Showing posts with label कविता. Show all posts
Showing posts with label कविता. Show all posts

Sunday, March 17, 2019

तुम्हारे जाने के बाद



हमारे खेत बंजर हैं
गावं के दर्जनों खेतों के बीच।
उनमें अब हल नहीं चलते,
उनमें नहीं रेंगती बैलों की जोड़ियां।

जबकि
जन्में थे कितने ही बैल हमारी गोठ में।
वो गायें भी आज नहीं रही,
जिनके बच्चे हुआ करते थे बैल।
 
गोठ में आज सन्नाटा है
सुनी जा सकती है वहाँ केवल
मकड़ियों की पदचाप और
दीमकों की सरसराहट।

और माँ !
यह सब हुआ है
तुम्हारे गुजर जाने के बाद। 

 


Sunday, January 27, 2019

‘सुख’ - कीर्ती चौधरी

आज अल्बम में अपनी लगभग तैंतीस बरस पुरानी फोटो देखी और उसी दौरान लेखकद्वय (मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव) के उपन्यास ‘शह और मात’ पढ़ने का मौका मिला। उपन्यास में कीर्ती चौधरी की ‘‘सुख’’ कविता याद आ गयी, जो तब अपने बैचलर जीवन में मैंने न जाने कितनी बार दोहराई होगी। -------------- 
आज अर्थ ढूंढ रहा हूँ!

रहता तो सब कुछ वही हैये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...
 बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
लेकिन क्या होता है
कभी-कभी
फूलों में रंग उभर आते हैं
मेज़पोश-कुशनों पर कढ़े हुए
चित्र सभी बरबस मुस्काते हैं,
दीवारें : जैसे अब बोलेंगी
आसपास बिखरी क़िताबें सब
शब्द-शब्द
भेद सभी खोलेंगी ।
अनजाने होठों पर गीत आ जाता है ।

सुख क्या यही है ?
बदलता तो किंचित् नहीं है,
ये पर्दे--यह खिड़की--ये गमले...

Friday, May 31, 2013

मुक्ति

दुराचारी राजा के षडयन्त्र की शिकार
निर्दोष किन्तु कलंकिनी घोषित
पति परित्यक्ता किन्तु अकारण ही
परिवर्तित हो गयी शिलारूप में
मै आश्रमवासिनी ऋषिपत्नी अहल्या।

अयोध्या के राजदुलारे राम !
आँखें पथरा गयी तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम, जो समझे हो दर्द कौशल्या का
महारानी होने पर भी उपेक्षित
लाचार बूढ़े दशरथ के समक्ष ही
झेलती दंश कैकेई का कई बार।
मेरी पीड़ा भी समझो राम !
अपने प्रिय गौतम, पुत्र सद से बिछुड़ी हुयी।
तड़पते होंगे कपिलवस्तु में निश्चित् ही
मेरा सद अैर मेरे प्रिय भी मेरी प्रतीक्षा में।

रघुवंशी परम्पराओं के निर्वाहक राम !
उद्धारक बन मुक्ति दो इस शिलारूप से।
तुम्हारा यश, तुम्हारी कीर्ति फैले चहुँदिशा कि
मर्यादाओं की नई परिभाषायें गढता राम
पद, व्यक्ति नहीं, न्याय व सत्य के निमित्त है।
दण्डित किया जा सकता है नारी होने पर भी
कुलटा ताड़का को, तो इन्द्र की उद्ण्डता के लिये
निर्दोष अहल्या को पुनर्प्रतिष्ठा क्यों नहीं ? 

Tuesday, April 23, 2013

इतिहास

भाषा के रंग में
जब कभी
वर्तमान को सींचा जाता है
वह
आकाश में खड़े सूर्य के
पदचिन्हों सा
स्थायी हो जाता है
अपने
समूचे भार के साथ।

Friday, March 22, 2013

पराये शहर के अपने लोग


इस पराये शहर में
रहता हूँ अपने लोगों के बीच,
बैठता हूँ अपनें लोगों के बीच,
मिलते हैं साथ सुख-दुःख में,
होते हैं साथ सुख-दुःख में।

इस शहर के अपने लोग-
दूसरे बड़े शहर की बात करते हैं,
बड़े शहर बसने की चाह रखते हैं।
उन्हें सिर्फ धन-दौलत की बातें सुहाती,
उन्हें जमीन-जायदाद की बातें ही भाती।

