Sunday, January 27, 2019

‘सुख’ - कीर्ती चौधरी

आज अल्बम में अपनी लगभग तैंतीस बरस पुरानी फोटो देखी और उसी दौरान लेखकद्वय (मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव) के उपन्यास ‘शह और मात’ पढ़ने का मौका मिला। उपन्यास में कीर्ती चौधरी की ‘‘सुख’’ कविता याद आ गयी, जो तब अपने बैचलर जीवन में मैंने न जाने कितनी बार दोहराई होगी। -------------- 
आज अर्थ ढूंढ रहा हूँ!

रहता तो सब कुछ वही हैये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...
 बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
लेकिन क्या होता है
कभी-कभी
फूलों में रंग उभर आते हैं
मेज़पोश-कुशनों पर कढ़े हुए
चित्र सभी बरबस मुस्काते हैं,
दीवारें : जैसे अब बोलेंगी
आसपास बिखरी क़िताबें सब
शब्द-शब्द
भेद सभी खोलेंगी ।
अनजाने होठों पर गीत आ जाता है ।

सुख क्या यही है ?
बदलता तो किंचित् नहीं है,
ये पर्दे--यह खिड़की--ये गमले...