Monday, May 18, 2020

हमारे मेले व त्यौहार

गल्ली थौळू पर विशेष
             मनुष्य जैसे-जैसे सभ्य होता गया उसके अन्दर असुरक्षा की भावना बढ़ने लगी, असुरक्षा से हवस और संग्रहण की प्रवृत्ति पुष्ट हुयी और धीरे-धीरे उसके चारों ओर एक ऐसा दायरा बन गया जिसमें हर कोई अधिकाधिक संग्रह करने की ओर उन्मुख होता है, एक नये समाज का निर्माण होने लगा। जो उनके जैसे नहीं हो सके वे ऐसे समाज से बाहर हो गये और इस तथाकथित सभ्य समाज ने अपने से कमतर समझे जाने वाले समाज को नाम दिया आदिवासी समाज। सच भी है आदिवासी समाज आज भी सभ्य समाज की चालाकियां कदाचित ही समझ पाया हो आदिवासी प्रकृति की गोद में उन्मुक्त व उल्लास से भरा जीवन जीते आये हैं। प्रकृति सानिध्य में वे प्रकृति के हर सुख-दुख में शरीक होते। प्रकृति की पीड़ा वे समझते। प्रायः आदिवासी समाज की पहचान क्षेत्रीय आधार पर होती। परन्तु अब धीरे-धीरे अधिकांश आदिवासी समाजों में भी जातिगत अवधारणा विकसित हुयी है और वे मुख्य समाज में जुड़ने लगे।
            आज उत्तराखण्डी समाज भी उसी प्रक्रिया से गुजर रहा है। मुख्य समाज में समाहित होने के प्रयास भले ही हों किन्तु सदैव वर्तमान में जीने वाले ऐसे समाज में उत्सवधर्मिता कम नहीं हुयी है। उतरायणी मेला, स्याल्दे बिखोती, पूर्णागिरी मेला, कण्डाळी मेला, नन्दा राजजात, कण्वाश्रम मेला, ज्वाल्पा मेला, काण्डा मेला आदि असंख्य मेले उत्तराखण्डी संस्कृति की अभिन्न पहचान है।
            उत्तराखण्ड ही क्या टिहरी गढ़वाल में भी कुछ ऐसे मेले हैं जो प्रतिवर्ष आयोजित होते हैं। धार्मिक श्रेणी के इन मेलों में जन-जन की आस्था है और इनके लिए जनसमुदाय पूरे वर्ष भर प्रतीक्षा करता है यथा; सुरकण्डा का गंगा दशहरा मेला, कुंजापुरी तथा चन्द्रबदनी के नवरात्र मेले, बूढ़ाकेदार का कैलापीर मेला, सेम-मुखेम मेला, सिद्धपीठ ओणेश्वर कोटेश्वर महादेव मेला, ज्वाला देवी-विनयखाल मेला, माणेकनाथ मेला, मकर संक्रान्ति व बसन्त पंचमी मेला, अलेरू-रथी देवता का मेला प्रमुख है।
            इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे मेले भी हैं जो स्थान विशेष पर आयोजित होने के कारण जाने जाते हैं। यह अलग बात है कि इनका स्वरूप भी कहीं-कहीं धार्मिक है। यथा; छाम-कण्डीसौड़, नगुण, देवीसौड़, कमान्द, नैखरी(चन्द्रबदनी), चम्बा, पथल्डा(हिण्डोलाखाल), चम्बा(वीर गबर सिंह का मेला), रौड़धार, खण्डोगी, अंजनीसैण, डिबनू, बादशाही थौल, बग्वान, महड़, जामणीखाल, पौड़ीखाल आदि अनेक मेले।

             टिहरी गढ़वाल की चौवन पट्टियों में इक्कीस गांवों की एक पट्टी है धारमण्डल। प्रतापनगर तहसील के अन्तर्गत इस पट्टी में भी प्रतिवर्ष तीन मेले आयोजित होते हैं; मदननेगी(बीस गते बैसाख- जिसमें स्थानीय देवता मदननेगी की पूजा अर्चना की जाती है), गल्ली(पांच गते जेठ- जिसमें गल्ली अर्थात गलेश्वर महादेव की पूजा की जाती है) और दयारा(छः गते जेठ- जिसमें स्थानीय देवता नागर्जा की पूजा की जाती है, हालांकि कुछ लोग दयारा में सिलंग्वा देवता के पूजे जाने की बात करते है)। दयारा नाम की जगह टिहरी बांध में डूब जाने के कारण अब दयारा का मेला उनके पुनर्वास स्थल भानियावाला में ही हर वर्ष आयोजित किया जाता है।
मेला को गढ़वाली भाषा में थौळू या कौथिग भी कहा जाता है और मेले में प्रतिभाग करने वाले को थौळेर या कौथिगेर। ‘कौथिगेरू न थौळू भरीगे, स्याळी सुरमा...’  
              चालीस-बयालीस साल पहले गल्ली थौळू में एक-दो बार ही मेरा जाना हुआ परन्तु आज भी जब उसकी याद आती है तो आदिम युग के दृश्य आंखों के आगे तैरने लगते हैं। जब टेमरू, बांज, तुंगला आदि के डण्डों से खूंखार मर्द प्रतिशोध की भावना से एक-दूसरे पर टूट पड़ते थे और परिणाम औरतों व बच्चों का सहम जाना और फिर घायलों को चारपाई पर डालकर अस्पताल के लिए रवाना करना। यह मंजर तब हर वर्ष के मेले में होता था। न जाने क्यों गल्ली का थौळू खून-खराबे के लिए अभिशप्त था। तब शायद ही कभी सौहार्दपूर्ण ढंग से मेला निपटा हो। ऐसा भी नहीं कि झगड़ा अचानक जुट जाता हो। यह सब पूर्व नियोजित होता था। लड़ाई-झगड़े करने वाले इस तैयारी से जाते थे कि आज हमने उस गांव वालों को सबक सिखाना है। यह अलग बात है कि कभी-कभी वे खुद ही पिट जाते थे। बल्कि छ महीने, साल भर पहले ही धमकी दी जाती थी कि ‘मिलना बेटे गल्ली के थौळू में’। लड़ाई का उद्देश्य कोई किला फतह करना नहीं केवल नाक की लड़ाई होती थी। किसी ने किसी की बहू-बेटी छेड़ दी तो उसका बदला गल्ली के थौळू में उतारा जाता था। अपनी शूरवीरता दिखाने का यह अवसर आदिम खयालों वाले लोग चूकते नहीं थे। लड़ाई-झगड़ा, मारपीट कब से गल्ली में चला आ रहा था कह नहीं सकते किन्तु बीसवीं सदी के आठवें दशक तक यह जारी रहा।
            थौळू मेलो के पीछे की अवधारणा थी परस्पर मिलन और आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी। बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि थौळू की परिकल्पना तब की गयी होगी जब बहू-बेटियां वर्षों तक आपस में नहीं मिल पाती होगी। तब वे अपने शुभचिन्तक द्वारा सूचना भेजती थी कि फलानी को कहना कि इस बार अमुक थौळू में जरूर आना। और सचमुच जब दो सहेलियां, या दो रिश्तेदार, या ननद-भावजें ऐसे मेलों में मिलती थी तो उनका गले लग-लगकर रोना धोना मैंने भी कई बार अपनी आँखों से देखा है। परन्तु गल्ली के थौळू में करुण रस और वियोग श्रंगार नहीं वीर रस की प्रधानता होती जब दो गुट आपस में टूट पड़ते थे। मेलास्थल की हालत तो ऐसी हो जाती थी जैसे साण्डों की लड़ाई में खड़ी फसल वाले खेत।

