Wednesday, January 20, 2021

लोरी के बहाने : गोपाल बाबू गोस्वामी और नरेन्द्र सिंह नेगी जी

बचपन में माँ, दादी-नानी से सुने गीतों(लोरियों) की कुछ अस्पष्ठ पंक्तियां आज भी दिल की अतल गहराइयों में तैर रही है। आगे चलकर रेडियो और फिल्मी पर्दे पर गाई गई लोरियों के प्रति आकर्षण बढ़ा, संगीत और मधुर स्वर से सजी वे दिल को छू जाती। कुछ लोरियों के आज भी मुखड़े ही नहीं दो चार पंक्तियां भी याद है; 
यशोदा का नन्द लाला, बृज का उजाला है..., मेरा चन्दा है तू मेरा सूरज है तू...., आजा निन्दिया आजा नैनन बीच समा जा...., राम करे ऐसा हो जाये मैं जागूं तू सो जाये...., चन्दा ओ चन्दा किसने चुराई तेरी..... आदि आदि।

 उत्तराखण्ड के दो महान सितारे गोपाल बाबू गोस्वामी और नरेन्द्र सिंह नेगी ने गीत, संगीत व गायन की दुनिया में नये आयाम स्थापित किये हैं। उत्तराखण्डी समाज में कोई विरला ही होगा जिन्हें इनके गीत उद्वेलित और आलोड़ित नहीं करते होंगे। दोनों महान विभूतियों की दो पृथक लोरियां भी अपने समय, समाज और परिवेश को अभिव्यक्त करती है। शब्दरूप में ये लोरियां प्रभाव छोड़ने में भले ही असफल हों किन्तु जब दर्द भरी लरजती आवाज में इन लोरियों को सुनें तो मन भावुकता के गहरे समुन्दर में गोते लगाने लगता है और आँखों में बादल उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं।
 
- गोपाल बाबू गोस्वामी - नानि-भौ भुखै डाड़ मारी वे.....
(जंगल गई माँ के देर शाम तक न लौटने पर भूख से व्याकुल दूध पीते बच्चे को छाती से लगाकर उसका पिता बच्चे को लोरी गाते हुए चुप कराने का प्रयास करता है। वास्तविकता में वह अपने को भी दिलासा देता सा प्रतीत होता है।)
 
नानि-भौ भुखै डाड़ मारी वे हो हीरू घर ऐजा वै,
घाम ओछैगौ पड़ी रुमुकी हो सुवा घर ऐजा वै। 
नानि-भौ भुखै डाड़ मारी वे.....।
 
चुप्प चुपै जा मेरी लाड़ली, झिट्ट घड़ी में आली इजुली,
मेरी पोथिली दूध पिवाली हो हीरू घर ऐजा वै।
नानि-भौ भुखै डाड़ मारी वे.....।
 
बण घस्यारी घर ऐ गई मेरी सुवा जाणी कां रै गई,
चुप्प चुपै जा मेरी लाड़ली, तेरी इजू घर ऐ जाली।
नानि-भौ भुखै डाड़ मारी वे.....।
 
उडै़ने तारा चाड़ पोथीला डायी बोट्यूं में बै गैई घोल,
आज ले किलै नि आई इजू ओ सुवा घर ऐजा वै।
नानि-भौ भुखै डाड़ मारी वे.....।
 
उखौउ कुटी पाणी लै गई, चेली बेटीआ बौड़ी बि राई,
मेरी सुवा तु किलै नि आई, मन बेचैन म्यरू हैगो वे हो हीरू घर ऐजा वे।
नानि-भौ भुखै डाड़ मारी वे.....।
 
बाटा-घाटा में जाणि कां होली, मेरी रूपसी मेरी घस्यारी,
नानि भाउ कै कसि चुपौनू, हे भगवान के धन कौंनू,
चेलि लछिमा भूख लागिगे हो हीरू घर ऐजा वे।
नानि-भौ भुखै डाड़ मारी वे.....।
 
 
- नरेन्द्र सिंह नेगी - हे मेरी आंख्यूंका रतन......
(दूधपीते बच्चे का सुबह जल्दी उठ जाने पर अकेली माँ घर में बिखरे काम को न समेट पा सकने से खीझ उठती है और बच्चे को सुलाने के बहाने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए एक पूरा खाका ही खींच देती है।)
 
हे मेरी आंख्यूंका रतन बाळा स्ये जादी,
दूधभाति द्योलु त्वेथैन बाळा स्ये जादी।
हे मेरी आंख्यूंका रतन.....।
 
मेरी औंखुड़ि-पौंखुड़ि छई तू मेरी स्याणी छै गाणी,
मेरी जिकुड़ि-बुकुड़ि ह्वेल्यू रे स्येजा बोल्यूं माणी,
ना हो जिदेरू न हो बाबु जन बाळा स्ये जादी।
हे मेरी आंख्यूंका रतन.....।
 
तेरी गुन्दक्याळी हात्यूंकि मुठ्यूंमां मेरा सुखि दिन बुज्यांन,
तेरी टुरपुरि तौं बाळी आंख्यूंमा मेरा सुपिन्या लुक्यांन,
मेरी आस सांस त्वेमा हि छन बाळा स्ये जादी।
हे मेरी आंख्यूंका रतन.....।
 
हे पापी निन्दरा तु कख स्येईं रैगे आज,
मेरि भांडि-कुंडी सुंचिणी रैग्येनी घर-बणो काम-काज,
कबतैं छंट्योलु क्य कन्न क्य ब्वन्न बाळा स्ये जादी।
हे मेरी आंख्यूंका रतन.....।
 
घतसारि सारिकि पाणी ल्हैगेनी पंदेरों बटी पंदेनी,
बणु पैटि ग्येनि मेरि धौड़्या-दगड़्या लखड़्वैनी-घसेनी,
क्या करू क्या नि करू जतन बाळा स्ये जादी।
हे मेरी आंख्यूंका रतन.....।
 
