Tuesday, January 23, 2018

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(3)

थोड़ी देर रुककर फिर आगे बढ़े। कुछ दूरी तक पहाड़ी के पार्श्व भाग में बांज के जंगल के बीच चले, लगभग तीन-साढ़े तीन सौ मीटर तक खड़ी चढ़ाई और फिर समतल भूभाग पर पचास-साठ मीटर दूरी का तीन फीट चौड़ा रास्ता, बल्कि रास्ता क्या इसे बालकोनी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। क्योंकि रास्ते के नीचे भटवाड़ा-गडोलिया की ओर सैकड़ों फिट गहरी खाई थी। भगवान न करे इस जगह पर यदि कोई फिसल जाय तो जान बचने की बात तो दूर रही शरीर के टुकड़े ही ढूंढ़ते रह जायेंगे परिजन। बालकोनी पार कर जब रक्षपाल मन्दिर में पहुँचे तो ऊपर वाले का आभार जताये बिना न रह सका। 

रक्षपाल मन्दिर के सामने की चट्टान पर भटवाड़ा गांव के कुछ लोग सब्बल, गैंती से पत्थर निकाल रहे थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि मन्दिर के सामने जो थोड़ी समतल व खुली जगह है उसे और चौड़ा कर हेलीपैड बनाया जा रहा है। आने वाले समय में श्र द्धालु वैष्णव देवी की भांति खैट मन्दिर दर्शन के लिये हेलीकॉप्टर से पहुँच सकेंगे।
यह‘रक्षपाल मन्दिर मूलतः मधु-कैटभ का मन्दिर है, इसी स्थान पर माँ दुर्गा ने मधु-कैटभ दैत्यों का वध किया था।’  पौराणिक कथा के अनुसार मधु और कैटभ नाम के दो दैत्यों का जन्म भगवान विष्णु के कान के मैल से हुआ माना जाता है। उत्तराखण्ड की लोकदेवी माँ नन्दा के राजजात मार्ग पर भी अनेक जगहों पर राक्षसों के साथ माँ नन्दा द्वारा यु( करने का वर्णन मिलता है। 2014 की राजजात में जब डोलियां नन्दकेशरी मन्दिर में रुकी थी तो वहाँ पर ही मुझे एक पुजारी ने बताया कि नन्दकेशरी नामक पड़ाव में माँ नन्दा देवी अष्टभुजा रूप में अवस्थित है और माँ नन्दा द्वारा मधु-कैटभ का वध इसी स्थान पर किया गया था। आलोचक मन फिर
कहने लगा कि यार यदि मधु-कैटभ का वध यदि नन्दकेशरी में किया जा चुका था तो फिर खैट के निकट इस स्थान पर मधु-कैटभ का पुनः वध कैसे किया गया? नकारा नहीं जा सकता है कि किसी देवस्थान की महत्ता बढाने के लिये उसे पौराणिक घटनाओं का जामा पहनाने की दुर्बलता सभी जगहों पर है। 

मधु-कैटभ के बारे में एक दंतकथा यह भी है कि भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ से पाँच हजार साल तक यु( किया। माँ दुर्गा की माया से वे भगवान विष्णु को दैत्य इतना दीन समझने लगे कि उन्हें वर मंागने को कहा। भगवान ने दोनों दैत्यों को उनके द्वारा ही मारे जाने का वरदान मांगा, दैत्यों ने वरदान तो दिया किन्तु यह शर्त रख दी कि उन्हें ऐसी जगह मारा जाय जहाँ इससे पहले कोई न मरा हो। यह सोचकर कि ऐसी जगह तो ब्रह्माण्ड में होगी ही नहीं जहाँ कभी कोई न मरा हो। भगवान विष्णु ने अपनी जांघ को इतना फैला दिया कि वह मैदान के रूप में परिवर्तित हो गया। फिर यु( हुआ तो भगवान विष्णु के वार से मधु दैत्य का सिर कुमाऊं में गिरा और कैटभ का सिर एक निर्जन पर्वत पर। कैटभ के गिरने से वही निर्जन पर्वत ‘कैटेश्वरी’ कहलाने लगा जिसका अपभ्रंश कालान्तर में ‘खैट’ हो गया।