           पिछली सदी के आठवें दशक तक रजाखेत क्षेत्र में सड़क नहीं थी। हम भी जब अपने गांव से गल्ली जाते तो बेरगडी, नारगढ़, भौन्याड़ा, पाचरी, भाषली होते हुये गल्ली पहुंचते। पूर्व विधायक श्री बिक्रम सिंह नेगी द्वारा अपने ब्लॉक प्रमुख काल में क्षेत्र के प्रधानों के सहयोग से आज भले ही गल्ली में भव्य मन्दिर बनवाया गया है किन्तु तब केवल वहाँ पर एक मण्डला(मिट्टी-पत्थरों से तैयार एक प्रतीकात्मक मन्दिर) ही था। मन्दिर के पुजारी आस-पास के ही ब्राह्मण होते थे और मेले में कफलोग, नेल्डा, म्यूंडा, सिलोळी, तुन्यार, कोटचौरी-भाषली, कोळगाैं-भटवाड़ा, खाण्ड आदि गांवों के ढोल सम्मिलित होते थे। हालांकि दबदबा तब तुन्यार और सिलोळी वालों का ही रहता था। इतनी अधिक जोड़ी ढोलों की नाद से तब पूरी गल्ली गाड की घाटी गुंजायमान होती थी। रोमांच भर जाता था। पांव थिरकने लगते थे। स्वर लहरियंा गूंजने लग जाती थी। तब एकाएक कहीं से उन्मादित मर्द विघ्न डालते थे। सपना टूट जाने का सा अहसास होता था।
           संचार साधनों और यातायात की सुविधा होने के साथ-साथ जगह-जगह बाजार उपलब्ध है जिससे मेलों का स्वरूप बदल गया है। थौळू मेले अब औपचारिकता रह गये हैं। फिर भी यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि आज की पीढ़ी शिक्षित व समझदार हैं। अब गल्ली के थौळू में पहले की भांति झगड़े-फसाद नहीं होते हैं।
गलेश्वर महादेव से प्रार्थना है कि इस साल का मेला कोरोना की भेंट अवश्य चढ़ गया है परन्तु जब भी मेला हो सुखमय हो, उल्लासपूर्ण हो और पारस्परिक सद्भाव बना रहे।

Saturday, May 09, 2020

580वीं जयन्ती पर विशेष

प्रातः स्मरणीय वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप
(मई 09, 1540 - जनवरी 19, 1597)

