Tuesday, July 23, 2013

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक - 1

(सन् 1985 में की गयी यह वह पहली यात्रा है जिसे मैंने लिपिबद्ध किया है 1988 में। जगहों और समाज को समझने की समझ तब नहीं थी। यह भी नहीं सोचा था कि कभी इस पर लिख पाऊंगा। फिर भी जैसे तैसे तैयार कर इसे अपने ब्लॉग के मित्रों के सामने रख रहा हूँ। यह यात्रा संस्मरण कई पत्रिकाओं में छप चुका है और अपनी पुस्तक ‘आवारा कदमों की बातें’ में भी इसे प्रकाशित कर चुका हूँ। आज लगभग तीस साल बाद जब समाज, परिस्थितियां पूरी तरह बदल गयी है तब इस लेख की प्रासंगिकता भी शायद न हो। फिर भी यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। पाठकों से निवेदन अवश्य करूंगा कि वे अपनी टिप्पणी अवश्य दें। )
        विविधता में एकता का रंग भरने वाले भारतवर्ष में संस्कृति के विभिन्न आयाम देखने को मिलते हैं। विभिन्न क्षेत्रों की विभिन्न संस्कृति। भिन्न जातियों की भिन्न भाषा। सांस्कृतिक धरातल पर आदिवासियों की एक अलग पहचान है। आदिवासी कहीं के भी हो किन्तु सबके रीति-रिवाज, त्यौहार, मान्यतायें, परम्परायें, गीत, संगीत हमें लुभाते हैं। विकास की ओर अग्रसर नई पीढी़ आज अपने रीति-रिवाज, अपनी भाषा, परम्परा एवं संस्कृति से उन्मुख होकर पाश्चात्य सभ्यता व भाषा संस्कृति की भोंडी नकल कर रही है। किन्तु आदिवासी समाज इस सांस्कृतिक क्षरण से थोड़ा-बहुत बचा हुआ है।  उत्तर में हिमालय व दक्षिण में शिवालिक श्रेणियों से आबद्ध, समृद्ध नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण, शान्त व सुन्दर परिवेश तथा मन मोहने वाले अनेक प्रकार के पेड़-पौधे व जीव जन्तु (Flora and Fauna) की भूमि और विभिन्न प्रकार की कथायें, लोककथायें, रहस्य रोमांच से पूर्ण दन्त कथायें और विविध संस्कृतियांे को समाहित करने वाले पूर्वोत्तर भारत की एक लघु यात्रा का विवरण है।
        ’सेवन सिस्टर्स’ नाम से लोकप्रिय पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों में असम के अतिरिक्त अन्य मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा व अरुणाचल प्रदेश राज्य हैं। असम (जो समतल नहीं है) के छोटे-छोटे पर्वतीय राज्यों में विभाजन के बाद आज केवल लगभग समतल भूभाग ही असम में रह गया है। अतः अब ‘‘असम‘‘ शब्द की प्रासंगिकता ही नहीं रही। (वैसे असम को ’असोम’ का अपभ्रंश भी माना जाता है और असोम नाम अहोम राजा द्वारा दिया गया था जब उन्होंने तेरहवीं शताब्दी में इस देश पर विजय पायी थी) बंगाल की खाड़ी से निकटता और वनाच्छादित हिमालयी क्षेत्र होने के कारण असम में शेष भारत की अपेक्षा वर्षा का औसत कहीं अधिक है। अप्रैल से अक्टूबर तक, लगभग छः माह चलने वाली वर्षा ऋतु असम में तबाही मचा देती है। विडम्बना है कि पूर्वोतर में विपुल जलराशि वाली ब्रह्मपुत्र व सहायक नदियां व्यर्थ बह रही है। न कोई जल विद्युत परियोजना है और न सिंचाई परियोजना। वर्षा की अधिकता के कारण पूर्वोत्तर राज्यों में सदैव सावन की सी हरियाली छायी रहती है और -
पतझड़ सावन बसन्त बहार,
एक बरस के मौसम चार, मौसम चार,
पाँचवां मौसम प्यार का इन्तजार का ..’‘
         की टेर लगाने वालों को यहां मायूस होना ही पड़ सकता है, यहां साल में दो ही मौसम होते हैं - वर्षा और शीत।
              औपनिवेशिक राज्यों का दोहन और उसे सैरगाह व ऐशगाह के रूप में देखने वाली ब्रिटिश सत्ता ने आदिवासी क्षेत्रों की घोर उपेक्षा ही की है। उपयुक्त जलवायु होने के कारण जहां असम और बंगाल के सैकड़ों चाय बगीचे अंग्रेजों की देन है वहीं ब्रिटिशराज में पूर्वोत्तर क्षेत्र का विकास शेष भारत की भांति नहीं हो पाया है। असम के जंगलों की उपयोगिता उनके लिये मात्र लकड़ी प्राप्ति और शिकार के लिए ही रही है। नेफा भी इससे अछूता नहीं रहा। (एक खूबसूरत हिल स्टेशन शिलॉगं को अंग्रेजों द्वारा अवश्य विकसित किया गया) आदिवासी क्षेत्रों में कबीलाई संस्कृति विकसित होती रही। अपने ही कबीलों तक सीमित रहना, अपने ही समाज के भीतर दैहिक व दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति आदिवासी समाज की विवशता भी रही है। जो कि उनके विकास में बाधक बनी है। स्वतंत्रता के बाद भी पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति कमोवेश वही रही, सिवाय यह कि जगह-जगह असम में स्थापित आरा मिलों के लिये जंगलों से ’कच्चा माल’ ढोया जाने लगा। उसके लिये ही सड़कों का निर्माण किया गया और प्रारम्भ हुयी विकास की प्रक्रिया।
           ’सेवन सिस्टर्म’में एक राज्य है अरुणाचल, अर्थात सूर्य का आंचल जहां सर्वप्रथम लहराता है। अरुणाचल का अस्तित्व हम तभी से मान सकते हैं जब चौदहवीं सदी के आरम्भ में असम पर अहोम राजा का साम्राज्य स्थापित हुआ। 1838 में अंग्रेजों ने असम को अपने आधिपत्य में लिया तो नेफा स्वतः इसके नियंत्रण में आ गया। लगभग अठ्ठासी हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में फैले प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर केन्द्र शासित अरुणाचल प्रदेश को यह नाम जनवरी 20, 1972 में मिला। इससे पूर्व यह 1948 से नेफा(North East Frontier Agency) नाम से जाना जाता था 21 जनवरी, 1972 को ही खासी, गारो व जयन्यिता हिल्स को मिलाकर मेघालय राज्य की स्थापना हुयी (जो कि इससे पूर्व 02 अप्रैल 1970 को एक स्वायत्त राज्य के रूप में घोषित हो चुका था) तथा ब्रिटिश सरकार के अधीन “लुसाई हिल्स” वाले जिले को 1954 में संसद की कार्यवाही के बाद “मिजो हिल्स” नाम दिया गया और 21, जनवरी 1972 को ही मिजोरम नाम देकर केन्द्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया। गढवाली कुमाउंनी गीतो में नेफा, लद्दाख जैसे दुरूह क्षेत्रों का वर्णन प्रायः विरह गीतों में आता है,
उड़ि जा ऐ घुघूती न्हैं जा लद्दाख,
हाल म्यारा बतै दिया मेरा स्वामी पास घुघूती. . .

