Tuesday, November 19, 2019

जी.टी.एस.(Great Trigonometrical Survey) बंेच मार्क

            हैदराबाद में ‘‘सर्र्वेइंग इंस्टीट्यूट’’ में प्रशिक्षण के दौरान एक दिन हॉस्टल में बैठे थे, जी.टी.एस.(Great Trigonometrical Survey) पर चर्चा हुयी तो एक मित्र ने बताया कि ‘उच्च हिमालय में एक क्षेत्र विशेष के सर्वेक्षण के लिए एक बार हम पर्मानेण्ट बेंच मार्क ढूंढ रहे थे। मैप हमारे हाथ मे था और गणना की तो देखा कि जहाँ पर जी.टी.एस. बंेच मार्क था उसके ऊपर तो एक स्थाई पुलिस चेक पोस्ट स्थापित हो चुकी है। चौकी प्रभारी को यह बात बतायी गयी तो वह आपे से बाहर हो गया कि ‘यह नहीं हो सकता, हमारी पोस्ट कई सालों से यहाँ पर है, आप कन्फ्ूयज है, कहीं और ढूंढ लीजिए।’ अब क्या करें। अगला जी.टी.एस. बंेच मार्क मीलों दूर और सड़क मार्ग से परे था। चौकी प्रभारी नहीं माना तो हमारे सर्वे ऑफीसर भी फैल गये। फील्ड कार्य का लम्बा तजुर्बा होने के कारण उन्हें अपने पर पूरा विश्वास था। उन्होंने चौकी प्रभारी को जी.टी.एस. बंेच मार्क संरचना विस्तार से समझाया और कहा कि ‘यदि यहाँ प्रयुक्त पीतल की प्लेट, जिस पर संख्या अंकित है, नहीं मिलती है तो आप हमारे विरुद्ध कार्यवाही कर सकते हैं।’ चौकी हटाई गयी और अंकित पीतल की प्लेट देखकर चौकी प्रभारी को अपनी गलती का अहसास हुआ और शायद उस दिन ही वह सर्वे ऑव इण्डिया विभाग की महत्ता समझा होगा।

            
          प्रसंग इसलिए कि इसी माह शुरूआत में जनकवि व पर्यावरणविद चन्दन नेगी जी के साथ मसूरी घूम रहा था तो सन् 1885 में निर्मित कुलड़ी स्थित ‘सेण्ट्रल मेथोडिस्ट चर्च’ देखने भीतर गये। चर्च के आंगन में उत्तरी दिशा में एक जी.टी.एस. बंेच मार्क -1908 पर नजर पड़ी, जिस पर समुद्र तल से ऊंचाई 8570.028 फीट अंकित है। (गौरतलब है कि ब्रिटिश सिस्टम- एफ. पी. एस. में लम्बाई के माप फीट में है जबकि अमेरिकन सिस्टम एम. के. एस. में माप मीटर में लिखे जा रहे हैं।)
           
          जी.टी.एस. सर्वेक्षण की वह विधा है जिसमें उच्च वैज्ञानिक परिशुद्धता के साथ माप लिए जाते हैं। भारतीय सर्वेक्षण विभाग के स्थापना के लगभग सैंतीस वर्ष बाद एक इन्फेण्ट्री ऑफीसर विलियम लैम्बटन द्वारा यह त्रिकोणमितीय विधा सर्वप्रथम सन् 1802 में प्रारम्भ की गयी थी। आज भले ही उच्च तकनीकी के उपकरण आ गये हैं किन्तु लगभग दो सौ साल पहले इस विधा द्वारा ही माउण्ट एवरेस्ट, के-2 आदि हिमालयी पर्वत श्रेणियों की ऊंचाई की वास्तविक गणना की जा सकी है। भारत की आजादी तक सर्वेक्षण विभाग में गोरे लोग ही मुख्य पदों पर रहे है किन्तु यह गौरव की बात है कि नैन सिंह रावत और कृष्णा सिंह रावत जैसे भारतीय सर्वेक्षकों का ल्हासा-तिब्बत की ऊंचाई और ब्रह्मपुत्र नदी की लम्बाई नापना जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में प्रमुख योगदान रहा है।

Wednesday, October 30, 2019

तुम छली निकले सुरेन्द्र भाई!