        दो दिन उदयपुर के दर्शनीय स्थलों के दर्शन के बाद नाथद्वारा में कुछ समय बिताया। नाथद्वारा से हल्दीघाटी की दूरी मात्र 17 कि0मी0 है किन्तु सीधी बस सेवा नहीं है। यह बस स्टैण्ड पर देर तक खड़े रहने के बाद ही मालूम
हुयी। एक ऑटो किया ढाई सौ रुपये में, इस समझौते के साथ कि हम दोनों के अतिरिक्त जो भी सवारी मिलेगी उनका भाड़ा भी ऑटो वाला रख सकता है। तो ऑटो चालक बीच-बीच में मुख्य सड़क से हटकर गांवों के बीच से ऑटो चलाकर ले गया। गावों के बीच से गुजरते हुये लग रहा था जैसेे शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी पर बसे गावों के बीच से ही गुजर रहे हों। बिल्कुल वही वनस्पति, वही भूगोल, वही पथरीली मिट्टी और वैसे ही घर। आगे बनास नदी दिखाई पड़ी तो रूककर बनास के साफ निर्मल पानी में हाथ मुंह धोया। पूरा मेवाड़ ही वैसे महाराणा प्रताप की धरती कहलाती है किंतु हल्दीघाटी के आस-पास आज भी चेतक के टापों की आवाज गूंजती सी लगती है। कुछ आगे चलकर ऑटो चालक बताता है कि बालची गांव में यह चेतक स्थल है। उसे रोका, सड़क के दांयी ओर एक छोटे से मैदान में चेतक की स्मृति में सीमेंट का चबूतरा बनवाया गया है। उस पर हल्दीघाटी युद्ध का संक्षिप्त विवरण तथा चेतक के विषय में लिखा गया है। इसी स्थल पर प्रताप को युद्ध भूमि से सुरक्षित निकालकर 18 जून 1576 को चेतक ने अंतिम सांस ली थी। संसार में शायद ही किसी पशु को उसकी स्वामीभक्ति व वीरता के लिए चेतक जैसा सम्मान मिला हो।
        मार्ग के चारों ओर हरा-भरा मिश्रित जंगल है, पूरा क्षेत्र रमणीकता लिये हुये। सड़क आगे पहाड़ी के बीचों-बीच है। सड़क के दोनों ओर नयी कटिंग की गयी लगी। मैंने ऑटो रोका, उतर कर नाखूनों द्वारा मिट्टी खुरची तो अन्दर मिट्टी पीलापन लिये हुये थी, हल्दी जैसी। दूसरी जगह पर भी खुरचा तो फिर वही रंग। ऑटो वाला मुझे देखकर बोला, ‘‘साहब, खमणौर गांव की पूरी मिट्टी का रंग ही हल्दी जैसा है तभी तो इसे हल्दीघाटी कहा जाता है। ऑटो हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप संग्रहालय जाकर रुका। जहां पर पहले से दो बसें, कुछ छोटी गाड़ियां और तीन-चार ऑटो खड़े थे। एक छोटी पहाड़ी के ढलान के मध्य जमीन काटकर विशाल महाराणा प्रताप राष्ट्रीय संग्रहालय बनवाया गया है जो वर्ष 1997 में प्रारम्भ होकर वर्ष 2006 में सम्पन्न हुआ। संग्रहालय की बाहरी दीवार व प्रवेश द्वार वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। दीवार पर एक ओर हल्दीघाटी युद्ध और दूसरी ओर चेतक व विलाप करते प्रताप का चित्र उकेरा गया है। प्रवेशद्वार के भीतर और संग्रहालय के बाहर महाराणा प्रताप की युद्ध भूमि के विभिन्न मुद्रायें और हकीम खान सूूर, झाला मान व राणा पुन्जा की विशाल आदमकद कांस्य प्रतिमायें है। संग्रहालय में प्रवेश करने के बाद भीतर हल्दीघाटी क्षेत्र का एक बड़ा मॉडल (भूस्थलाकृति) देखते हैं जिसे कांच के एक बड़े बक्से के अन्दर रखा गया है। दीवारों पर प्रताप की वीरता को बयां करती अनेक पोर्ट्रेट हैं।
संग्रहालय दर्शन के बाद हमें एक घुप्प अंधेरे कमरे में प्रवेश किया। यह ‘‘लाइट एण्ड साउण्ड’’ इफेक्ट देने का प्रयास था। शुरु में चेतक के दौड़ने की आवाजें सुनाई दी फिर युद्ध भूमि से दूर उसके गिरने की मुद्रा में वह दिखाई दिया और पास ही शोकमग्न महाराणा प्रताप। धीरे धीरे आंखें अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो गयी। पास ही पन्ना धाय को महाराणा उदय सिंह को बचाने और बदले में अपने पुत्र को बलिदान करते हुए दिखाया गया है। वास्तव में यह एक खुली जगह है जिसे चारों ओर से ढका गया था। दूसरी ओर से बाहर निकले तो यह द्वार एक तालाब के पास निकला। वहीं पर प्रताप व हल्दीघाटी से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री बिक्री केन्द्र है। लकड़ी व धातु का चेतक, राज चिह्न भाला, ढाल व तलवार आदि आदि, किन्तु सभी कुछ प्रतापमय। पास ही भील-भिलनियों की दिनचर्या दिखाने हेतु मिट्टी व प्लास्टर ऑफ पेरिस के हल, बैल, कृषक हथियार ढालते स्त्री पुरुष आदि-आदि। वहीं कैन्टीन से चाय पीने के बाद पास चल रहे कोल्हू तथा उस जुते बैल को गौर से देखा। जगह जगह बिजली पहुंचने व मशीनें लगने के कारण अब कोल्हू या रहट देखने को कम ही मिलते हैं। पर यहां पर अभी भी सरसों की पिराई कोल्हू से ही की जा रही थी।
        संग्रहालय से बाहर निकला तो जिस पहाड़ी पर यह संग्रहालय बना हुआ है उसकी पर्वत श्रेणियों को खमणौर की पहाड़ियां कहा जाता है। संग्रहालय का विस्तार निरन्तर चोटी की ओर किया जा रहा है। जिज्ञासावश उधर बढा। इस ऊंचाई से तो हल्दीघाटी का सौन्दर्य और भी मंत्रमुग्ध कर रहा था। चारों ओर हरियाली और मन्द-मन्द बासन्ती हवायें चल रही थी, मदहोशी का आलम था। प्रेम के बीज ऐसे ही मौसम में अंकुरित व प्रस्फुटित होते हैं। एक राजस्थानी लोकगीत याद आ गयाः
‘‘उड़ ज्या रे काग गिगन का वासी खबर तो ल्याव म्हारी गोरी की
नांव नहीं जांणू मै गावं नहीं जांणू सूरत न जांणू थारी गोरी की
नांव बतास्यां  गांव बतास्यां  सूरत बतास्यां  म्हारी गोरी की
लांबा लांबा केस मिरग का सा नेतर चाल चलै ठुकराण्यां की।’’  

