Sunday, July 17, 2016

पातीण और पातनी देवी

        पिछले साल विजय दशमी पर गांव जाना हुआ। ट्राली(Rope way) से टिहरी झील पार की और पैदल गांव को चल पड़ा। सोचा दो मील की दूरी के लिये गाड़ी का इन्तजार क्यों करूं। आधा मील ही पहुँचा कि मेरे गांव व मदननेगी जाने वाले रास्ते के मिलान पर पातनी (पातीण) देवी में हाथ स्वतः ही जुड़ गये। पीठ से बैग उतार कर नीचे रखा, यंत्रवत पास ही पातीण के झुरमुट से कुछ पत्तियां तोड़कर देवी के थान पर चढ़ाकर आशीर्वाद लिया और बैठ गया। मेरे गांव के आस-पास ही पातनी देवी के कई थान (स्थान) हैं। गांव से मदननेगी, चम्पाधार, माण्डू होते हुये कठूली जाने वाले रास्ते पर और एक यह अर्थात अलग-अलग दिशा को जाने वाले रास्तों पर। हमारे क्षेत्र के अन्य गांवों के रास्तों पर भी पातनी देवी के  कई थान हैं। पातनी देवी के थान से मतलब बिना किसी ढांचे का मन्दिर। जिसमें दीप, धूप, चढ़ावा आदि कुछ नहीं चढ़ता। दो-चार पत्ते पातीण के डाल दो और हाथ जोड़ दो। रास्ते किनारे ढलान से ऊपर की ओर प्रतीक के तौर पर एक-दो पत्थर और पातीण के कुछ सूखे व हरे पत्तों का ढेर का नाम है पातनीदेवी का थान।
         आखिर क्या है पातनी देवी? माना जाता है कि धर्म की अवधारणा व्यक्ति को अनुशासन में रखने के लिये हुयी है। सामाजिक बन्धनों के साथ-साथ मनुष्य धार्मिक बन्धनों में बान्धने से ही अनुशासित रह सकता है, हमारे पूर्वजों की सोच रही है। लाखों, करोड़ों देवी-देवताओं का उल्लेख हमारे धर्मशास्त्रों में है। तैंतीस करोड़ देवताओं की ‘लिस्ट’ मंे पातनी देवी है या नहीं, कुछ कह नहीं सकता। मेरा मानना है कि पातनीदेवी के थान के मूल में सम्भवतः पातीण के पौधों को समूल नष्ट होने से बचाना भी रहा हो।
उत्तराखण्ड हिमालय में 2000 से 5000 फीट ऊँचाई तक पाये जाना वाला पातीण वह पौधा है जिसे पालतू पशुओं के नीचे बिछाया जाता है- पशुओं को आराम देने की भावना से। परन्तु मूलतः गोबर खाद तैयार करने के निमित्त। यह जौनसार में निनस, निनावा व निनावं, गढ़वाल में तुंगला व पातीण तथा कुमाऊँ में तंग नाम से जाना जाता है। इसे हिन्दी में तुंगला व संस्कृत में तिन्त्रिणी कहा जाता है। अंग्रेजी नाम small flowered poison sumac है और वानस्पतिक नाम Rush parviflora है। जैसा कि संस्कृत नाम(तिन्त्रिणी अर्थात तीन तृण) से ही स्पष्ठ है कि इसकी शाखा पर 0.6 से 2 इन्च आकार के तीन पत्ते फूटते हैं, जिसमें ऊपर का पत्ता बड़ा और आशमान की ओर सिर उठाये होता है जबकि उसके नीचे आमने-सामने के पत्ते छोटे व लम्बवत होते हैं। मई, जून में जहाँ पातीण पर फूल निकलने शुरू हो जाते हैं, वहीं जुलाई, अगस्त में फल पड़ते हैं। तोर के दानों से भी छोटे अर्थात लगभग चार-पाँच मिलीमीटर ब्यास के इसके फल पकने पर हरे से भूरे रंग में बदल जाते हैं। आयुर्वेदिक औषधि के लिये विख्यात अंगूर की भांति गुच्छों के रूप में लदे इन फलों को चिड़िया, गिलहरी, बन्दर ही नहीं बल्कि वनों पर आश्रित पशुचारक, घसियारिनें आदि भी बड़े चाव से खाते हैं।
         पातीण व पातनी देवी से जुड़ी अनेक यादें है। उपयुक्त जलवायु होने के कारण हमारे गांव के उत्तर, दक्षिण व पूरब में पातीण बहुतायत में है। अतः छुट्टी के दिन घर से आदेश मिलता कि अपनी सामर्थ अनुसार खाली बोरी ले जाओ और पातीण काट कर लाओ। यह तीन-चार घण्टे का ही कार्य(हॉफ डे टास्क) होता। परन्तु मन मुताबिक साथी मिल गये तो हम पूरा दिन भी लगा लेते एक बोरी पातीण काटने में। बोरी ठूंस ठूंस कर भर देने के बाद उसे जंगल में साफ जगह पर रख कर कभी बाधा दौड़ में बाधा(हर्डल) के तौर पर बोरियों को रखा जाता और दौड़ लगाते। कभी दौड़कर आते और बोरियों के ऊपर कूदते, यानि बोरियां गद्दों के रूप में इस्तेमाल होती। घर लौटते समय जहाँ हल्की ढालूदार साफ जगह मिलती वहाँ बोरियां नीचे रख दी जाती और लातों से बोरी धकियाकर कुछ दूरी तय कर लेते। एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि जंगल में दिशा-शौच को गये और पानी नहीं मिला। वापसी पर रास्ते में पातनीदेवी का थान पड़ा तो पातनी देवी अपवित्र न हो जाये, इस भावना से थान से एक निश्चित दूरी बनाने के चक्कर में हाथ-पैर कांटों से बुरी तरह छिल गये। चार-पाँच साल पहले एक शाम चम्पाधार होतेे हुये गांव लौट रहा था तो रास्ते में पातीण की आड़ में एक जोड़ा प्रेमालाप में लीन था। पलायन और घरों में ढोर-डंगर कम होने के कारण जंगल में पातीण के बड़े-बड़े झुरमुट जो हो गये हैं।