घरबौड़ु नि ह्वायु जु गै छौ झुरैकी मेरी जिकुड़ी,
बिसरी जांदू वीं खैरी बिपदा हेरीकी तेरी मुखड़ी,
समळौ ना वो बत्थ वो दिन बाळा स्ये जादी।
हे मेरी आंख्यूंका रतन.....।

Saturday, January 16, 2021

- जयन्ती पर विशेष - मूर्धन्य साहित्यकार मोहनलाल नेगी(साक्षात्कार)

गढ़वाली भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार मोहनलाल नेगी जी का नब्बे वर्ष की आयु में 26 अक्टूबर 2020 को निधन हो गया। जयश्री सम्मान, केदारखण्ड सांस्कृतिक सम्मान, हिन्दी गौरव सम्मान, श्रीदेव सुमन संस्कृति सम्मान, चिट्ठी सम्मान व आखर सम्मान से सम्मानित नेगी जी के दो गढ़वाली कहानी संग्रह(जोनि पर छापु किलै और बुरांस की पीड़), एक गढ़वाली उपन्यास(सुनैना) और एक संस्मरणात्मक पुस्तक(यादों की गलियां) प्रकाशित हुई है।
    इधर कुछ वर्षो से मेरा उनसे निरन्तर मिलना व टेलीफोनिक संवाद होता रहता था। बातचीत के दौरान प्रायः गढ़वाली मुहावरा कहना और फिर टहाके मारकर हँसना उनकी अदम्य ऊर्जा व जीवन्तता का परिचायक था। यह साक्षात्कार मेरे द्वारा उनकी मृत्यु से लगभग एक वर्ष पूर्व उनके नई टिहरी स्थित आवास पर लिया गया था।

शूरवीर रावत- आपके जन्म, जन्मस्थान और परिवार का संक्षिप्त विवरण?
मोहन लाल नेगी- मेरा जन्म ग्राम- बेलग्राम(नेग्याणा तोक), पट्टी- अठूर, टिहरी, टिहरी गढ़वाल में श्रीमती मायामती व श्री इन्द्र सिंह नेगी के घर बसन्त पंचमी, 23 जनवरी 1930 को हुआ। हम दो बहनें व चार भाई थे। मेरे पिता कृषि के साथ-साथ गांव के पास ही दुकानदारी करते थे और माँ एक गृहणी थी।

