Saturday, December 31, 2011

बरसो ज्योतिर्मय जीवन !


जग  के उर्वर आँगन में
बरसो ज्योतिर्मय जीवन !

बरसो लघु लघु त्रण तरु पर
हे चिर अव्यय चिर नूतन !

बरसो कुसुमों में मधुवन
प्राणों में अमर प्रणय धन;
स्मिति स्वप्न अधर पलकों में
उर अंगों में सुख यौवन !

छू छू जग के मृत रज कण
कर दो त्रण तरु में चेतन,
मृनभरण  बाँध दो जग का
दे प्राणों का आलिंगन !

बरसो सुख बन सुषमा बन
बरसो जग जीवन के धन !
दिशी दिशी में औ पल पल में
बरसो संसृति के सावन !
                              - सुमित्रा नंदन पन्त 

   !!!! = नववर्ष  2012  आपको मंगलमय हो  = !!!!

Saturday, December 17, 2011

टिहरी बाँध की झील में स्थानीय जनता का क्रंदन

 आज हम मोटर वाहन, रेल, वायुयान आदि परिवहन, फोन, फैक्स, मेल आदि संचार साधन या दैनिक प्रयोग होने वाले फ्रिज, टी वी, वाशिंग मशीन, ए0 सी0, कम्पुटर आदि घरेलू आवश्यक उपकरणों के बिना रहने की कल्पना नहीं कर सकते. कल कारखानों के बिना हमारी आवश्यकताओं की पूर्ती नहीं हो सकती है, और इन सबके मूल में है विद्युत ऊर्जा.

टिहरी जब यौवन पर था 
         विद्युत ऊर्जा हमें चार मुख्य स्रोत से मिलती है; जल ऊर्जा, ताप ऊर्जा, डीजल ऊर्जा और परमाणु ऊर्जा. इसके अतिरिक्त स्रोत हैं अक्षय ऊर्जा अर्थात सौर ऊर्जा तथा पवन ऊर्जा (जिनका दोहन हम उस सीमा तक नहीं कर पा रहे हैं कि पर्याप्त मात्रा में उत्पादन हों). ताप विद्युत ऊर्जा के लिए जलावन लकड़ी और कोयला की आवश्यकता होती है. जबकि हमारे लकड़ी व कोयला के भंडार धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं. साथ ही ताप विद्युत ऊर्जा उत्पादन में प्रदूषण भी अत्यधिक है. डीजल स्टेशन जहाँ डीजल प्रयोग होता है. किन्तु डीजल महंगा होने के कारण यह व्यावहारिक नहीं है. परमाणु ऊर्जा के लिए पर्याप्त परमाणु भंडार हमारे पास नहीं है और हमें दूसरे देशों पर निर्भर रहना होता है और उनकी शर्तों पर समझौता करना होता है. परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना व हाल ही में जापान के फुकुसिमा में हुए परमाणु विकिरण को अनदेखा नहीं किया जा सकता. जल विद्युत ऊर्जा ही एक ऐसा स्रोत है जहाँ से पर्याप्त मात्रा में विद्युत उत्पादन हो सकता है. बशर्ते जनहित को ध्यान में रखते हुए ईमानदारी से योजनायें बनाई जाय. क्योंकि प्रारंभिक लागत के अतिरिक्त इसके रख-रखाव पर बहुत ही कम खर्चा होता है और पर्यावरणीय प्रदूषण भी लगभग शून्य है.

टिहरी के एक कोने की यादगार फोटो
                    वर्तमान में देशभर में दर्ज़नों जल विद्युत परियोजनाएं चल रही है और सैकड़ों पर काम चल रहा है या प्रस्तावित है. उत्तराखंड में ही 18000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य लेकर कार्य किया जा रहा है. किन्तु टिहरी गढ़वाल में 2400 मेगावाट की "टिहरी बाँध जल विद्युत परियोजना
                     टिहरी बाँध परियोजना तीन चरणों में पूरी की जा रही है, लगभग सात हज़ार करोड़ रुपये लागत का पहला चरण (1000 मेगावाट) पूर्ण हो चुका है, चार सौ करोड़ रुपये लागत का दूसरा चरण (400 मेगावाट) कोटेश्वर परियोजना लगभग पूर्णता की ओर है और अंतिम चरण पी0 एस0 पी0 (पम्पिंग स्टोरेज प्लांट) 1000 मेगावाट पर कार्य शीघ्र ही प्रस्तावित है. प्रतिदिन करोड़ों रुपये की विद्युत उत्पादन के अतिरिक्त  टूरिज्म, फिशिंग, इरिगेसन और वाटर स्पोर्ट्स जैसी बहुआयामी टिहरी बाँध परियोजना सरकार के लिए कामधेनु गाय से कम नहीं है. परन्तु टिहरी बाँध परियोजना का जो दूसरा पक्ष है वह अत्यंत पीड़ादाई है (कम से कम  उनके लिए तो है ही  जो वहां से उजड़ गए ) इस दूसरे पक्ष को जानने के लिए हमें थोडा टिहरी के इतिहास व भूगोल को जानना होगा. 

