Tuesday, September 29, 2015

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक (6)

 पिछले अंक से जारी.........
Me ate Meedo, Near Wakro
लोहित किनारे
    तिराप की सीमा से बाहर निकलकर उत्तर की ओर नामसाई पहुँचे। नामसाई नोआ डिहींग नदी के दोनों तटों पर बसा हुआ है। बायें तट वाला भाग डिब्रुगढ़ का हिस्सा है और दायें तट वाला लोहित का। नामसाई-डिब्रुगढ़ निवासी श्रीमती ओमेम देवरी पिछले लम्बे अरसे से राज्यसभा सदस्य हैं। नोआ डिहीगं नदी निरन्तर उत्तर की ओर बहती हुयी लोहित में मिल जाती है। नामसाई में रात्रि विश्राम के बाद अगली सुबह पूरब की ओर अपने गंतव्य स्थल परशुराम कुण्ड को निकल पड़े। लगभग बीस-पच्चीस कि0मी0 पर चौंग्खम गांव हैं। समुद्रतल से एक हजार फीट से भी कम ऊंचाई वाला समतल भूमि पर बसे खामती आदिवासी बहुल इस गावं में चारों ओर हरियाली व उपजाऊ भूमि है। यहां कृषि व बागवानी की प्रबल संभावना है। गांव के ज्यादा लोग राज्य सरकार में उच्च पदों पर सेवारत् हैं। जो गांव में हैं वे भी दो-दो तीन-तीन हाथियों के स्वामी हैं। एक हाथी की कीमत एक टाटा ट्रक से कम नहीं है। अरुणाचल में पेड़ों के कटान के दौरान लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़ों को जंगल से बाहर खींचने का काम  हाथी करते हैं और औसतन एक हाथी प्रतिदिन एक हजार तक कमा लेता है। जबकि एक मजदूर की दैनिक मजदूरी आज मात्र नौ रुपये है। खामती लोगों का नाम प्रायः तीन शब्दों से मिलकर बना होता है। प्रथम शब्द उनकी जाति व स्थानीयता को इंगित करता है दूसरा नाम को और तीसरा उपजाति को। जैसे हमारे पथ प्रदर्शक थे चौंगखम गांव के ‘चाऊ मायासोई नामचूम’। पूरे अरुणाचल में लगभग 39 (उनतालीस) जनजातियां हैं। भारत के अन्य समाजों में आज हरिजन, राजपूत व ब्राह्मण आदि जातीय व्यवस्था होने के कारण ‘तू छोटा, मैं बड़ा’ का जो अहम् है वह अरुणाचल में नहीं है। क्योंकि अरुणाचल जनजातियों में भले ही बंटा हो पर जातियों में नहीं।सांस्कृतिक रीतिरिवाज तथा सामाजिक व धार्मिक क्रियाकलापों की दृष्टि से उनके मध्य अवश्य अदृश्य एकरूपता दिखती है किन्तु भाषाई भिन्नता है। अकेले तिराप जिले के वांग्चू, नोक्टे, सिंग्फू व तंगछा आदि जनजातियों के लोग परस्पर संवाद बनाने के लिए असमियां, हिन्दी या अंग्रेजी को माध्यम बनाती है। हिन्दी फिल्मों की बदौलत हिन्दी का प्रचलन अधिक है जिसके कारण वे हिन्दी को प्राथमिकता देते हैं। किन्तु हिन्दी इस प्रकार कि आदमी सुनकर सिर पकड़ ले। जैसे कि ‘‘ आप कहाँ जाते हैं ?’’ को वे कहेंगे ‘‘आप कहाँ जाता है?’’ आदि आदि। व्याकरण का उन्हें ज्ञान नहीं होता है।
    चौंग्खम में फ्रेश  होने व चाय वाय पीने के बाद फिर आगे बढ़े तो सुदूर उत्तर व पूरब में गिरिराज हिमालय के दर्शन होते हैं और दक्षिण में शिवालिक शृंखला की छोटी छोटी पहाड़ियां। आबादी वाली क्षेत्र वाकरो में कुछ देर रुककर फिर चाय पी। चाय ऐसी चीज है कि इसके बहाने आप कुछ देर सुस्ता भी लेते हैं और आस पास बैठे व्यक्तियों से अपने मतलब की बातें भी पूछ सकते हैं। वाकरो प्रशासनिक दृष्टि से लोहित जनपद का सर्किल हेड क्वार्टर है। आसपास लोगों द्वारा चाय की बागवानी व खेती भी की गयी है। कादुम से धीरे धीरे पहाड़ियों का उठान शुरु होता है। चौंग्खम से तीसेक किलोमीटर दूरी तय कर पहुंचते हैं धार्मिक व पौराणिक महत्व वाले  पवित्र स्थल परशुराम कुण्ड।
