Monday, March 19, 2018

बसन्त ऋतु के बहाने



  जब डाण्डी-काण्ठी में बर्फ पिघलने लगती, ठण्डी चुभती हवाओं से निजात मिलने लगती, घाटियों में फ्यूंली और खेतों में सरसों का पीलापन छा जाता और गुदड़ी में देर तक दुबकने की अपेक्षा मन बाहर भागने के लिये मचल उठता तब लगता था कि सचमुच बसन्त आ गया है। यह बचपन की बात है।  
    चैत की पहली सुबह मुहँ अन्धेरे ही आधी-अधूरी नींद की खुमारी में षाम को धो-धाकर रखी गयी फुलकण्डी (रिंगाल की बनी छोटी टोकरी) उठाते और चल पड़ते ताजे फूल चुनने। तब घर-घर षौचालय नहीं थे इसलिये गाड-गदेरे या नहर किनारे निवृत्त होकर फुर्ती से फूल चुनने लगते। फूलदेई का नियम है कि सूरज उगने से पहले ही फूल घर की देहरी पर डाले जायें। अपने घर में ही नहीं अपितु आस-पास के उन घरों की देहरियों पर भी जिन घरों में अकेले बुजुर्ग या केवल वयस्क रह रहे हों (रिष्ते निभाने के लिये कम लोभवष ज्यादा)। चैत्र मास के अन्त में अर्थात पापड़ी (बैषाख) सक्रान्ति को ऐसे घरों से आषीर्वाद के अतिरिक्त थोड़ी-बहुत नगदी जो मिल जाती थी।

    भिलंगना की उपत्यका में बसे मेरे गांव सान्दणा से टिहरी (अब जलमग्न) दो मील हवाई दूरी और लगभग ढाई सौ मीटर गहराई पर दक्षिण पष्चिम में है जबकि मेरी माँ का मायका कठूली लगभग एक मील हवाई दूरी पर ही उत्तर-पूर्व में सौ मीटर ऊँचाई पर स्थित है। चौथी-पांचवी कक्षा में चम्पाधार स्कूल जो कि मेरे गांव व कठूली के बीच था, में पढ़ाई की तो स्कूल से छुट्टी होने के बाद महीने में एक-दो बार मैं अपने सहपाठी कठूली के सयाणा मामा के बेटे बल्ली (बलवीर) के साथ ननिहाल चला जाता था। पांचवीं कक्षा में रहा हूँगा जब एक बार चैत षुरू होने से ठीक एक दिन पहले कठूली गया तो बल्ली ने कहा कि चलो एक घर बनाते हैं। घर या घरौन्दा बनाने के मूल में एक मन्दिर बनाने व प्रकृति पूजा का भाव रहता होगा षायद। मैंने झट से हाँ कर दी, इसलिये कि यह मेरे लिये नया अनुभव था, हमारे गांव में इस तरह के घरौन्दे बनाने की परम्परा जो नहीं थी। इस काम में मैंने बढ़-चढ़ कर उसका साथ दिया। मन्दिरों की आकृति का ठीक-ठाक ज्ञान न होने के कारण उसके घर के आंगन के एक कोने में हमसे जो बना वह आम घरों की भांति ही था- वही दो मंजिला घर। स्वयं हमने गोबर-मिट्टी से उस घर की लिपाई की और ढालदार छत के साथ प्रतीक रूप में सामने दरवाजे खिड़कियां भी बना दी। दूसरी सुबह चैत की पहली तारीख को हम दोनों ने सुबह चुनकर लाये गये ताजे फ्यूंली, लैण्टाना, ग्वीर्याळ, डैंकण आदि के फूलों से उस घराैंदे को सजाया और अनाम देवी/देवता की पूजा कर व आषीर्वाद लेकर स्कूल चले गये। उस चैत महीने में कम से कम पाँच-छः बार मैं स्कूल से सीधे कठूली गया, केवल इसलिये कि उस घर की देखभाल कर फूल चढ़ा सकूं और आषीर्वाद ले सकंू। सच कहूँ तो मन में कहीं यह आषंका भी थी कि ऐसा न हो कि घरौन्दा बनाने और पूजा करने का सारा प्रतिफल अकेले बलवीर को ही मिल जाय और मैं रीता ही रह जाऊँ।
(आज बलवीर हिन्दुस्तान के सबसे खूबसूरत शहर चण्डीगढ़ में बस गया है और मैं देहरादून वाला हो गया।)