शूरवीर रावत- आपकी प्रारंभिक शिक्षा कहाँ हुई? छात्र जीवन में आप सबसे अधिक किस शिक्षक से प्रभावित हुए?
मोहन लाल नेगी- मुझे अक्षर ज्ञान घर में ही चौकले पर, जिसे ‘धुळेटु’ कहते थे, कराया गया और फिर स्लेट-खड़िया पर बारहखड़ी सीखी। खड़िया से बड़ी सुविधा होती थी लिखो और मिटा दो। स्कूल में दाखिले से पूर्व मैंने कभी कलम दवात के दर्शन नहीं किए। प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई इसलिए अंका-दोणा और छुट्टी के समय पहाड़े/कोठे (एक एकाम एक, एक दोणे दो..) बोलने का अवसर मुझे नहीं मिला। जिस कारण मैं गणित में कमजोर रहा, फलस्वरूप हाईस्कूल के बाद मैंने गणित विषय से पल्ला झाड़ दिया।
    घर में चौकले व स्लेट पर ही हिंदी व अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान प्राप्त करने के बाद मैं सीधे एकदम अंग्रेजी स्कूल यानि प्रताप हाई स्कूल में तीसरी क्लास में भर्ती हो गया। तीसरी से छठी कक्षा तक हम फर्श पर टाटपट्टी बिछाकर पढ़ते थे। सातवीं में ही कुर्सियों पर बैठने को मिलता था इसलिए जल्दी से जल्दी सातवीं कक्षा में पहुंचने को लालायित रहते थे, जिससे कुर्सी पर बैठ सके। तब टिहरी में दो स्कूल ही थे, एक हिंदी मीडियम का मिडिल ‘हेविट स्कूल’ जिसकी स्थापना हेविट नामक अंग्रेज ने की थी। हिन्दी मीडियम होने के कारण उसे हेविट पाठशाला भी कहते थे। उसके प्राचार्य पण्डित भोला दत्त शास्त्री थे, उनका लड़का जयकृष्ण था।
    बहुत कुछ बड़ों की संगति में सीखा। बड़े भाई साहब और दूसरे उनसे छोटे जो इंग्लिश टीचर थे, से सीखने को मिला। उनके सानिध्य में रहने के कारण मैंने स्कूल में दाखिले से पहले ही अंग्रेजी का बहुत कुछ ज्ञान हासिल कर लिया था। यही कारण था कि मैंने सातवीं कक्षा में ही बड़े भाई जगदीश्वर नेगी, जो उस समय मेरठ कॉलेज में पढ़ते थे, को अंग्रेजी में पत्र लिखा, जिससे वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने भी मुझे अंग्रेजी में ही उत्तर दिया।
    हमारे परिवार में अंग्रेजी पर लगभग सबकी अच्छी पकड़ रही, विशेषतः टिहरी के स्टैंडर्ड से। भाई श्यामचन्द नेगी ने इण्टरमीडिएट, बी.ए. व जेडी(डिप्लोमा इन जर्नलिज्म) इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया और तत्कालीन वायस चांसलर डॉ. अमरनाथ झा के वे चहेते विद्यार्थी थे। उनकी पुस्तक ‘English Pronounciation’ पर डॉ0 झा की संक्षिप्त भूमिका है। अंग्रेजी पर भाई श्यामचन्द नेगी की पकड़ देखकर महाराजा नरेंद्र शाह कहते थे कि ‘यै छोरा सणी इथगा सुंदर अंग्रेजी कखन औन्दि होलि?’ भाई श्यामचन्द जी ने सन् 1940-44 में अंग्रेजी में एक पुस्तक और लिखी Some Eminent Garhwalis जो अब उपलब्ध नहीं है। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और श्रीदेव सुमन तथा भैरव दत्त धूलिया (सम्पादक-कर्मभूमि) के साथ सेंट्रल जेल आगरा में भी रहे। देहरादून में पत्रकार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा थी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय अखबारों नेशनल हेराल्ड, इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स जैसे पत्रों में संवाददाता रहे। उनकी शागिर्दी में ही परिपूर्णानंद पैन्यूली जी ने पत्रकारिता में कदम रखा था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के रूप में भी भाई श्यामचंद अग्रणी  किन्तु कांग्रेस के पथभ्रष्ट होने के कारण उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का दामन थाम लिया और एक पार्टी प्रत्याशी के तौर पर उन्होंने राजमाता कमलेन्दुमति शाह और राजा मानवेंद्र शाह के विरुद्ध लोकसभा चुनाव भी लड़ा। देहरादून से गढ़वाली भाषा में उन्होंने एक अखबार भी निकाला जिसकी पहचान ‘टीर्याळी’ (टिहरी की) भाषा के लिए अधिक हुई।
    प्रताप हाई स्कूल में तीसरे दर्जे से हाईस्कूल तक की पढ़ाई होती थी। हाईस्कूल की परीक्षा का केंद्र श्रीनगर गढ़वाल रहता था। मेरे भाई जगदीश्वर नेगी ने श्रीनगर केन्द्र से ही हाईस्कूल परीक्षा पास की थी। उस वर्ष हाईस्कूल में छब्बीस विद्यार्थी थे जिनमें केवल आठ ही पास हो पाए, जिनमें भाई भी एक थे। भाई साहब ने इण्टर 1942 में डीएवी कॉलेज, देहरादून और बी.ए. और एल. एल. बी. मेरठ कॉलेज(आगरा यूनिवर्सिटी) से किया। डीएवी कॉलेज देहरादून में तब बी. ए. की कक्षाएं नहीं चलती थी।
     मेरे नौवीं तक पहुंचते-पहुंचते प्रताप हाईस्कूल अपग्रेड होकर प्रताप इण्टर कॉलेज हो गया था। मैंने हाईस्कूल सन 1948 और इण्टर 1950 में वहीं से किया और आगे की पढ़ाई बी.ए. व एल.एल.बी. डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून से। अर्थात मैंने अपने जीवनकाल में केवल दो ही विद्यालय देखे। डॉ0 महावीर प्रसाद गैरोला जी द्वारा प्रोत्साहित करने पर इण्टर कक्षा में मैंने एक विषय लॉजिक अर्थात तर्कशास्त्र लिया। वे शिक्षक थे और एकमात्र विद्यार्थी था मैं। डॉक्टर गैरोला, एम.ए.(दर्शनशास्त्र), एल.एल.बी., पी.एच.डी. व डी.लिट. की डिग्रीधारक थे। उनके पिता माया दत्त लाहोर में टिहरी के राजकुमारों अर्थात बालेन्दु शाह और शार्दुल विक्रम शाह के संरक्षक थे जिससे महावीर प्रसाद जी को भी उनके साथ वहाँ पढ़ने का मौका मिल गया। आगे की पढ़ाई उन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की। मुझे भी उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद जाने को कहा था। इलाहाबाद की पढ़ाई का स्तर निसंदेह अच्छा था, उसकी उपमा इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज से की जाती थी। पर मैं उच्च शिक्षा के लिए देहरादून ही गया और टिहरी के पास होने पर भी मुझे देहरादून में घर की बहुत याद सताती रही, जिससे वहीं पढ़ाई के चार साल निकालने मुश्किल हो गए थे। मैं बहुत भावुक जो था।
    प्रताप इण्टर कॉलेज, टिहरी के अध्यापकों मंे मैं सबसे अधिक जिनसे प्रभावित हुआ वे थे वाइस प्रिंसिपल जगदीश प्रसाद रस्तोगी, जिनके ससुर गंगा प्रसाद एक प्रतिष्ठित चीफ जज थे। रस्तोगी गुरूजी को जब हम प्रणाम करते तो वे दांत बाहर दिखाते हुए मुस्कुराकर प्रणाम स्वीकारते थे। एक और रस्तोगी गुरूजी थे जो बड़े परिश्रम और तन्मय होकर हमें भूगोल पढ़ाते थे। मुजफ्फरनगर के रहने वाले ब्रह्मदत्त शर्मा जी से भी मैं बड़ा प्रभावित था, वे बड़े परीश्रमी और एक आदर्श अध्यापक थे। गवर्नमेंट रॉबर्ट कॉलेज, लाहौर के पढ़े हुए भगवंत राय प्रिंसीपल- प्रताप इण्टर कॉलेज ने भी मुझे प्रभावित किया। भगवंत राय पंजाबी थे और बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। रॉबर्ट कॉलेज लाहौर में आज के दिन देहरादून के दून स्कूल की तरह अक्सर बड़े-बड़े बड़े घरों के लड़के ही पढ़ते थे, भगवंत राय भी वहीं पढ़े थे। अंग्रेजी पर उनकी पूरी पकड़ थी। उनका उच्चारण काबिले तारीफ था।
    डॉ0 महावीर प्रसाद गैरोला अंतरिम सरकार के समय प्रताप इण्टर कॉलेज में नियुक्त हुए थे, वे बड़ी मेहनत से पढ़ाते थे। पर कुछ समय बाद एक कम्युनिष्ठ होने के झूठे आरोप में मुरादाबाद स्थानांतरित कर दिए गए थे जिससे खिन्न होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और टिहरी कोर्ट में वकालत शुरु कर दी। छः महीने की ट्रेनिंग के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट से मुझे भी वकालत करने का सर्टिफिकेट इश्यू हो गया तो मैं भी टिहरी कोर्ट वकालत करने लगा। इस प्रकार डॉक्टर गैरोला का सानिध्य मुझे फिर से प्राप्त हुआ।