      प्रेयसी अपने प्रिय के सकुशल लौटने की कामना करती है। ऐसा इसलिए भी कि गढ़वाल-कुमाऊँ में अधिकांश लोग सेना में होते हैं और नेफा व लद्दाख पहले से ही दुर्गम और बीहड़ क्षेत्र माने जाते रहे हैं। नेफा से लौटे हुये सैनिक भी संभवतः नेफा के भयानक जंगलों और खतरनाक कबीलों का वर्णन ही लोगों से करते रहे हैं। वहां की परम्पराओं, लोकजीवन, भाषा और संस्कृति का वर्णन कदाचित ही कोई करता हो। इसके पीछे शायद अपनी जीवटता का प्रदर्शन और अपने लिए सहानुभूति बटोरने की मानसिकता ही अधिक रहती हो।
     ’हिन्दी-चीनी भाई भाई’ और पंचशील समझौते को धत्ता बताते हुए चीन ने वर्ष 1962 में भारतवर्ष पर हमला कर दिया। चीन ने अपनी ताकत का अहसास कराकर हमारी सेनाओं को सैकड़ों मील पीछे धकेल दिया। केन्द्र सरकार का ध्यान भी तभी सामरिक महत्व के इन सीमान्त क्षेत्रों की ओर गया। केन्द्रशासित अरुणाचल प्रदेश गठन के उपरान्त पाँच जिले बने। पंच आब -पांच नदियों(रावी, ताप्ती, ब्यास, सतलज और चेनाब) की धरती को पंजाब नाम मिल गया किन्तु पांच प्रमुख नदियों के नाम से सृजित जिलों वाले नेफा को पंजाब जैसा नाम नहीं मिल पाया। ये जिले बने- कामेंग, सुबन्सिरी, सियागं, लोहित और तिराप। राज्य की राजधानी ईटानगर सुबन्सिरी में है तो राज्य का एकमात्र- जवाहर लाल नेहरू कालेज पासीघाट (सियांग जिला) में, जो कि चंढीगढ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है।
            दिल्ली से कानपुर, इलाहाबाद, मुगलसराय, पटना, भागलपुर, जलपाइगुड़ी, बंगाइगांव व रंगिया होते हुये ट्रेन से गोहाटी पहुंचते हैं। गोहाटी जो कि भौगोलिक रूप से असम का केन्द्र है एक पौराणिक नगर भी है। गोहाटी के निकट ही पश्चिम में ब्रहमपुत्र के बायें तट पर एक ऊँची पहाड़ी पर कामाख्या देवी का मन्दिर है। (कथा है कि भगवान शिव की पत्नी एवं हिमालय पुत्री सती के पित्रगृह में प्राण त्यागने के उपरान्त भगवान शिव क्रोधित हो उसके शव को अपने कन्धों पर रख ताण्डव करने लगे थे। तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि होने पर भगवान विष्णु ने यह सोचकर कि जब तक सती का शव शंकर के कन्धे पर रहेगा वे अपने को रोक नहीं पायेंगे। अतः उन्होंने सर्वप्रथम सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। जहां-जहां सती के अंग गिरे वहां-वहां आज शाक्त पीठ हैं। माना जाता है कि कामाख्या में भी देवी सती का ‘भग‘ गिरा था। कामाख्या मन्दिर में कुमारी पूजा का नियम है) प्रागज्योतिशपुर नाम से विख्यात इस गोहाटी को राजा नरकासुर द्वारा बसाये जाने का वर्णन पुराणों व महाकाव्यों में है। नरकासुर के पुत्र भागदत्त ने कौरवों की ओर से हाथियों की विशाल सेना सहित महाभारत युद्ध में भाग लिया था।
                                                                                              क्रमशः  -------------------------

