  बैजनाथ, द्वाराहाट व जागेश्वर मन्दिर समूह. जैन मन्दिर, दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला व कांगड़ा शैली से हटकर मन्दिर निर्माण की जो शैली विकसित हुयी वह कत्यूरी  शैली कहलाई. कत्यूरी शासन काल स्थापत्य कला के लिए आज भी प्रसिद्द है. इस शासन काल में Architect ही नहीं अपितु structural इंजिनियर और माइनिंग इंजिनियर की प्रवीणता का मूल्यांकन इसी बात से किया जा सकता है कि उन्होंने नीस पत्थरों (Gneiss-Metamorphic Rock Types)  की खोज की, उनकी 10-12" मोटी व 3 से 6 फीट लम्बी लम्बी स्लैब बनवाकर तैयार करवाई और निर्माण स्थल तक पहुंचा कर एक अनूठी शैली के मन्दिर बनवाए.  सैकड़ों सालों में इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में न जाने कितने भूकम्प इन मन्दिरों ने झेले होंगे किन्तु कहीं कोई क्षति नही।
                      ऐतिहासिक काल से ही उत्तराखण्ड की भौगोलिक सीमायें पूर्व में काली नदी, पश्चिम में यमुना की सहायक टोंस नदी, दक्षिण में तराई-भाबर व टनकपुर का क्षेत्र तथा उत्तर में तिब्बत (चीन) तक विस्तार लिए हुए था. इतिहासकारों व पुरातत्वविदों के अनुसार उत्तराखण्ड में दूसरी शताब्दी से पांचवीं शताब्दी के मध्य तक कुणिन्द वंश का साम्राज्य रहा है. कुणिन्द शासकों की ही एक शाखा कत्यूरे हुए, ऐसा माना जाता है, जिसके
माँ पार्वती की मूर्ती और सम्मुख शिवलिंग
संस्थापक वासुदेव कत्यूरी हुए. कत्यूरों में मुख्य राजा बिरमदेव (ब्रह्मदेव) हुए. समुद्रगुप्त के इलाहाबाद प्रशस्ति अभिलेख के अनुसार चौथी शताब्दी में उत्तराखण्ड कार्तिकेयपुर के नाम से जाना जाता था. तदनंतर उत्तराखण्ड ब्रह्मपुर के नाम से भी जाना गया. (संभवतः राजा ब्रह्मदेव के कारण) चीनी यात्री व्हेनसांग की सातवीं शताब्दी के यात्रा वर्णन में यह उल्लेख है. सातवीं सदी से बारहवीं सदी तक उत्तराखंड ही नहीं पश्चिमी नेपाल तक कत्यूरों का साम्राज्य रहा. कत्यूरी शासनकाल स्वर्णिम युग माना जाता है। किन्तु बारहवीं सदी के अंत में नेपाल के मल्ल शासकों द्वारा कत्यूरों को पराजित कर इस क्षेत्र पर अधिकार पा लिया गया. उन्होंने लगभग चौबीस वर्षों तक शासन किया. कालांतर में कत्यूरी शासन छोटी छोटी रियासतों में बंट गया और वे स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे. कत्यूरी शासक असंगठित रहने व धीरे धीरे उनका प्रभाव कम होने के कारण गढ़वाल में पंवार व कुमाऊँ में चन्द राजवंशों का उदय हुआ. जिनका शासन अठाहरवीं सदी के अंत तक रहा. असकोट, डोरी, पाली व पछाऊँ में जो छोटे छोटे रजवाड़े रहे उनके क्षत्रप अपने को आज भी कत्यूरी वंशज बताते है।                                                                                                     
                                                                                                क्रमशः ......................... 
                        

Wednesday, December 12, 2012

कुमाऊँ - देहरादून, रामनगर से रानीखेत

देहरादून  - किसकी नजर लग गयी इस सुन्दरता को 
यात्रा संस्मरण          
         मौसम विभाग भविष्यवाणी कर चुका था कि इस वर्ष मानसून देर से आएगा. फिर कुछ दिनों बाद मौसम विभाग ने पुनः घोषणा की कि मानसून भटक चुका है और अब और देर से आएगा. दून घाटी में बारिस प्रायः मई के दूसरे, कभी तीसरे हफ्ते तक हो जाती है पर इस बार मई पूरा सूखा बीता ही और जून के दो हफ्ते भी बारिस के इन्तजार में बीत गए. ऊपर से बिजली कटौती अलग से. इतनी गर्मी पहले कभी देहरादून में झेली हो याद नहीं. पत्नी बिमला और बेटी नन्दा दोनों जोर दे रहे थे कि चलो कहीं चलते हैं पहाड़ों में. मैंने कहा हमारा बेटा भी तो सहारनपुर की गर्मी झेल रहा है, तो ? बेटे को फोन किया तो उसे छुट्टी नहीं मिली और फिर कुमाऊँ चलने का मन बनाया. मेरी माँ जब तक जीवित रही तब तक उसके पास गाँव चले जाते थे. किन्तु पिछले साल कैंसर ग्रस्त होने के कारण यहीं मेरे पास ही उसकी मृत्यु हो गयी तो अब गाँव के बन्द पड़े घर में जाने का मन नहीं करता. उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद देहरादून राजधानी बनी तो इस शहर का अमन चैन ही समाप्त हो गया. बदलाव लोगों के आचार व्यवहार में तो आया ही किन्तु मौसम के मिजाज में भी बदलाव आ गया. देहरादून बदलाव के इन हालातों को प्रसिद्द जनकवि चन्दन सिंह नेगी जी से अधिक सुन्दर शब्दों में कौन बयां कर सकता है.
ये कैसी राजधानी है! ये कैसी राजधानी है!!  हवा में जहर घुलता औ' जहरीला सा पानी है !!!