       विपुल जल सम्पदा वाली लोहित नदी के बायें तट पर स्थित परशुराम कुण्ड की धार्मिक महत्ता है। दन्त कथा है कि परशुराम ने फरसे से अपनी माँ रेणुका की हत्या कर दी किन्तु माँ के शाप से फरसा उनके हाथ पर ही चिपक गया। श्राप से मुक्ति तथा क्रोध शमन के लिये वे वर्षो तक तीर्थस्थलों में भटकते रहे। ऋषियों की सलाह पर  जब सुदूर उत्तरपूर्व में उन्होंने बह्मकुण्ड में स्नान किया तो शपमुक्त हो सके। तब उन्होंने फरसा जितनी दूर हो सकता था फेंक दिया। मान्यता है कि जहां फरसा गिरा वहां की बर्फ पिघल गयी और वहीं से एक नदी फूट पड़ी जिसे लोहित नदी नाम दिया गया। बह्मकुण्ड ही परशुराम कुण्ड के रूप में विख्यात है। आबादी विहीन वाले इस क्षेत्र में एक मंदिर के अतिरिक्त दो-चार झोपड़ियां ही हैं। न कोई घाट विकसित किया गया है और न ही कोई सराय, धर्मशाला ही। साल में एक बार जनवरी माह में मेला अवश्य आयोजित होता है तो देश विदेश से आये श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ पड़ती है। हम स्नान से निवृत्त होकर साथ लाये गये आहार को लेते हैं और प्रकृति का आनन्द उठाते हैं। उस पार लोहित के मुख्यालय तेजू के लिए सड़क है किन्तु नदी पर पुल बनना पस्तावित है। लोहित नदी घाटियों से निकलकर यहां पर मैदानी भूभाग में प्रवेश करती है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ऋषिकेश में गंगा व टनकपुर में काली।
    आज सकून मिला रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक की यात्रा पूरी हुयी। रेणुका जी हिमाचल के सिरमौर जिले में है और परशुराम कुण्ड यहाँ। लम्बी थकान से चूर होकर नामसाई लौट आये। यह भी अच्छा है कि नामसाई से परशुराम कुण्ड तक सड़क की स्थिति बिल्कुल ठीक है। यहाँ जनजातीय क्षेत्रवासी भी बिल्कुल भोले नाथ की तरह है। सरल, निष्कपट व्यवहार वाले ये लोग अपनी संस्कृति को जीवन्त रखे हुए हैं। ईर्ष्या व द्वेष भाव से कोसों दूर हैं। आदिवासियों में एक बात यह गौरतलब है कि पुरानी पीढी जहां अन्धविश्वास, पिछड़ेपन व निरक्षरता के अन्धकार में है वहीं नई पीढी आधुनिकता के साथ आगे बढ रही है। शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिये अरुणाचल सरकार सुविधायें दे रही है। प्रत्येक गावं में प्राइमरी स्कूल तथा आगे की शिक्षा के लिये शत-प्रतिशत बच्चों को होस्टल सुविधा व होस्टल में कापी किताबों के साथ  आवास व भोजन मुफ्त। रात नामसाईं में बिताकर सुबह जयरामपुर से साथ चल रहे मित्र अनिल कुमार सिंह ने विदा ली क्योंकि उनको मिआओं जाना था और हम शेष लोग तिनसुकिया होते हुए डिब्रुगढ़ पहुँच गये।
     ब्रह्मपुत्र के बायें तट पर स्थित डिब्रुगढ़ एक डिसेन्ट शहर और ऊपरी असम का शैक्षणिक व सांस्कृतिक केन्द्र है। अनेक दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त डिब्रुगढ़ में इंजीनियरिंग व मेडिकल कालेज तथा डिब्रुगढ़ यूनिवर्सिटी स्थित है। उत्तरी असम तथा उत्तरी अरुणाचल जाने के लिए डिब्रुगढ़ में ही फेरी (मोटरबोट) से