Friday, May 31, 2013

मुक्ति

दुराचारी राजा के षडयन्त्र की शिकार
निर्दोष किन्तु कलंकिनी घोषित
पति परित्यक्ता किन्तु अकारण ही
परिवर्तित हो गयी शिलारूप में
मै आश्रमवासिनी ऋषिपत्नी अहल्या।

अयोध्या के राजदुलारे राम !
आँखें पथरा गयी तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम, जो समझे हो दर्द कौशल्या का
महारानी होने पर भी उपेक्षित
लाचार बूढ़े दशरथ के समक्ष ही
झेलती दंश कैकेई का कई बार।
मेरी पीड़ा भी समझो राम !
अपने प्रिय गौतम, पुत्र सद से बिछुड़ी हुयी।
तड़पते होंगे कपिलवस्तु में निश्चित् ही
मेरा सद अैर मेरे प्रिय भी मेरी प्रतीक्षा में।

रघुवंशी परम्पराओं के निर्वाहक राम !
उद्धारक बन मुक्ति दो इस शिलारूप से।
तुम्हारा यश, तुम्हारी कीर्ति फैले चहुँदिशा कि
मर्यादाओं की नई परिभाषायें गढता राम
पद, व्यक्ति नहीं, न्याय व सत्य के निमित्त है।
दण्डित किया जा सकता है नारी होने पर भी
कुलटा ताड़का को, तो इन्द्र की उद्ण्डता के लिये
निर्दोष अहल्या को पुनर्प्रतिष्ठा क्यों नहीं ? 