शूरवीर रावत-  रोजगार के लिए आपने वकालत पेशे को चुना। यह मात्र संयोग था या बैरिस्टर बनने की ठान रखी थी?
मोहन लाल नेगी- बड़े भाई जगदीश्वर सन् 1946 में लॉ करके टिहरी आ गए थे। ताऊ जी के लड़के भाई श्यामचंद जी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के कारण राजशाही के खिलाफ थे, जिससे भाई जगदीश्वर जी को भी टिहरी में वकालत का लाइसेंस मिलने में दिक्कत हुई। 14 जनवरी 1948 को सेना ने प्रजामंडल के आगे आत्मसमर्पण कर दिया, महाराजा नरेंद्र शाह को टिहरी पुल से ही वापस जाना पड़ा, रियासत पर महाराजा की पकड़ छूट गई और टिहरी राज्य शासन की बागडोर प्रजा के हाथ में आ गई। सन् 1949 में टिहरी राज्य का भी अन्य देसी रियासतों की भांति भारतीय गणराज्य में विलय हो गया। तत्पश्चात अंतरिम सरकार से ही भाई साहब को वकालत का लाइसेंस मिला पर इसी बीच अंतरिम सरकार से उन्हें परगना अधिकारी पद का नियुक्ति पत्र मिला पर वे योगदान देते इससे पहले ही कुछ विशिष्ठ लोगों के चलते उनके स्थान पर शंभूशरण जोशी को परगना अधिकारी नियुक्त कर दिया गया और भाई को डिस्ट्रिक इलेक्शन ऑफिसर पद पर नियुक्ति आदेश, जिसे अस्वीकार कर वे वकालात में आ गए।
    भाई वकील थे हीे मैं भी वकालत में आ गया। राजनीति व फिल्मों में जिस प्रकार परिवारवाद है ठीक वैसे ही मैं भी इस पेशे में आ गया। हमारे परिवार की ही नहीं यह परिपाटी टिहरी में अन्य परिवारों में भी चली आ रही है। वीरेन्द्र दत्त सकलानी जी के दादा और पिताश्री वकील थे। उनके छोटे भाई पूर्व विधायक लोकेन्द्र दत्त सकलानी व शैलेंद्र दत्त सकलानी और उन भाईयों के पुत्र भी जयेन्द्र दत्त सकलानी, भारत सकलानी आदि भी आज वकील पेशे में है। गढ़वाली मुहावरा है ‘जख अगलु गोरु बाट वखि पिछल्यु गोरु बाट’। नौकरी के लिए कोई भाग दौड़ मैंने नहीं की इसलिए भी। दूसरी बात यह कि वकालत पेशे की तब बहुत गरिमा थी जो धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है, व्यवसाय के उच्च मानदंड मिटते जा रहे हैं और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अब यह केवल रोजी-रोटी के व्यवसाय में तब्दील हो गया। वकील न्याय के मंदिर का पुजारी न होकर पैसा कमाने की मशीन बन गया है।
     यह बड़े गौरव की बात है कि टिहरी की न्यायिक प्रणाली बहुत उच्च कोटि की थी, वह ‘नेचुरल जस्टिस’ के सिद्धांतों पर आधारित थी। जिसका एक स्वर्णिम पहलू यह था कि वादीकारी को वकील रखने की अनुमति हाईकोर्ट से लेनी पड़ती थी। अनुमति तो मिल ही जाती थी, देखा केवल यह जाता था कि वादीकारियों में कोई स्त्री तो नहीं है। यदि उसका पक्ष रखने वाला कोई वकील है तो दूसरे पक्ष को भी वकील रखने की अनुमति मिल जाती थी। किन्तु यदि पहले पक्ष की तरफ से कोई वकील न हो तो दूसरे पक्ष को भी वकील रखने की अनुमति नहीं मिलती थी। यह उच्च कोटि के न्यायिक सिद्धांत पर आधारित नियम था। इलाहाबाद हाईकोर्ट और बाद में उत्तराखंड हाईकोर्ट से जितने भी जज लोग टिहरी आते थे तो उनके वेलकम ऐड्रेस में मैं टिहरी रियासत के उक्त ‘ Golden rule of the judicial system of the eastwhile Tehri Garhwal Estate*’ का जिक्र करना नहीं भूलता था और विजिटिंग जज प्रभावित हुए बिना न रहते।
    दूसरा गोल्डन रूल यह था कि एक कृषि प्रधान गरीब क्षेत्र होने के कारण टिहरी गढ़वाल के किसानों को अपनी भूमि बेचने पर प्रतिबंध था। ताकि वह पैसे के लालच में आकर भूमिहीन होकर भूखा न मरने पायेे। कृषि के अलावा जीवन यापन का अन्य साधन न होने से भूमि विक्रय पर पाबंदी लगा दी गई थी। केवल कुछ अपवाद स्वरूप नियम थे जैसे गरीब किसान को बच्चों के पालन-पोषण, कन्यादान व किसी अपने के अन्तिम संस्कार करने के लिए या फिर निसन्तान किसान को कुछ शर्तो के साथ भूमि विक्रय का अधिकार था।
    टिहरी का जूडिशियल सिस्टम उच्च कोटि का इसलिए भी माना जाता था कि टिहरी में इंग्लैंड की तरह हाईकोर्ट से भी ऊपर एक और शीर्ष कोर्ट थी, जिसे ‘प्रीवी काउंसिल’ कहते थे अर्थात ‘वन मैन प्रीवी काउंसिल’ थी। जिसके जज यूपी के तत्कालीन एडवोकेट जनरल डॉक्टर एन. पी. अस्थाना थे जो दो-दो, तीन-तीन महीने में टिहरी आकर हाईकोर्ट के फैसलों के विरुद्ध अपील सुनते थे। डॉक्टर अस्थाना के पुत्र के. बी. अस्थाना भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रहे। सन् 1976 में वह टिहरी की जिला जजी का उद्घाटन करने भी आए थे। एक शाम बैठक में मुझे भी सर्वानंद डोभाल, जो इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करते थे व एक-दो अन्य को साथ बैठने व बातें करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं तब उत्तरकाशी जिला का डी. जी. सी. (डिस्ट्रिक्ट गवर्नमेंट काउंसिल) था। श्री नरेंद्र नारायण चड्ढा टिहरी जिला जजशिप के प्रथम जिला जज थे उन्होंने 01 जनवरी 1975 को कार्यभार ग्रहण किया और अगस्त/सितंबर 1979 तक टिहरी में रहे। बाद में अपने पत्रों में उन्होंने टिहरी के वकीलों की भूरी-भूरी प्रशंसा की।
     टिहरी रियासत काल में वादीकारी भी एक से बढकर एक हुए, जिनमें विशेष उल्लेखनीय एक श्री राम का नाम आता है। हाईकोर्ट में उस समय घनश्याम दास चीफ जस्टिस थे और उनके साथ दो कनिष्ठ जज थे। उनमें एक शिव गोपाल माथुर और दूसरे मुकुन्दी लाल श्रीनगर गढ़वाल के थे। जब वादीकारी श्री राम अपने मुकदमे की बहस स्वयं करने लगा तो चीफ जस्टिस घनश्याम दास ने उसे कहा कि ‘श्री राम, हम तुम्हारी बात नहीं समझ रहे हैं, अतः तुम अपना वकील करो।’ इस पर श्री राम ने कहा ‘हुजूर, मैं तो आपकी बात खूब समझ रहा हूँ पर आप ही मेरी बात नहीं समझ रहे हैं, अतः वकील आप करो।’ यह सुनकर पूरा कोर्टरूम ठहाकों से गूंज उठा।
    बैरिस्टर मुकन्दी लाल विलायत रह चुके थे और वहाँ से एक मेम ब्याहकर लाए थे किन्तु बात हमेशा गढ़वाली में ही करते थे। अपना परिचय देते हुए कहते‘मैं मुकुंदी लाल छौं’। महाराजा नरेंद्रशाह उन्हें ‘मुकन्दी’ कहकर पुकारते थे। वह मेम ले आए थे अतः तब उनसे छूत मानते थे। दशहरों में महाराजा नरेंद्रशाह के टिहरी में रहने के दौरान प्रताप इण्टर कॉलेज ग्राउंड में फुटबॉल टूर्नामेंट्स का आयोजन होता था। राजा और अन्य विशिष्ट लोग कॉलेज की इमारत की छत पर बैठकर मैच देखते हुए चाय पानी पीते थे किन्तु बैरिस्टर मुकन्दी लाल अपनी मेम साहिबा के साथ थोड़ा हटकर लगी कुर्सी पर बैठे दिखाई देते।

