Wednesday, August 08, 2018

एक महान योद्धा की शहादत दिवस पर.....

        बाबा मोहन उत्तराखण्डी शहीद न होते तो क्या आज उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों को सरकारी नौकरी में आरक्षण मिल पाता? नहीं न! न होते वे शहीद तो गैरसैण राजधानी को लेकर सरकार पर इतना दबाव बना रहता? नहीं न! और हम इतने कृतघ्न हैं कि उनके शहीद दिवस पर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं। उनकी न कोई मूर्ति, न उनके नाम से विश्वविद्यालय, न चिकित्सालय, न पुस्तकालय, न कोई कॉलोनी, न स्कूल कॉलेज ही और न कोई स्मारिका। कुछ भी तो नहीं। हम लगभग उनको भुला चुके हैं। एक व्यक्ति गैरसैण राजधानी को लेकर अपना प्राणोत्सर्ग कर चुका है और हम हैं कि........।
            कौन थे बाबा मोहन उत्तराखण्डी? जिला गढ़वाल के एकेश्वर ब्लॉक के बंठोली गांव में सेना अधिकारी मनवर सिंह नेगी व सरोजनी देवी के पुत्र रूप में 3 दिसम्बर 1948 को जन्में मोहन सिंह नेगी एक जीवट, कर्मठ व दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। प्रारम्भिक शिक्षा मैन्दाणी में और इंटर तक की पढ़ाई दुगड्डा में करने के बाद 1969 में उन्होंने रेडियो आपरेटर ट्रेड में आई०टी०आई० किया और 1970 में बंगाल इंजीनियर्स में भर्ती हो गये। सेना में उनका ज्यादा दिन मन नहीं लगा और 1975 में फौज की नौकरी छोड़ गांव में खेती बाड़ी से गुजारा करने लगे और साथ ही समाजसेवा भी। उनके व्यवहार व सामाजिक दायित्वों के निर्वाहन में उनकी भूमिका देखकर वे 1983 से वे निरन्तर दो बार ग्रामप्रधान रहे।
            ग्रामप्रधानी के दौरान ही उनका जुड़ाव यू.के.डी. से हुआ तो फिर तो उनपर आन्दोलनों का जुनून सवार हो गया। उत्तराखण्ड आन्दोलन को लेकर 1994 में तीन सौ दिन का क्रमिक अनशन किया तो 1994 मुज्जफर काण्ड का उन्हें इतना आघात लगा कि दाढ़ी व बाल काटना ही छोड़ दिया, भरा-पूरा परिवार छोड़ दिया, गेरुआ वस्त्र पहनना व केवल एक बार भोजन करना शुरू किया और यहाँ तक कि अपना पूरा नाम ‘मोहन सिंह नेगी’ की जगह ‘बाबा मोहन उत्तराखण्डी’ लिखना शुरू किया। और यह जूनून उन पर अन्तिम समय तक सवार रहा जब तक वे गैरसैण राजधानी को लेकर आदिबद्री के निकट बेनीताल में टोपरी उड्यार में 02 जुलाई 2004 से अकेले ही अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर नहीं बैठ गये। यहीं 39 दिन की भूख हड़ताल ने 9 अगस्त 2004 को उनकी जीवनलीला समाप्त कर दी।
         उनकी शहादत की खबर सुनकर राज्यवासी आक्रोशित हो उठे, जगह-जगह आन्दोलन हुये और दस अगस्त 2004 को प्रदेश व्यापी हड़ताल व बन्द किया गया। उत्तराखण्ड सरकार ने ‘डेमेज कण्ट्रोल’ के लिए आनन-फानन में आन्दोलनकारियों के लिए आरक्षण की घोषणा कर दी और बाबा मोहन उत्तराखण्डी को भुला दिया गया। किसी शायर ने क्या खूब कहा है;
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

(स्रोत साभार- एल.मोहन कोठियाल के लेख ‘जिसने गैरसैण के लिये जान दे दी थी.....’ के सम्पादित अंश)