टिहरी का सबसे लोकप्रिय कालेज - कक्षा छ से बारहवीं तक की पढाई यहीं पर पूरी की
                       ऋषिकेश से गंगोत्री मार्ग पर अस्सी किलोमीटर उत्तर में  650 -700 मीटर आर0 एल0 पर बसा हुआ था टिहरी नगर. जो कि भागीरथी और भिलंगना नदी का संगम भी है. इन नदियों द्वारा हजारों- लाखों वर्षों में लाई गयी मिटटी, रेत व पत्थरों का जमाव इस चौड़ी घाटी में हुआ होगा क्योंकि यहाँ से आगे भागीरथी के प्रवाह की दिशा में घाटी काफी संकरी थी. (जहाँ पर आज मुख्य बाँध है) समशीतोष्ण जलवायु वाला यह क्षेत्र मनुष्यों की बसासत के लिए उपयुक्त क्षेत्र रहा. प्रचुर जल, आवास निर्माण हेतु लकड़ी, मिट्टी व पत्थर, पशुओं के लिए चारा तथा अन्नोत्पादन हेतु उपयुक्त भूमि. दो-दो हिमानियाँ, मछलियों के शिकार के लिए भरपूर संभावना. बस्तियां बसती गयी तो भिलंगना और भागीरथी को पार करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी. तब 'धुनार' जाति के पुरुष कुश की रस्सियाँ बनाकर आने-जाने वालों को पार कराने लगे और थोड़ा बहुत कर के रूप में उनको जो भी मिलता उसी से गुज़ारा करते.
                        सन 1803 में राजधानी श्रीनगर सहित पूरे गढ़वाल पर गोरखों के आक्रमण और 1804 में गढ़वाल के पंवार वंश शासक राजा प्रद्युम्न शाह की वीरगति के बाद गढ़वाल व कुमाऊँ पर सम्पूर्ण रूप से गोरखों का आधिपत्य हो गया. (सर्वविदित है कि गोरखों के शासन काल में गढ़वाल, कुमाऊँ की जनता पर जो अत्याचार किये गए वे अत्यंत क्रूर और अमानवीय थे ) अंग्रेजों के साथ सिंघौली की संधि के उपरांत अंग्रेजों द्वारा गोरखों को मार भगाया गया. किन्तु बदले में अंग्रेजों ने वर्तमान टिहरी, उत्तरकाशी के भूभाग को छोड़कर पूरा गढ़वाल (व कुमाऊँ) अपने अधीन ले लिया. दिसंबर 1815 में तब राजा प्रद्युम्न शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने टिहरी की भागीरथी और भिलंगना नदी के संगमतट स्थित चौड़ी व रमणीक घाटी को राजधानी बनाया. टिहरी में महाराजा सुदर्शन शाह (शासनकाल 1815 -57) के बाद महाराजा भवानी शाह (शासनकाल 1859 -71), महाराजा प्रताप शाह (शासनकाल 1871 -86), महाराजा कीर्ति शाह (शासनकाल 1886 -1913) और अंतिम शासक के तौर पर 59वीं पीढ़ी में महाराजा नरेन्द्र शाह (शासनकाल 1913 -48) गद्दीनशीन हुए. महाराजा मानवेन्द्र शाह (जीवनकाल 1918-2007) को शासन करने का अवसर नहीं मिल पाया. वे राजा घोषित तो हुए किन्तु तब तक आज़ादी की बयार बहने लग गयी थी और वे विद्रोह नहीं दबा पाए अतः महाराजा नरेन्द्र शाह को शासन पुनः अपने हाथों में लेना पड़ा. टिहरी राजधानी बनी तो सुविधाएँ बढ़ी और आस-पास बस्तियां घनी होती गयी. 14 जनवरी 1948 को टिहरी रियासत संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उ0 प्र०) में विलय हो गयी. (टिहरी लोकसभा सीट से महारानी कमलेंदुमति शाह तीन बार व महाराजा मानवेन्द्र शाह  आठ बार सांसद रहे.)   
              टिहरी बाँध परियोजना की अवधारणा प्रधानमंत्री नेहरु जी के कार्यकाल में ही थी किन्तु कभी हाँ, कभी ना होते-होते 29 अक्टूबर 2005 को टिहरी को सदा के लिए डुबो दिया गया. बीसवीं सदी के आठवें दशक तक टिहरी पूरे यौवन पर था. टिहरी जिला मुख्यालय तो नहीं था तथापि यहाँ पर चार महाविद्यालय, दो इंटर कालेज, कई जूनियर स्कूल, जिला न्यायालय, सेवायोजन कार्यालय, पी डब्लू डी सर्किल कार्यालय, फोरेस्ट डिविजन ऑफिस आदि अनेक सरकारी कार्यालय खुल चुके थे. राजा के समय बना विशाल पोलो ग्राउंड प्रदर्शनी मैदान तथा हजारों की क्षमता वाला आजाद मैदान रामलीला ग्राउंड में बदल चुका था. टिहरी एक व्यावसायिक केंद्र ही नहीं बल्कि 15-20,000 की आबादी वाला टिहरी नगर तथा आसपास उप्पू, सिरायीं, जुवा, अठूर, सारजुला, खास, फैगुल, मंदार, ढुंग, धारमंडल, रैका आदि पट्टियों के सैकड़ों गाँवों के लाखों लोगों का शैक्षणिक और सांस्कृतिक केंद्र भी था. हर वर्ष कृष्ण लीला, राम लीला, विभिन्न आकर्षणो के साथ प्रदर्शनी, रीजनल रैली, साधुराम फुटबाल टूर्नामेंट, जनरल करिअप्पा फुटबाल टूर्नामेंट के अतिरिक्त मकर सक्रांति, बसंत पंचमी, शिवरात्रि आदि के पारंपरिक मेले भी प्रमुख थे. और ऐसे में जब 2005 में टिहरी को डुबो दिया गया तो भावनात्मक रूप से टिहरी से जुड़े लोग फूट-फूट कर रो पड़े.
टिहरी - मुख्य बाँध व झील 
               डूब क्षेत्र के भीतर आने वाले लोगों का विस्थापन किया गया परन्तु टिहरी बाँध प्रभावित लोगो को विस्थापन या बाँध के कुछ नियम नागावार गुजरें; 
            -अठारह वर्ष के वयस्क को एक परिवार माना जाना चाहिए था किन्तु यहाँ पर परिवार की परिभाषा में वह शामिल किया गया जिसके सर पर पिता का साया नहीं था. एक माह का अबोध अनाथ बच्चा बाँध विस्थापन की नज़र में परिवार था और 60-65 साल का बुजुर्ग व्यक्ति परिवार नहीं, यदि  80-90 वर्ष के उनके पिता जीवित हो. इसका परिणाम यह हुआ कि बाँध प्रभावित क्षेत्र में बुजुर्गों के प्रति वैमनष्य ही बढ़ा है. 
            -सरकार द्वारा विस्थापन के लिए पचास प्रतिशत भूमि का डूब क्षेत्र के भीतर आना आवश्यक माना गया. यदि किसी परिवार की सौ नाली (उत्तराखंड में भूमि माप की इकाई,एक नाली=200 वर्ग मीटर) भूमि है और अड़तालीस नाली भूमि डूब क्षेत्र के अंतर्गत है तो वह विस्थापित की श्रेणी में नहीं रखा गया, किन्तु उसका पडोसी यदि कुल दो नाली भूमिधर था और एक नाली भूमि  डूब क्षेत्र में थी तो वह विस्थापन का पात्र माना गया.
           -अपने पैत्रिक भूमि से पूरी तरह उखड़ने और देहरादून / हरिद्वार में नए ठिकानो पर कई पीढ़ियों से जमी गृहस्थी (जी हाँ, सभी सदस्यों के कपडे, किताबें, पूरी रसोई, बिस्तर, फर्नीचर ,बक्से, संग्रहीत अन्न, खेती बड़ी के औजार व पालतू पशु आदि ) सहित पहुँचने के लिए विस्थापन भत्ते के तौर पर सरकार द्वारा दिया गया कुल 2400 रूपया. जबकि कुछ गाँव रोड हेड से पहाड़ी, पथरीले रास्ते वाले व पांच छः मील दूर थे. जहाँ से सामन अपने नए ठिकानों पर पहुँचाने में विस्थापितों के चौबीस हजार रुपये से कई अधिक खर्च हुए.
           -टिहरी नगर क्षेत्र के उन लोगों (जिनमें से अधिकांश वे थे जिन्होंने सड़कें, पार्क या अन्य सरकारी जगह घेरकर झोपड़ियाँ /दुकाने खड़ी की या उन लोगों को जो स्थानीय निवासियों के मकान पर वर्षों से बतौर दो-तीन रूपये मासिक किरायेदार रहते हुए लाखों का व्यापार करते थे) को डेढ़ से साढ़े चार लाख रुपये तक भवन सहायता के रूप में मिले. और जो ग्रामीण विस्थापित थे उन्हें भवन सहायता के नाम पर ढेला नहीं .
           -समुद्रतल से 845 मीटर की ऊँचाई तक ही डूब क्षेत्र माना गया व उसके भीतर की भूमि या मकान का भुगतान कर दिया गया. जबकि झील का जलस्तर 835 मीटर तक रखा जाना प्रस्तावित है. 15 से 25 डिग्री तक का ढाल लिए तथा भूकंपीय दृष्टि से अति संवेदनशील इस पर्वतीय भूभाग में विशाल झील और डूब रेखा के बीच कुल दस मीटर ऊँचाई का फासला. ऊपर वाला ही जाने अतिवृष्टि और भूकंप में जाने कितने मकान जमीदोज हो जायेंगे . 

           -भिलंगना व भागीरथी के उत्तर में सैकड़ों गाँव हैं जो विस्थापित नहीं हुए,परन्तु बुरी तरह प्रभावित हैं. इन नदियों पर एक भारी वाहन पुल के अलावा सात-आठ झूला पुल थे. झील बनने के बाद अब दो हल्का वाहन पुल के अलावा आवागमन का कोई साधन नहीं है और जो है, उनसे अपने घरों तक पहुँचने में पहले की बनिस्बत समय व धन कई अधिक लग रहा है .
        -आस -पास के ग्रामीणों की टिहरी पर निर्भरता तो थी ही किन्तु कुछ किसान झंगोरा, मंडुआ, चौलाई, मौसमी सब्जी, तम्बाकू, मिर्च, दूध आदि टिहरी में बेचकर आजीविका चलाते थे, उनसे वह छिन गया. कुछ ब्रह्मण व हरिजनों की जीविका टिहरी व डूब क्षेत्र के गाँव में थी, किन्तु......  वे भी अब भाग्य को कोस रहे हैं. 
        -विस्थापित होकर जो देहरादून, हरिद्वार के पुनर्वास स्थलों पर चले गए उनमे से कुछ अपढ़ व सीधे-सादे लोग सामंजस्य नहीं बिठा पाए, या दलालों द्वारा ठगे गए और अपनी जमीने औने-पौने दामों में बेचकर कई-कई व्यसन पाल लिए. बेटे बेटियां कुसंगति में पड़ गए. जाति समाज से बाहर शादियाँ करने लग गए.    
          खामियां अनेक, असह्य पीडाएं. कह सकते हैं कि टिहरी बाँध विकास है सरकार के लिए, उनके लिए जो लाभान्वित हुए. परन्तु जो पीड़ा भोग रहे हैं वे ही जानते हैं कि बाँध के मायने क्या है, विस्थापन के मायने क्या है. शहरों को बसते हुए तो देखा किन्तु डूबते शहर का दर्द......! और यह दर्द बढ़ता ही जायेगा. वर्ष दर वर्ष, पीढ़ी दर पीढ़ी.
 

Saturday, October 15, 2011

कैसे होगा..??

जीना नहीं आसां दो पग चलना ही दुश्वार
जी नहीं रहा नाटक है कर रहा, देख औरों को आहें भर रहा    
है यहाँ हर कोई लोभ, मोह, स्वार्थ, ईर्ष्या, अहं का घर !

सवाल, सुरसा सी बढती महंगाई का नहीं है
क्योंकि देश के इन कर्णधारों के पास है अकूत सम्पदा-
लूट, घूस, चोरी, मक्कारी औ' बेईमानी के बूते
नहीं मरेंगे भूखे वे बिन कुछ किये ही, 
खुदा बख्श दे भले ही उम्र उन्हें हज़ार बरस
लड़ सकते हैं वे महंगाई से अगली सात पीढ़ियों तक

सवाल, प्रगति और विकास का भी नहीं है
समृद्धि आयी है जरूर - मेरे गाँव, मेरे शहर, मेरे देश में
गाँव शहर को जड़ने वाले रास्ते में मगर
उग आये हैं कांटे- ईर्ष्या, द्वेष, घृणा औ' हिंसा के

सवाल, बरसाती घास सी बढती आबादी का नहीं है
आबादी बढ़ रही है और बढती रहेगी. खुदा न करे - भले ही
जन्मे क्यों न फिर से सिकंदर, अशोक, नादिरशाह या हिटलर, 
या खुद जाये हीरोशीमा - नागासाकी जैसे घाव देश के सीने पर.
लेकिन, आबादी तो यूं ही बढती रहेगी कि जब तक
जनसँख्या नियंत्रण के बाहर बना रहेगा पहरा तुष्टिकरण का

सवाल, देश में बढती निरक्षरता का भी नहीं है, क्योंकि 
चल रहा साक्षरता मिशन, सर्वशिक्षा अभियान शिक्षा के नाम पर
फल रहा करोड़ों, अरबों रुपयों का व्यापार शिक्षा के नाम पर
बंट रही डिग्री, डिप्लोमा, सर्टिफिकेट लाखों शिक्षा के नाम पर
साक्षरता का अनुपात भले ही बढे न बढे, परन्तु
पढ़े-लिखों की संख्या में आयी है गिरावट जरूर

सवाल तो बस जिन्दा रहने का है भाई-
क्षद्म राजनीति, भ्रष्टाचार, महंगाई, अत्याचार और हिंसा से
उम्मीद है कि कोई है बच भी जाये,
लेकिन शायद ही कोई बचे धोखा, फरेब, छलकपट -
अपनों के ही द्वारा! अपने ही घर!! अपने ही भीतर!!!




