Monday, March 22, 2021

साहित्य साधक बचन सिंह नेगी

प्रथम पुण्यतिथि पर-

            एक ग्रीक कहावत है Life is gift of nature but beautiful living is the gift of wisdom परन्तु beautiful living के सही मायने क्या है? कम से कम एक लग्जरी जीवन जीने के लिए संसाधनों को जुटाना तो नहीं ही है।
           हिन्दू धर्मशास्त्रों में ब्रह्मश्चर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास चार आश्रम व्यवस्था है। लम्बी अवधि तक गृहस्थ जीवन के समस्त दायित्वों का निर्वहन करते हुये सरकारी/गैर सरकारी सेवा से निवृत्ति भी वानप्रस्थ आश्रम का पर्याय ही है। सेवानिवृत्ति के बाद प्रायः लोग अपना जीवन तीर्थाटन में लगा देते हैं या फिर अपने नाती-पोतों की सेवा में खपा देते हैं। परन्तु इस समाज में ऐसे मनीषी भी हुए हैं जिन्होंने इन सबसे इतर अपना जीवन सेवानिवृत्ति के बाद साहित्य सेवा को समर्पित कर दिया। निर्लोभ, निर्विकार होकर एक-दो नहीं पूरी सत्रह पुस्तकें अपने व्यय पर प्रकाशित कर साहित्य समृद्धि में अपना सर्वस्व ही नहीं लगाया बल्कि वे पुस्तकें साहित्य साधकों को मुफ्त में वितरित भी की। ऐसे विद्वान मनीषी हुए हैं बचन सिंह नेगी जी जो आज दुर्भाग्य से हमारे बीच नहीं हैं। मैं उनके द्वारा इस तीसरी पारी में जिये गये जीवन को ही beautiful living मानता हूँ।
         नवम्बर 04, 1932 को टिहरी जिले सारज्यूला पट्टी के बागी गांव में जन्में बचन सिंह नेगी जी के सिर पिता का साया मात्र सात वर्ष की अवस्था में ही उठ गया था। पर पढाई के प्रति ललक रही और प्राथमिक शिक्षा गांव के निकट ही पूरी कर और आगे की पढ़ाई के लिए टिहरी चले गये किन्तु आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि गांव से रोज चार मील टिहरी आना-जाना पड़ता था जो आसान नहीं था। प्रताप इण्टर कॉलेज टिहरी से सन् 1952 में इण्टर करने के बाद सन् 1954 में उन्होंने डी. ए. वी. कॉलेज (आगरा विश्वविद्यालय) देहरादून से बी. ए. पास किया। पढ़ने के प्रति गहन अभिरुचि होने के बावजूद स्थिति ऐसी नहीं थी कि उच्च शिक्षा जारी रख सकंे तो विवश होकर उन्होंने टिहरी प्लानिंग डिविजन में नौकरी ज्वाईन कर ली और तत्प्श्चात उन्होंने जिला परिषद की नौकरी में चले गये जहाँ से वे सन् 1990 में बतौर अपर मुख्य अधिकारी सेवानिवृत्त हुए।
        सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने छात्र जीवन व सेवाकाल में लिखे अपने आधे-अधूरे लेखों, कहानियों व कविताओं को एकत्रित किया व परिमार्जित कर आशा किरण (कविता संग्रह), भाव मंजूषा(बचपन के लेखों का संकलन) व संस्मरणात्मक पुस्तक मेरी कहानी आदि का प्रकाशन ही नहीं किया बल्कि वैदिक भाषा संस्कृत का गहन व सूक्ष्म ज्ञान व अध्यात्म के प्रति अभिरुचि होने के कारण उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता, बाल्मिकी रामायण(दो खण्डों में), महाभारत ग्रन्थ सार, वेद व्यास कृत ब्रह्मसूत्र आदि महाकाव्यों का ही नहीं बल्कि तुलसी कृत रामचरित मानस का भी उन्होंने गढ़वाली में अनुवाद किया। इस प्रकार गढ़वाली भाषा संरक्षण व संवर्धन में उनके अमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
       इसके अतिरिक्त उनकी ऐतिहासिक पुस्तक गंगा का मायका, देवभूमि उत्तराखण्ड, प्रभा(हिन्दी खण्ड काव्य), गढ़गौरव महारानी कर्णावती (गढ़वाली काव्य) आदि पुस्तकें उल्लेखनीय हैं।
      उन्होंने जो लिखा, जितना लिखा स्वान्तः सुखाय लिखा। नाम व पैंसे की भूख कभी नहीं रही और न ही किसी पुरस्कार व सम्मान की। ‘आखर संस्था’ के सचिव श्री संदीप रावत द्वारा जब उन्हें वर्ष 2019 में आखर सम्मान के लिए नामित किया तो उन्होंने एकदम मना तो नहीं किया किन्तु सम्मान समारोह में उपस्थित नहीं हुए। अन्ततः उनके स्थान पर उनकी बेटी श्रीमती निर्मला बिष्ट ने वह सम्मान स्वीकार किया।
                कोई उन्हें मिलने आता तो उसे वे अपनी पुस्तकें भेंट करना कभी नहीं भूलते थे। मुझे उन्होंने प्रेमवश अपनी लिखी सारी पुस्तकें भेंट की। मैं जब भी उनसे मिलता तो मेरी ओर आशा भरी नजरों से देखते और कहते कि ‘‘हम तो पकी हुई फसल है, अब तुम्हें ही साहित्य की अलख जलाये रखनी है।’’ तो मैं उनके पांव छूकर कहता कि ‘‘मैं शायद ही कभी इतना ज्ञान अर्जित कर पाऊं, शायद ही कभी इतना लिख पाऊं।’’
                उन्नीस दिसम्बर 2019 को आखर सम्मान प्राप्त करने के बाद तीन-चार दिन बाद ही मेरी उनसे आखरी मुलाकात हुई थी। 21 मार्च 2020 को अठ्ठासी वर्ष की आयु में उन्होंने इस असार संसार से विदा ले ली।
                            विनम्र श्रद्धांजलि।