ब्रह्मपुत्र पार किया जाता है। विशालकाय इन मोटरबोट में तीन-चार सौ सवारियांे के अतिरिक्त एक ट्रक/बस, तीन जीप/कार व चार-छः स्कूटर आराम से लद सकते है। ब्रह्मपुत्र पार करने में बरसात में तीन साढ़े तीन घण्टे लगते हैं जबकि अन्य मौसम में पांच घण्टे तक का समय। असमियां लोग मूलतः बहुत सरल होते हैं। यह नहरकटिया से ही हमारे साथ चल रहे रोबिन गुगोई के व्यवहार से भी हम जान गये थे। उसने ही बताया कि कभी व्यापारी एक मीटर कपड़ा बेचता तो चारों ओर से नापकर तब उतने मीटर की कीमत वसूलता था। मुस्लिम बहुल पूर्वी पाकिस्तान ;बांग्लादेशद्ध के हिन्दू लोग असम में बड़ी तादाद में आये और उन्होंने व्यापार व सरकारी नौकरियों में आम असमियां लोगों को पीछे छोड़ दिया। जिससे असम में धीरे-धीरे व्यवस्था के प्रति असन्तोष पनप रहा है।
शिव की नगरी शिवसागर की ओर
      डिब्रुगढ़ में ईश्वर के दर्शनों की अभिलाषा से मन्दिर गये। अरुणाचली लोग उत्सवधर्मी होते हैं और जीवित भगवान पर ज्यादा विश्वास करते हैं। जबकि हम तथाकथित सभ्य लोग पत्थर या धातु की मूर्तियों में कैद भगवान पर। डिबूगढ के उत्तरी छोर पर बाढ़ से बचाव के लिये ब्रह्मपुत्र नदी के समानान्तर एक लम्बी सुरक्षा
दीवार बनाई गयी है जिस पर सूर्यास्त के समय घूमना आनन्दित करता है। ब्रह्मपुत्र की विपुल जलराशि में सूर्य की किरणें अटखेलियां करती है तो प्रतीत होता है मानो नदी के सीने पर सोना ही सोना बिखरा पड़ा हो। काजीरंगा नेशनल पार्क देखने के लिये  अगली सुबह शिवसागर के लिये निकल पड़े। रोबिन गुगोई के साथ जीप हमने वापस खोन्सा भेज दी थी। तिनसुकिया से तीन बंगाली मित्र भी साथ थे। नारायण कार, स्वदेश दत्ता और पार्थो भादुड़ी। लगभग सौ कि0मी0 दूरी तय कर शिवसागर पहुंचे।
     शिवसागर असम राज्य की भाषाई व सांस्कृतिक हृदयस्थली भी है। इतिहास पर नजर दौड़ाये तो असम अनेक प्रजातियों का संगम रहा है। सदियों से असम ने सभ्यताओं व संस्कृतियों के वाहक उन समुदायों को शरण दी हैं जो पृथक-पृथक धाराओं से सम्बन्ध रखते थे। इन समुदायों में आस्ट्रेलियन, हब्सी, द्रविड़, इण्डो-मंगोल, तिब्बती-बर्मी एवं आर्य भी थे। इन लोगों ने विभिन्न मार्गों से असम में प्रवेश कर सर्वथा एक नवीन लोक समाज के संयोजन में योगदान दिया। इस नये समाज को ही ‘‘असमिया’’ कहा जाने लगा। तथापि अधिसंख्य असमियां तिब्बती-बर्मी मूल के ही हैं। लगभग छः सौ वर्षों तक असम पर राज्य करने वाले राजा हूण जाति के थे जिन्होने अहोम राज्य स्थापित कर शिवसागर राजधानी बनायी। असम के बिहू नृत्य पर तेरहवीं शताब्दी के हूण संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखायी देती है। असम में आज मूलतः बोरा, बरूआ, गोर्हाइं, हजारिका, गुगोई, सैकिया, डेका, महन्त, कालिटा, फुकन आदि उपजातियां ही अपने को ‘‘औरिजिनल’’ असमियां मानती है। यहां के मूल निवासी असम को ‘अखम’ और असमिया को ‘अखमिया’ उच्चारित करते हैं। कोई भी जनपद, प्रान्त व देश राजनीतिक व भौगोलिक दृष्टि से चाहे कितनी ही दूरी पर क्यों न हो परन्तु उनमें परस्पर भाषागत व सांस्कृति निकटता रहती ही है। असम गढ़वाल-कुमाऊं से भले ही दूर है किन्तु  भाषागत समानता रखता है। शिव की नगरी शिवसागर पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व