Friday, September 30, 2011

प्यार की वेबसाइट

मेरी चाहतों की 'डेस्कटॉप' पर कभी भी 'क्लिक' कर के देखो
तुम ही हो वर्षों से - एक पॉपुलर 'वाल पोस्ट' की तरह
दिल के 'वर्क स्टेशन' पर- दायें-बाएं के 'डाटा' भले ही 'अपलोड' न हो, पर 
न समझना कि मेरी भावनाओं की 'हार्ड डिस्क' की कैपसिटी कम है
'वर्चुअल' की बात छोड़ो, यहाँ तो 'प्राइमरी मेमोरी' ही 'थाउजेंड जीबी' से ज्यादा है

कभी मुग्ध हो प्यार के क्षणों में तुमने कहा था
मेरी लगन 'चार्ल्स बाबेज' की तरह है, बल्कि उससे भी आगे
'फर्स्ट जेनेरेसन' से सीधे 'फिफ्थ जेनेरेसन' में जो पहुंचा हूँ 
सफ़र तय किया है 'एनालोग' से 'डिजिटल' तक का

कभी अकेले में, अपनेपन में-
मेरे गालों को सहलाते, मेरे बालो को तर्जनी पर लपेट छल्ला बनाते 
'स्कैन' कर डाली थी तुमने मेरी सूरत अपनी आँखों से
एक 'फोल्डर' बनाकर - डाला तुमने जिसे ख्वाबों के 'डेस्कटॉप' पर

अलग-अलग मूड को भांपते, अलग-अलग 'सॉफ्टवेर' की मदद से
रोज मेरी शक्ल को नया रूप देती, नयी इबारतें लिखती
पर गनीमत रही कि यह खेल 'सॉफ्ट कॉपी' तक ही सीमित रहा

परन्तु हकीकत यह है भावना मेरी,
तुम 'कैलकुलेट' करती रही मेरे प्यार, मोहब्बत को हमेशा
जीरो वन जीरो वन 'बाईनेरी डिजिट' की तरह


और आज कई-कई यादों का साक्षी वह 'फोल्डर'
ख्वाबों के 'डेस्कटॉप' से 'रिसायकल बिन' में भेज चुकी तुम
बल्कि परमानैंटली 'डिलीट' करने की फ़िराक में हो
जो प्यार कभी 'बिट' से 'बाइट' होते होते 'गीगाबाइट' तक परवान चढ़ा था
आज अनुपयोगी क्यों हो गया 'अनवांटेड आईकान' की तरह
जवाब दो, भावना मेरी जवाब दो !!   



Wednesday, September 07, 2011

शेर और सियार

              एक सियार था- बड़ा आलसी, झूठा, चालबाज और डींगबाज. और उसकी पत्नी उसके बिपरीत बहुत भोली थी. सियार जो कहता उस पर सहज ही विश्वास कर लेती. फिर भी उनका दाम्पत्य जीवन ठीक ढंग से ही व्यतीत हो रहा था. शादी के दिन से ही सियार कभी इस गुफा, कभी उस गुफा में पत्नी सहित दिन काटता. उसकी पत्नी उसे हर ऱोज अपना घर बनाने को कहती परन्तु वह तो ठहरा आलसी परन्तु साथ में झूठा भी था, तो उसने एक दिन अपनी पत्नी से कह दिया कि वह कल से अपना घर बनाना शुरू करेगा,  उसकी पत्नी बड़ी खुश हुयी. सियार ऱोज सवेरे खा पीकर घर से निकलता, इधर-उधर डोलता, मस्ती मारता और शाम को मिटटी में लोटकर घर लौटता. घर आकर पत्नी पर रौब झाड़ता, हाथ मुंह धोने को गरम पानी मांगता और देर रात अपने पांव दबवाने को कहता. बेचारी सब कुछ सहती, सब कुछ करती और सपने देखती कि चलो जल्दी ही अपना एक घर होगा. इधर जब वह गर्भवती हुयी तो उसे और भी चिंता सताने लगी और वह सियार को जोर देती. परन्तु सियार ठहरा सियार.
                            एक दिन प्रसव पीड़ा तेज हुयी किन्तु सियार गायब. शाम को अँधेरा होने पर घर लौटा तो देखा तो पत्नी पीड़ा से छटफटा रही है. सियार गुफा से बाहर आया और 'हुवा हुवा ' का शोर मचाने लगा ताकि बिरादरी के लोगों से मदद मिल सके. परन्तु कौन आता. क्योंकि वह तो कभी बिरादरी के बीच रहा ही नहीं और न बिरादरी वाले उसे पसंद करते. फिर इस वक्त तो वह सियारों की बस्ती से दूर शेर की गुफा में ठाठ से रह रहा था. क्या करता, गुफा में लौट आया. पत्नी की पीड़ा देखी नहीं जा रही थी. इधर उधर करता रहा. ईश्वर की लीला देखिये इधर पौ फटी भी नहीं थी कि उधर दूर से शेर की गुर्राहट सुनाई दी जो लगातार गुफा की ओर बढ़ रही थी. शेर को समझते देर न लगी कि गुफा का स्वामी लौट आया है. वह भय से थर-थर काम्पने लगा. वह पत्नी को भाग चलने को कहता है जो लगभग बेहोशी की हालत में थी. फिर सियार स्वयं ही पत्नी को गर्दन से पकड़ कर बाहर खींचता है और गुफा से दूर ले चलने की कोशिश करता है. परन्तु गुफा से थोड़ी ही दूरी पर आ पाया था कि सियार पत्नी एक गड्ढे में गिर जाती है और इधर शेर की गुर्राहट बिल्कुल पास ही सुनाई देने लगी. सियार करे तो क्या करे. गुफा के पास पहुँच कर शेर को कुछ गड़बड़ सी लगती है. वह अँधेरे में गड्ढे में बेहोशी की हालात में गिरी सियार पत्नी को तो नहीं देख पाता किन्तु झाड़ियों के पीछे से सियार को भागते हुए जरूर देख लेता है. छलांग मार कर शेर सियार को मार गिराता है.
                            कुछ समय बाद सियार पत्नी अपने बच्चों सहित बाहर निकल आती है और दूर सियारों की बस्ती का रुख कर लेती है. परन्तु अपने आलसी पति सियार का दुःख उसे जिंदगी भर सालता रहा. 
   
  

Monday, August 22, 2011

रोशनी की इस किरण को.....

                युगीन यथार्थ की विसंगतियों के खिलाफ तीन दशकों से निरंतर सक्रिय व जुझारू कवि चन्दन सिंह नेगी (या 'चन्दन उपेक्षित ' जैसे कि वे मित्रों के बीच लोकप्रिय हैं ) अपनी कविताओं व लेखों के माध्यम से जन जागरण में लगे हैं. ........ 1986 में युवा कवियों के कविता संकलन 'बानगी' में प्रकाशित उनकी कवितायेँ काफी चर्चा में रही. 1995 में लोकतंत्र अभियान, देहरादून द्वारा प्रकाशित "उत्तराखंडी जनाकांक्षा के गीत" में उनके वे जनगीत संकलित हैं जो उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान सड़कों पर, पार्कों में तथा नुक्कड़ नाटकों में गाये गए और वे गीत आज भी प्रत्येक आन्दोलनकारी की जुवां पर हैं .......
            आज पूरा देश  भ्रष्टाचार के  मुद्दे पर उबल रहा है , जन लोकपाल विधेयक लाने को लेकर गांधीवादी विचारों के महापुरुष अन्ना हजारे जी की मुहीम को लेकर जनसैलाब सड़कों पर हैं, लोग उन्हें खुल कर समर्थन दे रहे हैं . चन्दन नेगी का यह जनगीत  इसी मसीहा को समर्पित है;
 तान कर जब मुट्ठियों को यूं उछाला जायेगा l
खून जो ठंडा पड़ा है, फिर उबाल आ जायेगा l l

आज फिर से एक चिड़िया चहचहाने सी लगी है 
भोर का तारा उगा है भोर आने-सी लगी है
जो कदम चल कर रुके थे वो कदम फिर चल पड़े हैं 
मंजिलें जो तय करी थी पास आने सी लगी है l
मौन रहने की हदों को तोड़ डाला जायेगा l तान कर जब .......... 

पीड़ इतनी बढ़ गयी है अब सही जाती नहीं है
भ्रष्ट लोगों की कहानी भी कही जाती नहीं है
आग मुठ्ठी भर पकड़ कर सिरफिरे कुछ चल पड़े हैं
इनको झुककर बात करने की अदा आती नहीं है
राजपथ पर जीतकर ईमान वाला जायेगा l तान कर जब ..........

