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Saturday, March 03, 2012

दुबली का भूत

चित्र - साभार गूगल
गढ़वाली लोककथा 
         गढ़वाल के गावों में लोग एक अस्थाई निवास बनाते रहे हैं-जिसे छानी कहा जाता है. कभी मौसम से अनुकूलन के लिए, कभी खेती बाड़ी बढ़ाने के लिए तो कभी ताजगी (Outing) के लिए ही . गांव यदि ऊँचाई वाले स्थान में हो तो छानियां घाटी में बनाई जाती, घाटी में हो तो छानियां ऊंची जगह पर और यदि गांव ठीक जगह पर हो तो गांव से ही दूर बनाई जाती. परन्तु प्रायः गांव की सीमा के भीतर ही.
                          सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी बात है. थपेली भी एक ऐसा ही गांव था. उसकी छानियां गांव की पूरब दिशा में लगभग तीन मील दूरी पर थी.गांव के आसपास सिंचाई वाले खेत थे और छानियों के आसपास असिंचित भूमि, जो की  सिंचित भूमि से कहीं अधिक थी. जगह पर्याप्त थी, अतः छानियां दूर-दूर थी. गांव वालों ने अपनी छानियों के आसपास खूब पेड़ पौधे लगा दिए थे. जेठ महीना समाप्त होते-होते, जब सिंचाई वाले खेतों में धान की बुवाई कर ली जाती तो परिवार के कुछ सदस्य गाय, भैंस व अनाज आदि लेकर अपनी-अपनी छानियों के लिए प्रस्थान कर जाते और कुछ सदस्य गांव में ही रह जाते. पूरी बरसात छानियों में रहते. खाली जगहों पर पेड़-पौधे लगाते, सब्जियां उगाते, मोटा अनाज खेतों में बोते- जिसमे अच्छी बारिस होने पर खूब फसलें लहलहाती और घास चारा पर्याप्त मात्रा में होने से घी-दूध की मौज रहती.
                        ब्राह्मण को पातड़ा दिखाकर, दिन वार निकलवाकर हर साल की तरह रायमल भी अपनी गाय भैंसों को लेकर जेठ के आखरी सप्ताह में छानी चला गया. रायमल के परिवार में कुल दो ही सदस्य थे वह और उसकी माँ. माँ बताती है कि सात औलाद जन्मी थी पर चार ही बची- तीन बेटियां और आखरी औलाद रायमल. बेटियां बड़ी थी तीनो की शादी हो गयी. शादी तो रायमल की भी हुयी थी परन्तु शादी के दो साल तक कोई संतान न होने पर पत्नी रुष्ट होकर मायके चली गयी, तो फिर लौटकर नहीं आयी. जाने क्या कमी थी. कई बार खबर भिजवाई किन्तु वह नहीं लौटी तो नहीं. मिन्नतें करने वह गया नहीं, मर्द जो ठहरा. 'औरत तो पैर की जूती होती है' गांव के बड़े-बूढों ने उसे यही समझा रखा था. रायमल डील-डौल से तो ठीक-ठाक था किन्तु था वह भी निपट गंवार. पिछले साल पिता भी गुजर गए. अब रह गए वह और माँ. वह अकेले ही छानी चला गया. गांव में माँ रह गयी, क्योंकि गांव में मकान व शेष सम्पति की चौकीदारी भी जरूरी थी. फिर गांव के बुजुर्ग लोग भी तो गांव में ही रहते थे.
                         रायमल हफ्ते दस-दिन में गांव आता और माँ की खोज खबर कर शाम को छानी लौट जाता. इधर सबने गौर किया कि छानी में लोग जहाँ मोटे, तगड़े होते हैं, रायमल दिनोदिन कमजोर होता जा रहा था. सब उसे दुबला दुबला कहने लगे. माँ को चिंता हुयी. जानना चाहा तो रायमल हर बार टाल जाता. बल्कि गांव वालों की तर्ज पर माँ भी उसे अब प्यार से दुबली कहकर पुकारने लगी और वह गांव में 'दुबली' नाम से ही जाना जाने लगा. एक दिन माँ ने अपनी कसम देकर उससे उगलवा ही दिया तो माँ सुनकर दंग रह गयी. दुबली ने बताया कि उसकी छानी में रोज शाम को एक भूत आता है. वह जो जो करता है भूत उसकी नक़ल करता है. मसलन वह भैंस दुहता है तो भूत बगल में बैठकर भैंस दुहने का उपक्रम करता है, रोटी बेलता है तो भूत भी रोटी बेलने का उपक्रम करता है, शरीर पर तेल मालिश करता है तो भूत भी वही करता है. वह भूत से डरता नहीं है और न ही भूत उसे कोई नुकसान पहुंचाता है. लेकिन वह फिर भी सूख रहा है, पता नहीं क्यों. माँ ने दुबली को चुपचाप कुछ समझाया और निश्चित हो लौट जाने को कहा.