शूरवीर रावत- एक वकील के तौर पर शोषितों व पीड़ितों की सहायता आप किस प्रकार करते हैं?
मोहन लाल नेगी- वकालत के व्यवसाय में शोषितों व पीड़ितों की सहायता के स्वरूप का जहाँ तक प्रश्न है उनकी सहायता या तो फीस कम लेकर की जा सकती है या उन्हें झूठे मुकदमों में न उलझने की सलाह देकर। वैसे मैंने दलितों और तथाकथित शोषितों को इस मामले में विकृत मानसिकता से अधिक ग्रस्त पाया है। प्रायः वे पड़ोसी या गांव के ही अन्य दीन हीन व्यक्ति से ही अधिक जलन व विद्वेष अधिक रखते हैं, उनसे लड़ते हैं और मर जाएंगे पर उनकी यह भावना कम नहीं होती। उनमें बदले की भावना सम्पन्न लोगों की अपेक्षा अधिक होती है। जहाँ तक जमीन जायदाद के झगड़ों की बात है तो प्रायः उनकी जमीन जायदाद नहीं ही होती है। भूस्वामी द्वारा खेत भी यदि किसी हलिया को हल लगाने के लिए दिया जाता है तो उसे उसकी सेवा के बदले मेहनताना दिया जाता है, खेत मालिक जब चाहे तब अपना खेत छुड़ा सकता है। इस व्यवहार को हम ‘खलूण्डा’ कहते हैं। यह बात गांव में अवश्य थी कि जिस दिन हलिया हल लगाने आता उस दिन का खाना उसे व उसके पूरे परिवार को मालिक के यहाँ से मिलता था।
    टिहरी बांध प्रभावित क्षेत्र में तो किसी के पास मिल्कियत के तौर पर एक छोटे से खेत का टुकड़ा भी रहा है तो बांध विस्थापित होने के नाते उसे भानियावाला अथवा अन्य पुनर्वास स्थल पर दो एकड़ भूमि आबंटित हुई और यदि दुर्भाग्य से भूमिधर की मृत्यु आबंटन से पहले हुई तो उसके प्रत्येक लड़के को भी दो-दो एकड़ भूमि आबंटित हुई। हमारे गांव के ही एक लोहार के पांच लड़के थेे जिससे उनके प्रत्येक लड़के को दो-दो एकड़ भूमि भानियावाला में आबंटित हुई। इतनी भूमि का स्वामी बन जाना प्रायः एक आम आदमी के लिए कल्पना से बाहर की बात है। परन्तु दुख इस बात का है कि बहुत से लोगों ने लालच में आकर सरकार से भूमि की कीमत नगद मांगी या फिर पुनर्वास स्थलों की भूमि औने-पौने दामों में बेचकर चार दिन में ही रुपये फूंक दिये। दुर्भाग्य से ऐसे लोगों में दलितों की संख्या ही अधिक है।  
    