कुछ सियासत की बनावट ही सवालों से घिरी है
कुछ न कुछ होकर रहेगा अब हवा ऐसी चली है 
लोग चौखट से निकलकर सड़क पर आने लगे हैं 
जंग मिल कर जीतने की आज सबने ठान ली है
रोशनी की इस किरण को कैसे टाला जायेगा ? तान कर जब .........


Saturday, August 06, 2011

आत्मा अमर है

नैनं छिदन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः l
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः l l
           (श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्ययोग के माध्यम से  समझाते हुए कहा कि - हे अर्जुन, यह आत्मा अमर है. इसे न ही शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गला ही सकता है और न ही हवा उड़ा सकती है.)  
               शास्त्रों में ज्ञान का इतना भंडार होते हुए भी हम है कि स्वभावतः शोक करते हैं. गत बुद्धवार 03 अगस्त को शाम 7:50 पर माँ का देहांत हो गया. माँ लम्बे समय से स्किन (बायीं जांघ के) कैंसर से ग्रस्त थी. और इधर दो माह से बिस्तर पर ही पड़ी थी. पहले घुटने के नीचे था, चिकित्सकों की सलाह पर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा वह ऑपरेट कर दिया गया तो कुछ महीनों बाद जांघ पर निकल गया. अज्ञानतावश माँ ने इसे छुपाये रखा. जब काफी बढ़ गया तो किसी ने कीमोथेरेपी की सलाह दी तो चिकित्सकों ने आयु अधिक होने पर कीमोथेरेपी न करने की बात कह कर केवल सेवा करने को कहा. माँ की इच्छा पर जून माह में हरिद्वार पतंजलि योगपीठ बाबा रामदेव के आश्रम भी ले गया. वहां पर एक माह की स्वर्ण भस्म, डायमंड पावडर, गिलोय आदि आयुर्वेदिक दवाइया दी गयी जिससे कोई लाभ नहीं हो पाया. 02 अगस्त दोपहर तक माँ ने पूरा खाना खाया, अपरान्ह तीन बजे के आस पास तबियत अचानक बिगड़ गयी जो उत्तरोत्तर बढती रही और बुद्धवार शाम को परलोक सिधार गयी. शायद इश्वर की यही इच्छा थी. माँ अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़ गयी. दो बेटे, दो बेटियां व सभी के बारह बच्चे.
                 यह भी संयोग ही कहा जायेगा कि माँ और पिताजी की आयु का अंतर आठ वर्ष का था और उनकी मृत्यु का अन्तराल भी आठ वर्ष ही रहा.

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                    एक निवेदन उन विद्वान ब्लोगर्स से जो यहाँ तक पहुंचे हैं, यह कि -- परम्परानुसार तेरह दिनों तक शोक में रहने के कारण मै आजकल उनकी रचनाओं को पढ़ नहीं पा रहा हूँ और न ही कोई टिपण्णी कर पा रहा हूँ.  कृपया वे क्षमा कर दें.
   

Saturday, July 30, 2011

घाटी के स्वर

दूर कहीं कोई मुझे पुकार रहा है
और आवाज- घाटियों से टकराकर
आ रही है - जो शायद तुम्हारी है
कितना अपनापन है  इस आवाज में,
कितनी मिठास - शहद की बूँद सी !

कोई मुझे लम्बे समय से पुकार रहा है 
और आवाज - जो शायद तुम्हारी है
कितनी विह्वलता है इस आवाज में - कितनी तड़प !
घाटियों में पड़ी बर्फ सी- 
आतुर है जो नदियों के आगोश में समाने को. 

शहर सारे जंगल हो गए हैं 
प्यार पाने को आकुल एक युवा सन्यासिन
एक अपरिचित दरवाजा खटखटाती है 
इस बियावान जंगल में - निश्वास, निशब्द !

आँसू जो आज थम नहीं रहे
सिर्फ मेरे हैं !
और यह कारुणिक पुकार 
जो शायद तुम्हारी है - सिर्फ तुम्हारी !
भेद रही मेरे अंतस को - चुपचाप, दबे पांव, निशब्द !!

           X  X  X  X  X  X  




Friday, July 22, 2011

पाहन पूजै हरि मिले तो मै....