लिये हुए है। शिवसागर सागर के तट पर तो नहीं किन्तु यहां के तीन पौराणिक मंदिर शिवाडोल, विष्णुडोल तथा देवीटोल, जिनका निर्माण सन् 1734 में रानी मदाम्बिका द्वारा करावाया गया, एक विशाल झील के किनारे स्थित अवश्य हैं। शिवसागर में कुछ देर रुककर जोरहाट के लिए चल पड़े जो हमारा अगला पड़ाव है। रात खाना खाने के बाद जोरहाट सिनेमाहॉल में अनिल कपूर अभिनीत ‘मशाल’ फिल्म देखी। लम्बे समय बाद हॉल में सिनेमा देखने का आनन्द लेते हैं।
      सुबह काजीरंगा नेशनल पार्क पहुंचकर स्वागत कक्ष में पार्क शुल्क भुगतान के बाद घूमने के लिए जीप किराये पर ली। चौकसी के लिए पार्क के दो फारेस्ट गार्ड भी साथ भेजे गये बन्दूकें लेकर। उनके ढीले कपडे,
पतला बदन तथा आरामतलब मिजा ज देखकर कुछ देर सोचता रहा कि उनके हाथों में बंदूकें क्यों पकड़ा दी होंगी। खतरा यदि आन पड़ा तो वे हमारी क्या रक्षा क्या करेंगे उल्टे इनकी रक्षा हमें ही करनी होगी। ब्रहमपुत्र के बायें तट पर बसा काजीरंगा नेशनल पार्क एक सींगी गैण्डों के लिये ही नहीं अपितु जंगली भैंसों तथा विभिन्न प्रजाति के पक्षियों के लिये भी विख्यात है। फरवरी का महीना होने के कारण अधिक तो नहीं किंतु लगभग सौ गज दूरी से एक सींगी गैंडे व जंगली भैंसों के झुण्ड का दर्शन हो गये थे। गैण्डों का एक सींग इनकी खूबसूरती नहीं, सुरक्षा नहीं बल्कि अभिशाप ही है। सींग हथियाने के लिये असामाजिक तत्वों द्वारा गैण्डों की हत्यायें हमेंशा ही की जाती रही हैें। जिससे इनकी संख्या में निरन्तर गिरावट आ रही है। लगभग 450 वर्ग कि0मी0 में फैले विशाल काजीरंगा पार्क आधा अधूरा घूमने के बाद शाम को सभी बंगाली मित्र वापस लौट गये और हम गोहाटी की बस पकड़ने चले गये।                   
                                                                                                                             समाप्त

Monday, September 28, 2015

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक (5)

 पिछले अंक से जारी..........
शरणार्थियों का बाजार है मिआओं
         मिआओं कस्बा प्रशासनिक दृष्टि से ई0ए0सी0 (एक्स्ट्रा असिस्टेण्ट कमीश्नर) हेडक्वार्टर है। राज्य सरकार के अनेक कार्यालय, हायर सेकेण्ड्री स्कूल, बैंक, सी0आर0पी0 कम्पनी आदि हैं। सी0आर0पी0 के एक जवान से परिचय होता है तो वह बताता हैं कि गत वर्ष तक यहां पर विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित स्व0 दरबान सिंह के पुत्र श्री नारायण सिंह नेगी कम्पनी कमाण्डर के रूप में तैनात थे। नेगी जी दबंग और कानूनप्रिय अफसर थे। रात्रि पी0डब्लू0डी0 विश्राम गृह में बितायी। अरुणाचल में जिलों के नाम नदियों पर हैं उसी भांति इस विश्राम गृह के कमरे भी तिराप जनपद की नदियों के नाम से हैं। जैसे- नामचिक, रीमा, तिराप आदि। नदियों का संगम हमेशा ही देखा किन्तु विपुल जलराशी वाली डिहीगं नदी को दो भागों में बंटा यहीं देखा। मिआओं वासियों ने बताया कि 1897 के विनाशकारी भूकम्प में जमीन पर दरार के कारण डिहींग नदी दो भागों में बंट गयी, जो पूर्ववत बही उसे बूरी (अर्थात बूढी) डिहींग और लम्बवत बहने वाली नई को नोआ (नूतन) डिहींग कहते हैं।