इस शहर के अपने लोग-
अपने गावं की बात नहीं करते।
इस शहर के अपने लोग-
अपने गावं को याद नहीं करते।

यहाँ के अपने लोग पराये हुये,
यह शहर कभी अपना नहीं रहा।
गावं अपने लौट जाऊँगा एक दिन,
शहर अब मेरा सपना नहीं रहा।

Tuesday, March 12, 2013

वहीं कहीं आज भी

भाग्यशाली हो तुम
ओ बदरा !   
घूम आते हो
मेरे गावं, मुलुक तक
गाहे-बेगाहे,
वक्त-बेवक्त।

जा नहीं पाया मैं चाहकर भी
गावं वर्षों से ।
जबकि,
अटका पड़ा है मन मेरा
वहीं-कहीं ।
वहीं-कहीं आज भी ।।

Tuesday, February 19, 2013

पुल

मेरे गावं के गदेरे पर
नहीं था पहले एक भी पुल।
अक्सर स्कूल आते-जाते बच्चों को
पार करवाते थे तब बरसात में बड़े बुजुर्ग
कमर कमर भर पानी में।

फिर पंचायत में पैसा आया, और 
एक पुल बना गावं के लिये।
कुछ साल बाद दूसरा, फिर तीसरा, और फिर चौथा।
अलग-अलग रास्तों पर अलग-अलग पुल बने
विकास के लिये, या फिर कयावद-
सरकारी धन को ठिकाने लगाने की ?
प्रधान बदलते गये और पुल बनते गये।

वक्त ने करवट ली- और आज
नहीं चढ़ता गदेरे में पानी इतना कि
कमर क्या घुटने भी भीग सके ठीक से।
और स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या
गिनी जा सकती है उंगलियों पर, क्योंकि
कर गये हैं पलायन लोग गावं से आज।

कल जब नहीं गुजरेगा कोई उन पुलों से
बैठे दिखेंगे पुलों की रेलिंग पर तब
केवल और केवल गूणी बान्दर ही।


Tuesday, January 29, 2013

अनुत्तरित प्रश्न

तुमसे मिलने से पहले अक्सर 
सजग बहुत थे सपनों को लेकर
बहुत सोचा करते थे अक्सर 
अपनी जिन्दगी और अपने बारे में,
सोचा न हो कभी तुम्हारे बारे में
ऐसा तो हुआ नहीं कभी। 

तलाशा करते थे चाहत लिये
हर नगर, हर डगर, हर शहर।
कभी मिले भी, कभी दिखे भी तो
अपूर्ण ! आधे अधूरे !!
भटकते रहे जब तक कि
हुयी नहीं तलाश पूरी मेरी,
तुम्हें देखने के बाद लगा मगर
व्यर्थ नहीं रहा प्रयास मेरा
विफल नहीं हुयी साधना मेरी।

परन्तु-
मन के एकान्त कोने से एक प्रश्न
सिर उठाकर पूछता जरूर है कि
तुम भी सोचते हो ऐसा ही, या
यह भ्रम है ? मेरा ही पागलपन है ??


            **** ****





Wednesday, January 02, 2013

प्रार्थना

जग को ज्योतिर्मय कर दो !
 

प्रिय कोमल-पद-गामिनि !
 

मन्द उतर-
 

जीवन्मृत तरु-तृण-गुल्मों की पृथ्वी पर,
 

हँस-हँस, निज पथ आलोकित कर
 

नूतन जीवन भर दो ! -
 

जग को ज्योतिर्मय कर दो !              
                         
                             -सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
                                         (परिमल से)

Thursday, September 06, 2012

कविता के नाम पर !


पर्यावरण !
हरियाली कागजों में
ताजगी भाषणों में
और जमीं पर सिर्फ
दूषित वातावरण !! 

एन जी ओ !
देश समाज के नाम पर
चतुर विद्वान लोगों द्वारा
सरकारी धन हड़पने का
राजनीतिक सीनारियो !!

नौकरी !
दो रोटी का जुगाड़ गरीबों को
रौब-दाब समाज में सबलों को
चोरों को कमाने का साधन औ' शरीफों को
बस चाकरी !! 

प्यार !
पुल - दो विरोधी हालात के बीच
सफल तो जिंदगी गुलज़ार
हुए असफल तो जीवन भर
जीना दुश्वार !!