             प्रायः ऐसा होता है कि अपार आस्था, अगाध श्रृद्धा और बड़े उत्साह के साथ हम किसी मन्दिर में जाते हैं. परन्तु वहां का वातावरण, पुजारियों की धनलोलुपता या फिर सुरक्षाबलों की उपेक्षा मन में वितृष्णा भर देता है और जब लौटते हैं तो अनास्था लेकर. घुमक्कड़ी के कारण अनेक मंदिरों के दर्शन करने का सौभाग्य मिला. अमरनाथ गुफा -कश्मीर, रघुनाथ मंदिर व वैष्णोदेवी मंदिर -जम्मू, स्वर्णमंदिर -अमृतसर, बिडला मंदिर, कमल मंदिर व अक्षरधाम मंदिर -दिल्ली,  कृष्ण जन्मभूमि व द्वारिकाधीश मंदिर -मथुरा, हनुमान मंदिर -लखनऊ, शिवमंदिर -शिवसागर(आसाम), श्रीनाथ 
वैष्णो देवी मंदिर व कार्यालय - भुवन, जम्मू 
मंदिर -नाथद्वारा, उदयपुर,  हब्सीगुड़ा हनुमान मंदिर व बिडला मंदिर - हैदराबाद, तिरुपति मंदिर, शिव कांची व विष्णु कांची -कांचीपुरम चेन्नई, मीनाक्षी मंदिर -मदुरै, उत्तर और पूर्व टावर -रामेश्वरम, कन्याकुमारी मंदिर और उत्तराखंड के बद्रीनाथ, केदारनाथ व गंगोत्री सहित सैकड़ों मंदिरों में सर नवा चुका हूँ. ऐसा नहीं है कि मै बहुत आस्तिक हूँ, धर्मपरायण हूँ या मुझे कोई परेशानी है. कुछ भी नहीं. बस जाता हूँ केवल निस्वार्थ भाव से,
बद्रीनाथ मंदिर - उत्तराखंड 
आस्था लेकर और केवल दर्शनार्थ ही. 
बिडला मंदिर - हैदराबाद
          कई परेशानियों के साथ अमरनाथ गुफा को जाते वक्त कल्पना कर रहा था कि एक प्राकृतिक गुफा होगी और बीचों-बीच स्थित होगा सृष्टि का प्रतीक शिवलिंग (बर्फ का). परन्तु वहां की स्थिति देखकर मन को ठेस लगी. सी0 आर0 पी0 की सुरक्षा तो थी किन्तु मंदिर के मुहाने तक सीढ़ियों के दोनों और टैंट लगे थे. मंदिर से नीचे लगभग पचास मीटर दूरी पर से ही लंगर और पूजा प्रसाद, फोटो आदि नकली कस्तूरी, नकली शिलाजीत, नकली नग की सैकड़ों दुकाने सजी हुयी थी. 'नाम' के भूखे इंसानों ने प्राकृतिक गुफा की दीवार पर कई-कई ग्रेनाईट, मार्बल की पट्टियां लगा दी है ताकि हर दर्शनार्थी यह जान सके कि यहाँ  "बड़े लोग" पहले आ
चुके हैं. शिवलिंग तो मात्र डेढ़ फिट का ही रह गया था किन्तु आगे से ग्रिल चढ़ी होने के कारण मत्था भी नहीं टेक सकते थे. अमरावती नदी में कोल्ड ड्रिंक, मिनरल वाटर की खाली बोतलें, नमकीन, चिप्स के खाली पोलिथीन जगह-जगह फैले हुए थे. गलती भगवान की नहीं है. किन्तु जाने क्यों कसैलापन सा भर आता है.
महासू मंदिर - हनोल, देहरादून
         वैष्णो देवी मंदिर की गुफा में तीन पिंडियों के दर्शन ठीक से भी नहीं कर पाए थे कि अर्धसैनिक बल के जवान ने घूरती नज़र से ही आगे बढ़ने का इशारा कर दिया. मेरी पत्नी बाद में पूछती रह गयी कि मैंने तो कुछ देखा ही नहीं. ऐसा ही वाकया तिरुपति (तिरुपति तिरुमाला देवस्थानम) मंदिर में हुआ. तीन घंटे की रेलम-पेल के बाद 'गोविन्दा, गोविन्दा पुकारते हुए तिरुपति की मूर्ती के आगे पहुंचे, श्रृद्धावश हाथ जोड़ने के लिए कोहनियाँ पूरी तरह मुड़ी भी नहीं थी कि वहां पर खड़े भीमकाय सुरक्षाकर्मी ने आगे
मीरा मंदिर - चित्तौड़गढ़ (राजस्थान)
धकेल दिया. बाहर प्रसाद बंट रहा था -खीर. हमने भी दोना आगे बढ़ा दिया. परन्तु देने वाले ने इस भाव से दिया कि दोने में कम और जमीन पर अधिक गिरा. बड़े चाव से एक कौर मुंह में डाला ही था कि यह क्या ? छांछ में पकाए गए चावल - बिलकुल खट्टे. बिन खाए ही दोना नीचे रख दिया. एक किनारे बैठ कर तिरुपति बस स्टैंड से प्रसाद स्वरुप पचास-पचास रुपये में ख़रीदे गए लड्डू खाने लगे. कुछ लड़को को खीरों के उन दोनों पर लात मारते हुए देखा तो बुरा लगा. ईश्वर के प्रसाद का यह अनादर ! परन्तु, दोष किसका ? व्यवस्था का ही न. रामेश्वरम मंदिर में ही पुजारियों द्वारा इक्कीस कुओं के पानी से नहाने की बात मुझे नागावार गुजरी. 
       मथुरा वृन्दावन में श्री कृष्ण जन्म भूमि मंदिर को छोड़कर स्थिति ज्यादा ठीक नहीं है. द्वारिका धीश मंदिर में पूजा से पूर्व पुजारी हमें यमुना में नहाने के लिए बाध्य करने लगा तो हमने बताया कि हम गंगा - यमुना के मायके से हैं और यमुना का जो स्वच्छ व निर्मल स्वरुप वहां पर है उसकी तुलना में हमें यह गन्दा नाला सा ही लग रहा है. अतः इसमें नहाना तो दूर, हम आचमन भी नहीं कर पाएंगे. बस!  इतना सुनकर पुजारी क्रोधित हो गया और हम बिन पूजा किये दर्शन करने चले गए. वहीं वृन्दावन रंग जी मंदिर में पुजारी हमसे पूजा, नैवेध की अपेक्षा मंदिर में मार्बल पट्टिका लगवाने के लिए बहस करने लगा. बहस ज्यादा लम्बी खिंच गयी तो तंग आकर मेरी पत्नी ने पूजा के लिए पर्स से निकाले रुपये गाइड के हाथ में रख दिया और बाहर प्रांगण में चली गयी. वह दुबला पतला गाइड हमारे साथ सुबह से ही केवल दस रुपये में नंगे पैर चल रहा था. (गाइड बेचारा इतना सीधा कि दोपहर में खाना खाने हम लोग होटल में बैठे तो वह बाहर खड़ा हो गया इसलिए कि खाने के पैसे कहीं हम उसके मेहनताने से न काट दे). उदयपुर नाथद्वारा में श्रीनाथ मंदिर है. नाम बड़ा है किन्तु बाहर खंडहर सा दीखता, अनियंत्रित भीड़, और चारों ओर कागज, जूठे दोने, पोलिथीन की गन्दगी बिखरी पड़ी हुयी. भीतर भक्तों को इशारे या हाथ से नहीं, साफा मारकर आगे बढाया जा रहा था. घनी आबादी के बीच स्थित बद्रीनाथ मंदिर में तो पूजा की थाली सिस्टम है- 51/, 101/, 501/, 1001/, 5001/  और ऊपर लाखों तक. पुजारी थाली देखकर ही भक्तों की औकात भांप जाते हैं. जैसी थाली वैसे पुजारी के चेहरे के भाव. हाँ, रावल अवश्य समद्रष्टा हैं और उनके चेहरे का तेज उनके मन के
मीनाक्षी मंदिर - मदुरै (तमिलनाडु  )
भावों को उजागर नहीं होने देता.
        ऋषिकेश, हरिद्वार के मंदिरों की स्थिति किसी से छुपी हुयी नहीं है. उत्तरकाशी (उत्तराखंड) में नगर के बीचों-बीच स्थिति है- काशी विश्वनाथ मंदिर. गंगोत्री, यमनोत्री के बाद यह जिले का सबसे बड़ा मंदिर है. और आमदनी के हिसाब से पूरे वर्ष भर खुला रहने के कारण यह उनसे बीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं है. एक बार
सुबह ही मै सपरिवार मंदिर में चला गया. उधर हमारा मंदिर के दहलीज़ पर पहुंचना था कि पुजारी का आखरी कश लेकर बीडी का ठूंठ बाहर दरवाजे की और फेंकना जो सीधा हमारे क़दमों पर गिरा. फिर पुजारी ने एक-दो लीटर पानी उड़ेलकर शिवलिंग धोया. किसी भक्त द्वारा लाया गया दूध (जो दूध कम पानी अधिक था) शिवलिंग पर डाल कर मल दिया. और फिर फूल-पत्तियों से शिवलिंग सजाया और यंत्रवत "पूजा" शुरू कर दी. बाहर मंदिर के प्रांगण में व चारों ओर बहुत गन्दगी बिखरी पड़ी है. जिसकी ओर न पुजारी का ध्यान है, न व्यवस्थापकों का और न ही भक्तो का.
        गाँव में आपने देखा होगा कि एक ही दुकान में राशन के अलावा कपड़े, जूते, खेती के औजार, पुताई का चूना, पेंट आदि सभी कुछ मिल जाता है. प्रायः कई मंदिरों का स्वरुप कुछ ऐसा ही हो गया है. मूल मंदिर तो किसी एक विशेष भगवान या देवी का है किन्तु उसमे पुजारियों द्वारा धीरे-धीरे दूसरे देवता भी स्थापित किये जाते हैं ताकि किसी भी देवता/देवी का भक्त उस मंदिर से बिन पूजा किये न लौट जाये. दूसरे शब्दों में कहें तो पुजारियों की सभी संताने अलग-अलग देवता/देवी के नाम से अपनी दुकानदारी चला सके.
             ऐसा नहीं है कि मै मंदिरों के खिलाफ हूँ या भगवान में मेरी आस्था नहीं है. हब्सीगुड़ा-हैदराबाद में एक हनुमान मंदिर है-NGRI की बौंडरी से सटा हुआ. स्वरुप में छोटा है किन्तु भव्य. एक सुबह पूजा अर्चना के बाद मैंने कुछ राशी पूजा के थाल में डाल दी और कुछ दानपात्र में. पुजारी ने हमारे देखते-देखते थाल की राशी कट्ठी कर दानपत्र के हाथी सूंडनुमा मुंह में डाल दी. अवाक् रह गया. क्योंकि प्रायः पुजारी की नजरें यह आव्हाहन करती है कि भक्त दानपात्र की अपेक्षा राशी पूजा के थाल में ही डालें जिससे भक्त को सीधा पुण्य प्राप्त हो सके
          दूसरा किस्सा है हरमंदर साहिब (स्वर्ण मंदिर) अमृतसर का.(हालाँकि यह गुरुद्वारा है ) परिवार के सदस्यों के साथ प्रवेशद्वार पर जूते उतारकर एक और रखना चाहा तो साफ़ सफ़ेद कुरते पजामे में एक अच्छे डील-डौल के सरदार ने हाथ आगे बढ़ा दिया और हमारे धूल-धूसरित जूते हाथों में ऐसे लिए जैसे कोई पूजा की थाल हो और कंधे में रखे साफे से जूते झाड़ने लगा. सरोवर में पञ्चस्नानी के बाद कच्चा प्रसाद लेने गए तो देखा एक खिड़की पर रुपये देकर कूपन मिल रहे थे और कूपन पर प्रसाद दूसरी खिड़की से. आप रुपये चाहे कितने भी
तिरुपति मंदिर - तिरुमाला (आंध्र प्रदेश)
दो पर कूपन एक ही. इसलिए प्रसाद भी बराबर. हिन्दू मंदिरों की भांति 1101/-, 2101/- या 5101/- की पूजा नहीं. कच्चा प्रसाद के बदले में कढाह प्रसाद मिलता है .
         तीसरा वाकया है कमल मंदिर दिल्ली का. यह बहाई धर्म का मंदिर है. यह अनूठी वास्तुकला के ही नहीं, अपितु साफ सफाई व पूजा पद्धति के लिए भी जाना जाता है. तीन ओर से कांच की दीवार से ढका प्रार्थना सभा भवन में प्रत्येक मेज पर माइक लगा है. जिससे आप सामने खड़े उपदेशक से संवाद बना सके. अन्यथा  सत्संग, कथा, पूजा आदि में 'वन वे' होता है. 
          अभिप्राय यह है कि मंदिरों में हम अत्यधिक आस्था व अगाध श्रृद्धा लेकर जाते हैं उसी आस्था व उसी विश्वास के साथ हम लौटे, वही उत्साह हमारे मन में बना रहे तो तभी मंदिरों की, व्यवस्थापको व पुजारियों की जय जय है.
      
     

Sunday, July 10, 2011

तुम्हारे नाम

ग़ज़ल
(तकनीकी नज़र से यह ग़ज़ल गलत हो सकती है. लेकिन दिल ने जब ग़ज़ल लिखना चाहा तो ग़ज़ल के नाम पर चंद हरफों में लिख दिया. अब यह ब्लोगर्स के comments ही कह सकते हैं कि..... )

तुम्हारी यादों का मंजर सीने में दबाये रखा है
मोहब्बत है तुमसे ही राज यह छुपाये रखा है.

वक्त की रेत पर बचे निशां तुमारे  कदमों के
आँखों से चूमा उन्हें पलकों  से ढकाये रखा है.

गुजरा  हो  कोई  लमहा तुम्हें  याद किये बगैर
दिल  की  डायरी पर हिसाब यह 'निल' रखा है.

गुजरे कभी जिस गली, जिन राहों से होकर हम
सज्दे किया उनकोही मैंने मन्दिर समझरखा है.

कश्मे-वादे किये जो  चन्द घड़ियों की सोहबत में
वक्त निभानेका आया तुमने को जुदा रखा है.