Me & Surendra Pundir
       सुरेन्द्र भाई ने मुझे आश्वासन दिया था कि ‘तुम्हें ‘जॉर्ज एवरेस्ट’ घुमाने की जिम्मेदारी मेरी है।’’ यह आश्वासन महीने-दो महीने पहले नहीं बल्कि तीन-चार साल पहले दिया था। जब भी मिलते, कहते-‘बस गुरूजी, अगले हफ्ते चलेंगे।’ और उनका वह अगला हफ्ता आया भी नहीं कि वे हमसे बहुत दूर चल दिये।
         सोमवार इक्कीस अक्टूबर सुबह प्रवीण भट्ट जी का फोन आया कि ‘‘सुरेन्द्र पुण्डीर हमें छोड़कर चले गये हैं’’ तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। एक बार फिर पूछा तो प्रवीण भट्ट जी ने बताया कि ‘मसूरी में घटना घटी और बारह बजे लगभग हरिद्वार के लिए अन्तिम यात्रा निकलेगी।’ फिर भी पुष्टि करने के लिए रमाकान्त बेंजवाल जी और शशी भूषण बडोनी जी को फोन मिलाया। सोशल मीडिया पर भी यह खबर फ्लैश हो गयी तो दिल पर पत्थर रखकर मानना पड़ा कि सुरेन्द्र भाई अब हमारे बीच नहीं है। हरिद्वार खड़कड़ी घाट पर अन्तिम संस्कार में शामिल होने के लिए रमाकान्त बंेजवाल जी और मैं समय पर पहुँच गये थे। मसूरी से उनके परिजन उनका शव लेकर पहुँचे और अन्तिम स्नान के लिए नीचे रखा तो देखा कि सुरेन्द्र भाई अर्थी पर शान्त लेटे थे। सोचने लगा कि काश! कोई चमत्कर होता और सुरेन्द्र भाई उठकर अपने चिरपरिचित अन्दाज में कह उठते ‘और गुरूजी, आ गये?’ परन्तु वे तो अनन्त यात्रा पर जा चुके थे। 
Hand Writing of Surendra Pundir
         सुरेन्द्र भाई से परिचय लगभग ढाई दशक पुराना है, जब मैं रचनाकारों से ‘बारामासा’ के लिए रचना भेजने का आग्रह करता था। तब मोबाइल क्या लैण्ड लाईन फोन ही कम लोगों के पास थे। पूरा संवाद चिट्ठी से ही चलता था। सन् 1996 के आसपास उनकी पहली किताब आयी ‘जौनपुर के लोकदेवता’। पुस्तक पढ़कर जौनपुर के स्थानीय देवताओं के बारे में कितना जाना कह नहीं सकते किन्तु क्लीन सेव्ड गोरा चौड़ा मुखड़ा, माथे से पीछे की ओर सीधे संवारे गये काले घने लम्बे बाल और कभी सिर पर जौनपुरी टोपी, चेहरे पर हर समय निश्चल हंसी, कन्धे पर खादी का झोला, एक आम पहाड़ी कद और व्यवहार में बिल्कुल सरलता देखकर हमारे मन में सुरेन्द्र भाई की छवि ही एक लोकदेवता की बन गयी। सन् 1997 की ही बात होगी जब पर्वतीय ईप्टा के मसूरी प्रभारी सतीश कुमार जी के बुलावे पर एक दिन हम चार लोग- निरंजन सुयाल, जगदम्बा प्रसाद मैठाणी, मोहन बंगाणी और मैं मसूरी पहुंचे तो वहाँ अपनी सदाबहार मुस्कान के साथ उपस्थित सुरेन्द्र भाई के गले लगते हुये निरंजन सुयाल कह ही बैठे ‘मसूरी के लोकदेवता जी’! कैसे हैं आप? तो मैं मुस्कराए बिना न रह सका। पर्वतीय ईप्टा के कार्यक्रम के बीच वहीं गढ़वाल टेरेस में उस दिन सुरेन्द्र भाई की एक मार्मिक कविता ‘किड़ू’ सुनने का सौभाग्य भी मिला।