रिश्ते !
ता-उम्र निभाने के फेर में
भावनाएं दोहन के खेल में
फायदा उठाते शातिर और
सीधे पिसते !!

Monday, August 20, 2012

चुनाव

नव हस्ताक्षर    डाo प्रीतम नेगी 'अपछ्याण' हिंदी साहित्य जगत के उन उभरते हुए साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने कम समय में ही अपनी पहचान कायम कर ली है. प्रीतम यद्यपि मूल रूप से कवि हैं किन्तु लोकसंस्कृति, समसामयिक और सामजिक अव्यवस्था के खिलाफ लिखने से भी कभी नहीं चूकते. वे हिंदी व गढ़वाली भाषा में समान रूप से सभी विधाओं पर जम कर लिख रहे हैं. उत्तराखण्ड के लेखकों में डाo प्रीतम अपछ्याण आज एक जाना पहचाना नाम है. पर्यावरण विज्ञान में मास्टर डिग्री धारक प्रीतम की पकड़ साहित्य में उतनी ही है जितनी कि पर्यावरण के क्षेत्र में. अब तक उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. पहाड़ की भौगोलिक विषमता व विकट जीवन संघर्ष ही नहीं अपितु व्यवस्था की जड़ता भी कवि के लिए भावभूमि का काम करती है. यह कविता उनके सद्ध्य प्रकाशित कविता संग्रह "  ध्वनियों के शिखर "  से  है.

चुनाव नेतागिरी की पाठशाला है
समता समानता का वरदान पाया
हमारा यह जालिम युग
नेता प्रसूत लोकतंत्र
प्लेटों में सजा कर लाता है नेता.

कभी पुरुष, कभी स्त्री वेश में
हर जन्म नेता का जन्म है
हर पंजीकरण भावी नेता का प्रमाण-पत्र
अब जनता नहीं जनती नेता
नेता जन रहा वैध-अवैध जनता को.

चुनाव का न्यायिक चेहरा
ढक देता नेता के करम
विवेकशून्य जनता के भरम
पुरुष नेतृत्वहीन हो गए
सो औरतें पा गयी नेता आरक्षण.

लोकतंत्र व चुनाव वैसे ही हैं
नेता का महिला अवतार हो गया
ठीक उसी लीक पर अब भी
समता समानता की ढाल ताने चुनावी वाण बरसाते
आक्रमणकारी जैसे आते हैं नेता
पिछली फसल के बचे खुचे पौधों जैसे
कुछेक जनता रुपी वोटर
पचा नहीं पाए इस नए अवतार को
भ्रमित हो गए मन कोमा में गयी बुद्धि
अब न सोचती है न समझती है.

चालाक पुरुष
औरतों को घेर कर नेता बन रहे हैं
और चालाक औरतें
सशर्त गर्भवती हो रही हैं,
नेता जनना है तो ठीक
इंसान हम नहीं जनेगी.

Friday, July 27, 2012

समरथ को नहीं दोष गुसाईं.....

उमड़ना, घुमड़ना हो आसमां का या हो तेज हवाएं,
विनाशकारी आंधियां हो, या हो प्रलयकारी बाढ़
कर जाती है ये तांडव कभी मौत का अचानक.

उमड़ती-घुमड़ती नहीं धरती, रहती है शान्त, नीरव
पर कभी, फूट पड़ता है लावा अचानक,
एकाएक आ जाता है भूकंप-
कांपती तब धरती, पहाड़, दरिया, समंदर सभी
उजड़ते हैं बसेरे और क्षण भर में खाक होती जिंदगियां.

परन्तु,  इस सबके बावजूद भी-
धरती माँ है और पिता आसमां, कायम है यह दर्जा
कई-कई सदियों से, कई-कई पीढ़ियों से. लेकिन
रिश्तों की इन बारीकियों को नहीं समझ पाया कभी मै.