'चन्दा-चकोरी' रिश्ते की दुहाई दी कभी तुमने ही
मुड़कर देखोभी तो चांद ने हाल क्या बनारखा है.

हमें रश्क है  अपनी इसी हालात पर सनम मेरे
ज़माने ने बेकार आशमा यूं ही सर पे उठा रखा है.


Tuesday, June 28, 2011

अपना अपना दुःख

नारी तेरे कितने रूप  छाया:गूगल
मुझे तुम्हारे अपढ़ होने का दुःख हमेशा-हमेशा ही सालता रहा भाभी माँ
तुम्हारे मुखर व स्पष्टवादी होने की पीड़ा मै सदा ही भोगता रहा भाभी माँ

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
कुचल देती थी तुम अक्सर मेरी देर रात तक पढने की इच्छा को,कि   
जाना है सुबह खेतों में फसल बुवाई, रोपाई या कटाई, मंड़ाई को,
या फिर जंगल में घास, चारा, लकड़ी काटने या ढोर-डंगर चुगाने को ,    
और कभी रिश्ते की मामी,बुआ,चाची,ताई बुलाने जाने को ! मुझे तुम्हारे ....... 

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
किताबों से अधिक महत्व दिया तुमने लोहे-लकड़ी के कृषि औजारों को 
रिंगाल के सूप, टोकरों को या सन से बटी हुयी रस्सियों को, क्योंकि अक्सर 
कालेज से घर लौटकर रखे पाता मै औजार या टोकरे अपने बिस्तर पर, या
दाल, मिर्च, धनिया, मसाले रखे होते मेरी पढाई की मेज पर ! मुझे तुम्हारे ............

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
घर के छोटे से कोने में देवी-देवताओं की फोटुओं, मूर्तियों के बीच 
सजा रखी क्यों तुमने मेरे शहीद फौजी भाई की पुरानी तस्वीर 
और दीप, शंख, घंटी, नारियल के साथ जाने क्यों रखे हुए हैं 
कुलदेवता, भैरों, नरसिंग के नाम से पुड़ियों में कई-कई उठाणे ! मुझे तुम्हारे ............

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
अपनी तरह के स्पष्टवादी लोगों से क्यों करती हो नफरत, तभी तो  
बात-बेबात फूट पड़ती पणगोले सी किसी पर अकारण ही, और कभी 
हाथों में ज्यूंदाल लिए खड़ी नतमस्ता देवता-अदेवता के हुंकार पर
मांगती वरदान अपने-पराये और गाँव-कुनबों की राजी ख़ुशी का ! मुझे तुम्हारे .............






Wednesday, June 22, 2011

माधो सिंह भंडारी: एक शापित महानायक

मलेथा व अलकनंदा का विहंगम दृश्य               छाया: साभार गूगल
                ऐतिहासिक पुरुष वीर माधो सिंह भंडारी का नाम गढ़वाल के घर घर में आज भी श्रृद्धा व सम्मान के साथ लिया जाता है. महाराजा महीपति शाह के शासनकाल में प्रधान सेनापति रहते हुए उन्होंने अनेक लड़ाईयां लड़ी व गढ़वाल की सीमा पश्चिम में सतलज तक बढाई. गढ़वाल राज्य की राजधानी तब श्रीनगर (गढ़वाल) थी और  श्रीनगर के पश्चिम में लगभग पांच मील दूरी पर अलखनंदा नदी के दायें तट पर भंडारी का पैतृक गाँव मलेथा है. डाक्टर भक्तदर्शन के अनुसार "लगभग सन 1585 में जन्मे भंडारी सन 1635 में मात्र पचास वर्ष की आयु में छोटी चीन (वर्तमान हिमाचल)में वीरगति को प्राप्त हुए." उनके गाँव मलेथा में समतल भूमि प्रचुर थी किन्तु सिंचाई के साधन न होने के कारण मोटा अनाज उगाने के काम आती थी और अधिकांश भूमि बंजर ही पड़ी थी.  भूमि के उत्तर में निरर्थक बह रही चंद्रभागा का पानी वे मलेथा लाना चाहते थे किन्तु बीच में एक बड़ी पहाड़ी बाधा थी. उन्होंने लगभग 225फीट लम्बी, तीन फिट ऊंची व तीन फिट चौड़ी सुरंग बनवाई किन्तु पानी नहर में चढ़ा ही नहीं. किवदंती है कि एक रात देवी ने स्वप्न में भंडारी को कहा कि यदि वह नरबली दे तो पानी सुरंग पार कर सकता है. किसी अन्य के प्रस्तुत न होने पर उन्होंने अपने युवा पुत्र गजे सिंह की बलि दी और पानी मलेथा में पहुँच सका. मृत्यु के बाद गजे सिंह की आत्मा का प्रलाप निम्न कविता में अभिव्यक्त है.
भंडारी द्वारा निर्मित सुरंग                               छाया: साभार गूगल
तुम तो वनराज की उपाधि पा चुके पिता 
किन्तु मै तो मेमना ही साबित हुआ. 
लोकगीतों के पंखों पर बिठा दिया
तुम्हे जनपद के लोगों ने,
इतिहास में अंकित हो गयी तुम्हारी शौर्यगाथा.
और मै मात्र- एक निरीह पशु सा,
एक आज्ञाकारी पुत्र मात्र- त्रेता के राम सा.
छोड़ा जिसने राजसी ठाठबाट,
समस्त वैभव और सभी सुख.
और मैंने,
आहुति दे डाली जीवन की तुम्हारी इच्छा पर. 
मलेथा में माधो सिंह भंडारी स्मारक                 छाया: साभार गूगल
क्या राम की भांति
मेरा भी समग्र मूल्यांकन हो पायेगा?

ऐसी भी क्या विवशता थी पिता,
ऐसी भी क्या शीघ्रता थी 
मै राणीहाट से लौटा भी नहीं था कि
तुमने कर दिया मेरे जीवन का निर्णय.
सोचा नहीं तुमने कैसे सह पायेगी
यह मर्मान्तक पीड़ा, यह दुःख 
मेरी जननी, सद्ध्य ब्याहता पत्नी
और दुलारी बहना.
क्या कांपी नहीं होगी तुम्हारी रूह,
काँपे नहीं तुम्हारे हाथ 
मेरी गरदन पर धारदार हथियार से वार करते हुए,
ओ पिता,
मै तो एक आज्ञाकारी पुत्र का धर्म निभा रहा था 
किन्तु तुम, क्या वास्तव में मलेथा का विकास चाहते थे
या तुम्हे चाह थी मात्र जनपद के नायक बनने की ?

और यदि यह सच है तो पिता मै भी शाप देता हूँ कि
जिस भूमि के लिए मुझे मिटा दिया गया- उस भूमि पर
अन्न खूब उगे, फसलें लहलहाए किन्तु रसहीन, स्वाद हीन !
और पिता तुम, तुम्हारी शौर्यगाथाओं के साथ-
पुत्रहन्ता का यह कलंक तुम्हारे सिर, तुम्हारी छवि धूमिल करे !!