Tuesday, April 23, 2013

इतिहास

भाषा के रंग में
जब कभी
वर्तमान को सींचा जाता है
वह
आकाश में खड़े सूर्य के
पदचिन्हों सा
स्थायी हो जाता है
अपने
समूचे भार के साथ।

Friday, March 22, 2013

पराये शहर के अपने लोग


इस पराये शहर में
रहता हूँ अपने लोगों के बीच,
बैठता हूँ अपनें लोगों के बीच,
मिलते हैं साथ सुख-दुःख में,
होते हैं साथ सुख-दुःख में।

इस शहर के अपने लोग-
दूसरे बड़े शहर की बात करते हैं,
बड़े शहर बसने की चाह रखते हैं।
उन्हें सिर्फ धन-दौलत की बातें सुहाती,
उन्हें जमीन-जायदाद की बातें ही भाती।

इस शहर के अपने लोग-
अपने गावं की बात नहीं करते।
इस शहर के अपने लोग-
अपने गावं को याद नहीं करते।

यहाँ के अपने लोग पराये हुये,
यह शहर कभी अपना नहीं रहा।
गावं अपने लौट जाऊँगा एक दिन,
शहर अब मेरा सपना नहीं रहा।

Tuesday, March 12, 2013

वहीं कहीं आज भी

भाग्यशाली हो तुम
ओ बदरा !   
घूम आते हो
मेरे गावं, मुलुक तक
गाहे-बेगाहे,
वक्त-बेवक्त।

जा नहीं पाया मैं चाहकर भी
गावं वर्षों से ।
जबकि,
अटका पड़ा है मन मेरा
वहीं-कहीं ।
वहीं-कहीं आज भी ।।

Tuesday, February 19, 2013

पुल

मेरे गावं के गदेरे पर
नहीं था पहले एक भी पुल।
अक्सर स्कूल आते-जाते बच्चों को
पार करवाते थे तब बरसात में बड़े बुजुर्ग
कमर कमर भर पानी में।

फिर पंचायत में पैसा आया, और 
एक पुल बना गावं के लिये।
कुछ साल बाद दूसरा, फिर तीसरा, और फिर चौथा।
अलग-अलग रास्तों पर अलग-अलग पुल बने
विकास के लिये, या फिर कयावद-
सरकारी धन को ठिकाने लगाने की ?
प्रधान बदलते गये और पुल बनते गये।

वक्त ने करवट ली- और आज
नहीं चढ़ता गदेरे में पानी इतना कि
कमर क्या घुटने भी भीग सके ठीक से।
और स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या
गिनी जा सकती है उंगलियों पर, क्योंकि
कर गये हैं पलायन लोग गावं से आज।

कल जब नहीं गुजरेगा कोई उन पुलों से
बैठे दिखेंगे पुलों की रेलिंग पर तब
केवल और केवल गूणी बान्दर ही।


Tuesday, January 29, 2013

अनुत्तरित प्रश्न

तुमसे मिलने से पहले अक्सर 
सजग बहुत थे सपनों को लेकर
बहुत सोचा करते थे अक्सर 
अपनी जिन्दगी और अपने बारे में,
सोचा न हो कभी तुम्हारे बारे में
ऐसा तो हुआ नहीं कभी। 

तलाशा करते थे चाहत लिये
हर नगर, हर डगर, हर शहर।
कभी मिले भी, कभी दिखे भी तो
अपूर्ण ! आधे अधूरे !!
भटकते रहे जब तक कि
हुयी नहीं तलाश पूरी मेरी,
तुम्हें देखने के बाद लगा मगर
व्यर्थ नहीं रहा प्रयास मेरा
विफल नहीं हुयी साधना मेरी।

परन्तु-
मन के एकान्त कोने से एक प्रश्न
सिर उठाकर पूछता जरूर है कि
तुम भी सोचते हो ऐसा ही, या
यह भ्रम है ? मेरा ही पागलपन है ??


            **** ****





Thursday, January 24, 2013

कुमाऊँ - 5 (अद्भुत आकर्षक पाताल भुवनेश्वर)