Jaunpuri Lady : Photo by - Surendra Pundir
          श्रीमती तारा देवी और श्री महेन्द्र सिंह पुण्डीर के घर जुलाई 04, 1956 को जन्मे सुरेन्द्र पुण्डीर जौनपुरी भाषा, जौनपुरी संस्कृति और जौनपुरी साहित्य के एक सच्चे प्रतिनिधि थे। ‘वे जौनपुर के थे’ कहने से अधिक प्रासंगिक होगा यह कहना कि जौनपुर उनके भीतर बसता था। एक दिन रौ में बहते हुये उन्होंने बताया कि वे मूलतः जौनपुर के नहीं बल्कि टिहरी गढ़वाल, कीर्तिनगर विकासखण्ड के अन्तर्गत लोस्तू बडियारगढ़ पट्टी में तल्ली रिंगोली गांव के हैं। उनके पिताजी रोजगार के सिलसिले में मसूरी आये, रोजगार मिला और जौनपुर के लगड़ासू गांव में शादी कर हमेशा के लिए मसूरी के होकर ही रह गये।
         मसूरी में लण्ढ़ौर कैण्ट के मलिंगार लॉज में रहकर सुरेन्द्र भाई की परवरिश व शिक्षा-दीक्षा हुयी। परिवार के भरण पोषण के लिए कुछ रोजगार जरूरी था। पिताजी के गुजर जाने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण चार भाईयों में सबसे बड़े सुरेन्द्र भाई ने पढ़ाई के साथ-साथ पहाड़, विशेषकर जौनपुर के हस्तशिल्प, यथा टोपी, मफलर, स्वैटर आदि की दुकान खोली। मसूरी पर्यटक केन्द्र होने के कारण ही नहीं अपितु सुरेन्द्र भाई के व्यवहार कुशल होने के कारण दुकान खूब चल पड़ी। शिक्षा के प्रति समर्पित थे ही इसलिए संघर्ष के साथ-साथ उन्होंने एम. ए.(हिन्दी) की डिग्री भी ली। लेखन का शौक उन्हें पत्रकारिता की ओर ले आया जबकि साहित्य के प्रति रुचि होने के कारण लेख, फीचर, कविता आदि भी निरन्तर लिखते रहे। गढ़वाल के बावन गढ़ों में से एक ‘विराल्टा गढ़’ जैसे अनेक जगहों के बारे में मैं सुरेन्द्र भाई के लेखों से ही जान पाया। प्रवक्ता पद पर तैनाती के दौरान वे राजकीय इण्टर कॉलेज, घोड़ाखुरी (जौनपुर) में तैनात रहे किन्तु दुर्भाग्य से वर्ष अक्टूबर 2004 के शासनादेश के दायरे में आने और नौकरी की अवधि कम होने के कारण पेन्शन से वंचित रह गये। नौकरी पर रहे तो अपने तैनाती स्थल घोड़ाखुरी के इतिहास, भूगोल की रोचक, सुन्दर व प्रभावशाली जानकारी अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने ही दी, इतनी कि हर पाठक के मन में घोड़ाखुरी देखने की इच्छा जाग गयी।
L to R : Surendra Pundir, N.K.Hatwal, Me & S.N.Badoni