कहाँ तो साँझ होते ही शहर में नींद सोती थी, कहाँ अब 'शाम होती है' ये कहना बेमानी है !!
मुखौटों का शहर है ये ज़रा बच के निकलना तुम, बुढ़ापा बाल रंगता है ये कैसी जवानी है !!
शहर में पेड़ लीची के बहुत सहमे हुए से हैं, सुना है एक 'बिल्डर' को दुनिया नयी बसानी है !!
न चावल है, न चूना है, न बागों में बहारें है, वो देहरादून तो गम है फ़क़त रश्मे निभानी है !!
महानगरी 'कल्चर' ने बदल डाला सबकुछ, इक घण्टाघर पुराना है औ' कुछ यादें पुरानी है !! 

ये कैसी राजधानी है .......!
चिलचिलाती धुप में माँ गिरिजा देवी के दर्शनार्थ भक्तों की भीड़ 
                   देहरादून से 18 जून को ही मुंह अँधेरे निकल पड़े, हरिद्वार, नजीबाबाद, काशीपुर होते हुए लगभग 240 कि०मी० दूरी तय कर रामनगर पहुंचे. फुटहिल्स में बसा लीची और आम के बगीचों के लिए प्रसिद्द यह नगर जिला नैनीताल की तहसील है और विश्व विख्यात टाइगर प्रोजक्ट जिम कार्बेट नैशनल पार्क के लिए प्रवेश द्वार भी. रामनगर से एक सड़क पूरब में काला ढून्गी होते हुए हल्द्वानी/नैनीताल को है. उत्तर में रानीखेत व धूमाकोट को चली जाती है तो पश्चिम में कालागढ़ होते हुए कोटद्वार को. रामनगर रेललाइन से भी जुड़ा हुआ है. रामनगर से ही पौड़ी व अल्मोड़ा के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए फल, सब्जी, अनाज आदि सप्लाई होता है. रामनगर मैं सन 2006 में भी आया था किन्तु तब मेरे साथ चालक स्थानीय था इसलिए कुछ ढूँढने में दिक्कत नहीं हुयी. किन्तु आज चालक राणा जी इस क्षेत्र से अन्जान थे इसलिए नाश्ता करने के लिए सही होटल की तलाश की जा रही थी. सुबह के दस बज चुके और अभी तक नाश्ता भी नहीं कर पाए थे. कुमाऊँ मंडल विकास निगम का पर्यटन आवास गृह दिखाई दिया. जाकर फटाफट परांठे तैयार करवाए और दही के साथ दो-दो परांठे हम चारों ने ले लिए. गाड़ी में पेट्रोल चेक किया और निश्चिन्त होकर आगे बढ़ गए.
भीषण गर्मी में कोसी में नहाते माँ गिरिजा देवी के भक्त 