पिछले अंक से आगे 
 सौ-डेढ सौ मीटर का अर्धचन्द्राकार मार्ग पार कर पवित्र गुफा के मुहाने पर पहुँचे। इतनी कम ऊँचाई पर देवदार नहीं उगते किन्तु आश्चर्य है कि गुफा के चारों ओर देवदार व चीड़ का घना जंगल है। देवदार के पेड़ सद्यस्नाता सुन्दरी सा रूप लिये हुये बिल्कुल हरे। गुफा के बाहर एक छोटा सा आंगन जिसमें बीस-पच्चीस लोग भीतर प्रवेश करने की प्रतीक्षा में थे। पहाड़ी को काटकर एक छोटा सा कमरानुमा काउण्टर बनाया गया है जिसमें प्रवेश शुल्क लेकर टिकट दिये जाते हैं और साथ ही कैमरे व कैमरे वाले मोबाईल फोन जमा किये जाते हैं। गुफा द्वार पर एक अभिलेख उत्कीर्ण है जो कि चौदहवीं शताब्दी का बताया जाता है। बाहर एक सिक्योरिटी वाला खड़ा था जो भीतर से दल बाहर आने के बाद ही लोगों को भीतर जाने को कहता। एक बार में पन्द्रह-बीस लोगों को ही भीतर प्रवेश करया जा रहा था।
हमारी बारी आई तो मन्दिरों से प्रायः दूरी रखने वाले चालक राणा जी भी साथ हो लिए। भीतर घुसते ही नजर गई तो गुफा से कुछ लोगों की आवाजें आ रही थी। बेतरतीब छोटी छोटी सीढ़ियां चट्टान काटकर बनाई गई थी। साथ ही सीढ़ियों के दोनों ओर मोटी मोटी दो लोहे की सांकलें लटकाई गई थी। जिससे लोग आसानी से उतर सकें। गुफा का सबसे निम्न स्थल और द्वार के बीच की ऊंचाई का अंतर लगभग 27 मीटर का है। किंतु सीढ़ी में इस संकरे मार्ग से एक ही बार में हम बीस मीटर तक उतर गये। नीचे पहुंचकर देखते हैं पैरों के नीचे ढलवा भूमि है। गुफा की कुल लम्बाई 160 मीटर है। किन्तु चूने पत्थर की इस प्राकृतिक गुफा में जिस प्रकार अनेक दैवीय आकृतियां उभरी हुई हैं उससे ईश्वर के प्रति आस्था होनी स्वाभाविक ही है। गाइड इन विभिन्न आकृतियों को हिन्दू धर्म ग्रंथों में वर्णित देवी देवताओं से जोड़ते हैं।
गाईड बताते हैं कि गुफा के भीतर से एक मार्ग काशी विश्वनाथ (वाराणसी) दूसरा रामेश्वरम व तीसरा कैलाश मानसरोवर तक जाता है किन्तु विभिन्न कालखण्डों में प्रलय आ जाने के कारण यह मार्ग बन्द हो गये हैं। और विश्वास है कि कलियुग समाप्ति अर्थात सतयुग प्रारम्भ होने पर यह मार्ग पुनः खुलेंगे, ऐसा धर्मग्रंथों में वर्णित है। गुफा के भीतर ऐरावत हाथी के दर्जनों पांव, चार युगों के रूप में छोटी-मोटी टीलेनुमा आकृतियां, शिवलिंग व गुफा की छत से स्वतः ही पानी टपकना, शिव की विशाल जटा आदि मुख्य रूप से दर्शनीय हैं। गुफा की छत कहीं 15-20 फुट ऊंची है तो कहीं मात्र 5-6 फीट ही। इन दैवीय स्वरूप लिये आकृतियों को देखकर उस अनाम कोटिनाम ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा उमडनी स्वाभाविक है। लगभग 45 मिनट तक हम प्रकृति के अद्भुत रूप को विस्फारित नेत्रों से देखते रहे। गाईड ने पूरी गुफा के दर्शन करवाने के बाद एक जगह पर सामूहिक रूप से पूजा सम्पन्न की और बाहर जाने को कहा। किन्तु मेरा मन वहीं रुक जाने को हुआ। प्रकृति के इस रूप को निकट से देखने से  मन में रोमांच भर गया था। गर्मी के इस मौसम में बाहर भीषण गर्मी थी लेकिन गुफा के भीतर काफी शीतलता। अनमने भाव से अन्य श्रद्धालुओं के साथ मैं परिवार सहित बाहर निकल आया। भीतर की स्थिति को सटीक शब्दों में बयां कर पाना संभव नहीं।