       अमर उजाला व मसूरी टाईम्स जैसे समाचार पत्रों से ही नहीं अपितु अलीक, सिद्ध, पहाड़ आदि अनेक संस्थाओं से वे सीधे जुड़े हुये थे। उनका किसी पत्र या संस्था से जुड़ना नाममात्र जुड़ना नहीं होता था बल्कि अपने कन्धो पर वे पूरी जिम्मेदारी लेते थे। मासिक पत्रिका ‘लोकगंगा’ के प्रकाशक/सम्पादक श्री योगेश चन्द्र बहुगुणा जी के अस्वस्थ होने के कारण आजकल वे लोकगंगा के नये अंक के प्रकाशन के लिए दिन रात एक किये हुये थे। दायां हाथ कुहनी से नीचे पोलियों ग्रस्त होने के साथ-साथ परिवार की आर्थिक तंगी भी उनकी रचनाशीलता में कभी बाधा नहीं बनी और न उन्होंने कभी यह कमियां उजागर होने दी। वे निरन्तर सृजनरत रहे।
           साहित्यिक कार्यक्रम कहीं पर भी हो अपनी जौनपुरी टोपी और मनमोहक मुस्कान के साथ सुरेन्द्र भाई वहाँ उपस्थित मिलते। सोशल मीडिया और इधर-उधर प्रकाशित होती उनकी कविता की गहराई से मैं बहुत प्रभावित था। एक दिन बातों-बातों में मैने जिक्र किया ‘भाई, आपकी कविताएं जगह-जगह प्रकाशित भी खूब होती रहती है इसलिए कि उनमें दम है। सभी रचनाएं एक संग्रह में आ जायेगी तो अच्छा ही होगा?’ कहने लगे ‘गुरूजी, मेरे पास पाँच सौ से अधिक कविताएं है, एक संग्रह जरूर प्रकाशित करूंगा। परन्तु इतनी जल्दी क्या है?’ और आज अचानक जब वे चले गये तो तब लगा कि जल्दी थी सुरेन्द्र भाई।
Surendra Pundir, Me & Yogesh Ch. Bahuguna
         सृजन-साहित्य से जुड़ा उत्तराखण्ड का हर शख्स सुरेन्द्र भाई से परिचित है और उनके निर्विवाद व्यक्तित्व से प्रभावित भी। उनकी स्निग्ध हंसी ही ऐसी थी कि हर कोई उनसे जुड़ना चाहता। मसूरी तो उनका घर ही था। सत्य प्रसाद रतूड़ी, रामस्वरूप सिंह रौंछेला, रस्किन बॉण्ड, स्टीव आल्टर, हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’, गणेश शैली आदि सभी से उनकी घनिष्ठता रही। उत्तराखण्ड में लोकप्रियता के मामले में कह सकते हैं कि वे बी. मोहन नेगी जी के समान ही सबके चहेते रहे हैं।
       ‘जौनपुर के लोक देवता’, ‘जौनपुर के तीज त्यौहार’ ‘मसूरी के शहीद’, ‘जौनपुर: सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास’ तथा ‘जौनपुर की लोक कथाएं’ उनकी प्रकाशित रचनाएं हैं। रचनाओं के कई-कई संस्करण प्रकाशित होना सुरेन्द्र भाई की लेखकीय क्षमता के परिचायक है। ‘मसूरी के शहीद’ के बारे में एक दिन बता रहे थे कि लगभग हर साल इस पुस्तक का एक संस्करण खप जाता है। ‘जौनपुर के लोक देवता’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘गॉड्स ऑव जौनपुर’ अलग से प्रकाशित हुआ है। ‘यमुना घाटी के लोकगीत’ और ‘उत्तराखण्ड जन आंदोलन के नायक’ पुस्तकें उनकी प्रकाशनाधीन हैं।
         सुरेन्द्र भाई, विश्वास नहीं हो रहा है कि आज तुम हमारे बीच नहीं हो। सदमे से उबरने में समय लगेगा। किन्तु हर सभा समारोहों में, साहित्यिक हलचलों में तुम्हारी कमी बहुत खलेगी भाई। तुम हमेशा याद आओगे भाई।