Friday, July 01, 2016

मेरी प्यारी घुघुती जैली

         घुघुती का महत्व किसी अन्य क्षेत्र के लिये कितना है कहना मुश्किल है। परन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती सबके गले की घुघुती है। चैत-बैसाख की बात हो और घुघुती न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। खुदेड़(विरह) गीतों की बात हो और घुघुती न हो ऐसा भी नहीं हो सकता। घुघुती हमारे लोक में इस तरह रच-बस गयी है कि हम घुघूती के बिना गांव की कल्पना ही नहीं कर सकते। गांव याद आता है तो गांव में घुघुती याद आ जाती है। कभी ओखली के आस-पास, कभी चौक में, कभी बर्तन धोने वाली जगह पर, कभी छत की मुण्डेर पर और कभी आंगन किनारे खड़े पेड़ों पर।
       घुघुती की महत्ता हमारे लिये कितनी है यह आप समझ सकते हैं; बचपन में दादी, नानी अक्सर एक लोरी सुनाया करती थी- ‘‘घुघुती, बासुती, क्या खान्दी, दूधभाती.......’’
       किशोरावस्था में रेडियो पर एक गाना सुनते; ‘‘ना बास घुघुती चैत की, खुद लगीं छ माँ मैत की।......’’.
      पिछली सदी के आठवें दशक में अक्सर गोेपाल बाबू गोस्वामी के स्वर में यह गाना जरूर बजता था; ‘‘आमा की डायी मां घुघुती न बासा, घुघुती न बासा......’’
     फिर नेगी जी का जमाना आया तो उनके स्वर मेें यह गीत प्रायः सुनाई पड़ता; ‘‘घुघुती घुरॉण लगीं म्यारा मैत की, बौड़ी-बौड़ी ऐगे ऋतु ऋतु चैत की।.......’’
      नेगी जी ने तो उपमा केे तौर पर भी घुघुती की सांकी(गर्दन) को महत्ता दी है; ‘‘कख बटि लै होली घुघुती सी सांकी, कख पायी होली स्या छुंयाळ आँखी....’’
       और अब किशन महिपाल जी तो घुघुती वाले इस लोकगीत के साथ माणा से मुम्बई तक धूम मचाये हुये है; ‘‘किंगर का छाला घुघुती, पंगर का डाळा घुघुती, भै घुर घुरॉन्दि घुघुती, फुर उड़ॉन्दि घुघुती......’’
      हिन्दी फिल्म या साहित्य में कबूतर को पत्रवाहक के रूप में दिखाया जाता है। परन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती पत्रवाहक नहीं स्वयं सन्देशवाहक के रूप में गीतों में मौजूद है;   ‘....उड़ि जा ऐ घुघुती न्हैं जा लदाख, हाल म्यरा बतै दिया म्यारा स्वामी पास।.....’
या फिर- ‘...मेरी प्यारी घुघुती जैली, मेरी माँजी तैं पूछि ऐली।.......’
      घुघुती हमें कितनी प्रिय है वह इस बात से देखा जा सकता है कि मुम्बई में बसी उत्तराखण्डी एक महिला का ब्लॉग का नाम ही है ‘घुघुती बासुती’।
       कूर्माचल सांस्कृतिक परिषद, देहरादून की स्मारिका का नाम भी है ‘घुघुती’।
        और हिन्दी साहित्य की कहानी, कविता, सम-सामयिक आदि विभिन्न विधाओं पर सतत लेखन करने वाले स्वनाम धन्य विद्वान लेखक देवेश जोशी जी ने अपनी एक किताब का नाम ही रख डाला है ‘घुघुती ना बास’
.         .इससे यह सोच सकते हैं कि घुघुती हमारे लोकजीवन व जनमानस में कही गहरी छाप छोड़े हुये है जिसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।