ऐसा माना जाता है कि यहां पर भगवान शिव अपने भक्तों की प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता से करते हैं और जो भक्त पवित्र गुफा तक पहुंच जाता है उस पर उनकी कृपा सदैव बनी रहती है। द्वादश ज्योर्तिलिंगों में काशी विश्वनाथ, केदारनाथ व रामेश्वरम की पूजा से अधिक महात्म्य पाताल भुवनेश्वर की पूजा का माना जाता है। पाताल भुवनेश्वर में भगवान शिव ही नहीं अपितु हमारे 33 करोड़ देवी देवताओं की शय्या है। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा चण्डीपथ की रचना इसी पवित्र गुफा में बैठकर की गई। स्कन्ध पुराण के मानस खण्ड में विस्तृत विवेचना की गई है कि जो भी मनुष्य उस अलौकिक पारब्रह्म के अस्तित्व को लेकर थोड़ी सी भी शंका करता है उसे पाताल भुवनेश्वर के दर्शन अवश्य कर लेना चाहिए।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण द्वारा यह गुफा खोजी गई। मान्यता है कि रानी दमयंती ने एक बार राजा नल को पराजित किया और रानी दमयंती के रोष से बचने के लिए राजा नल ने ऋतु पर्ण से याचना की कि वह उसे उसकी पत्नी दमयंती से बचाये। ऋतुपर्ण राजा नल को हिमालय के सघन वन क्षेत्र में ले गये और वहां रुकने के लिए कहा। वापसी में राजा ऋतुपर्ण को एक हिरण के सौन्दर्य ने मोह लिया, जो घने जंगलों में भाग गया। उन्होंन हिरण का पीछा किया किन्तु वह कहीं नहीं मिला। थक कर वह एक पेड़ के नीचे लेट गये। सपने में उसी हिरण ने राजा ऋतुपर्ण से कहा कि वह उसका पीछा करना छोड़ दें। नींद टूटी तो उन्होंने अपने को एक गुफा के मुहाने पर पाया। फिर वे गुफा के भीतर जाने के लिए बढ़े तो द्वारपाल ने रोक दिया। परिचय के उपरान्त वहां विराजमान शेषनाग जी ऋतुपर्ण को अपने फन पर बिठाकर गुफा में ले गये और उन्हें उस दिव्यलोक के दर्शन कराये जहां पर तैंतीस करोड़ देवी देवता विराजमान थे।
द्वापर में कुरुक्षेत्र युद्ध के पश्चात अपने गुरुजनों एवं बंधु बांधवों की हत्या के पाप से बचने के लिए पाण्डवों ने हिमालय में प्रस्थान किया। यहां से गुजरते हुए पाण्डवों ने गुफा में कुछ दिन भगवान शिव की आराधना की। माना जाता है कि तत्पश्चात गुफा तब खुली जब आठवीं सदी में कत्यूरी शासनकाल के दौरान आदि शंकराचार्य ने यहां पूजा अर्चना की और इस गुफा का महात्म्य स्थानीय जनों को बताया।(राज्य के अन्य मन्दिरों की भांति इस गुफा का सम्बन्ध भी आदि शंकराचार्य से जोड़ दिया गया है) तब से इस गुफा के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों से आकर पूजा अर्चना की जाती है। प्रायः सभी मंदिरों व धार्मिक स्थलों में ब्राह्मण वर्ग ही पूजा अर्चना करते हैं। किंतु पाताल भुवनेश्वर में भण्डारी जाति के क्षत्रिय उपासक हैं, जिन्हें आदि शंकराचार्य ने इस कार्य हेतु नियुक्त किया है। भुवनेश्वर गांव के ही रावल, गुरौं, दसौनी, द्योण आदि अन्य जातियों के लोग व्यवस्था में सहयोग प्रदान करते हैं।
पाताल भुवनेश्वर से गंगोली हाट वापस आये। कुमाऊं रेजीमेंट की ईष्ट देवी तथा शक्तिपीठ के रूप में विख्यात माँ महाकाली (हाटकालिका) के दर्शन कर आगे के लिए प्रस्थान किया।
                                                                                                                                .............समाप्त  