                   शाम को दुबली छानी लौट आया. रोज की तरह वह जो जो करता रहा भूत भी वही उपक्रम दोहराता. खाना खाने के बाद दुबली ने तेल की कटोरी निकाली और भूत के आगे भी एक कटोरी खिसका दी- जिसमे माँ द्वारा दिया गया लीसा भरा था, फिर दुबली शरीर पर मालिश करने लगा. वह तेल मलता रहा और भूत लीसा. फिर दुबली ने रुई से शरीर को पोंछा और भूत के आगे माँ द्वारा दी हुयी कपास रख दी. भूत कपास से शरीर पोंछने लगा जो हाथ में कम आयी शरीर पर अधिक चिपक गयी. फिर दुबली चीड़ के जलते छिलके से अपना शरीर गौर से देखने लगा, भूत ने भी वही किया तो उसके शरीर पर लगा लीसा और कपास आग पकड़ गया. भूत चिल्लाते हुए बाहर की ओर भागा और दहाड़ मार कर रोया कि दुबली ने मुझे फूक दिया, दुबली ने मुझे फूक दिया. नीरव अँधेरी रात में घाटियों से टकराती हुयी भूत की दहाड़ें सबने सुनी परन्तु उसके बाद भूत कभी लौटकर नहीं आया. आज सौ-डेढ़ सौ साल बीत जाने के बाद भी लोग जब कभी अपनी छानियों में रहते है तो भूत की चीत्कार रात को कभी-कभार सुनाई देती है. भूत उस इलाके में आज 'दुबली का भूत' नाम से जाना जाता है.      

Wednesday, September 07, 2011

शेर और सियार

              एक सियार था- बड़ा आलसी, झूठा, चालबाज और डींगबाज. और उसकी पत्नी उसके बिपरीत बहुत भोली थी. सियार जो कहता उस पर सहज ही विश्वास कर लेती. फिर भी उनका दाम्पत्य जीवन ठीक ढंग से ही व्यतीत हो रहा था. शादी के दिन से ही सियार कभी इस गुफा, कभी उस गुफा में पत्नी सहित दिन काटता. उसकी पत्नी उसे हर ऱोज अपना घर बनाने को कहती परन्तु वह तो ठहरा आलसी परन्तु साथ में झूठा भी था, तो उसने एक दिन अपनी पत्नी से कह दिया कि वह कल से अपना घर बनाना शुरू करेगा,  उसकी पत्नी बड़ी खुश हुयी. सियार ऱोज सवेरे खा पीकर घर से निकलता, इधर-उधर डोलता, मस्ती मारता और शाम को मिटटी में लोटकर घर लौटता. घर आकर पत्नी पर रौब झाड़ता, हाथ मुंह धोने को गरम पानी मांगता और देर रात अपने पांव दबवाने को कहता. बेचारी सब कुछ सहती, सब कुछ करती और सपने देखती कि चलो जल्दी ही अपना एक घर होगा. इधर जब वह गर्भवती हुयी तो उसे और भी चिंता सताने लगी और वह सियार को जोर देती. परन्तु सियार ठहरा सियार.
                            एक दिन प्रसव पीड़ा तेज हुयी किन्तु सियार गायब. शाम को अँधेरा होने पर घर लौटा तो देखा तो पत्नी पीड़ा से छटफटा रही है. सियार गुफा से बाहर आया और 'हुवा हुवा ' का शोर मचाने लगा ताकि बिरादरी के लोगों से मदद मिल सके. परन्तु कौन आता. क्योंकि वह तो कभी बिरादरी के बीच रहा ही नहीं और न बिरादरी वाले उसे पसंद करते. फिर इस वक्त तो वह सियारों की बस्ती से दूर शेर की गुफा में ठाठ से रह रहा था. क्या करता, गुफा में लौट आया. पत्नी की पीड़ा देखी नहीं जा रही थी. इधर उधर करता रहा. ईश्वर की लीला देखिये इधर पौ फटी भी नहीं थी कि उधर दूर से शेर की गुर्राहट सुनाई दी जो लगातार गुफा की ओर बढ़ रही थी. शेर को समझते देर न लगी कि गुफा का स्वामी लौट आया है. वह भय से थर-थर काम्पने लगा. वह पत्नी को भाग चलने को कहता है जो लगभग बेहोशी की हालत में थी. फिर सियार स्वयं ही पत्नी को गर्दन से पकड़ कर बाहर खींचता है और गुफा से दूर ले चलने की कोशिश करता है. परन्तु गुफा से थोड़ी ही दूरी पर आ पाया था कि सियार पत्नी एक गड्ढे में गिर जाती है और इधर शेर की गुर्राहट बिल्कुल पास ही सुनाई देने लगी. सियार करे तो क्या करे. गुफा के पास पहुँच कर शेर को कुछ गड़बड़ सी लगती है. वह अँधेरे में गड्ढे में बेहोशी की हालात में गिरी सियार पत्नी को तो नहीं देख पाता किन्तु झाड़ियों के पीछे से सियार को भागते हुए जरूर देख लेता है. छलांग मार कर शेर सियार को मार गिराता है.
                            कुछ समय बाद सियार पत्नी अपने बच्चों सहित बाहर निकल आती है और दूर सियारों की बस्ती का रुख कर लेती है. परन्तु अपने आलसी पति सियार का दुःख उसे जिंदगी भर सालता रहा. 
   
