Saturday, August 04, 2018

माँ को याद करते हुये..............



       माँ की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 2011 में माँ हमें छोड़ गयी थी। यदि माँ जीवित होती तो आज चौरासी की होती, परन्तु वह तो सात साल पहले ही चौरासी के जाल से मुक्त हो गयी। शास्त्रों में ज्ञान का भण्डार है किन्तु हम शोक में डूबे रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्ययोग के माध्यम से समझाते हुए कहा कि;

नैनं छिदन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः !
न चौनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः !!

       माँ डेढ़ साल तक स्किन (बायीं जांघ के) कैंसर से ग्रस्त रही। पहले वह सामने की ओर घुटने के नीचे था, चिकित्सकों की बातों में आकर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा वह ऑपरेट किया गया तो कुछ महीनों बाद जांघ पर निकल गया और फिर बढ़ता गया। दवाईयां सब फेल हो गयी यहाँ तक कि पतंजलि का स्वर्ण भस्म, डायमंड पावडर, गिलोय आदि सभी कुछ। बाद में किसी ने कीमोथेरेपी की सलाह दी और किसी ने रेडियोलॉजी की, परन्तु चिकित्सकों ने आयु अधिक होने का हवाला देकर केवल सेवा करने को कहा। होनी को कौन टाल सकता है। यह मानकर सन्तोष कर लेता हूँ कि सभी की माँ एक न एक दिन उन्हें छोड़ कर चली जाती है।
           मेरी माँ पढ़ी लिखी नहीं थी, निपट अपढ़ थी। परन्तु मुझे शिक्षित करने को लेकर वह सचेत भी थीं। मेरी एडमिशन फीस हो या मासिक फीस, घर में न होने पर वह गांव में ऊज-पैंछ(उधार) कर व्यवस्था कर लेती थी और न मिलने पर अनाज भी बेच देती। पिताजी सेना में थे, जिनका भेजा गया मनिऑर्डर कभी-कभी समय पर नहीं मिल पाता था।(मनिऑर्डर न मिलने का कारण डाक व्यवस्था ही दोषी नहीं थी बल्कि मुख्य था हमारे सात-आठ गांवों का डाकखाना जिस दुकानदार को मिला हुआ था वह मनिऑर्डर आने की सूचना समय पर नहीं देता था। लोग कहते थे कि वह लोगों के मनिऑर्डरों से अपना बिजनिस चला रहा है अर्थात उन पैंसो को ‘रोटेट’करता था)
         खेती-किसानी के कार्य के समय माँ उसके लिए पूरी तरह समर्पित हो जाती थी। तब उसके लिए मेरी पढ़ाई-लिखाई व स्कूल कॉलेज कोई मायने नहीं रखता था केवल खेती प्राथमिकता होती। मुझे आदेश मिलता कि आज स्कूल नहीं जायेगा क्योंकि आज रोपाई है या आज मण्डवार्त है या आज मळवार्त है या आज हल बाना है और हळया के साथ एक सहायक की जरूरत है आदि आदि। मेरे ना-नुकुर करने पर वह गुस्सा करते हुये भी गर्व से कहती ‘हम किसाण हैं। (किसाण अर्थात किसान, वैसे गढ़वाली में किसाण ‘कर्मठ’ को भी कहा जाता है) माँ सचमुच में ही किसाण थी- दोनो अर्थों में। उसने हम नादान भाई-बहनों के साथ अकेले दम पर पूरी खेती सम्भाल रखी थी। माँ के बलबूते ही तब हमारे सिंचित खेतों से लगभग बीस बोरी धान और बीस दोण गेंहूं होने की मुझे याद है और उड़द, मसूर, भट्ट आदि दालें व काखड़ी, मंुगरी के साथ भेण्डी, आलू, प्याज व चौलाई, राई आदि सब्जियां भी खूब होती थी। उखड़ थे सही, परन्तु दूर थे इसलिए उन्हें छोड़ दिया गया था। बिना दूध के हम कभी रहे नहीं और न मोल का ही खाया, एक भैंस हमेशा आंगन में होती थी।
         खेती-किसानी के काम में मेरी रुचि न होने या न कर सकने के कारण माँ अक्सर दुखी होकर कहती थी कि ‘कैसे खायेगा तू ? न तू भैंस दुहना जानता है, न हल लगान और न लकड़ियां काटना। तुझे कौन लड़की देगा? अकेले पढ़-लिखकर हो जायेगा तेरा गुजारा?.......’ माँ की जितनी समझ थी उस हिसाब से उसकी चिन्ता वाजिब थी। परन्तु माँ के ऐसे प्रश्नों का मेरे पास एक ही उत्तर होता कि सभी का गुजारा हो जाता है माँ, हर कोई अपना पेट भर लेता है। और ईश्वर की दया से आज बिना खेती-किसानी के गुजारा कर ले रहा हूँ।
         परन्तु आज माँ नहीं है। माँ नहीं है तो खेत बंजर हो गये हैं, घर-आंगन सूना पड़ा है, मकान में दीमक और मकड़ियों ने ठिकाना बना लिया है, माँ के लगाये पेड-पौधे सूख गये हैं या सूखने की कगार पर हैं। गांव में रौनक नहीं है और गांव अपना जैसा भी नहीं है। जिस आंगन में हम उछल-कूद करते थे वहाँ अब बन्दरों की धमा-चौकड़ी है। सब कुछ चला गया है माँ के साथ। ऐसे में तुम्हारा न होना बहुत सालता है माँ।...........
  विनम्र श्रद्धांजलि माँ।

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