मैंने तो अपने बच्चे को छोटी सजा देने के भाव से,
मारा था उसकी पीठ पर एक हल्का सा हाथ
और दोस्तों की बदौलत- दर्ज हो गया मुझ पर
घरेलू हिंसा का केस, क्रूर पिता की संज्ञा मिली अलग,
पहले जमानत, फिर कोर्ट, कचहरी, तारीख और वकील
 झेल रहा हूँ मै आज तक पिछले आठ माह से.
सोचता हूँ बैठकर कभी, मैं तो निर्दोष हूँ फिर भी ये सजा...
धरती व आसमां के खिलाफ क्यों नहीं उठती आवाजें कभी.
या फिर यही सच है ? 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं '        

Saturday, May 26, 2012

एक शापित शिला

छाया - साभार गूगल 
शेरशाह, शाहजहाँ आदि बादशाहों की नजरों से
बौद्ध मठों, जैन मंदिरों व मूर्तियों के निर्माताओं से
बल्कि उससे पूर्व, सभ्यता की नीवं रखने वालों से 
छुपकर दुबका हुआ, मिटटी रेतगारे में पड़ा हुआ,
धरती के सीने पर गड़ा हुआ- एक पत्थर हूँ मै ।

ईश्वर ! भयभीत रहा हूँ मै सदा मानवी छायाओं से
आंकते हैं जब भी वे कभी मेरी उपयोगिता-
किसी देवालय की नीवं-दीवारें चिनवाने के लिए,
या शहर की ऊंची इमारतों के निर्माण के लिए,
किसी मंदिर की मूरत बनवाने के लिए, या किसी  
भ्रष्ट नेता का पापमय चेहरा गढ़ने के लिए ही।

ओह मनुष्यों ! तुम्हे तो बस
मिटा देना ही आता है किसी के अस्तित्व को
प्रहार करना ही आता है किसी की अस्मिता पर 
हो सकती है स्वतंत्र सत्ता मेरी भी, ऐतराज है क्यों तुम्हे
अरे मानव!
नहीं हो चराचर के स्वामी तुम,
उस अनाम-कोटिनाम विधाता की ही कृति हो-
तुम भी, मै भी. किया नहीं प्रयास कभी
तुम्हारा मार्ग बाधित करने का मैंने 
तुम ही गुजरते रहे हो अपितु, ठोकरें मार कर
या कभी मेरे सीने को ही रौंद कर।

शापित शिला हूँ मैं, युगों युगों से धरती के सीने में
दुबका हुआ, मिटटी रेतगारे में गड़ा हुआ.
मानव ! भगवान के लिए ही सही, रहने दो मेरी स्वतंत्र सत्ता, 
यूं ही पड़ा रहने दो मुझे, तुम यूं ही गड़ा रहने दो मुझे।

Saturday, April 28, 2012

मैन वर्सेस वाइल्ड



छाया - साभार गूगल  
इस विशेष सप्ताह में  'वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्सन' व 
 'कन्जर्वेसन ऑफ़ टाइगर' जैसे मुद्दों पर बहस करते,
साथी चर्चाकारों के साथ उलझते, लड़ते, झगड़ते 
पक जाता हूँ, थक जाता हूँ  आफिस में  हर रोज  
थका-हारा घर लौटते एक शाम नोट करता हूँ कि -
मनुष्य जितने हो गए धरती पर बाघ, और
कुल बाघ जितने रह गए मनुष्य .

जारी है पलायन बाघों का- जंगलों से शहरों की ओर
और मनुष्य ठूस दिए गए हैं पिंजरों में, चिड़ियाघरों में,
वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी में, नेशनल पार्कों में.
बाघों की सत्ता हो गयी धरती पर और मनुष्य-
गिने जा रहे हैं उँगलियों पर निरीह प्राणी से.
इतने हैं अमुक चिड़ियाघर में, फलां सैंक्चुरी में
या इतने फलां पार्क में. इतने नर, इतने मादा.
चर्चाएँ, बहस और सेमिनार हो रहे खूब बड़े-बड़े
मनुष्यों के नाम पर, उनकी सुरक्षा को लेकर
हाईलाइट हो रही ख़बरें टी० वी०, रेडियो, अख़बारों में
पढ़ रहे ख़बरें बाघ घर के लान में बैठकर,
कभी दोस्तों के बीच चाय की चुस्कियों के साथ
और कभी अंगड़ाई ले-लेकर टी० वी० देखते !