मेरे मुल्क की लोककथाएं



         क्या आपने ये किस्सा सुना है कि एक शादी में लड़की वालों ने लड़के वालों के सामने शर्त रखी हो कि बाराती सभी जवान आने चाहिए, बूढ़ा कोई न हो। लेकिन बाराती बरडाली के बक्से में छुपाकर एक सयाना व्यक्ति को ले गए। बारात पहुंची तो लड़की के पिता ने शर्त रखी कि सभी मेहमानों के लिए हमने एक-एक बकरे की व्यवस्था कर रखी है। हर एक बाराती को एक-एक बकरा खाकर खत्म करना होगा तभी अगले दिन दुल्हन विदा होगी। यह शर्त सुन कर सभी बाराती सन्न रह गए।
         एक बाराती ने बरडाली के बक्से के पास जाकर सारी बातें बुजुर्ग से कही तो बुजुर्ग ने उपाय बताया कि एक-एक करके बकरा मारो और मिल बांट कर खाओ। फिर तो सारी रात ऐसा ही किया और बाराती शर्त जीत गए।

         अगर आपने यह किस्सा सुना है और अपनी यादों को ताजा करना चाहते हैं तो आप ‘शूरवीर रावत’ द्वारा संग्रहित, लिप्यांकित लोककथा संग्रह ‘‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’’ जरूर पढ़ें। अगर नहीं सुना है तो तब तो जरूर पढ़ें। समझ लीजिए आपने अपने समय और समाज की नब्ज पढ़ ली।
       शूरवीर रावत द्वारा संग्रहीत इस लोककथा संग्रह की लोककथाएं अपने दौर की सामाजिक सोच और मनोदशाओं को प्रकट कर रही है। ये लोककथाएं बता रही हैं कि हमारे समाज की क्या मान्यताएं और मूल्य हैं, क्या पूज्य, क्या सम्मानजनक और क्या अपमानजनक है। हमारे समाज में किस प्रकार की सोच, विश्वास, अंधविश्वास प्रचलित हैं। ये कथाएं समाजिक सच को पूरी ईमानदारी के साथ बयां कर रही हैं।

        संग्रह में 42 कथाएं संग्रहीत हैं। ये कथाएं लेखक ने किसी क्षेत्र विशेष में जाकर संग्रहीत नहीं की बल्कि बचपन से लेकर अब तक अपनी स्मृतियों में संचित कथाओं को लिख लिया है। यूं भी लोककथाएं स्मृतियों का आख्यान होती हैं। लेखक के अनुसार, ‘‘ह्यूंद की सर्द रातों में भट्ट, बौंर या भुने हुए आलू खाते हुए और कभी किसी के घर में शादी ब्याह होने पर पड़ाव किसी दोस्त के घर पर होता तो वहां उसकी दादी या घर की ही किसी बुजुर्ग महिला या पुरूष से अनेक कथाएं मैंने सुनी हैं।’’ इन कथाओं का फलक विस्तृत है। इन कथाओं को आप सिर्फ गढ़वाल या उत्तराखण्ड की न कह कर भारत की लोककथाएं भी कह सकते हैं। लेखक के अनुसार, ‘‘इस संग्रह की कथाएं किसी समाज विशेष का प्रतिबिम्ब नहीं हैं बल्कि पूरे जनपद, पूरे राज्य या पूरे मुल्क के किसी भी कोने की कथा हो सकती है।’’
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डॉ0 नन्द किशोर हटवाल
        जिन्होंने पहाड़ों और गांवों में जीवन का अधिकांश हिस्सा बिताया उन्हांने इस संग्रह में संकलित कुछ किस्से-कहानियों को हो सकता है पहले भी सुना हो या पूर्व प्रकाशित संकलनो में पढ़ा हो। संग्रह में संकलित कतिपय कहानियां मैंने पहले भी सुनी-पढ़ी थी तो कतिपय मेरे लिए एकदम नयी थी। असल में लोकसाहित्य अधिकांश विधाएं समाज में एकाधिक रूपों में प्रचलित रहती हैं। लोककथाओं के मामले में यह अधिक है। एक ही कथा के कई वर्जन प्रचलित रहते हैं। जितनी बार आप पढ़ेंगे सुनेंगे उतनी ही बार आपको एक नए रूप से परिचित होने का मौका मिलेगा।
        अपने सधे हुए लेखन से इन लोककथाओं को लेखक ने पठनीय बनाया है। शूरवीर रावत निरन्तर रचना करने वाले लेखक हैं। पूर्व में वे बारामासा पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन करते रहे। यात्राओं पर केन्द्रित उनकी पुस्तक ‘आवारा कदमों की बातें’, कविता संग्रह ‘कितने कितने अतीत’ अपने गांव पर केन्द्रित किताब ‘मेरे गांव के लोग’ और सोशल मीडिया में लिखे गए उनके लेखों का संकलन ‘चबूतरे से चौराहे तक’ उनके लेखन की निरन्तरता को बयां कर रहा है। वे फेसबुक और ब्लॉग के माध्यम से भी निरन्तर सक्रिय हैं।  लोककथा संग्रह ‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’ के लिए रावत जी बधाई के पात्र हैं।

 पुस्तक का नाम -  मेरे मुल्क की लोककथाएं        प्रकाशक -  विनसर पब्लिशिंग कं0  देहरादून,  उत्तराखण्ड
मूल्य - रू. 195 कुल पृष्ठ सं.-144      समीक्षक :  डॉ0 नन्द किशोर हटवाल

Sunday, April 28, 2019

दो कौड़ी का मोल

गुस्से में आदमी पता नहीं क्या-क्या गालियां देता है। गालियों के अलग-अलग रूप है, अलग-अलग स्तर है। देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार गालियों का रूप बदल जाता है। गालियां सुनना कोई भी पसन्द नहीं करता है, किन्तु यदि कोई तीसरा व्यक्ति गालियों में आपके दुश्मन की सात पीढ़ियां नाप रहा हो तो वह सुनना कर्णप्रिय हो सकता है। खैर!!