शूरवीर रावत- वकालत पेशे में हर पेशेवर कानून की पेचीदगी में ही रात-दिन उलझा रहता है। पर आपने कानून की बारीकियों में रत रहने के बावजूद कहानी लेखन का क्षेत्र चुना?  
मोहन लाल नेगी- कहावत है ‘Law is a Jealous mistress, she demands an undivided loyality’ यह सही है कि वकालत के पेशे में जितनी मेहनत की जाए, कम ही है। वकीलांे के लिए और खासकर नए और नवयुवकों के लिए कहा गया है कि ‘Live like a hermit and work like a horse. Labour, labour and labour is a watch word for a lawyer’ शुरू-शुरू में काम जमाने के लिए और महारत हासिल करने के लिए परिश्रम और घोर परिश्रम तो वकालत के पेशे में परम आवश्यक है ही किंतु जब एक बार आपको कानून की बारीकियों का ज्ञान हो जाता है तो वकालत का मुश्किल से मुश्किल काम भी एक रूटीन वर्क हो जाता है और मुश्किल दिखने वाला मामला आसान हो जाता है। (वैसे यह बात हर पेशे पर लागू होती है।) जब कानून के सिद्धांतों पर आपकी पकड़ मजबूत हो जाए और आपकी डिलीवरी ऑपरेशन अच्छा है, फिर तो आप एक नजर में मामले को समझकर बिना तैयारी के भी धुआंधार बहस कर सकते हैं।
    एक बार का किस्सा बताते हैं कि कोर्ट में अन्तिम कार्यदिवस था और उसके बाद तीन महीने के लिए कोर्ट में छुट्टी थी। उस दिन अगर कोर्ट में बहस होकर 'Temporary Injection' मिल जाये तो तीन महीने तक आराम। कोर्ट का अन्तिम दिन और उसी दिन मामले में पेशी होनी थी। मामला तत्कालीन एडवोकेट जनरल के. एल. मिश्रा साहब को सौंपा गया वह भी ऐन मौके पर। उन्होंने कोर्ट की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मुकदमे के पन्ने पलटे और चले गए कोर्ट में बहस करने। कानून के सिद्धांतों पर उनकी मास्टरी थी और वाचाल शक्ति होने के कारण तीन घंटे की बहस के बाद उन्होंने न्यायालय से आदेश अपने हक में प्राप्त कर लिया।
    यह सही बात है कि वकालत के पेशे में रहकर आप अन्य काम नहीं कर सकते किन्तु अगर आपके पास समय है तो वकालत के अलावा अन्य काम जैसे लेखन या अन्य रूचि का काम बखूबी कर सकते हैं। कलाकृति में रुचि के कारण मैंने वकालत के दौरान ही लेखन और कलाकृतियां की। ‘जोनि पर छापु किलै’ की कहानियों के डायलॉग्स मैंने कोर्ट में ही मुकदमे के पुकारे जाने तक के ‘वेटिंग पीरियड’ में लिखें। यह तो आपके एटीट्यूड पर निर्भर है कि जब आप लिख रहे हैं तो मुकदमा भूल जाओ और जब मुकदमा कर रहे हो तो लिखना भूल जाओ। अंग्रेजी का प्रसिद्ध लेखक लॉर्ड बेकॉन तथा कवि व नाटककार विलियम शेक्सपियर वकील ही थे जो बाद में ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हुए। यह बात नहीं कि कानून की पेचीदकियों में उलझा एक वकील सफल लेखक नहीं हो सकता। रोमन इतिहास के पन्ने टटोलो, अनेक कानूनविद् व राजनीतिज्ञ साहित्य के उपासक हुए हैं।    
    आदमी के अन्दर अगर किसी काम करने की रुचि और प्रतिभा हो तो बहुत सारे रुचि के काम साथ-साथ हो सकते हैं और खासकर वकीलों को तो समाज के बहुत से कल्याणकारी कामों में रुचि लेने की सलाह दी गई है। मद्रास उच्च न्यायालय में वकालत कर चुके अति कुशाग्र बुद्धि संपन्न चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जिनसे मुंबई हाईकोर्ट के धाकड़ वकील मोहम्मद अली जिन्ना, जो पाकिस्तान के निर्माता कहे जाते हैं, भी कतराते थे। राजगोपालाचारी ‘रेजर शार्प इंटेलिजेंसी’ के धनी थे और उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल की बागडोर भी संभाली। उन्होंने रामायण और महाभारत को अंग्रेजी में इतनी सरल और सुगढ़ भाषा में लिखा कि हर कोई दंग रह जाता है, उनकी सूक्ष्म बुद्धि को नमन करने को जी चाहता है। ये लोग मार्गदर्शक हैं, जिनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

शूरवीर रावत-  कहानी लेखन के लिए आपके प्रेरणास्रोत कौन थे?
मोहन लाल नेगी- मैंने हिंदी में पहली कहानी ‘नौकर’ और दूसरी कहानी ‘टिहरी के घंटाघर की कहानी उसी की जुबानी’ लिखी, जिनका जिक्र मैंने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘यादों की गलियां’ में भी किया है। ‘घंटाघर की कहानी उसी की जुबानी’ जब स्थानीय पत्रों में छपी तो लोग बहुत प्रभावित हुए। उन दिनों मैं प्रेमचंद साहित्य खूब पढ़ रहा था इसलिए मैं तब महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद जी से प्रभावित था और फिर कृष्णचंद्र के साहित्य को पढ़ने का चस्का लगा। डॉक्टर गैरोला का कहना था कि ‘तुम सणि फिणौणु खूब ऑन्दु’ यानि लेखन में विस्तार देने की कला खूब आती है। कहानी हो या लेख, उसे विस्तार देने की यदि मेरे अन्दर कोई कला है तो वह कृष्णचंद्र से प्रभावित है। मेरे ऊपर कृष्णचंद्र का प्रभाव लम्बे समय तक रहा।
     डॉ0 महावीर प्रसाद गैरोला मेरे गुरू व भाई जगदीश्वर नेगी एडवोकेट के सहपाठी रह चुके थे और जब वे वकालत में आये तो हमपेशा होने से कोर्ट के अलावा उनके घर भी आना-जाना व उठना-बैठना होता था। वकालत के अलावा साहित्य चर्चा भी होती थी। उनकी सर्वप्रथम साहित्यिक रचना ‘खिचड़ी’ नामक पुस्तक थी जिसमें से उनके साहित्यकार होने की खुशबू आने लगी थी। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि डॉ0 गैरोला ही कहानी लेखन में मेरे प्रेरणास्रोत थे।
    