आये दिन ख़बरों की हेडलाइन होती कि-
'एक मादा मनुष्य भटक रही थी जंगलों में
अपने दो बच्चों के साथ भोजन की तलाश में
कि, एक जांबाज बाघ ने तीनो को मार गिराया.'
या कभी इस तरह भी कि,
'कुछ बाघखोर मनुष्य घुस आये रात बस्ती में 
और दो माह के शावक को ले गए उठाकर
अपनी कई दिनों की क्षुधा मिटाने को
बाघों ने सारी रात जंगल पूरा छान मारा 
पर शावक नहीं पाया गया, न जीवित और न मृत ही' 

मै आफिस से जल्दी-जल्दी सीधे घर भागता हूँ
कि कुछ वर्दीधारी खूंखार बाघ लपक पड़े मेरी ओर
वे फाड़ना चाहते थे मेरा शरीर, नोचना चाहते थे बोटी बोटी 
एक समझदार, प्रौढ़ बाघ ने बचा लिया मुझे  इतने में 
करवा दिया बंद मनुष्यों के बीच सीधे चिड़ियाघर में 
अब कटती है जिंदगी खूब मौज मस्ती में  
चिढ़ाता हूँ मै खुश होकर रोज दर्शक बन आये बाघों को-
जाली के इस ओर कभी उस पार -घुर्रर्रर्रर्र.. खौंऔंऔंऔं... 


छाया - साभार गूगल 
होता है गीलेपन का सा अहसास एकाएक
सपना टूटता है, उठिए बाघ महाराज कहकर 
साक्षात् दुर्गा बनी सिरहाने खड़ी मेरी पत्नी 
बाल्टी भर पानी मुझ पे उड़ेल मुझे जगाती है, और
मेरी घुर्रर्रर्रर्र खौंऔंऔंऔं, म्याऊं-म्याऊं में बदल जाती है !

Wednesday, March 21, 2012

शब्दों की खेती

अबकी बोये हैं मैंने खेतों में 
उन्नत किस्म के बीज शब्दों के.
उम्मीद है लहलहाएगी जरूर फसल 
सुन्दर शब्दों की, सुन्दर छंदों की.

निरर्थक शब्दों के कंकर पत्थर बीनते बीनते 
जोत रहा हूँ अज्ञान से भरी ऊसर भूमि को 
पिछले कई-कई वर्षों से !
धूप, बारिश की परवाह किये बिना ही 
हटा रहा हूँ अनर्गल विचारों की खर-पतवार
पिछले कई-कई वर्षों से  !
आसमा के भरोसे ही न बैठकर 
कर रहा हूँ सिंचाई भावों, संवेगों, संवेदनाओं की 
पिछले कई-कई वर्षों से !
छिड़क रहा हूँ खाली जगहों पर 
समास, अलंकार, रस युक्त शैली की खाद 
पिछले कई-कई वर्षों से ! 

रंग लाएगी मेहनत मेरी जरूर,
चमकेगी अब किस्मत मेरी जरूर 
बन नहीं पाऊँगा भले ही -
टैगोर, रोमा रोल्याँ या ज्यां पाल सात्र सा 
नहीं कमा पाऊंगा धन भले ही -

बिक्रम सेठ, चेतन भगत या जे० के० रोलिंग सा 
नहीं रहूँगा चर्चा में भले ही -
सलमान रश्दी, शोभा डे या तसलीमा नसरीन सा.

परन्तु, उम्मीद है कि एक न एक दिन 
किसी छोटी सी गोष्टी में ही सही 
रखा जायेगा ताज जरूर मेरे सर पर 
और, मेरे खेतों में उगने वाले हीरे मोती से शब्द 
चमका करेंगे सितारों की भांति मेरे ताज पर ! 

Friday, January 13, 2012

माफ़ करना अन्ना जी !

कल अन्ना जी सपनों में आये मेरे 
बैठा हूँ उनके साथ अनशन पर मै जैसे-
जंतर-मंतर, रामलीला  या एम्एम्आरडीए मैदान पर
ओंठों को हल्की सी जुम्बिश देकर 
करते हैं अभिवादन वे हाथ हिलाकर.  

औ' शाम, विदा लेते वक्त
आग्रह करता हूँ हाथ जोड़कर उनसे   -
अन्ना जी ! 'पधारो म्हारो देश' !
चलाये अभियान म्हारे यहाँ -
भ्रष्टाचार उखाड़ने, जन लोकपाल बिल लाने के निमित्त
सहयोग दूंगा पूरा-पूरा, हरदम, अंतिम सांस तक
आप ललकारें खूब मंच से- अनाम नेताओं, अनाम अफसरों को
आप बेशक कोसें विधानसभा और देश की संसद को.