लेकिन वीरों की धरती मेवाड़ में श्रृगांर रस के लिये स्थान कहाँ। यहां खड़े होकर हम मेवाड़ की तत्कालीन परिस्थितियों की कल्पना भली भांति कर सकते हैं। हल्दीघाटी का इतिहास बहुत विस्तार लिये हुए है। महाराणा प्रताप की वीरता ने ही हल्दीघाटी क्षेत्र को अमर कर दिया। 18 जून 1576 को अकबर की विशाल सेना और महाराणा की छोटी सेना के मध्य लड़ा गया युद्ध जिसमें प्रताप हारकर भी विजयी हुए, जिसने उनकी कीर्ति को सारे विश्व में फैला दिया, वह हल्दीघाटी और प्रताप इतिहास ही नहीं प्रत्येक हिन्दुस्तानी के सीने में अंकित है। आज चार सौ साल से ज्यादा समय हो गया है किंतु आज भी मेवाड़ में लोग प्रताप की सौगन्ध लेते हैं।
हल्दीघाटी युद्ध में सेनानियों की कुल संख्या के बारे में अलग-अलग आंकड़े हैं। किन्तु अकबर की सेना के साथ चल रहे इतिहासकार अल बदायुनी ने मुगलों की सेना की संख्या पांच हजार व महाराणा की सेना की संख्या तीन हजार बताई है। अकबर की सेना में जहां हल्का आधुनिक तोपखाना था वहीं राणा के सैनिकों के मुख्य हथियार भाले, छोटी तलवारें, धनुष वाण व गोफन (गुलेल) थे। यह अद्भुत संयोग था कि मान सिंह की सेना के अग्रिम दल में जगन्नाथ के नेतृत्व में राजपूत सैनिक थे तो वहीं महाराणा के अग्रिम दल में हकीम खां सूर के नेतृत्व में मुसलमान पठान सैनिक।
       हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप को यद्यपि युद्ध का मैदान छोड़कर जाना पड़ा परन्तु विजय अकबर की भी नहीं हुयी। उसके बाद अकबर की सेना और प्रताप के बीच यु़द्ध अनवरत चलता रहा। ......
इतिहास जहां पर मौन हो जाता है वहां यह भी हकीकत है कि चारणों ने ही भूतकाल को जीवित रखा। चारण गीतों में राजाओं महाराजाओं के अनेक किस्से मिलते हैं। चारणों की वीरगाथाओं में ही यह भी मिलता है कि निरन्तर युद्ध पर युद्ध और हार पर हार से प्रताप तिलमिला गए। हर वक्त डर रहता था कि वे स्वयं या राजपरिवार का कोई सदस्य मुगलों के हाथ न पडे। वे कभी पर्वतों की गुफाओं में पत्थरों पर सोकर रातें गुजारते तो कभी पेड़ों पर बैठे-बैठे दिन काटते। जंगली फलों पर गुजारा करते। कई बार शत्रुओं से बचने के लिए उन्हें मामूली भोजन छोड़कर भी भागना पड़ता। केवल इस संकल्प के लिए कि तुर्कों के सामने सिर नहीं झुकायेंगे। किन्तु एक बार उनकी प्रतिज्ञा टूटने लगी, वे झुकने लगे। हुआ यह कि महारानी और युवरानी ने घास के बीज के आटे से रोटी बनाई थी। बच्चों को एक-एक रोटी दी गई कि वे आधी अभी खा लें और आधी बाद में। प्रताप किनारे बैठे किसी गहन सोच में थे कि उनकी पौत्री की दारुण पुकार उन्हें सुनाई दी। वास्तव में एक जंगली बिल्ली उसके हिस्से की रोटी झपट्टा मारकर ले गई थी। महाराणा तिलमिला गए। एक घास की रोटी के लिए राजपरिवार की कन्या की हृदयभेदी चीत्कार ! युद्ध भूमि में सगे क्या, पुत्र की वीरगति पर भी जो प्रताप कभी विचलित नहीं हुए, वह राजकुमारी की चीख से तिलमिला गए, आंखों में आँसू आ गये। युद्ध भूमि में सगे क्या, पुत्र की वीरगति पर भी जो प्रताप कभी विचलित नहीं हुए, वह राजकुमारी की चीख से तिलमिला गए, आंखों में आँसू आ गये। उन्होंने तुरंत अकबर को संधि पत्र लिखा।
          अकबर पत्र पाकर बहुत खुश हुआ। पत्र बीकानेर रियासत के राजा के भाई पृथ्वीराज को दिखाया जो अकबर के दरबार में राजकवि था। पृथ्वीराज राजपूतों की आखिरी आशा और वीर महाराणा की वह चिट्ठी देखकर अत्यन्त दुखी हुआ। किंतु प्रत्यक्ष में कहा कि ‘मुझे विश्वास नहीं है कि यह चिट्ठी प्रताप की है। मुगल साम्राज्य मिलने पर भी प्रताप कभी सिर नहीं झुकाएगा। मैं स्वयं ही पता कर लेता हूं।’ पृथ्वीराज महान कवि थे, अतः घुमा फिराकर यह पत्र लिखा-
‘अकबर समद अथाह, तिहं डूबा हिंदू तुरक,
मेवाड़ तिड़ मांह, पोयण फूल प्रताप सी। अकबरिये इकबार,......
(अर्थात अकबर रूपी समुद्र में हिन्दू तुर्क डूब गए हैं, परन्तु मेवाड़ के राणा प्रताप उसमें कमल की तरह खिले हुए हैं। अकबर ने सबको पराजित किया किन्तु चेतक घोड़े पर सवार प्रताप अभी अपराजित है। अकबर के अंधेरे में सब हिन्दू ढक गये हैं किन्तु दुनिया का दाता राणा अभी उजाले में खड़ा है। हे हिन्दुओं के राजा प्रताप, हिन्दुओं की लाज रख। अपनी प्रतिज्ञा के पूर्ण होने के लिए कष्ट सह। चित्तौड़ चंपा का फूल है और प्रताप उसकी सुगंध। अकबर उस पर बैठ नहीं सकता, यदि प्रताप अकबर को अपना बादशाह माने तो भगवान कश्यप का पुत्र सूरज पश्चिम में उदय होगा। हे एकलिंग महादेव के पुजारी प्रताप, वह लिख दो कि मैं वीर बनके रहूंगा या तलवार से अपने को काट डालूंगा)

        पृथ्वीराज की इस कविता ने दस हजार सैनिकों का काम किया। प्रताप रोमांच से भर उठा और प्रताप ने उत्तर में लिख भेजा।
तुरुक कहां सो मुख पतों, इन तणसुं इकलिंग
उसै जासु ऊगसी, प्राची बीच पतंग,........
(अर्थात भगवान एकलिंग जी के नाम से सौगंध खाता हूं कि मैं हमेशा अकबर को तुर्क नाम से ही पुकारुंगा। जिस दिशा में सूरज हमेशा से उगता आया है वह उसी दिशा में उगता रहेगा। वीर पृथ्वीराज, सहर्ष मूंछों पर ताव दो, प्रताप की तलवार यवनों के सिरों पर ही होगी)
        मेवाड़ की धरती प्रताप के ऐसे वीरता पूर्ण किस्सों से भरी पड़ी है। खमणौर की पहाड़ियों की सोंधी खुशबू देर तक
अपने हृदय मे भरकर चाहते हुए भी वापसी के लिए निकल पड़ा। इस आशा के साथ कि अगली बार पर्याप्त समय लेकर आऊंगा और आहड़, गोगूंदा, मांडलगढ़, कुम्भलगढ़, भोमट आदि स्थानों को अवश्य देखूंगा। वापसी में एक बार फिर चेतक स्मारक पर उतरकर उस वीर पशु को श्रद्धांजलि दी।
                                                                                   (उदयपुर, हल्दीघाटी व चित्तौड़गढ यात्रा संस्मरण का एक अंश)

Sunday, May 03, 2020

सरल हृदय व विराट व्यक्तित्व का महापुरुष: कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार

पुण्यतिथि पर विशेष

    अप्रैल 1992 में इलाहाबाद से आदरणीय मोहनलाल बाबुलकर जी का पत्र आया कि‘देहरादून टाउन हॉल, में
उन्नीस अप्रैल को डॉक्टर भक्तदर्शन और कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार को श्रद्धांजलि स्वरुप वसुधारा का श्रद्धांजलि अंक के लोकार्पण के सिलसिले में देहरादून आ रहा हूँ, मिलना।’  डॉक्टर भक्तदर्शन और कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार की यह पहली पुण्यतिथि वर्ष था। टाउन हॉल खचाखच भरा हुआ था, मंचासीन वक्ताओं श्रीमती सावित्री भक्तदर्शन, मेहरबान सिंह नेगी, कर्नल युद्धवीर सिंह परमार, श्रीमती सुमित्रा धूलिया, मोहनलाल बाबुलकर तथा मुख्य अथिति महन्त इन्द्रेश चरणदास जी के अतिरिक्त हॉल में उपस्थित राधाकृष्ण कुकरेती, कर्नल इन्दर सिंह रावत, बलवन्त सिंह नेगी, लेफ्टिनेंट जनरल महेन्द्र सिंह गुसाईं, चंद्र सिंह रावत आदि गणमान्य लोगों ने दिवंगत विद्वानों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला।
   

 टिहरी का निवासी होने के कारण कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार(18/5/1907 - 5/5/1991) के दर्शन दो-तीन बार अवश्य हुये थे। लगभग साढ़े पाँच फुट छरहरी काया, सुतवा नाक, सिर पर पहाड़ी टोपी, अचकन और चूड़ीदार सफेद पायजामा। आँखों में चमक और मुख पर छलकता आत्मविश्वास। बातों में माधुर्य तो नहीं किन्तु अकड़ भी नहीं। तनकर बात करने का अन्दाज। हमारा पुराना दरबार जाना कदाचित ही होता था। मेरा गांव टिहरी के पूरब में भिलंगना की उपत्यका में बसा हुआ है और पुराणा दरबार टिहरी नगर के पश्चिमी छोर पर। मेरे गांव, इलाके के लोग टिहरी की भादो की मगरी, चना खेत व सुमन चौक क्षेत्र तक ही बसे थे। पुराणा दरबार तब बसा था जब दिसम्बर 1815 में महाराजा सुदर्शन शाह ने टिहरी राजधानी के रूप में बसाया। पुराणा दरबार हम तीन कारणों से ही जाते थे; भारतीय स्टेट बैंक में, टिहरी प्रवास के दौरान बस अड्डे से घूमते हुये और कभी कॉलेज से बंक मारने पर।
    कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार जी संयुक्त प्रान्त(अविभाजित उत्तर प्रदेश) सरकार में प्रशासनिक पदों पर रहे, किन्तु समाज में उनकी छवि प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर नहीं विद्वान लेखक, इतिहास पुरुष व पुरातत्वविद के रूप में है। सौ से अधिक छात्रों को उनकी जाति, धर्म पूछे बिना पारिवारिक तथा निजी खर्चों में कटौती कर मेहनत से जुटाये गये धन से खरीदी गई हजारों पुस्तकें, दर-दर भटककर एकत्रित किये गये ताम्रपत्र व अन्य बेशकीमती पांडुलिपियां उपलब्ध करवाकर उन्हें शोध पूरा करवाया। सैकड़ों छात्रों को अपने व्यय से भोजन व आवास की सुविधाएं उपलब्ध करवाकर शिक्षित करवाया ताकि शिक्षा के क्षेत्र में प्रसार हो। अपनी भाषा व अपनी संस्कृति के प्रति इतना समर्पण कि ब्रिटिश काल में उच्च शिक्षा प्राप्त होने पर भी उन्होंने न मातृभाषा गढ़वाली बोलना छोड़ा और न अपने सिर पर पहाड़ी टोपी पहनना।
    

उच्च शिक्षा प्राप्त राजपरिवार का सदस्य, टिहरी राज्य में एस. डी. एम., डी. एम. व होम सेक्रेट्री, भारतीय सेना में कैप्टन और उत्तर प्रदेश प्रान्त में ए. डी. एम. जैसे महत्वपूर्ण पदों पर सेवा दे चुके ठाकुर पंवार के भीतर अहंकार लेशमात्र भी नहीं था। जिसके सैकड़ों शोधपत्र देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थें, अनेक विश्वविद्यालयों के विषय विशेषज्ञ भी जिनके ज्ञान का लोहा मानते थे ऐसा विद्वान ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार दरबार से निकलकर साहित्य सेवा से जुड़े किसी भी व्यक्ति के दरवाजे पर जाने से नहीं हिचकते थ,े एडवोकेट महावीर प्रसाद गैरोला, साहित्यकार मोहनलाल नेगी, डॉ0 यशवन्त सिंह कटौच, डॉ राकेश चन्द्र नौटियाल, एडवोकेट वंशीलाल पुण्डीर, सरदार प्रेम सिंह आदि विद्वानों ने यह अपने संस्मरणों में लिखा। सरकारी सेवा मंे अधिकांश लोग जहाँ अपनी ऊर्जा धनोपार्जन पर लगाते हैं वहीं ठाकुर साहब ने अपनी ऊर्जा, समय और पैसा दुर्लभ पांडुलिपियों के संग्रहण और ताम्रपत्रों की खोज में लगाया। पुराणा दरबार पुस्तकालय के संरक्षण व संवर्द्धन में आजीवन लगे रहे, संत चन्ददास, संत लक्षदास, संत मीता साहिब, टीकाराम और गिरधारी दुबे आदि गुमनाम विद्वानों के साहित्य की खोज में लगे रहे।
    

ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार पर निन्दक कट्टरता के आरोप लगाते रहे पर ठाकुर साहब नौटियाल, डंगवालों को अपना गुरु मानते थे और गुरू किसी भी उम्र का ही क्यों न रहा हो उसके सामने नतमस्तक होकर ही प्रणाम करते थे। पीपल-बरगद पेड़ या लोक देवता के रूप में स्थापित पत्थर की वह परिक्रमा करना कभी न भूलते। कोई स्थानीय हो या बाहर से आया हुआ यदि उन्हें मालूम हो जाता कि जिससे वह बात कर रहे हैं गढ़वाली है तो फिर उससे वह गढ़वाली में ही बात करते। सामने वाले को तब गढ़वाली में ही बात करनी पड़ती थी। गढ़वाली भाषा के प्रति इतनी चाहत, इतना लगाव व समर्पण शायद ही कहीं हो। 
ठाकुर साहब के बारे में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार हैं; ठकुरानी ठा0 शूरवीर सिंह ए0 के0 पंवार- ‘ठाकुर साहब को तरह-तरह के व्यंजन खाने और मित्रों को खिलाने का शौक रहा है।........ रामपुर में सेवाकाल के दौरान वहाँ के नवाब साहब से पारिवारिक सम्बन्ध जैसे बन गए थे, जिससे उनकी बहन नन्हीं बेगम ठाकुर साहब को राखी बान्धती थी। वहाँ से निकलने के बाद भी वह राखी पर आया करती थी और यह क्रम कई वर्षों तक चलता रहा।
कर्नल युद्धवीर सिंह पंवार- ‘....हमारे पिता राजकुंवर विचित्रशाह की भांति कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार जी साहित्य प्रेमी व विद्या व्यसनी रहे। उन्हे देर रात तक पुस्तकें पढ़ने-लिखने की आदत थी और यह आदत उनकी अन्तिम समय तक बनी रही।.....’
डॉक्टर महावीर प्रसाद गैरोला- ‘फतेह प्रकाश’ एवं ‘अलंकार प्रकाश’ का सम्पादन एवं प्रकाशन करके भी कैप्टन साहब ने ख्याति अर्जित कर ली थी। ‘गढ़वाली एवं गढ़वाल के प्रमुख अभिलेख एवं शिलालेख’ को भी कैप्टन साहब ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किया था।.... मेरेे अथक प्रयास के बाद भी गढ़वाल तथा कुमाऊं विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित नहीं नहीं किया।......’
डॉक्टर गोविन्द चातक- ‘...वह एक लेखक ही नहीं एक सजग पाठक भी थे। ‘जीतू की गाथा’ को जब मैंने अपनी लोककथाओं की पुस्तक में शामिल किया तो ए.डी.एम. के रूप के अलीगढ़ में तैनाती के दौरान उनकी टिप्पणी मिली। भौतिक रूप से उनसे मिलने का सिलसिला तदोपरान्त ही प्रारम्भ हुआ। पुराणा दरबार की टूटी-फूटी विशाल इमारत में अकेले रहने वाला व्यक्ति, जो यहाँ धूल-गर्द से भरी चारों तरफ बिखरी किताबों व पांडुलिपियों के बीच स्वयं अतीत या अतीतातीत बनकर बैठा है। उन्हें देखकर कभी लगता जैसे कोई योगी भैरवी की साधना में जुटा हो। वैसे ही उजाड़ पुराना दरबार का झांकता अतीत, वैसे ही जीवन की सांझ, किताबें पांडुलिपियां और नीचे टिहरी का उजड़ता हुआ शहर।......’
मोहनलाल बाबुलकर- ‘....ठाकुर साहब ‘शोध का पितामह’ है। ...गढ़वाल के इतिहास के बारे में इस समय जो भी ज्ञातव्य है वह उनकी साधना का ही परिणाम है। वह गढ़वाल के इतिहास के सबसे बड़े अन्वेषक और जानकार जाने जाते रहे हैं। उनकी अपनी एक मौलिक दृष्टि थी, एक नया दृष्टिकोण था।....’
सत्य प्रसाद रतूड़ी- ‘....ठाकुर साहब को अपने संग्रहित पुस्तकों से अथाह प्रेम था वह पुस्तकांे को अलमारी में नहीं बक्सों में छुपाकर रखते थे। अपने विशाल अनन्य पुस्तकालय को आग से बचाए रखने के लिए पूरे भवन पर बिजली फिटिंग नहीं करवाई और ना पुस्तकालय भवन के लिए कोई कनेक्शन ही था।......’
मोहनलाल नेगी- ‘....ठाकुर साहब अपने पुस्तकालय की ओर देखने तक नहीं देते थे और किसी का पुस्तकालय में जाने का प्रश्न ही नहीं था। पुस्तकों के प्रति उन्हें अथाह प्रेम था जिससे वह बड़े शंकालु प्रकृति के हो गये थे। उन्हें शक रहता था कि लोगों की नजर उनकी किताबों पर है।.... ठाकुर साहब राजपूतों के बड़े हिमायती माने जाते रहे हैं। उनका तर्क था राजपूत क्योंकि बुद्धि और विद्या में ब्राह्मणों से पीछे थे इसलिए वे जोर-शोर से राजपूतों के उत्थान की बात करते थे।....’
डॉक्टर कुसुम डोभाल- ‘...प्राचीन टिहरी गढ़वाल की परंपरा के संदर्भ में कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के लेख पढ़ने को मिले। इन लेखों में इतिहास साहित्य एवं पुरातत्व का समावेश पाकर लगा कि सत्य, शिव एवं सुन्दरता मानो एक साथ ही प्रतिष्ठित हो गए हैं। उनके लेख अपनी व्यापकता में शोध एवं वोध की सम्भावना को आबद्ध किए हुए हैं। उनके साहित्यिक जीवन के उन्मेष का श्रेय उनकी दादी स्वर्गीय राजमाता महारानी गुलेरिया एवं उनकी माता को है।..... कैप्टन साहब का गढ़वाल की संस्कृति एवं भाषा के प्रति रागात्मक सम्बन्ध है। इसका प्रमाण उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘गढ़वाली के प्रमुख अभिलेख एवं दस्तावेज’ है। इस पुस्तक की भूमिका में गढ़वाली भाषा को वैदिक भाषा की ज्येष्ठ पुत्री कहा गया है।....(‘हिमालय के बहुआयामी व्यंितव का कृतित्व)
    