                      रामनगर से धीरे धीरे हम चढ़ाई चढ़ते हैं. और फिर घने पेड़ों के बीच समतल भूभाग से गुजर रही साफ़ सुथरी सड़क पर गाड़ी सरपट दौड़ती जाती है. कोसी नदी के दायें तट पर यह ढिकुली क्षेत्र कभी बसासत वाला भूभाग था. कुछ लोग इसे महाभारत कालीन विराट नगरी मानते हैं, जहाँ पर पाण्डव अज्ञातवास के दौरान रहे. कुछ इसे कत्यूरों की राजधानी भी मानते हैं. कुछ विद्वान जन अल्मोड़ा में चन्द शासनकाल के दौरान ढिकुली को शीतकालीन राजधानी मानते हैं. क्षेत्र में देखे जाने वाले प्राचीन खंडहर की ईंटें और समय समय पर प्राप्त होने वाली मूर्तियाँ इस ओर इशारा भी करती है. वर्तमान में जिम कार्बेट नैशनल पार्क के निकट होने के कारण ढिकुली एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ पर अनेक होटल, रिसोर्ट आदि बन गए हैं. यहाँ पर आबादी ठीक-ठाक होने के कारण एक इंटर कालेज है और बिजली, पानी के आफिस आदि अन्य आवश्यक जन सुविधाएँ भी. तथा काफी संख्या में बाग़ बगीचे भी हैं. ढिकुली से मात्र तीन कि०मी० आगे रानीखेत मार्ग पर (रामनगर से 11 कि०मी०) कोसी नदी के बीचों-बीच है जनआस्था का केन्द्र माँ गर्जिया देवी का मन्दिर. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति की पुत्री सती का विवाह हुआ था भगवान शिव के साथ. राजा दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में अपने पति शंकर को न बुलाये जाने पर सती रुष्ट हो गयी और अपमानित महसूस कर यज्ञ के हवन कुण्ड में ही अपने प्राणों की आहुति दे दी. जिससे क्षुब्ध होकर भगवान शंकर ने तांडव नृत्य करते हुए संहार किया था. फिर सती ने गिरिराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया. गिरिराज की पुत्री होने के कारण वह गौरा या गिरिजा भी. इनके नाम से ही यह मन्दिर है यह कोसी नदी के बीचों बीच. किन्तु यह गिरिजा जी इस क्षेत्र में गर्जिया देवी नाम से ज्यादा विख्यात है. ऐसा माना जाता है कि माँ के इस मन्दिर में प्रायः शेर आया करते हैं (जो कि गिरिजा की सवारी भी है) और गर्जना करते हैं जिससे इस मन्दिर का नाम गर्जिया देवी पड़ गया.                        उत्तर-दक्षिण बह रही कोसी नदी के मध्य एक समकोण त्रिभुज की आकृति से मिलता जुलता चालीस-पैंतालीस फीट ऊंचा टीला खड़ा है, जो कि मिट्टी, बजरी व छोटे-छोटे गोल पत्थरों के मिश्रण से बना हुआ है। जिसकी टेकरी पर निर्मित है एक छोटा सा मन्दिर. इस समकोण त्रिभुजनुमा टीले के कर्ण पर ऊपर चढ़ने के लिए सीढियां बना दी गयी है. किवदंती है कि यह टीला कहीं ऊपर कोसी नदी का कोई हिस्सा टूटकर यहाँ तक आया. परन्तु देखकर ऐसा नहीं लगता. यह अवश्य हो सकता है कि कभी यह टीला कोसी नदी का बायाँ या संभवतः दायाँ किनारा रहा होगा और किसी बरसात में नदी के कटाव के कारण यह भूभाग अलग हो गया और नदी के बहाव के कारण हर साल यह दोनों ओर से कटने लगा, जब तक कि इसके चारों ओर एक मजबूत 'फ्लड प्रोटेक्सन वाल' नहीं बनाई गयी. यह तो निश्चित है कि टीले का यह स्वरुप दस-बीस वर्षों में नहीं अपितु सैकड़ों वर्षों में तैयार हुआ होगा. यह जनआस्था का केंद्र कब बना यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है किन्तु यह माना जाता है कि रानीखेत से रामनगर आने जाने वाले लोग जब टीले के इस स्वरुप से आकृषित होकर टीले पर जाते थे तो चारों ओर घने जंगल और टीले के दोनों और नदी की जलधाराएं देखकर अभिभूत होते थे। जो शनै-शनै आस्था में परिवर्तित होने लगी।  सन 1941 से रानीखेत निवासी रामकृष्ण पांडे विधिवत रूप से इस टीले पर बने मन्दिर में पूजा आराधना करने लगे और धीरे धीरे मन्दिर व देवी माँ की ख्याति दूर दूर तक फैलने लगी.तब से पांडे जी के वंशज ही इस मन्दिर के पुजारी नियुक्त हैं. आज मन्दिर जाने के लिए टीले पर सीढियां बनी हुयी है, कोसी नदी पर पुल तथा नदी के दायें तट पर एक विशाल धर्मशाला और एक बाजार भी बन गया है. प्रतिदिन सैकड़ों तीर्थयात्री देवी के दर्शनार्थ आते हैं. कुमाऊँ की सीमा उत्तर में गिरिराज हिमालय, पूरब में विशाल काली
माँ गिरिजा की शरण में मै और मेरा परिवार 
नदी द्वारा सुरक्षित है तो दक्षिण-पश्चिमी सीमा माँ गिरिजा और दक्षिण-पूर्वी सीमा माँ पूर्णागिरी देवी द्वारा सुरक्षित है.
                       माँ गिरिजा देवी को प्रणाम कर कोसी नदी की विपरीत दिशा में दायें तट के साथ-साथ चढ़ाई चढ़ते हुए इस मार्ग पर आगे बढ़ते हैं. घने जंगलों के बीच से गुजरते हुए अच्छा लगता है किन्तु आबादी विहीन होने के कारण एक सूनापन खलता है. सोरल में कुछ देर सुस्ता कर व चाय पीकर फिर आगे चलने के लिए तैयार हो जाते हैं. यहाँ टोटम, खायोधार गाँव में आबादी थोड़ी बहुत दिखती है. रास्ता निरंतर चढ़ाई वाला है और सोचता हूँ ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा जब 1869 में रानीखेत में रेजिमेंट का हेडक्वार्टर बनाया गया होगा तो इस मार्ग की स्थिति कैसी रही होगी.   
                                                                                                                                  क्रमशः .............