Tuesday, July 23, 2013

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक - 1

(सन् 1985 में की गयी यह वह पहली यात्रा है जिसे मैंने लिपिबद्ध किया है 1988 में। जगहों और समाज को समझने की समझ तब नहीं थी। यह भी नहीं सोचा था कि कभी इस पर लिख पाऊंगा। फिर भी जैसे तैसे तैयार कर इसे अपने ब्लॉग के मित्रों के सामने रख रहा हूँ। यह यात्रा संस्मरण कई पत्रिकाओं में छप चुका है और अपनी पुस्तक ‘आवारा कदमों की बातें’ में भी इसे प्रकाशित कर चुका हूँ। आज लगभग तीस साल बाद जब समाज, परिस्थितियां पूरी तरह बदल गयी है तब इस लेख की प्रासंगिकता भी शायद न हो। फिर भी यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। पाठकों से निवेदन अवश्य करूंगा कि वे अपनी टिप्पणी अवश्य दें। )
        विविधता में एकता का रंग भरने वाले भारतवर्ष में संस्कृति के विभिन्न आयाम देखने को मिलते हैं। विभिन्न क्षेत्रों की विभिन्न संस्कृति। भिन्न जातियों की भिन्न भाषा। सांस्कृतिक धरातल पर आदिवासियों की एक अलग पहचान है। आदिवासी कहीं के भी हो किन्तु सबके रीति-रिवाज, त्यौहार, मान्यतायें, परम्परायें, गीत, संगीत हमें लुभाते हैं। विकास की ओर अग्रसर नई पीढी़ आज अपने रीति-रिवाज, अपनी भाषा, परम्परा एवं संस्कृति से उन्मुख होकर पाश्चात्य सभ्यता व भाषा संस्कृति की भोंडी नकल कर रही है। किन्तु आदिवासी समाज इस सांस्कृतिक क्षरण से थोड़ा-बहुत बचा हुआ है।  उत्तर में हिमालय व दक्षिण में शिवालिक श्रेणियों से आबद्ध, समृद्ध नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण, शान्त व सुन्दर परिवेश तथा मन मोहने वाले अनेक प्रकार के पेड़-पौधे व जीव जन्तु (Flora and Fauna) की भूमि और विभिन्न प्रकार की कथायें, लोककथायें, रहस्य रोमांच से पूर्ण दन्त कथायें और विविध संस्कृतियांे को समाहित करने वाले पूर्वोत्तर भारत की एक लघु यात्रा का विवरण है।
        ’सेवन सिस्टर्स’ नाम से लोकप्रिय पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों में असम के अतिरिक्त अन्य मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा व अरुणाचल प्रदेश राज्य हैं। असम (जो समतल नहीं है) के छोटे-छोटे पर्वतीय राज्यों में विभाजन के बाद आज केवल लगभग समतल भूभाग ही असम में रह गया है। अतः अब ‘‘असम‘‘ शब्द की प्रासंगिकता ही नहीं रही। (वैसे असम को ’असोम’ का अपभ्रंश भी माना जाता है और असोम नाम अहोम राजा द्वारा दिया गया था जब उन्होंने तेरहवीं शताब्दी में इस देश पर विजय पायी थी) बंगाल की खाड़ी से निकटता और वनाच्छादित हिमालयी क्षेत्र होने के कारण असम में शेष भारत की अपेक्षा वर्षा का औसत कहीं अधिक है। अप्रैल से अक्टूबर तक, लगभग छः माह चलने वाली वर्षा ऋतु असम में तबाही मचा देती है। विडम्बना है कि पूर्वोतर में विपुल जलराशि वाली ब्रह्मपुत्र व सहायक नदियां व्यर्थ बह रही है। न कोई जल विद्युत परियोजना है और न सिंचाई परियोजना। वर्षा की अधिकता के कारण पूर्वोत्तर राज्यों में सदैव सावन की सी हरियाली छायी रहती है और -
पतझड़ सावन बसन्त बहार,
एक बरस के मौसम चार, मौसम चार,
पाँचवां मौसम प्यार का इन्तजार का ..’‘
         की टेर लगाने वालों को यहां मायूस होना ही पड़ सकता है, यहां साल में दो ही मौसम होते हैं - वर्षा और शीत।
              औपनिवेशिक राज्यों का दोहन और उसे सैरगाह व ऐशगाह के रूप में देखने वाली ब्रिटिश सत्ता ने आदिवासी क्षेत्रों की घोर उपेक्षा ही की है। उपयुक्त जलवायु होने के कारण जहां असम और बंगाल के सैकड़ों चाय बगीचे अंग्रेजों की देन है वहीं ब्रिटिशराज में पूर्वोत्तर क्षेत्र का विकास शेष भारत की भांति नहीं हो पाया है। असम के जंगलों की उपयोगिता उनके लिये मात्र लकड़ी प्राप्ति और शिकार के लिए ही रही है। नेफा भी इससे अछूता नहीं रहा। (एक खूबसूरत हिल स्टेशन शिलॉगं को अंग्रेजों द्वारा अवश्य विकसित किया गया) आदिवासी क्षेत्रों में कबीलाई संस्कृति विकसित होती रही। अपने ही कबीलों तक सीमित रहना, अपने ही समाज के भीतर दैहिक व दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति आदिवासी समाज की विवशता भी रही है। जो कि उनके विकास में बाधक बनी है। स्वतंत्रता के बाद भी पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति कमोवेश वही रही, सिवाय यह कि जगह-जगह असम में स्थापित आरा मिलों के लिये जंगलों से ’कच्चा माल’ ढोया जाने लगा। उसके लिये ही सड़कों का निर्माण किया गया और प्रारम्भ हुयी विकास की प्रक्रिया।
           ’सेवन सिस्टर्म’में एक राज्य है अरुणाचल, अर्थात सूर्य का आंचल जहां सर्वप्रथम लहराता है। अरुणाचल का अस्तित्व हम तभी से मान सकते हैं जब चौदहवीं सदी के आरम्भ में असम पर अहोम राजा का साम्राज्य स्थापित हुआ। 1838 में अंग्रेजों ने असम को अपने आधिपत्य में लिया तो नेफा स्वतः इसके नियंत्रण में आ गया। लगभग अठ्ठासी हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में फैले प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर केन्द्र शासित अरुणाचल प्रदेश को यह नाम जनवरी 20, 1972 में मिला। इससे पूर्व यह 1948 से नेफा(North East Frontier Agency) नाम से जाना जाता था 21 जनवरी, 1972 को ही खासी, गारो व जयन्यिता हिल्स को मिलाकर मेघालय राज्य की स्थापना हुयी (जो कि इससे पूर्व 02 अप्रैल 1970 को एक स्वायत्त राज्य के रूप में घोषित हो चुका था) तथा ब्रिटिश सरकार के अधीन “लुसाई हिल्स” वाले जिले को 1954 में संसद की कार्यवाही के बाद “मिजो हिल्स” नाम दिया गया और 21, जनवरी 1972 को ही मिजोरम नाम देकर केन्द्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया। गढवाली कुमाउंनी गीतो में नेफा, लद्दाख जैसे दुरूह क्षेत्रों का वर्णन प्रायः विरह गीतों में आता है,
उड़ि जा ऐ घुघूती न्हैं जा लद्दाख,
हाल म्यारा बतै दिया मेरा स्वामी पास घुघूती. . .