ठाकुर साहब के शोध कार्यों का यदि विधिवत अध्ययन किया जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उपरोक्त विद्वानों के वक्तव्यों से तो ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की एक झलक मात्र ही परिलक्षित होती है। उनके लेख ‘केदारखण्ड गढ़वाल में नागवंश’, ‘वाल्हीक जनपद कहाँ था’ ‘उत्तराखंड के इतिहास में मौखरी काल’ ‘आदिमानव की जन्मभूमि उत्तराखण्ड’ ‘शिवाजी का प्रभाव उत्तराखण्ड तक था’ आदि अनेक महत्वपूर्ण लेख उनकी इतिहास एवं ऐतिहासिक खोजों के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करती है। वहीं ‘मेहरौली (दिल्ली) के लौह स्तंभ का ऐतिहासिक महत्व’ ‘उत्तरकाशी के शक्ति स्तम्भ का अभिलेख’ आदि लेख उनकी पुरातत्विक जिज्ञासा की अभिव्यक्ति है। फतेह प्रकाश, अलंकार प्रकाश व गढ़वाली एवं गढ़वाल के प्रमुख अभिलेख एवं शिलालेख आदि उनके प्रकाशित ग्रंथ हैं। उनके संग्रहालय में उपलब्ध हस्तलिखित ग्रंथों की सूची, जो कि ठाकुर साहब द्वारा स्वयं प्रेषित की गई थी, इस प्रकार है;
1.    ‘वास्तु शिरोमणि’- संस्कृत ग्रंथ, शंकर गुरु कृत श्रीनगर गढ़वाल में। (सत्रहवीं शती पूर्वार्ध की रचना)
2.    ‘गढ़वाल राज वंशावली’ संस्कृत ग्रंथ, कवि देवराज कृत टिहरी गढ़वाल की उन्नीसवीं शती की रचना। (छोटे आकार का ग्रंथ)
3.    ‘श्री दत्तात्रेय तंत्र’ संस्कृत ग्रंथ, हिंदी भाषानुवाद सहित।
4.    ‘वृत कौमिदी ग्रन्थ’(छन्द सार पिंगल)- हिंदी भाषा, कवि मतिराम त्रिपाठी कृत संवत् 1758 वि0 की रचना।
5.    ‘रसरंग’ हिंदी भाषा, कवि टीकाराम त्रिपाठी कृत संवत् 1841 वि0 की उत्कृष्ट रचना।
6.    ‘सुदामा चरित्र’ हिंदी भाषा, कवि गिरधारी, सातनपुर-रायबरेली, बांसवाड़ा निवासी कृत। संवत् 1905 वि0 की रचना।
7.    ‘भागवत दशम स्कन्द’ कृष्णलीला- हिंदी भाषा, कवि गिरधारी कृत संवत् 1894 वि0 की उत्कृष्ट रचना।
8.    ‘रसमसाल’ हिंदी भाषा, कवि गिरधारी कृत संवत् 1950 वि0।
9.    ‘कृष्ण चरित्र’(12 सर्ग) कविवर चिंतामणि त्रिपाठी कृत हिंदी ग्रंथ।

10.    चन्ददास कृत ‘चन्द काव्य कौमुदी’ (विशाल आकार) हिंदी भाषा, अठाहरवीं शती की रचना।
11.    ‘अमृतराव प्रकाश’ हिन्दी भाषा में ऐतिहासिक महत्व का ग्रंथ, कवि ईश्वरी प्रसाद संवत् 1874 वि0।
12.    ‘विद्वन्मोद तरंगिणी’ हिंदी भाषा में अनेक श्रेष्ठ कवियों की उत्कृष्ट रचनाओं का विशाल संग्रह, जो राजा सुव्वा  सिंह एवं सुवंस शुक्ल द्वारा संग्रहित किया गया। इसी ग्रंथ से हिंदी भाषा के प्रसिद्ध इतिहासकार शिवसिंह सेंगर ने ‘शिवसिंह-सरोज’ ग्रंथ लिखने में विशेष सहायता ली थी।
13.    मेरे संग्रह में अठाहरवीं एवं उन्नीसवीं शती के अन्य श्रेष्ठ साहित्यकारों कवि मून, उदयनाथ, नेवाज, मीता साहब, भवानी प्रसाद द्विजराज, राव भूपाल सिंह, नन्द कुमार दत्त, समनेश, देव, भूधर आदि की रचनाओं के उत्कृष्ट संग्रह है।
14.    ‘सभासार’ हिंदी भाषा में, महाराजा सुदर्शन शाह, टिहरी गढ़वाल नरेश कृत सन् 1828 ई0 की रचना।
15.    ‘गढ़वाल का पुरातत्व’ फोटो चित्रों सहित- हिंदी भाषा में, कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार कृत।
      

 विडम्बना ही है कि जहाँ सौ से अधिक विद्वानों ने उनके मार्गदर्शन में उनके द्वारा संग्रहित ग्रन्थों, शोधपत्रों, पाण्डुलिपियों और ताम्रपत्रों को आधार बनाकर एम. फिल. और पी. एच. डी. की उपाधियां प्राप्त कर देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों के रूप में ख्याति अर्जित की उन्हीं ठाकुर साहब को किसी भी विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित तक नहीं किया गया। उनके शोध व उनके लेखों का समग्र मूल्यांकन आज तक भी नहीं हो पाया है।

Friday, May 01, 2020

जन जन के ईष्ट देवता मदननेगी

(मदननेगी मेले पर विशेष)

चन्द्रभाट चाँदनी का नाती बघेरा बाघनी का नाती
सोन का कलश लोहा का दरवाजा
पापा पुमराज का नाती गज गंभीर का नाती
पाट को पटुड़ी नीती भोज का राजा
गंगा को बग्यूं राजौं लगे दोष
पैलु थौळू देला राज का रौतेला
तब थौळू देला धारकोटा नेगी..............।
इन्हीं शब्दों के साथ नेल्डा (धारमंडल) के आवजी एलमदास मदननेगी लोकदेवता का द्यौ सिंगार (महिमा मण्डन/आह्वाहन) करते थे।

देवभूमि उत्तराखंड में प्रायः प्रत्येक धार प्रत्येक खाल में एक लोक देवता है। आस्था इतनी कि कहीं पर मन्दिर और कहीं प्रतीक रूप में पत्थरों का ढेर और उस पर झण्डा गड़ा हुआ। लोकदेवता की प्रसिद्धि समय के अन्तराल व भक्तों की संख्या पर निर्भर करती है। श्री मदननेगी का मन्दिर उन्हीं के नाम से चल रहे मदननेगी कस्बे में स्थापित है।

 टिहरी-प्रतापनगर पैदल मार्ग पर टिहरी शहर से छः मील दूरी पर भिलंगना की उपत्यका में बसा हुआ है मदननेगी।(टिहरी शहर जो अब विशाल झील में जलमग्न हो गया है) उत्तर में सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाला खैट-पीढ़ी-प्रतापनगर पर्वत पूरब पश्चिम फैला हुआ है और उसी के लम्बवत छोटी पहाड़ी के मध्य स्थित है मदननेगी। (गढवाली लोकगीतों व जागरों में खैट को आछरियों का निवास माना जाता है तो पीढ़ी को भराड़ियों का) इस पहाड़ी के बिल्कुल समानान्तर पूरब में एक गाड(पहाड़ी नदी) है। लगभग दस कि0मी0 लम्बाई वाली यह गाड भिलंगना नदी में समाहित होने से पूर्व पूरे दस गांवों को धन-धान्य से पूर्ण करता है।