    तिब्बत से भारत के मैत्रीपूर्ण सम्बंध थे और व्यापारिक प्रगाढता भी। तिब्बत रहते हुये भारतवर्ष की उत्तरी सीमा पूरी तरह सुरक्षित थी। परन्तु चीन ने तिब्बत को निगल लिया। तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारतवर्ष में शरण दे दी गयी  और तिब्बतियों को शरणार्थियों के रूप में रहने की स्वतन्त्रता। भारत के सीमान्त क्षेत्रों में आज भी लाखों तिब्बती शरणार्थी रह रहे हैं, जिनमें नेफा भी है। मिआओं के पश्चिम में तीन-चार किलोमीटर पर तिब्बतियन रिफ्यूजी कैम्प है जो खुशहाल व एक भरा-पूरा गांव है। स्थानीय तंग्छा गांवों की अपेक्षा काफी बड़ा है। प्रचुर खेती, बौद्ध मन्दिर, मिडिल स्कूल और कार्पेट बुनाई केन्द्र यहाँ पर है। भारत सरकार तिब्बतियों को भारत की नागरिकता के अतिरिक्त लगभग सभी प्रकार की सुविधायें प्रदान कर रही है। 1960 के आसपास ही बंाग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) के चिट्टगांव की पहाड़ियों और मेमन जिलों से हजारों बौद्ध धर्मावलम्बी चकमा व हाजोंग जनजाति के लोग पूर्वोत्तर भारत में आये। मिआओं, डायून में चकमा व हाजोंग भी हजारों की संख्या में शरणार्थी जीवन यापन कर रहे हैं। बड़ी संख्या में तिब्बती और चकमा आदि शरणार्थियों के बस जाने के कारण यहां का सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक जीवन पूरी तरह प्रभावित हुआ है।
    मिआओं से आगे सुदूर पूरब में विजयनगर कस्बा है (भारत के मानचित्र पर नजर दौड़ायें तो विजयनगर उस बिन्दु पर पडे़गा जहां भारत-बर्मा सीमा पर चौकान पास है।) अरुणाचल के प्रथम उप राज्यपाल श्री के0 ए0 ए0 राजा की प्रेरणा से मिआओं से विजयनगर तक मीलों लम्बी सड़क बनी तो है किन्तु वर्षा की अधिकता व लगभग आबादी विहीन क्षेत्र होने के कारण इस सड़क का मरम्मत कार्य बन्द हैै। विजयनगर जिला तिराप का ही अंग है। जाने का अवसर तो नहीं मिला पर कुछ लोग बताते है कि विजयनगर कस्बा मूलतः भारत के गढ़वाल, कुमाऊँ सहित विभिन्न प्रान्तों के सेवानिवृत्त सैनिकों द्वारा बसाया गया है जिससे विजयनगर में सम्पूर्ण भारतवर्ष की सांस्कृतिक झलक देखने को मिलती है। वर्तमान में विजयनगर केवल हवाई मार्ग से जुड़ा है।  मिआओं-विजयनगर मार्ग पर ही डिहींग नदी के दोनों ओर मीलों तक फैला हुआ ’नामडफा नेशनल पार्क’ नाम से एक ’टाईगर प्रोजेक्ट’ है।   
    एक दिन मिआओं में बिताकर अगली सुबह मिआओं से डिहींग की विभिन्न धाराओं पर लकड़ी की लम्बी-लम्बी बल्लियों व बांस की खपच्चियों से बने हैं कई छोटे-छोटे पुलों से होकर बूरी डिहींग नदी पार की और डायून की ओर बढ गये। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि मार्गेरिटा से आगे पूरब में डिहींग नदी पर कहीं भी एक भी पक्का या स्थायी पुल नहीं है, जिससे डिहींग के दोनों ओर के आबादी युक्त क्षेत्र बरसात में असम्पृक्त रहते हैं। तब मिआओं से मात्र दस-बारह कि0मी0 दूरी पर स्थित डायून व बरदुम्सा को असम से होते हुये सौ-डेढ़ सौ कि0मी0दूरी तय कर ही पहुंचा जाता है। डायून एक छोटा सा गांव है और धीरे-धीरे एक कस्बे में परिवर्तित होता जा रहा है। डायून में एक प्राईमरी स्कूल और छोटा सा बाजार है। यहां प्लाईवुड मिल के स्वामी गांधी उपनाम वाले व्यक्ति से मुलाकात  हुयी। मिआओं-डायून मार्ग में चकमा व हाजोंग जनजातीय लोगों, की बस्तियां हैं। बांस/लकड़ियों के बने घर, अपने हाथों से बनाए हुए बेंत के फर्नीचर, कार्पेट, साफ-सुथरे आंगन, आस-पास थोड़ी बहुत खेती भी। मूल आदिवासियों की अपेक्षा हाजोंग व चकमाओं का रहन-सहन शालीन व साफ सुथरा है। आजीविका के लिये ये लोग बंेत के फर्नीचर व कार्पेट का व्यापार करते हैं।  