शूरवीर रावत- कहानी लेखन के लिए आपने गढ़वाली भाषा को चुना। जबकि आप उच्च शिक्षा प्राप्त थे और आपके लिए हिन्दी व अंग्रेजी में लिखना ज्यादा सरल व सहज होता।
मोहन लाल नेगी- गढ़वाली भाषा में लेखन की प्रेरणा मुझे डॉक्टर महावीर प्रसाद गैरोला से मिली जिसमें सफलता भी खूब मिली। हिंदी में मेरी शैली और शिल्प देखकर उन्होंने ही मुझे गढ़वाली में लिखने का सुझाव दिया, तब मैंने पहली गढ़वाली कहानी ‘थौळू’ लिखी। यह ‘मदननेगी के थौळू’ और  हमारे यहां के ‘बालसी का थौळू’ से प्रभावित थी। मुझे गढ़वाली भाषा में लेखन करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। पहली गढ़वाली कहानी होने के बावजूद भाषा-शिल्प पर पकड़ व सूक्ष्म वर्णन ने लोगों को बहुत प्रभावित किया और मुझे प्रोत्साहित। जिस कारण मैं एक के बाद दूसरी और होते-करते दस कहानियां लिख गया और दस कहानियों का एक संग्रह ‘जोनि पर छापु किलै’ प्रकाशित होने का मार्ग प्रशस्त हुआ। सन् 1985 में स्वर्गीय बुद्धिबल्लभ थपलियाल जी द्वारा स्थापित ‘जयश्री ट्रस्ट’ द्वारा आयोजित गढ़वाली व हिंदी भाषा में किए गए लेखन का वार्षिक मूल्यांकन किया जाने लगा। प्रथम वर्ष 1984/85 में अबोधबन्धु बहुगुणा को उनकी  रचना ‘भूम्याळ’ के लिए सम्मानित किया गया और उसके बाद मुझे ‘जोनि पर छापु किलै’ के लिए। सम्मान समारोह बड़ी-बड़ी हस्तियों की उपस्थिति में आलीशान ढंग से देहरादून टाउन हॉल में आयोजित किया गया। विस्तृत विवरण प्रमुख अखबारों में प्रकाशित होने के कारण लोगों को जानकारी मिली। इस विषय पर प्रसिद्ध साहित्यकार पुरुषोत्तम डोभाल जी ने जो लिखा वह मेरे दूसरे कहानी संग्रह ‘बुरांस की पीड़’ की भूमिका में समाहित है। डोभाल जी माने हुए साहित्यकार थे जिन्हें इंडियन एक्सप्रेस के द्वारा वर्ल्डस् आउटस्कर्ट स्टोरी राइटिंग में प्रथम स्थान मिला। उनका हिंदी पर अधिकार उनके द्वारा लिखी भूमिका से मालूम पड़ जाता है। ‘जोनि पर छापु किलै’ का सम्मान समारोह उन्हीं की अध्यक्षता में संपन्न हुआ था।
    मैं व्यवसायिक नहीं शौकिया लेखक रहा हूँ इसलिए मैंने अपने क्षेत्र को विस्तार नहीं दिया। हिंदी और अंग्रेजी में कदम नहीं रखा। वकालत पेशे पर ही रोजी-रोटी निर्भर थी, इसलिए मेरी रचनाएं एक लंबे अंतराल के बाद ही आती रही। पहला कहानी संग्रह ‘जोनि पर छापु किलै’ 1966-67 में, दूसरा संग्रह ‘बुरांस की पीड़’ 1985 में, गढ़वाली भाषा में उपन्यास ‘सुनैना’ 2012 में और संस्मरणात्मक पुस्तक ‘यादों की गलियां’ 2019 में।
    अपनी दोनों कहानी संग्रहों से दस कहानी छांटकर मैंने उनका अंग्रेजी अनुवाद किया जो Stories of the mid himalayas' पुस्तक रूप में दिल्ली, पहाड़गंज स्थित ‘समकालीन प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित की गई। दिल्ली साहित्य अकादमी ने उस पर अपनी समीक्षा भी दी, तत्पश्चात किसी और ने भी। जिसके सम्बन्ध में हैदराबाद के एक वकील का भी पत्र आया था। ‘स्टोरीज ऑफ द मिड हिमालयास’ की भूमिका प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक रस्किन बॉन्ड ने लिखी थी।
    गढ़वाल में साहित्य अभिरुचि कम होने के कारण पुस्तकों का अधिक प्रचार-प्रसार नहीं हो सका, फिर दुनिया बेईमान भी है। जहाँ पुस्तकें दी उनका पेमेंट ही नहीं हुआ। मामला हर तरफ से निराशाजनक है। अपना समय बर्बाद करो, पैसे लगाओ और हासिलपाई जीरो। बस, ‘देख तमाशा फंूक झोपड़ी’। सरकारी तंत्र स्वार्थी लोगों के हाथों की कठपुतली है, जो उसे नोच-नोच कर खा रहे हैं, संतोष केवल स्वांतः सुखाय का है। लिखने तक का संतोष है किंतु छपाना भी अपने ही पैसों से पड़े तो मामला चिंताजनक है। अधिकतर लोग फोकट में पुस्तक का आनंद उठाना चाहते हैं, जो सम्भव नहीं है।

शूरवीर रावत-  साहित्य क्षेत्र में सक्रिय होने के कारण आपके पेशे पर कोई प्रभाव पड़ा?
मोहन लाल नेगी- जैसा मैंने पहले कहा कि एक बार जब आप किसी क्षेत्र में महारत हासिल कर लेते हैं तो व्यवसाय एक रूटीन ऑर्डर हो जाता है और अपनी हॉबी को भी आप आराम से अपना सकते हैं। जब व्यवसाय की व्यस्तता अधिक हो तो दूसरे काम स्वतः ही सस्पेंडेड हो जाते हैं और यही कारण है कि मेरी एक पुस्तक से दूसरी पुस्तक के प्रकाशन के बीच का अंतराल काफी रहा जिससे मेरी रचनाओं की संख्या अधिक नहीं है। जो होल टाईम राइटर है और रहे हैं, उन्होंने दर्जनों कहानी संग्रह और उपन्यास लिखे हैं। मशहूर साहित्यकार रांघेय राघव मात्र 39 वर्ष तक जिये पर दर्जनों पुस्तकें लिखी। अल्पायु पाने के बावजूद और एक समर्पित लेखक होने के कारण जब तक जिए तब तक लिख सके।