Tuesday, August 07, 2018

राजनीतिक और राजनीति

लोकतंत्र में इतनी स्वतंत्रता तो है कि राजनीतिज्ञों को गाहे-वेगाहे हर कोई कोस सकता है। हाँ, कोसने का अन्दाज सबका जुदा होता है। एक साधारण व्यक्ति और एक कवि की भाषा शैली में अन्तर बहुत होता है। कुमाऊं के सुप्रसिद्ध कवि शेरदा ‘अनपढ और गढरत्न नरेन्द्र सिंह नेगी जी की उलाहना भरी रचनाओं में आप स्वयं ही देख लें।
तुम समाजाक इज्जतदार, हम भेड़-गंवार        - शेरदा अनपढ -
तुम सुख में लोटी रया,
हम दुःख में पोती रया !
तुम स्वर्ग, हम नरक,
धरती में, धरती आसमानौ फरक !

तुमरि थाइन सुनुक र्वट,
हमरि थाइन ट्वाटे-ट्वट !
तुम ढडूवे चार खुश,
हम जिबाई भितेर मुस !
तुम तड़क भड़क में,
हम बीच सड़क में !
तुमार गाउन घ्युंकि तौहाड़,
हमार गाउन आंसुकि तौहाड़ !
तुम बेमानिक र्वट खानयाँ,
हम इमानांक ज्वात खानयाँ !
तुम पेट फूलूंण में लागा,
हम पेट लुकुंण में लागाँ !
तुम समाजाक इज्जतदार,
हम समाजाक भेड़-गंवार !
तुम मरी लै ज्यूने भया,
हम ज्यूने लै मरिये रयाँ !
तुम मुलुक के मारण में छा,
हम मुलुक पर मरण में छा !
तुमुल मौक पा सुनुक महल बणैं दीं,
हमुल मौक पा गरधन चड़ै दीं !
लोग कुनी एक्कै मैक च्याल छाँ,
तुम और हम,
अरे! हम भारत मैक छा,
सो साओ ! तुम कै छा !
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गरीब दाता मातबर मंगत्या        - नरेन्द्र सिंह नेगी -

तुम लोणधरा ह्वैल्या,
पर हम गोर-बखरा नि छां।
तुम गुड़ ह्वै सकदां,
पर, हम माखा नि छां।
तुम देखि हमारी लाळ नि चूण,
तुमारि पूंछ पकड़ि हमुन पार नि हूण।
हम यै छाला तुम वै छाला।
तुमारी आग मांगणू
गाड तरि हम नि ऐ सकदा।
तुमारा बावन बिन्जन, छत्तीस परकार
तुम खुणी, हम नि खै सकदा।
हमारी कोदै रोट्टी, कण्डाळ्यू साग
हमारी गुरबत हमारू भाग।


तुम तैं भोट छैणी छ, त आवा
हमारी देळ्यूं मा खड़ा ह्वा
हत्त पसारा ! .... मांगा !
भगवानै किरपा सि हमुमां कुछ नी, पर
तुमारी किरपा सि दाता बण्यां छां।।

    @@@@@@

Saturday, August 04, 2018

माँ को याद करते हुये..............



       माँ की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 2011 में माँ हमें छोड़ गयी थी। यदि माँ जीवित होती तो आज चौरासी की होती, परन्तु वह तो सात साल पहले ही चौरासी के जाल से मुक्त हो गयी। शास्त्रों में ज्ञान का भण्डार है किन्तु हम शोक में डूबे रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्ययोग के माध्यम से समझाते हुए कहा कि;

नैनं छिदन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः !
न चौनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः !!