    अरुणाचल वन विभाग में कार्यरत् एस. चक्मा घर पर थे। उन्होंने बैठने के लिए कहा तो इटावा निवासी मित्र अनिल कुमार सिंह ने तुरंत हामी भर दी। चाय पीने की इच्छा हो रही थी। काफी देर तक इधर उधर की बातों के बाद एस. चक्मा ने भरे गले से बताया कि सरकार तिब्बती शरणार्थियों की भांति हाजोंग व चक्माओं को
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सुविधा नहीं दे रही। न आवागमन के साधन, न शिक्षा और न ही चिकित्सा। शिक्षा व उपचार हेतु छः-सात माह निकटस्थ कस्बे मिआंओ तो जा सकते हैं किंतु बरसात में वह भी संभव नहीं है। रोज चार-पांच किलोमीटर चलकर बच्चे प्राथमिक शिक्षा डायून में पा लेते हैं किंतु आगे वे नहीं पढ़ पाते हैं। वे प्रार्थना करते हैं कि विशाल व्यक्तित्व वाले दलाईलामा की भांति कोई उनका धार्मिक व राजनैतिक नेता बने। अंधकारमय व त्रासदीपूर्ण जीवन जी रहे इन चक्मा शरणार्थियों के मन में यह भय कहीं गहरे तक है कि हो सकता है कि अरुणाचल सरकार कभी भी उन्हें राज्य छोड़ने का फरमान जारी कर सकती है। सहानुभूति के दो बोल कहकर द्रवित हृदय लिये हम लौट पड़े।                शेष अगले अंक(6) में...............

Saturday, September 05, 2015

फिल्म समीक्षा - मांझी : दि माउण्टेन मैन

        किसी भी फिल्म की सफलता के लिये आवश्यक होता है कुशल निर्देशन, मंझे हुये सितारे, एक अच्छी कहानी, बेहतरीन पटकथा, कसे हुये संवाद, कर्णप्रिय गीत-संगीत आदि आदि। परन्तु कभी कुछ फिल्म केवल कुशल निर्देशन या अच्छी कहानी या बडी स्टार कास्ट या गीत-संगीत के बल पर भी चल पड़ती है। और कभी सब कुछ ठीक-ठाक होने के बावजूद भी फिल्म अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाती है। ऐसे कई उदाहरण है जब बड़े बजट की फिल्म बॉक्स आफिस पर लुढ़क गयी और छोटे बजट की फिल्म झण्डे गाड़ गयी, दर्शकों की वाहवाही बटोर ले गयी।
    केतन मेहता द्वारा निर्देशित और नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, पंकज त्रिपाठी, गौरव द्विवेदी, अशराफुलहक, दीपा साही, तिग्मांशु धूलिया, प्रशान्त नारायण आदि द्वारा अभिनीत फिल्म मांझी: दि माउण्टेन मैन की रिलीज के दिन से ही देखने की उत्सुकता थी, परन्तु देखकर निराशा ही हाथ लगी।  होली, सरदार, भवनी भवाई, मिर्च मसाला, मंगल पाण्डे: द राईजिंग व रंग रसिया जैसी एक से एक बेहतरीन फिल्म देने वाले केतन मेहता जी शायद अबकी चूक गये। लगा जैसे इस फिल्म में सारी जिम्मेदारी नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे केे कन्धों पर डालकर वेे चुपचाप जाकर कैमरे के पीछे बैठ गये। इतनी चर्चित और दमदार कहानी हाथ आने और अभिनय के क्षेत्र में अपना लोहा मनवा लेने वाले कलाकार साथ होने के बावजूद फिल्म में कहीं कोई कसाव नहीं, कहीं गति नहीं, कोई रवानगी नहीं। फिल्म देखते समय यह उत्सुकता ही नहीं जागती कि अब आगे क्या होगा, आगे क्या होगा। जैसा कि अमूमन हर फिल्म देखते हुये या कहानी-उपन्यास पढ़ते हुये होता है। हॉल में अन्तिम समय तक इसलिये बैठे रहे कि घर से इस बहाने निकले हुये थे और फिर टिकट खरीद रखी थी।