पर, अन्ना जी ! छोटी सी विनती जरूर है मेरी.
थोड़ी सी रहम करना, थोड़ा सा बख्स देना
मेरे विभाग को, मेरे अधिकारियों को.
रहेंगे वे तो खूब फलूँगा, फूलूँगा मै भी,
हाड़ मांस का पुतला ही तो मै भी,
फेहरिश्त छोटी सी है मेरी चाहतों की भी !

-कि महंगी शिक्षा के बाद रचाना है ब्याह बच्चों का,
 धूम-धाम से, शान-ओ-शौकत से.
-कि खरीदने होंगे शादी पर अनेक-अनेक जेवर,
 कार, कपडे, फर्नीचर और ढेर सारे उपहार.
-कि शादी से पहले
हटाकर पुराना पलाश्तर, पुरानी टाइल्स, पुराने परदे
बदलना होगा घर आँगन का स्वरुप,
देना होगा अपने इस भवन को नया लुक. 

और आदरणीय अन्ना जी, यह सब संभव है तभी जब
रहेगा विभाग, रहेंगे सलामत अधिकारी मेरे
फलेंगे-फूलेंगे वे तो फलूँगा-फूलूँगा मै भी.
बस अन्ना जी, बचाए रखना मेरे विभाग को -
अपने रोष से ! अपने तेज से !! अपने ताप से !!!

और टूटा सपना जब तो पानी पानी हो गया शर्म से.
माफ़ करना अन्ना जी ! मुझे सचमुच माफ़ करना !!
सपनों में भी जगी रहती है जाने क्यूं -
मनुष्य की अधूरी लालसाएं, अतृप्त वासनाएं.



Saturday, December 31, 2011

बरसो ज्योतिर्मय जीवन !


जग  के उर्वर आँगन में
बरसो ज्योतिर्मय जीवन !

बरसो लघु लघु त्रण तरु पर
हे चिर अव्यय चिर नूतन !

बरसो कुसुमों में मधुवन
प्राणों में अमर प्रणय धन;
स्मिति स्वप्न अधर पलकों में
उर अंगों में सुख यौवन !

छू छू जग के मृत रज कण
कर दो त्रण तरु में चेतन,
मृनभरण  बाँध दो जग का
दे प्राणों का आलिंगन !

बरसो सुख बन सुषमा बन
बरसो जग जीवन के धन !
दिशी दिशी में औ पल पल में
बरसो संसृति के सावन !
                              - सुमित्रा नंदन पन्त 

   !!!! = नववर्ष  2012  आपको मंगलमय हो  = !!!!

Saturday, October 15, 2011

कैसे होगा..??

जीना नहीं आसां दो पग चलना ही दुश्वार
जी नहीं रहा नाटक है कर रहा, देख औरों को आहें भर रहा    
है यहाँ हर कोई लोभ, मोह, स्वार्थ, ईर्ष्या, अहं का घर !

सवाल, सुरसा सी बढती महंगाई का नहीं है
क्योंकि देश के इन कर्णधारों के पास है अकूत सम्पदा-
लूट, घूस, चोरी, मक्कारी औ' बेईमानी के बूते
नहीं मरेंगे भूखे वे बिन कुछ किये ही, 
खुदा बख्श दे भले ही उम्र उन्हें हज़ार बरस
लड़ सकते हैं वे महंगाई से अगली सात पीढ़ियों तक

सवाल, प्रगति और विकास का भी नहीं है
समृद्धि आयी है जरूर - मेरे गाँव, मेरे शहर, मेरे देश में
गाँव शहर को जड़ने वाले रास्ते में मगर
उग आये हैं कांटे- ईर्ष्या, द्वेष, घृणा औ' हिंसा के

सवाल, बरसाती घास सी बढती आबादी का नहीं है
आबादी बढ़ रही है और बढती रहेगी. खुदा न करे - भले ही
जन्मे क्यों न फिर से सिकंदर, अशोक, नादिरशाह या हिटलर, 
या खुद जाये हीरोशीमा - नागासाकी जैसे घाव देश के सीने पर.
लेकिन, आबादी तो यूं ही बढती रहेगी कि जब तक
जनसँख्या नियंत्रण के बाहर बना रहेगा पहरा तुष्टिकरण का

सवाल, देश में बढती निरक्षरता का भी नहीं है, क्योंकि 
चल रहा साक्षरता मिशन, सर्वशिक्षा अभियान शिक्षा के नाम पर
फल रहा करोड़ों, अरबों रुपयों का व्यापार शिक्षा के नाम पर
बंट रही डिग्री, डिप्लोमा, सर्टिफिकेट लाखों शिक्षा के नाम पर
साक्षरता का अनुपात भले ही बढे न बढे, परन्तु
पढ़े-लिखों की संख्या में आयी है गिरावट जरूर