Monday, June 13, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 5

यात्रा संस्मरण  -  गतांक से आगे.... 
पञ्चतरणी का मनमोहक दृश्य 
पञ्चतरणी और अमरावती नदी का संगम
     पञ्चतरणी में रात लंगर छक कर टैंट में लौटे तो एक अधेड़ मराठी दम्पति उस टैंट की दूसरी चारपाइयों में लेटे थे. औरत कराह रही थी और पुरुष उसकी तीमारदारी में लगा था. ठेठ मराठी बोलने से पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया, फिर मालूम हुआ कि वे बालटाल से हेलीकाप्टर द्वारा अमरनाथ दर्शन को आये थे. पञ्चतरणी से पालकी द्वारा अमरनाथ दर्शन कर आये. परन्तु आने जाने में बुरी तरह भीग गए. हेलीकाप्टर से आये थे तो कपडे, बरसाती या रेन कोट साथ ले कर नहीं आये. परन्तु घाटी में कोहरा होने के कारण हेलीकाप्टर शाम को आया ही नहीं. फिर यशपाल ने अपने सूखे कपडे उस महिला को पहनने को दिए और टैंट में खाली पड़ी चारपाइयों की रजाईयां उसे ओढ़ाई गयी. तब कहीं उस महिला की कंपकंपी और कराहट बंद हुयी. पुरुष रात भर टूर पैकेज वाले व अपने गाइड को गाली देते रहे. सुबह विदा होते वक्त उनकी आँखों में आंसू छलक आये.
              अमरनाथ पहुँचने की उत्सुकता व उत्कंठा के चलते सुबह छ बजे ही पञ्चतरणी से चल पड़े. कुछ दूर पञ्चतरणी नदी के किनारे किनारे चल कर और फिर भैरों घाटी की एक मील की चढ़ाई पार कर समतल मार्ग आता है. पहाडी के साथ साथ चलते एक मोड़ पर दायी ओर देखते हैं तो अमरावती की सुरम्य घाटी दिखाई देती है और यहीं से श्रीअमरनाथ के प्रथम दर्शन होते हैं. बारिस नहीं थी. मौसम साफ, स्वच्छ, शांत, स्निग्ध था. थोडा रुकते हैं- अमरावती के उस पार मार्ग से बालटाल आने जाने वाले यात्रियों की भीड़ थी और नीचे पञ्चतरणी तथा अमरावती के संगम पर अभिभूत करने वाला सौन्दर्य. अमरावती के बाएं किनारे पर चलते आगे बढ़ते हैं. यात्रियों द्वारा 'बर्फानी बाबा की जय', 'बम बम भोले' तथा 'हर हर महादेव' की जय- जयकार पूरी घाटी को गूंजा रही थी. दर्शन की वह घड़ी अब आने ही वाली है. पांव स्वतः ही आगे बढ़ते प्रतीत होते हैं, लगता है जैसे कोई अदृश्य शक्ति हमें अपनी ओर आकृष्ट कर रही हो. अमरावती नदी के दर्शन कहीं कहीं ही हो रहे थे, शेष उसके ऊपर ग्लेशियर जमे पड़े थे. अब हम भी मार्ग छोड़कर नदी के ऊपर बर्फ पर चलना शुरू करते हैं. आगे गुफा से पहले घाटी में सैकड़ों टैंट लगे हुए थे. एक टैंट में अपने कुली के भरोसे सामान रखकर पंच्स्नानी के बाद प्रसाद लेते है. परन्तु यह क्या? कुली, घोड़े खच्चर, पालकी वाले तो मुस्लिम है ही किन्तु प्रसाद, बेलपत्री, फोटो आदि बेचने वाले भी मुस्लिम लोग. सांप्रदायिक सद्भाव का यह अद्भुत समन्वय है. और आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब ज्ञात हुआ कि आरती उतारने की जिम्मेदारी भी उसी मुसलमान गड़रिये बूटा मलिक के वंशज को है जिसने सैकड़ों वर्ष पहले इस गुफा की खोज की थी. आगे बढ़ते हुए ठीक उस स्थान पर पहुँचते हैं जहां से सर उठा कर देखें तो वह पवित्र गुफा दिखाई दे रही थी, बस, अब कुछ सीढ़ियों भर का फासला शेष था. सैकड़ों दर्शनार्थियों के साथ ढाई-तीन सौ सीढियां चढ़कर, भोले की जय जयकार करते हुए जैसे ही गुफा के द्वार पर पहुंचे तो मन अद्भुत आनंद से रोमांचित हो उठा. आँखों की कोरें भीग आयी. समुद्र तल से 13500 फिट ऊँचाई पर स्थित प्रकृति द्वारा निर्मित लगभग साठ फिट चौड़ी, तीस फिट गहरी और अठारह फिट ऊंची इस गुफा में न कोई मूर्ती है न कोई द्वार. है तो केवल बर्फ का एक शिवलिंग जिसका स्वतः निर्मित हो जाना ही अलौकिक शक्ति है. वर्षों से कल्पना में संजोये व इतने दिनों
अमरावती नदी के ऊपर खड़े साथी यशपाल रावत 
तक पल रही आस्था के चलते गुफा के सम्मुख चमत्कार से अभिभूत हो आश्चर्य व श्रृद्धावश सर चबूतरे पर रखना चाहा परन्तु ग्रिल की बाधा के कारण हाथ जोड़ कर ही रह गए. आँखे बंद करता हूँ तो भीतर अतल गहराइयों में परंपरागत शिव आरती की जगह गुरुवाणी गूँजती है; इक ओंकार सतनाम कर्ता पुरुख निर्भोग निर्भय अकाल मूरत अजोनी सैभंग ...........! गुफा में कबूतरों को देखना शुभ माना जाता है. हमें भी ऊपर जगह
अमरावती नदी पर टैंट व पार्श्व में अमरनाथ गुफा
तलाशते पंख फड फडाते चार कबूतर दिखाई दिए. जिस निर्जन स्थल में मीलों तक कोई आबादी नहीं वहां पर कबूतर, चमत्कार ही तो हैं. बर्फ का शिवलिंग अब मात्र दो ढाई फिट का ही रह गया था. (जबकि यात्रा प्रारंभ में यह सोलह फिट का तक होना बताया जाता है) प्रसाद चढाने के बाद लोग पिघलते हुए शिवलिंग का पानी घर के लिए बर्तनों में भर रहे थे. गुफा के दाहिनी ओर चट्टान का स्वरुप कुछ बुझे हुए चूने की भांति है, लोग भभूत के रूप में घर ले जाते हैं. घर से निकलते वक्त एक दो ने मुझे भी कहा कि वहां से भभूत जरूर ले
गुफा द्वार पर दर्शनार्थियों की भीड़            छाया:  साभार गूगल
आना. चट्टान की जड़ पर काफी बड़ा गड्ढा सा बन गया. गुफा को खतरा न हो इसलिए सेना ने कंटीले तार वहां पर डाल रखे थे, उसके बावजूद लोग खोदते जा रहे थे. एक जवान ने जब यह देखा तो एक लड़के पर बुरी तरह बिगड़ा, लहजा ठेठ हरियाणवी था " "अबे तू यहाँ अमरनाथ की गुफा खोदने आया क्या ?"
           अमरनाथ के विषय में एक कथा प्रचलित है ; एक बार पार्वती ने भगवान शंकर से जानना चाहा कि  संसार के सब प्राणी तथा पार्वती स्वयं भी जन्म मृत्यु से बंधे हैं तो भगवान शंकर क्यों नहीं. भगवान  ने कहा कि यह सब अमरकथा के कारण है. पार्वती ने सुनने की जिज्ञासा प्रकट की. निर्जन स्थल की तलाश में उन्होंने पार्वती सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया. अनंत नाग में उन्होंने अपने नागों को त्याग दिया, पहलगाम में नंदी बैल को (जिससे उसका नाम बैलगाम व तदनंतर पहलगाम पड़ा ), चन्दनबाड़ी में अपने माथे का चन्दन धोया, शेषनाग स्थल में गले में पड़े शेषनाग का त्याग किया, महागुनुष टॉप पर गणेश जी को बिठाया और पञ्चतरणी में पञ्च विकारों को त्याग दिया. फिर पार्वती के साथ तांडव नृत्य कर इस गुफा में मृगछाल बिछाकर बैठ गए. कथा सुनाने से पूर्व उन्होंने कालाग्नि को आदेशित किया कि वह गुफा के आसपास समस्त प्राणियों को भस्म कर दे जिससे कोई भी अमरकथा सुनकर अमर न हो जाय......... आदि आदि  (यह वृतांत बहुत लम्बा है और उम्मीद है कि सभी विद्वान ब्लोगर्स सुने या पढ़े ही होंगे)          
सिंध नदी तट पर बालटाल व पड़
      गुफा से नीचे उतरकर एक लंगर में खाकर वापस बालटाल के लिए चल पड़े. बराड़ी, दोमेल होते हुए यह चौदह किलोमीटर का यह मार्ग सुरक्षित नहीं है. नीचे उन्माद से परिपूर्ण विकराल रूप धारण किये सिन्धु नदी और ऊपर कच्ची पहाड़ियां. इस पहाड़ी से पत्थर गिर कर(विशेष कर बारिस में ) कब इहलीला समाप्त कर दे या पाँव फिसल कर नीचे नदी अपने आगोश में ले ले, सब भगवान भरोसे. 
     इस यात्रा के विषय में इतना अवश्य कहूँगा  कि केन्द्रीय सुरक्षा बलों का संरक्षण, हर पड़ाव पर चिकित्सा शिविर और जगह जगह लंगर न हो तो
बालटाल में हेलीपैड तथा  टैक्सी व बस स्टैंड
प्रति दिन औसतन पंद्रह हज़ार पहुँचने वाले यात्रियों के स्थान पर मात्र डेढ़ दो सौ लोग ही पहुँच पाए. पिट्ठू(कुली), पालकी वाले व घोड़े वालों के साथ यदि मिल बैठकर भाड़े की प्रीपेड की व्यवस्था लागू जा सके तो यात्री अपने को ज्यादा महफूज़ महसूस करेंगे. शेषनाग व पञ्चतरणी में शौचालय की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, जिससे टैंट के चारों ओर गन्दगी देखी जाती है. मुख्य यह है कि पूरे मार्ग पर यात्रियों द्वारा प्लास्टिक कचरा फैलाया जाता है, मानो हम लोग नरक को स्वर्ग तो नहीं बना सकते किन्तु स्वर्ग को नरक बनाने की काबिलियत तो हममे है ही.     
श्रीनगर में डल झील का अभिभूत करता सौन्दर्य 
      एक रात बालटाल में रूककर सोनमर्ग, गंदरबल, श्रीनगर, अनंतनाग होते हुए वापस जम्मू पहुँचते हैं.कश्मीर का सौन्दर्य निस्संदेह स्वर्गिक है. किसी कवि ने ठीक ही कहा है;
अगर फिरदेश बरा हाय ज़मी अस्थ,
हमी अस्थ, हमी अस्थ, हमी अस्थ, हमी अस्थ.
                                                                                                                              ........समाप्त........ 