मदननेगी का कहीं लिखित इतिहास नहीं मिलता परन्तु लोकधारणा है कि मदननेगी जीतू बगड़वाल के मामा थे।(यह अलग बात है कि कहीं जीतू बगड़वाल को ही मदननेगी का मामा माना जाता है) जीतू अपने मामा मदननेगी के साथ बैलों की जोड़ी खरीदने माळ (बैलों की मण्डी) गये और वापसी में दुर्भाग्यवश दोबाटा पडियारगावं व रामपुर गांव के बीच की भागीरथी नदी पार करते हुये पांव फिसला और वहीं जलसमाधि ले ली। तब वे मात्र 30 वर्ष के एक अविवाहित युवक थे। कहीं यह गाथा भी प्रचलित है कि धुनारों ने कह दिया था हम आप लोगों को नदी पार करा देते हैं पर शुल्क देना पड़ेगा। तो मदन नेगी ने मना कर दिया कि हम स्वयं ही पार कर लेंगे, पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। कहा जाता है कि धुनार पेशेवर तैराक होते थे और वे किसी व्यक्ति या सामान को नदी पार कराने के एवज में शुल्क लेते थे। यही उनका आजीविका का साधन था। (मदन नेगी के बहने की तिथि संभवतः बैशाख महीने की बीस गते रही होगी क्योंकि मदननेगी का मेला प्रतिवर्ष उनकी याद में इस तिथि को ही लगता है)

गढ़वाली लोक गाथाओं के युगपुरुष जीतू मूलतः भागीरथी नदी के बायें तट पर स्थित बगूड़ी गांव के निवासी थे। जीतू गढ़वाल राजा मानशाह के सामन्त थे, जिनका शासनकाल सन् 1547-1608 ई0 रहा। लोकगाथाओं व लोकगीतों में जीतू का वर्णन है कि खैट की आछरियों (अपसराओं) द्वारा जीतू का अपहरण छः गते आषाढ़ को
किया गया जब वे अपने खेतों को रोपाई के लिये तैयार कर रहे थे। खेत के मध्य ही धरती फटी और जीतू बैलों सहित धरती की गोद में समा गया। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि मामा मदननेगी व भांजे जीतू की मृत्यु जल में डूबकर ही हुयी।

कुछ लोग श्री मदननेगी का पैतृक गांव धारमण्डल के पटूड़ी मानते हैं किन्तु सान्दणा के स्व. जितार सिंह रावत जोर देकर कहते थे कि मदननेगी मूलतः सान्दणा के निवासी थे, उनकी अगली पीढ़ी पटूड़ी बस गयी और फिर कालान्तर में उनके वंशज धारकोट और कफलोग चले गये। बहरहाल, सान्दणा व धारकोट गांव के पुराने संबन्ध आज भी है। वर्षों से पुरोहिताई कार्य कर रहे जलवाल गांव के स्व. भोलादत्त जुयाल का कहते थे कि पहले सान्दणा गांव के निवासियों द्वारा मदननेगी में त्रिशाली (प्रत्येक तीसरे वर्ष) जात्रा दी जाती थी। सान्दणा, खोला व जलवाल गांव के बाशिन्दे कोई भी शुभकार्य प्रारम्भ करने से पूर्व आज भी मदननेगी के नाम रोट-भेंट अवश्य करते हैं। लेकिन वास्तविकता यह भी है कि मदननेगी धारमण्डल पट्टी के बीस-पच्चीस गांवों में ही नहीं टिहरी नगर वासियों, रैका, अठूर, सारज्यूला व खासपट्टी के अनेक गांवों में श्रृद्धा भाव से पूजे जाते हैं। श्री मदननेगी मेले में प्रतिवर्ष अपार भीड़ का उमड़ना भी इसकी पुष्टि करता है।

मंदिर की स्थापना के विषय में लोगों का मानना यह है कि अकाल मृत्यु के पश्चात् मदननेगी ने गढ़वाल के राजा  को सपने में दर्शन दिये और कहा कि ’’मेरा स्मारक ऐसे स्थान पर बनाया जाय जहां से मैं अपना गांव और पतित पावनी मां भागीरथी के दर्शन कर सकूँ।’(भागीरथी व भिलंगना के तट पर टिहरी तो सन् 1815 के बाद बसना शुरु हुआ) महाराजा द्वारा मन्दिर निर्माण के आदेश दे दिये गये। गढ़वाल के महाराजा पर मदननेगी के प्रभाव से सन्देह होता है कि संभवतः मदननेगी राजदरबार में किसी महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहे हों। परन्तु लोकगाथाओं
में जीतू के समान  मदननेगी को स्थान नहीं मिला है। मदननेगी लोकदेवता के रुप में स्थापित हो चुके थे, जन आस्था को देखते हुये और मदननेगी के आकर्षण के कारण उन्होंने मन्दिर बनवाने व प्रतिवर्ष मेले की व्यवस्था के लिये राजकोष से धन मुहैया कराना स्वीकार किया होगा। तब मेला 20 से 25 गते बैशाख तक चलता था। धीरे धीरे राजदरबार की ओर से मेले के लिए सहायता मिलनी बन्द हुयी तो मेला बन्द हो गया।

महाराजा कीर्तिशाह (शासनकाल सन् 1886-1913)द्वारा रैका की कोलगढ़ व बनाली गावं की भूमि पर अपने पिता महाराजा प्रतापशाह की याद में जब प्रतापनगर बसाया गया तो मदननेगी का महत्व और भी बढ गया। लगभग 2000 मीटर ऊँचाई पर स्थित होने के कारण प्रतापनगर को रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रुप में विकसित किया गया। साथ ही टिहरी से प्रतापनगर तक लगभग बारह मील लम्बा और दस-बारह फिट चौड़ा सम्पर्क मार्ग भी बना। प्रत्येक वर्ष मई माह में राजा व राजपरिवार, मंत्रीगण तथा मुख्य कारिन्दों सहित प्रतापनगर चले जाते थे। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि राजा, राजपरिवार के सदस्य व दासियों को भी पालकियों पर ढोया जाता था। जिसके लिये तब बेगार प्रथा प्रचलन में थी। यह हो सकता है कि टिहरी के बाद पहला पड़ाव पांच मील दूरी पर मदननेगी में पड़ता होगा, सभी लोग यहां पर कुछ देर सुस्ताकर टिहरी का विहगंम दृश्य देखकर ही आगे बढते होंगे।