Monday, January 21, 2013

कुमाऊँ - 4 ( बागेश्वर से गणाईं-गंगोलीहाट तक)

पिछले अंक से आगे - 
            सुबह नहा धोकर जल्दी तैयार हो गये। पिछले दो दिनों से रानीखेत और कौसानी में पानी की तंगी के कारण ढंग से नहीं नहा पाये थे। पानी तो था किन्तु मनोवैज्ञानिक दबाव रहता। होटल वाले यह आगाह करना न भूलते ‘‘साहब ! गरमी के कारण थोड़ा पानी की किल्लत है। आदि आदि.....’’  चाय नाश्ते के बाद हम बागनाथ जी को प्रणाम कर बागेश्वर से पूरब की ओर धीरे-धीरे चढाई वाले मार्ग पर बढते जाते हैं। स्टियरिंग हाथ में हो और चीड़ के जंगलों के बीच से गुजरती हुयी नागिन जैसी काली सड़क हो तो गाड़ी दौड़ाना अच्छा लगता है। जैसे जैसे ऊँचाई पर उठते जाते हैं पीछे बागेश्वर का फैलाव और गोमती व सरयू का संगम का दृश्य और भी मनभावन लगता है। बागेश्वर के लोगों में वन चेतना अधिक है इसीलिये शहर में सभी जगह हरियाली दिखायी देती है। मैं हर मोड़ के बाद गाड़ी रोकता हूँ ताकि नजारों का लुत्फ उठाया जा सके। आगे काण्डा पहुंचते हैं। काण्डा नाम स्थानीयता का परिचायक है। उत्तराखण्ड में काण्डा, काण्डी, काण्डाखाल,काण्डाधार, काण्डयूंसैण आदि कई नाम हैं। काण्डा से गुजरते हुये आसपास की पहाड़ियों पर जगह जगह खड़िया खनन के कारण सफेद रंग के गड्ढे दिखाई देते हैं। हरे भरे खेतों व हरियाली बिखेरते पहाड़ों के बीच जगह जगह ये सफेद दाग ? दुःख होता है हमारा यह खूबसूरत पहाड़ सफेद दाग (ल्यूकोडर्मा) का रोगी हो गया है। दोहन चाहे खनिज पदार्थों का हो या वनों का, पहाड़ का भला होता तो कहीं दिखता नहीं है।
आगे बढते जाते हैं, इस पिथौरागढ-बागेश्वर सड़क पर इक्का दुक्का वाहनों का ही आना जाना था। गावं दूर दूर होने के कारण आबादी का घनत्व इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम ही है। गावों के आसपास सड़क किनारे जगह जगह हैण्डपम्प दिख रहे थे, कुछ सूखे पड़े थे और जिनमें पानी होता उनमें गागर व बण्ठा लिये औरतों की भीड़ दिखती। जिनमें भीड़ कम होती वहां पर लड़कियां व औरतें कपड़ों सहित नहाते हुये दिख जाती। इस गरमी ने सभी को झुलसा कर रख दिया, क्या मैदान क्या पहाड़। इस पर्वत श्रृंखला के पूर्वी ढलान पर फैले चौकोड़ी में रुकने की तीव्र इच्छा थी। पंचाचुली आदि पर्वत श्रेणियों के दर्शन के लिये यह स्थान उपयुक्त माना जाता है। सुदूर उत्तर-पूरब में अभिभूत कर देने वाली हिमालय की धवल चोटियां और सामने गणाई-गंगोलीहाट का विस्तार। उत्तराखण्ड के वास्को-डि-गामा कहे जाने वाले डॉ सुरेन्द्र सिंह पांगती, आई0 ए0 एस0 ने आयुक्त व महानिदेशक, उ0प्र0 पर्यटन निदेशालय रहते हुये जिन गुमनाम स्थानों को पहचान दिलायी चौकोड़ी भी उनमें से एक है। उनके सद्प्रयास से ही कुमाऊँ मण्डल विकास निगम ने यहां पर पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये एक गेस्ट हाऊस बनाया और आज देखते देखते यहां पर धन्ना सेठों के अनेक हट्स व रिसोर्टस तैयार हो गये। और जिस तेजी से ये बढ रहे हैं उससे लगता है कि एक दिन यहां की पूरी कृषि व उपजाऊ भूमि कंक्रीट के जंगल में
तब्दील हो जायेगी।
फोन द्वारा स्थानीय मित्र भुवन चन्द्र पन्त से सुबह ही पूछा कि दोपहर के भोजन के लिये कौन सी जगह ठीक है? वे बता चुके थे कि यदि सीधे पिथौरागढ आओगे तो थल में और गंगोलीहाट होते हुये आओगे तो उडयारी बैण्ड। उडयारी बैण्ड में दो राहा है, एक थल-पिथौरागढ/मुनस्यारी के लिये तो दूसरा बेरीनाग-आगर-गंगोलीहाट के लिये। मात्र दो-तीन होटल है उडयारी बैण्ड में। खाना लजीज तो नहीं किन्तु भूख मिटायी जा सकती थी। पहाड़ों पर होटलों में प्रायः थाली सिस्टम होता है अर्थात कितना भी खाओ कीमत निर्धारित है। इसलिये होटल मालिक भी सभी कुछ बजट के भीतर ही रखते हैं। और ग्राहक भी मजबूर होता है कि जो भी मिल रहा है उसे तो खा ही लें।
भोजन करने और कुछ सुस्ताने के बाद दक्षिण की ओर गंगोलीहाट जाना तय करते हैं। चौकोड़ी समुद्रतल से 1980 मीटर ऊँचाई पर स्थित है तो उडयारी बैण्ड मात्र 1800 मीटर पर। महीना भले ही जून का हो किन्तु इतनी ऊँचाई पर धूप में गरमी नहीं रहती है। यहां पर धूप तपा नहीं सहला रही हो जैसे। रास्ते के दोनों ओर सीढीदार खेत और पीछे ऊँचाई पर बांज, बुरांस, देवदार व कैल आदि का मिश्रित वन मनोहारी दृश्य उत्त्पन्न करता है। बसन्त में जब यहां बुरांस फूलते होंगे तो कैसा दिखता होगा, कल्पना ही कर सकता हूँः
जागेश्वर धुरा बुरुंशि फुलि गे छ ऽ
मैं कैहुँ टिपुँ फूला, मेरि हंसा रिसै रै।