शूरवीर रावत- आपके पहले कहानी संग्रह ‘जोनी पर छापु किलै’ को पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। इसी संग्रह से आपकी लोकप्रियता बढ़ी। पर दूसरे कहानी संग्रह ‘बुरांस की पीड़’ और उपन्यास ‘सुनैना’ को वह रिसपॉन्स नहीं मिल पाया?
मोहन लाल नेगी- गढ़वाल में पहले तो साहित्य प्रेमी और साहित्य अभिरुचि संपन्न लोग बहुत कम है। जयश्री ट्रस्ट द्वारा सम्मानित होने से पहले ‘जोनी पर छापु किलै’ बहुत कम लोगों ने पढ़ी थी और बहुत कम लोगों ने ही प्रशंसा की। केवल ऊँची अभिरुचि के लोग ही उसकी भाषा शिल्प और श्रम से प्रभावित हुए। उस पर पहली समीक्षा श्री लीलाधर जगूड़ी जी ने लिखी और तहे दिल से सराहना की। बाद में सन् 1985 में जब मुझे जयश्री ट्रस्ट द्वारा सम्मानित किया गया और अखबारों में उसकी खबर छपी तब लोगों ने उस पुस्तक की ढूंढ की। वैसे गढ़वाली लिखना इतना सरल भी नहीं है और जब तक आप भाषा के लिए समर्पित न हो तब तक उसकी सेवा नहीं हो सकती।

शूरवीर रावत- आपके समकालीन लेखकों में गढ़वाली भाषा के लेखक कौन-कौन हैं? गढ़वाली साहित्य का भविष्य आप किस रूप में देखते हैं?
मोहन लाल नेगी- गढ़वाली साहित्य के भविष्य के विषय में कहना कुछ मुश्किल है। पहले गढ़वाली का विकास इसलिए नहीं हुआ कि ‘पहले पेट पूजा तब काम दूजा’ से कृषि पर निर्भर थे। पर उस पर भी गुजारा न होने के कारण पहाड़ी लोग बाहर निकलकर छोटे-छोटे काम कर अपनी उदरपूर्ति करते थे। ऐसी परिस्थिति में भाषा की श्रीवृद्धि पर किसका ध्यान जाता। पहाड़ी लोग प्रायः हीनता की भावना से भी ग्रस्त रहे। बाहरी लोगों के सामने पहाड़ी होने में भी झेंप महसूस करते हैं, भाषा की उन्नति और उसके साहित्य पर केवल मुठ्ठी भर बुद्धिजीवी लोगों का ध्यान गया। रायबहादुर तारादत्त गैरोला की ‘सदेई’ एक विशिष्ठ कृति है, जिसमें मानव हृदय की संवेदनायें छलकती है। एक खुदेड़ बेटी ससुराल में रहकर मायके को याद करती है, अपनी विवशता व्यक्त करती है ‘घणी कुळायों छांटी ह्नावा, देखण बाबा जी को देश द्यावा’।
    उस काल में गढ़वाली भाषा को समर्पित कई महापुरुष हुए, टिहरी और गढ़वाल दोनों जगह। पौड़ी में आत्माराम गैरोला, भजन सिंह ‘सिंह’ कोटनाला, आदित्यराम दुदपड़ी, अबोधबन्धु बहुगुणा तथा गारी, म्वारी व ब्वारी कथासंग्रह के लेखक दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल आदि प्रमुख हैं। टिहरी में तारादत्त गैरोला, डॉ0 महावीर प्रसाद गैरोला, सत्यशरण रतूड़ी, चन्द्रमोहन रतूड़ी, योगेन्द्रपुरी आदि। यही नहीं मैं कह सकता हूँ कि टिहरी में गढ़वाली को आगे बढ़ाने में मेरे सहपाठी भाई बचन सिंह नेगी का कार्य उल्लेखनीय है, जिन्होंने कहानियां, कवितायें व उपन्यास सहित सत्रह पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने रामचरित मानस, महाभारत आदि ग्रन्थों का गढ़वाली रूपान्तर भी किया है।
    यह हर्ष का विषय है कि कुछ लोग आज भी गढ़वाली को समर्पित हैं। अखबार पढ़ो तो कुछ आशा बंधती है। कुछ लोगों के उत्साह और प्रयास से गढ़वाली भाषा के दीपक की लौ जलती रहेगी। लोगों में अपनी भाषा के प्रति प्रेम और श्रद्धा अभी भी बाकी है। निराशा तब होती है जब पलायन के कारण गांव के गांव खाली हो रहे हैं और उनके आचार-विचार आधुनिक चकाचौंध में विलुप्त होते जा रहे हैं। भाई नरेंद्र सिंह नेगी जैसे गढ़वाली भाषा के समर्पित कवि और गायकों से कुछ आस अवश्य बंधती नजर आती है। कुछ प्रेरणादायक समाचारों को यहां उद्धृत किया जा सकता है;
    - ‘गढ़वाल मंडल के स्वर्ण जयंती समारोह को आयुक्त श्री बी. बी. आर. पुरूषोत्तम गढ़वाली में सम्बोधित करेंगे।’ किसी भी सरकारी कार्यक्रम में गढ़वाली कहने वाले वे पहले गैर गढ़वाली अधिकारी होंगे।
    - ‘गढ़वाली गीतांजलि का हुआ विमोचन।’ रविंद्रनाथ टैगोर की विश्व प्रसिद्ध कृति गीतांजलि का गढ़वाली रूपांतर गढ़वाली साहित्यकार बिमल नेगी और महेशानंद ने किया।