सवाल तो बस जिन्दा रहने का है भाई-
क्षद्म राजनीति, भ्रष्टाचार, महंगाई, अत्याचार और हिंसा से
उम्मीद है कि कोई है बच भी जाये,
लेकिन शायद ही कोई बचे धोखा, फरेब, छलकपट -
अपनों के ही द्वारा! अपने ही घर!! अपने ही भीतर!!!




Friday, September 30, 2011

प्यार की वेबसाइट

मेरी चाहतों की 'डेस्कटॉप' पर कभी भी 'क्लिक' कर के देखो
तुम ही हो वर्षों से - एक पॉपुलर 'वाल पोस्ट' की तरह
दिल के 'वर्क स्टेशन' पर- दायें-बाएं के 'डाटा' भले ही 'अपलोड' न हो, पर 
न समझना कि मेरी भावनाओं की 'हार्ड डिस्क' की कैपसिटी कम है
'वर्चुअल' की बात छोड़ो, यहाँ तो 'प्राइमरी मेमोरी' ही 'थाउजेंड जीबी' से ज्यादा है

कभी मुग्ध हो प्यार के क्षणों में तुमने कहा था
मेरी लगन 'चार्ल्स बाबेज' की तरह है, बल्कि उससे भी आगे
'फर्स्ट जेनेरेसन' से सीधे 'फिफ्थ जेनेरेसन' में जो पहुंचा हूँ 
सफ़र तय किया है 'एनालोग' से 'डिजिटल' तक का

कभी अकेले में, अपनेपन में-
मेरे गालों को सहलाते, मेरे बालो को तर्जनी पर लपेट छल्ला बनाते 
'स्कैन' कर डाली थी तुमने मेरी सूरत अपनी आँखों से
एक 'फोल्डर' बनाकर - डाला तुमने जिसे ख्वाबों के 'डेस्कटॉप' पर

अलग-अलग मूड को भांपते, अलग-अलग 'सॉफ्टवेर' की मदद से
रोज मेरी शक्ल को नया रूप देती, नयी इबारतें लिखती
पर गनीमत रही कि यह खेल 'सॉफ्ट कॉपी' तक ही सीमित रहा

परन्तु हकीकत यह है भावना मेरी,
तुम 'कैलकुलेट' करती रही मेरे प्यार, मोहब्बत को हमेशा
जीरो वन जीरो वन 'बाईनेरी डिजिट' की तरह


और आज कई-कई यादों का साक्षी वह 'फोल्डर'
ख्वाबों के 'डेस्कटॉप' से 'रिसायकल बिन' में भेज चुकी तुम
बल्कि परमानैंटली 'डिलीट' करने की फ़िराक में हो
जो प्यार कभी 'बिट' से 'बाइट' होते होते 'गीगाबाइट' तक परवान चढ़ा था
आज अनुपयोगी क्यों हो गया 'अनवांटेड आईकान' की तरह
जवाब दो, भावना मेरी जवाब दो !!   



Saturday, July 30, 2011

घाटी के स्वर

दूर कहीं कोई मुझे पुकार रहा है
और आवाज- घाटियों से टकराकर
आ रही है - जो शायद तुम्हारी है
कितना अपनापन है  इस आवाज में,
कितनी मिठास - शहद की बूँद सी !

कोई मुझे लम्बे समय से पुकार रहा है 
और आवाज - जो शायद तुम्हारी है
कितनी विह्वलता है इस आवाज में - कितनी तड़प !
घाटियों में पड़ी बर्फ सी- 
आतुर है जो नदियों के आगोश में समाने को. 

शहर सारे जंगल हो गए हैं 
प्यार पाने को आकुल एक युवा सन्यासिन
एक अपरिचित दरवाजा खटखटाती है 
इस बियावान जंगल में - निश्वास, निशब्द !

आँसू जो आज थम नहीं रहे
सिर्फ मेरे हैं !
और यह कारुणिक पुकार 
जो शायद तुम्हारी है - सिर्फ तुम्हारी !
भेद रही मेरे अंतस को - चुपचाप, दबे पांव, निशब्द !!

           X  X  X  X  X  X