       माँ डेढ़ साल तक स्किन (बायीं जांघ के) कैंसर से ग्रस्त रही। पहले वह सामने की ओर घुटने के नीचे था, चिकित्सकों की बातों में आकर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा वह ऑपरेट किया गया तो कुछ महीनों बाद जांघ पर निकल गया और फिर बढ़ता गया। दवाईयां सब फेल हो गयी यहाँ तक कि पतंजलि का स्वर्ण भस्म, डायमंड पावडर, गिलोय आदि सभी कुछ। बाद में किसी ने कीमोथेरेपी की सलाह दी और किसी ने रेडियोलॉजी की, परन्तु चिकित्सकों ने आयु अधिक होने का हवाला देकर केवल सेवा करने को कहा। होनी को कौन टाल सकता है। यह मानकर सन्तोष कर लेता हूँ कि सभी की माँ एक न एक दिन उन्हें छोड़ कर चली जाती है।
           मेरी माँ पढ़ी लिखी नहीं थी, निपट अपढ़ थी। परन्तु मुझे शिक्षित करने को लेकर वह सचेत भी थीं। मेरी एडमिशन फीस हो या मासिक फीस, घर में न होने पर वह गांव में ऊज-पैंछ(उधार) कर व्यवस्था कर लेती थी और न मिलने पर अनाज भी बेच देती। पिताजी सेना में थे, जिनका भेजा गया मनिऑर्डर कभी-कभी समय पर नहीं मिल पाता था।(मनिऑर्डर न मिलने का कारण डाक व्यवस्था ही दोषी नहीं थी बल्कि मुख्य था हमारे सात-आठ गांवों का डाकखाना जिस दुकानदार को मिला हुआ था वह मनिऑर्डर आने की सूचना समय पर नहीं देता था। लोग कहते थे कि वह लोगों के मनिऑर्डरों से अपना बिजनिस चला रहा है अर्थात उन पैंसो को ‘रोटेट’करता था)
         खेती-किसानी के कार्य के समय माँ उसके लिए पूरी तरह समर्पित हो जाती थी। तब उसके लिए मेरी पढ़ाई-लिखाई व स्कूल कॉलेज कोई मायने नहीं रखता था केवल खेती प्राथमिकता होती। मुझे आदेश मिलता कि आज स्कूल नहीं जायेगा क्योंकि आज रोपाई है या आज मण्डवार्त है या आज मळवार्त है या आज हल बाना है और हळया के साथ एक सहायक की जरूरत है आदि आदि। मेरे ना-नुकुर करने पर वह गुस्सा करते हुये भी गर्व से कहती ‘हम किसाण हैं। (किसाण अर्थात किसान, वैसे गढ़वाली में किसाण ‘कर्मठ’ को भी कहा जाता है) माँ सचमुच में ही किसाण थी- दोनो अर्थों में। उसने हम नादान भाई-बहनों के साथ अकेले दम पर पूरी खेती सम्भाल रखी थी। माँ के बलबूते ही तब हमारे सिंचित खेतों से लगभग बीस बोरी धान और बीस दोण गेंहूं होने की मुझे याद है और उड़द, मसूर, भट्ट आदि दालें व काखड़ी, मंुगरी के साथ भेण्डी, आलू, प्याज व चौलाई, राई आदि सब्जियां भी खूब होती थी। उखड़ थे सही, परन्तु दूर थे इसलिए उन्हें छोड़ दिया गया था। बिना दूध के हम कभी रहे नहीं और न मोल का ही खाया, एक भैंस हमेशा आंगन में होती थी।
         खेती-किसानी के काम में मेरी रुचि न होने या न कर सकने के कारण माँ अक्सर दुखी होकर कहती थी कि ‘कैसे खायेगा तू ? न तू भैंस दुहना जानता है, न हल लगान और न लकड़ियां काटना। तुझे कौन लड़की देगा? अकेले पढ़-लिखकर हो जायेगा तेरा गुजारा?.......’ माँ की जितनी समझ थी उस हिसाब से उसकी चिन्ता वाजिब थी। परन्तु माँ के ऐसे प्रश्नों का मेरे पास एक ही उत्तर होता कि सभी का गुजारा हो जाता है माँ, हर कोई अपना पेट भर लेता है। और ईश्वर की दया से आज बिना खेती-किसानी के गुजारा कर ले रहा हूँ।
         परन्तु आज माँ नहीं है। माँ नहीं है तो खेत बंजर हो गये हैं, घर-आंगन सूना पड़ा है, मकान में दीमक और मकड़ियों ने ठिकाना बना लिया है, माँ के लगाये पेड-पौधे सूख गये हैं या सूखने की कगार पर हैं। गांव में रौनक नहीं है और गांव अपना जैसा भी नहीं है। जिस आंगन में हम उछल-कूद करते थे वहाँ अब बन्दरों की धमा-चौकड़ी है। सब कुछ चला गया है माँ के साथ। ऐसे में तुम्हारा न होना बहुत सालता है माँ।...........
  विनम्र श्रद्धांजलि माँ।