 रक्षपाल मन्दिर से दक्षिण-पूरब की ओर हल्की चढ़ाई वाली लगभग सौ मीटर दूरी तय कर अपनी मंजिल खैट पर्वत पर पहुँचा तो मन अत्यन्त रोमांचित हुआ। लगा जैसे जीते जी ही स्वर्ग मिल गया हो। सामने खैट मन्दिर का प्रवेश द्वार और पीछे डूबती शाम की लालिमा में भिलगंना घाटी व सुदूर पश्चिम में नई टिहरी नगर का विहंगम दृश्य। चारों ओर गहरी घाटियां देखकर आशमान छू लेने की सी प्रतीति हो रही थी और फिर इतनी ऊँचाई पर पहुँचकर तो शरीर वैसे ही रुई जैसा लगने लगता है, मन निर्मल हो जाता है। तेज हवाएं संग उड़ाने पर आमादा थी। भटवाड़ा से खैट भले ही कुल पाँच किलोमीटर की दूरी पर है परन्तु ऊँचाई का फासला लगभग एक हजार मीटर है। देहरादून में मेरे घर से रेलवे स्टेशन भी लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन ऊँचाई का अन्तर है मात्र छब्बीस मीटर। गणित का सवाल है यह। यदि मैं पाँच मीटर प्रति किलोमीटर ऊँचाई के अन्तर वाले रास्ते को पैदल चलकर पैंतालीस-पचास मिनट में तय करता हँू तो औसतन दो सौ मीटर प्रति किलोमीटर ऊँचाई के अन्तर वाले खैट के इस ऊबड़-खाबड़ व पथरीले रास्ते को तय करने में कितना समय लगेगा? अरे चालीस गुना नहीं, कुल चार गुना समय ही लगा मुझे खैट पहुँचने में। 

पाँच-छः सीढ़ियां चढ़कर प्रवेश द्वार पर सिर नवाया और ऊपर लटकी घण्टी बजाई। फिर अपनी मूर्खता पर हँसा कि क्या मैं देवी को अपने आगमन की सूचना दे रहा हूँ? छि, मैं कैसा भक्त हूँ, देवी तो अन्तर्यामी हैं! मन्दिर स्थल वाला यह सम्पूर्ण भू-भाग अलग-अलग ऊँचाई पर छोटे-छोटे टेरैस के आकार में बने हुए हैं। प्रवेश द्वार से नीचे अलग टेरेस, आगे कुछ सीढ़ियां चढ़कर दूसरा टेरेस जिस पर अथिति गृह/धर्मशाला आदि बने हैं, फिर आठ दस सीढ़ियां चढ़कर तीसरा टेरेस, जिस पर पाण्डाल, भागवत कथा के लिये वेदी, वेदी से कुछ दूरी पर पीछे बरसाती जल संग्रह के लिये बावड़ी व भगवान शिव की मूर्ति बनी है तथा चौथे व अन्तिम सबसे ऊँचे टेरेस पर दुर्गा मन्दिर व पीछे काफी खुली जगह है। अर्थात खैट पर्वत की आकृति कुछ-कुछ उल्टे कटोरे जैसी है। भूविज्ञान के अनुसार ऐसे स्थान को अवनति आकार (Anticlinal Sturcture)  कहा जाता है। 

सूर्यास्त का समय था, आरती हो चुकी थी। मन्दिर में भागवत कथा जैसी चहल-पहल नहीं दिखी। यात्री के नाम पर अंकित, मैं और एक तीसरा व्यक्ति मात्र। कथावाचक सहित चार-पाँच पण्डित लोग थे और खाना बनाने वाले तीन-चार लोग। नीचे रक्षपाल मन्दिर के सामने पत्थर निकालने वाले लड़कों के लिये रहने की व्यवस्था वहीं पास में ही थी, परन्तु मन्दिर परिसर में उनकी आवाजाही निरन्तर बनी हुयी थी, खाना वे मन्दिर के भोजनालय में ही खाते थे। मैंने पण्डित जी से अनुरोध किया कि मैं दर्शन व पूजा कर अपनी भेंट मन्दिर में अभी चढ़ाना चाहता हूँ जिससे सुबह जल्दी निकल सकूं, पण्डित विनोद डिमरी जी मान गये। मन्दिर के भीतर प्रवेश कर पण्डित जी ने विधि-विधान से पूजा करवायी, नाला;रक्षासूत्रद्ध मेरे हाथ पर बाँधा, टीका लगाया और मैंने पुष्प, पत्र देवी माँ के चरणों में चढ़ाकर देवी के साथ-साथ पण्डित जी से भी आशीर्वाद लिया। मन्दिर में प्रवेश करने से पहले मेरा अनुमान था कि भीतर आछरी-भराड़ी की पूजा होती होगी। परन्तु भीतर माँ दुर्गा की मूर्ति देखकर थोड़ी हैरानी हुयी। पण्डित जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि आछरी का मन्दिर नीचे प्रवेशद्वार के पास बना हुआ है। (मन ही मन सोचा कि खैटपर्वत पर आछरियों का मन्दिर होना चाहियेे था किन्तु यहाँ तो...। तो क्या आछरी को दुर्गा रूप मान लिया गया है? वैसे इसी मन्दिर के प्रांगण में एक ओर भगवान शंकर की मूर्ति भी स्थापित है। बाजारीकरण के इस दौर में वह दिन दूर नहीं जब कुंजापुरी, सुरकण्डा आदि मन्दिरों की भांति खैटपर्वत पर भी भगवान गणेश, माँ काली, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, भगवान श्रीकृष्ण, वीर हनुमान, शनिदेव आदि अनेक देवताओं की मूर्तियां स्थापित होगी।)