     -गांव में एक हरिजन पुरूष के जूते पहन लेने पर दबंग सवर्णों द्वारा उसके पांव काट दिये जाते हैं। परन्तु कोई आक्रोश नहीं, कोई प्रतिकार नहीं। यहाँ तक कि गांव में दबी जुबान भी कोई चर्चा नहीं करता। बीसवीं सदी की नहीं चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी की घटना हो जैसे।
     -बचपन में घर से भाग जाने के बाद दशरथ मांझी सात साल बाद जब गांव लौटकर आता है तो सवर्णों द्वारा उसकी पिटाई कर दी जाती है परन्तु उसके चेहरे पर पीड़ा नहीं दिखायी देती और न ही कोई आक्रोश झलकता है। इस घटना को बिल्कुल सहजता से ले लेता है वह।
     -गहलोर गांव की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का फिल्मांकन कमजोर है जबकि मदर इण्डिया की भांति उनकी निर्धनता को बेहतरीन ढंग से दर्शाया जा सकता था। यहाँ तक कि शादी के बहाने उस क्षेत्र के लोकगीत, लोकनृत्यों को फिल्माये जाने की संभावना थी। परन्तु निर्देशक चूक गये।

     -हासिल, मकबूल, पान सिंह तोमर आदि फिल्मों का निर्देशन कर और गैंग्स ऑव वासेपुर फिल्म में अपने अभिनय का लोहा मनवा लेने वाले तिग्मांशु धूलिया की भूमिका प्रभावहीन रही। न कहीं कोई रौब, न ठाकुरों जैसी अकड़। बिल्कुल भावहीन चेहरा।
    -नायिका के पहाड़ से फिसल जाने के बाद नायक द्वारा उसे जिस तेजी से अस्पताल पहुँचाया जाता है वह तो फिल्म के अनुरूप है। परन्तु अस्पताल में नायक की न तड़प देखी गयी न आशमान सिर पर उठा देने की वेदना और न ही दहाड़ मार कर रोना। बल्कि एक कोने में अपराधी सा बैठकर चुपचाप टुकुर-टुकुर देखना।
    - तकनीकी तौर पर देखें तो खामियां नजर आती है जैसे कि नायक का पिता
(अशराफुलहक) शुरू से अन्त तक बिल्कुल उसी मेकअप में नजर आता है। वह बुढ़ाता ही नहीं है। जबकि फिल्म में नायक के बचपन से लेकर बूढ़े होने तक की कहानी है।
    -सर्वविदित है कि राजनीतिक दल कांग्रेस द्वारा केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार की विफलता के बाद ही सन् 1980 के चुनाव में हाथ को चुनावचिन्ह बनाया गया था। परन्तु फिल्म के एक दृश्य में आपातकाल से पहले ही इन्दिरा गांधी द्वारा ‘हाथ’ को मजबूत करने की अपील जनता से की जा रही है। 
   -नायक के बजीरपुर से पैदल ही दिल्ली कूच करने पर तेरह सौ किलोमीटर लम्बे रास्ते की कठिनाइयों को उभारा
नहीं गया है।
   -गांव के मुखिया व बीडीओ द्वारा रुपये हड़प लिये जाने को मीडिया नहीं उठाता है। यहाँ तक कि पूरा पहाड़ काट लेने पर रास्ता बन जाने को भी मीडिया ज्यादा तवज्जो देता नहीं दिखायी देता।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे द्वारा अपने अभिनय के बल पर फिल्म को सफल बनाने की पूरी कोशीश की गयी है किन्तु निर्देशक थोड़ा मेहनत करते थे तो निश्चित तौर पर यह फिल्म शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से आगे की श्रेणी में रखी जा सकती थी।