Monday, June 06, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 4

यात्रा संस्मरण  -  गतांक से आगे....
शेषनाग का शांयकालीन  दृश्य
               शेषनाग पहलगाम के बाद पहला पड़ाव है. हालाँकि कुछ लोग पहलगाम की अपेक्षा चन्दनबाड़ी में रुकना पसन्द करते हैं. एक छोटे से समतल भूभाग पर बसा है यह पड़ाव, यहाँ पर पांच-छ हज़ार लोग एक साथ रुक सकते हैं. इसके पूरब में शेषनाग पर्वत, दक्षिण में उतनी ही ऊँचाई वाला एक दूसरी पहाड़ी. उत्तर में औसत चौड़ाई लिए हुए घाटी और दक्षिण में शेषनाग झील. प्रायः अमरनाथ जाने वाले यात्री ही यहाँ रुकते हैं वापसी में सभी का प्रयास रहता है कि पहलगाम में रुके. बच्चे, वृद्ध व शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों की मजबूरी रहती है. शेषनाग के विषय में एक कथा प्रचलित है कि; यहाँ पर्वत पर वायु रूप में एक अत्यंत बलशाली राक्षस रहता था, जो देवताओं को भांति-भांति के कष्ट पंहुचाता था. देवताओं ने भगवान विष्णु से विनती की, विष्णु ने शेषनाग को आज्ञा दी कि वह अपने हजारों मुखों से वायु को सोख ले. शेषनाग के साथ स्वयं विष्णु भी यहाँ पर प्रकट हुए. वायु के साथ शेषनाग ने उस राक्षस का भक्षण कर लिया. तब से इस पर्वत व झील का नाम शेषनाग पड़ गया. 
शेषनाग से गुफा की और आते यात्री
                         शेषनाग पहुँचने तक जहाँ मौसम साफ़ था वहीं अँधेरा होते-होते बारिस शुरू हो गयी, जो रात भर रुक-रुक कर होती रही. आगे प्रस्थान को लेकर सुबह देर तक अनिश्चितता बनी रही. सात गुणा आठ फीट के टैंट(बल्कि छोलदारी कहना उचित होगा) में बैठे-बैठे मन अकुलाने लगा. साढ़े नौ बजे सी. आर. पी. के लाउडस्पीकर द्वारा आगे मौसम खुला होने की सूचना मिली. अपने-अपने टैंट से यात्री निकलकर गेट के आगे से गुजरते हुए "बर्फानी बाबा की जय" "सी. आर. पी. की जय" कहने लगे, तो जवानों ने हाथ जोड़कर मना कर दिया कि केवल बाबा बर्फानी की जय कहिये, हम तो सेवक हैं. लंगर में हल्का नाश्ता लेकर कुली तय किया और चल पड़े मंजिल की ओर. आधा किलोमीटर नाले के किनारे-किनारे चल कर बर्फ का
महागुनुष टॉप से आगे बढ़ते यात्री 
बना पुल पार करने के बाद चढ़ाई शुरू होती है. सात-आठ माह यह क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है और पूरा वृक्ष विहीन 
है. बारिस के बाद भुरभुरी काली मिटटी वाला रास्ता अत्यंत फिसलन भरा हो जाता है. यात्री हाथ में पकड़ी छड़ी या जमीन में गड़े पत्थरों के सहारे आगे बढ़ते हैं. फिर भी कुछ लोग फिसलकर चोटिल हो रहे थे. तो कहीं बच्चे व युवा काफी नीचे तक फिसल कर ठहाका मार रहे थे. कहीं-कहीं पर सेना के जवान सहारा देकर यात्रियों को आगे बढ़ने का हौसला देते. यात्रा मार्ग के दोनों ओर पहाड़ियों की चोटी पर जगह-जगह पर तैनात जवान हाथ हिलाकर अभिवादन करते. मन में उन जवानों के प्रति आदर का भाव स्वाभाविक है कि हमारी निर्बाध यात्रा के लिए किन कठिन परिस्थितियों में ये घर परिवार से दूर एकाकी जीवन जी रहे हैं.
                        शेषनाग से मात्र तीन मील की दूरी पर इस पूरी यात्रा मार्ग का सबसे अधिक (14500 फीट) ऊँचाई वाला स्थल है एम.जी. टॉप अर्थात महागुनुष टॉप, जो महागणेश का अपभ्रन्श है. सेना के जवानो द्वारा यात्रियों को जलजीरा पिलाया जा रहा था और चलते रहने की विनती की जा रही थी, जिससे उन्हें ओक्सिजन की कमी से कोई तकलीफ न हो. इच्छा थी कि महागुनुष टॉप पर थोड़ी देर बैठकर नज़ारे देखते, फोटोग्राफी करते. परन्तु बारिस
और कुहरे ने हताश किया. हाँ, हवा काफी तेज थी. यहाँ से आगे का मार्ग उतराई वाला है. पाबिलाल में एक श्रृद्धालु द्वारा लंगर की व्यवस्था की गयी थी. बर्तन भांडे सभी बर्फ के ढेर के ऊपर रखे हुए थे, वे भी क्या करते चारों और बर्फ ही बर्फ. भीड़ अधिक थी, बिना कुछ लिए ही बर्फ पर चलते हुए आगे बढ़ जाते हैं. दो-ढाई बना पुल पार करने के बाद चढ़ाई शुरू होती है. सात-आठ माह यह क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है और पूरा वृक्ष विहीन किलोमीटर उतराई के बाद पोषपत्री पहुँचते हैं. शिव शक्ति दिल्ली द्वारा यहाँ एक विशाल लंगर का आयोजन
किया गया था. लंगर में भोजन के साथ लगभग सभी प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन. इस पैदल मार्ग पर यह अकेला विशाल लंगर है. सभी तृप्त होकर आगे बढ़ रहे थे. इस दुर्गम स्थल और मीलों लम्बे पैदल मार्ग पर घोड़े खच्चरों द्वारा इतनी अधिक व्यवस्था. ऐसे शिव भक्तों के प्रति श्रृद्धा स्वयमेव ही उमड़ पड़ती है, हजारों यात्री प्रतिदिन खा पीकर आगे बढ़ रहे हैं. क्या रिश्ता है
पोषपत्री में वर्णित लंगर का दृश्य
हमारा इनसे. अरे, हम तो शादी-व्याह में ही अपने सगे सम्बन्धियों को एक वक्त का खाना खिलाते हैं तो कापी लेकर न्योता लिखने बैठ जाते हैं. सोचकर ग्लानि हुयी.
           पोषपत्री से तीनेक (तथा शेषनाग से बारह) किलोमीटर दूरी पर कई जलधाराओं से युक्त एक समतल भूभाग दिखाई देता है, पञ्चतरणी. मान्यता है कि भगवान शंकर ने यहीं पर अपनी जटा जूट निचोड़ी थी जिससे पांच जलधाराएँ बहने लगी. पाँचों धाराएँ मिलकर पञ्चतरणी नदी बनाती है जो दो किलोमीटर आगे अमरनाथ से आने वाली अमरावती से मिलकर सिन्धु नदी बन जाती है. (ब्लोगर्स कृपया ध्यान दें, सिंध और सिन्धु दो अलग अलग नदियाँ है. सिंध नदी का उद्गम स्थल मानसरोवर झील है और सिन्धु का यह पञ्चतरणी क्षेत्र)  यहाँ पञ्चतरणी नदी के दायें तट पर एक हेलीपैड हैं, जो पहलगाम व बालटाल से हेलीकाप्टर सेवा से जुड़ा है और आगे गुफा तक छ किलोमीटर का रास्ता यात्री पैदल ही तय करते हैं.
दूर से पञ्च तरणी का मनमोहक दृश्य
          पञ्चतरणी में हजारों यात्री रुकने की व्यवस्था है. लंगर भी तीन-चार ठीकठाक हैं. लगातार होती बारिस और पहाड़ों से पिघलकर आती बर्फ से पानी ही पानी हो जाता है. इसलिए मुख्य जलधारा के अतिरिक्त जो हिस्सा सूखा होना चाहिए था वहां भी सूखा मार्ग नहीं मिलता है और हम पानी में ही चल कर छप-छप की आवाज के साथ पञ्चतरणी में प्रवेश करते हैं. ठौरठिकाना तलाशने के बाद सामान रखकर, यशपाल को आराम करता छोड़कर बाहर निकलता हूँ. सैटलाइट फोन के एस. टी. डी.  बूथ पर जाकर घर फोन करना चाहता हूँ परन्तु मिलता नहीं. फिर एक आरती में शामिल होता हूँ. बारिस थम गयी है किन्तु ठीक अँधेरा होने से पहले आकाश में काले बादल छाये देखकर चारों ओर ऊंची-ऊंची निर्जन व हिमाच्छादित पहाड़ियों से घिरी इस घाटी में मन अन्जान आशंका से व्याकुल हो उठता है. सोचने लगा ऐसा ही निर्जन व एकांत ने हिमालयी कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की कविताओं के लिए भाव भूमि का काम किया होगा; 'यम' शीर्षक कविता से ये पंक्तियाँ उनकी बानगी है -
कितना एकांत यहाँ पर है, मै इसी कुञ्ज में दूर्वा पर- लेटूंगा आज शांत होकर जीवन भर चल चल अब थककर ! 
ये पद लो गिरि पर सदा चढ़ें चोटी से घाटी में उतरे, ये पद अब विश्राम मांगते अब इस हरी-भरी धरती में आ !
अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी, छोटे से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी ! 
आँखों में सुख से पिघल पिघल ओंठों में स्मितियां भरता, मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुन्दर घाटी में भरता !
                                                                                                                           
                                                                                                                               शेष अंतिम अंक में .....