      प्रेयसी अपने प्रिय के सकुशल लौटने की कामना करती है। ऐसा इसलिए भी कि गढ़वाल-कुमाऊँ में अधिकांश लोग सेना में होते हैं और नेफा व लद्दाख पहले से ही दुर्गम और बीहड़ क्षेत्र माने जाते रहे हैं। नेफा से लौटे हुये सैनिक भी संभवतः नेफा के भयानक जंगलों और खतरनाक कबीलों का वर्णन ही लोगों से करते रहे हैं। वहां की परम्पराओं, लोकजीवन, भाषा और संस्कृति का वर्णन कदाचित ही कोई करता हो। इसके पीछे शायद अपनी जीवटता का प्रदर्शन और अपने लिए सहानुभूति बटोरने की मानसिकता ही अधिक रहती हो।
     ’हिन्दी-चीनी भाई भाई’ और पंचशील समझौते को धत्ता बताते हुए चीन ने वर्ष 1962 में भारतवर्ष पर हमला कर दिया। चीन ने अपनी ताकत का अहसास कराकर हमारी सेनाओं को सैकड़ों मील पीछे धकेल दिया। केन्द्र सरकार का ध्यान भी तभी सामरिक महत्व के इन सीमान्त क्षेत्रों की ओर गया। केन्द्रशासित अरुणाचल प्रदेश गठन के उपरान्त पाँच जिले बने। पंच आब -पांच नदियों(रावी, ताप्ती, ब्यास, सतलज और चेनाब) की धरती को पंजाब नाम मिल गया किन्तु पांच प्रमुख नदियों के नाम से सृजित जिलों वाले नेफा को पंजाब जैसा नाम नहीं मिल पाया। ये जिले बने- कामेंग, सुबन्सिरी, सियागं, लोहित और तिराप। राज्य की राजधानी ईटानगर सुबन्सिरी में है तो राज्य का एकमात्र- जवाहर लाल नेहरू कालेज पासीघाट (सियांग जिला) में, जो कि चंढीगढ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है।
            दिल्ली से कानपुर, इलाहाबाद, मुगलसराय, पटना, भागलपुर, जलपाइगुड़ी, बंगाइगांव व रंगिया होते हुये ट्रेन से गोहाटी पहुंचते हैं। गोहाटी जो कि भौगोलिक रूप से असम का केन्द्र है एक पौराणिक नगर भी है। गोहाटी के निकट ही पश्चिम में ब्रहमपुत्र के बायें तट पर एक ऊँची पहाड़ी पर कामाख्या देवी का मन्दिर है। (कथा है कि भगवान शिव की पत्नी एवं हिमालय पुत्री सती के पित्रगृह में प्राण त्यागने के उपरान्त भगवान शिव क्रोधित हो उसके शव को अपने कन्धों पर रख ताण्डव करने लगे थे। तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि होने पर भगवान विष्णु ने यह सोचकर कि जब तक सती का शव शंकर के कन्धे पर रहेगा वे अपने को रोक नहीं पायेंगे। अतः उन्होंने सर्वप्रथम सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। जहां-जहां सती के अंग गिरे वहां-वहां आज शाक्त पीठ हैं। माना जाता है कि कामाख्या में भी देवी सती का ‘भग‘ गिरा था। कामाख्या मन्दिर में कुमारी पूजा का नियम है) प्रागज्योतिशपुर नाम से विख्यात इस गोहाटी को राजा नरकासुर द्वारा बसाये जाने का वर्णन पुराणों व महाकाव्यों में है। नरकासुर के पुत्र भागदत्त ने कौरवों की ओर से हाथियों की विशाल सेना सहित महाभारत युद्ध में भाग लिया था।
                                                                                              क्रमशः  -------------------------