एक गाली नहीं उलाहना है ‘दो कौड़ी की औकात नहीं और......।’ आखिर ये कौड़ी है क्या? यह प्रश्न सालों से दिमाग को मथ रहा था। उत्तर मिला भी तो सुदूर अण्डमान भ्रमण के दौरान पोर्टब्लेयर के ‘‘नैवल मैरीन म्यूजियम समुद्रिका’’ में।
प्रागैतिहासिक काल में कब्रिस्तानों से प्राप्त प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि कौड़ियां (सीपियां) मुद्रा का प्रारम्भिक रूप है। इसका छोटा, चमकीला व आकार में एक समान होना, कम बजन, प्रचुर मात्रा में आसानी से उपलब्धता आदि गुणों के कारण कौड़ी को मुद्रा रूप में प्रयोग के लिए उचित माना गया। मुद्रा रूप में कौड़ियों का उपयोग अफ्रीका, दक्षिण भारत, फिलीपींस व मलाया में अधिक हुआ माना जाता है। 

प्राचीन चीन में तो बिक्रमीसंवत के दो हजार साल पहले से ही कौड़ियों का उपयोग हुआ माना जाता है।
सिकन्दर महान से पूर्व भारत में कौड़ियों का प्रचलन व्यापक रूप में था। - - - - - - एक खोज के अनुसार सन् 1740 में एक भारतीय रुपये का मूल्य 2400 कौड़ियां थी और सन् 1845 में 6500, जबकि सन् 1920 में शाहपुर सरगोदया में एक रुपये के बदले कुल 960 कौड़ी बदली गयी। 

कौड़ियों को धन का प्रतीक भी माना जाता है। शायद इसीलिए माँ लक्ष्मी की फोटो में कौड़ियों को उनके पैरों पर दिखाने की परम्परा है।

Sunday, March 17, 2019

तुम्हारे जाने के बाद



हमारे खेत बंजर हैं
गावं के दर्जनों खेतों के बीच।
उनमें अब हल नहीं चलते,
उनमें नहीं रेंगती बैलों की जोड़ियां।

जबकि
जन्में थे कितने ही बैल हमारी गोठ में।
वो गायें भी आज नहीं रही,
जिनके बच्चे हुआ करते थे बैल।
 
गोठ में आज सन्नाटा है
सुनी जा सकती है वहाँ केवल
मकड़ियों की पदचाप और
दीमकों की सरसराहट।

और माँ !
यह सब हुआ है
तुम्हारे गुजर जाने के बाद। 

 


Sunday, January 27, 2019

‘सुख’ - कीर्ती चौधरी

आज अल्बम में अपनी लगभग तैंतीस बरस पुरानी फोटो देखी और उसी दौरान लेखकद्वय (मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव) के उपन्यास ‘शह और मात’ पढ़ने का मौका मिला। उपन्यास में कीर्ती चौधरी की ‘‘सुख’’ कविता याद आ गयी, जो तब अपने बैचलर जीवन में मैंने न जाने कितनी बार दोहराई होगी। -------------- 
आज अर्थ ढूंढ रहा हूँ!

रहता तो सब कुछ वही हैये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...
 बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
लेकिन क्या होता है
कभी-कभी
फूलों में रंग उभर आते हैं
मेज़पोश-कुशनों पर कढ़े हुए
चित्र सभी बरबस मुस्काते हैं,
दीवारें : जैसे अब बोलेंगी
आसपास बिखरी क़िताबें सब
शब्द-शब्द
भेद सभी खोलेंगी ।
अनजाने होठों पर गीत आ जाता है ।

सुख क्या यही है ?
बदलता तो किंचित् नहीं है,
ये पर्दे--यह खिड़की--ये गमले...