कुमाऊँ के मध्य कोई हिमानी न बहने के कारण पहाड़ों की आकृति में गढवाल की भांति पैनापन नहीं है। अपितु अधिकांश पहाड़ियों की बनावट तो कूर्माकार (कछुये जैसी) है। बारह कि0मी0 दूरी तय कर बेरीनाग पहुंचते हैं। डेढ सौ वर्ष पहले अंग्रेजों द्वारा चौकोड़ी बेरीनाग की पहाड़ियों पर चाय बागान लगाये गये थे जो कि आज अच्छी स्थिति में नहीं है।
बेरीनाग से गंगोलीहाट की ओर धार पर चलते हुये उत्तर-पूर्व में पूर्वी रामगंगा के जलागम क्षेत्र का विस्तार दिखाई देता है। गुप्ताड़ी से गंगोलीहाट का रास्ता छोड़कर पाताल भुवनेश्वर की ओर बढ़ जाते हैं। बचपन में गावं की रामलीला में पाताललोक के बारे में सुना था कि रावण का भाई अहिरावण था व उसकी सत्ता पाताललोक में थी। रावण के कहने पर वह भगवान राम व लक्ष्मण को अपहरण कर पाताललोक ले गया। तब वीर हनुमान जी ने उन्हें छुड़ाया था जहाँ पर वे अपने पुत्र मकरध्वज को मिलते हैं, आदि आदि। महाभारत में पाताललोक तो नहीं, हां नागलोक का जिक्र अवश्य आता है। सोचता हूँ पाताल भुवनेश्वर नाम क्यांे दिया गया होगा। किन्तु जब कहीं कहीं खड़ी चट्टानों को काटकर बनाई गयी सड़क पर निरन्तर नीचे नीचे उतरते जाते हैं तो तब पाताल भुवनेश्वर नाम की सार्थकता सही लगती है। वास्तव में हम पाताल उतर आये थे।पाताल भुवनेश्वर में सड़क जहाँ समाप्त होती है वहीं पार्किंग भी है, दायीं ओरगाड़ियां पार्क होती है और बायीं ओर आठ-दस दुकानें हैं। सड़क के आखिर में प्रवेशद्वार है और नीचे सीढ़ियां उतरने पर प्राचीन मन्दिर बुद्ध भुवनेश्वर के दर्शन होते हैं। साथ ही नील, काल व बटुक भैरव के मन्दिर भी हैं। समय पर्याप्त हो तो त्रिकोण के बीच बना शिवलिंग, धर्मशाला के आंगन में हनुमान जी की विशाल मूर्ति तथा शेषावतार व सूर्य की मूर्ति भी आकर्षण के केन्द्र है।
                                                                                                                                  क्रमशः......................

Wednesday, January 02, 2013

प्रार्थना

जग को ज्योतिर्मय कर दो !
 

प्रिय कोमल-पद-गामिनि !
 

मन्द उतर-
 

जीवन्मृत तरु-तृण-गुल्मों की पृथ्वी पर,
 

हँस-हँस, निज पथ आलोकित कर
 

नूतन जीवन भर दो ! -
 

जग को ज्योतिर्मय कर दो !              
                         
                             -सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
                                         (परिमल से)