  

Sunday, December 12, 2010

ह्यूंद की खातिर

Pahalgam, J&K                                  Photo-Subir
गढ़वाली लोक कथा
                पुरानी बात है. तकनीकी विकास तब नाम मात्र था, संसाधनों की कमी थी किन्तु अभावग्रस्त होते हुए भी लोग सुख, संतोष से गुजारा कर लेते थे. दिन रात मेहनत-मजदूरी से जो मिल जाता लोग उसी के लिए ईश्वर का धन्यवाद करते न अघाते थे, और सुख चैन से रहते.  मनुष्य प्रकृति के नज़दीक थे और प्रकृति उनकी सहचारिणी.
             गढ़वाल के एक गाँव में एक दम्पति रहता था. सगे-सम्बन्धी गाँव में थे किन्तु अकेला भाई होने के कारण वह एक अकेले मकान में रहता था. छल-कपट रहित दम्पति जैसे तैसे अपना गुज़ारा कर लेते थे. पति गाँव में उठने बैठने और सभी कामों में शरीक होने के कारण दुनियादारी जानता था किन्तु पत्नी अत्यंत भोली और दूसरों पर सहज ही विश्वास कर लेने वाली  थी. पहाड़ों में गर्मी का मौसम जहाँ आनंददायी होता है वहीं सर्दियाँ कष्टकारी. और अभाव में गुज़र बसर कर रहे लोगों का तो...... परन्तु पक्षी भी आने वाले समय को भांपते हुए अपनी व्यवस्था कर लेता है फिर इन्सान क्यों नहीं कर सकता. यह दम्पति भी जो थोड़ा बहुत बच जाता उसे सम्भाल कर रखते -जलावन लकड़ी, गरम कपडे, कम्बल, घी आदि. सर्दियों के लिए जो जो इकहट्टा करते पति अपनी पत्नी को अवश्य बताता कि यह ह्यूंद (शीतकाल) की खातिर है. विडम्बना यह थी कि पत्नी दूसरे मुल्क की थी और बहुत सारे शब्दों का अर्थ वह नहीं समझ पाती थी. ह्यूंद का अर्थ भी वह नहीं समझ पाई थी और न ही अपने पति को पूछ पाई. पर उसके मन में यह जरूर था कि ह्यूंद उसके पति का कोई अज़ीज़ है जिसके लिए वह इतना इकहट्टा कर रहा है.
                           इस बात को उनके गाँव का एक धूर्त व्यक्ति जान गया था कि पत्नी ह्यूंद का अर्थ नहीं जानती है और वह मौके की तलाश में रहने लगा. एक दिन पति किसी काम से दूसरे गाँव गया तो इस धूर्त व्यक्ति को मौका मिल गया. थोड़ी वेश भूषा बदल कर वह इस भोली स्त्री के पास पंहुचा और वह सब सामान मांग बैठा जो उसके पति ने ह्यूंद की खातिर रखा था. स्त्री के यह पूछने पर कि वह कौन है तो वह बोल बैठा कि- "मुझे नहीं जानती?  मै ही तो ह्यूंद हूँ....." और सारा सामान लेकर वह धूर्त चम्पत हो गया.