Tuesday, June 28, 2011

अपना अपना दुःख

नारी तेरे कितने रूप  छाया:गूगल
मुझे तुम्हारे अपढ़ होने का दुःख हमेशा-हमेशा ही सालता रहा भाभी माँ
तुम्हारे मुखर व स्पष्टवादी होने की पीड़ा मै सदा ही भोगता रहा भाभी माँ

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
कुचल देती थी तुम अक्सर मेरी देर रात तक पढने की इच्छा को,कि   
जाना है सुबह खेतों में फसल बुवाई, रोपाई या कटाई, मंड़ाई को,
या फिर जंगल में घास, चारा, लकड़ी काटने या ढोर-डंगर चुगाने को ,    
और कभी रिश्ते की मामी,बुआ,चाची,ताई बुलाने जाने को ! मुझे तुम्हारे ....... 

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
किताबों से अधिक महत्व दिया तुमने लोहे-लकड़ी के कृषि औजारों को 
रिंगाल के सूप, टोकरों को या सन से बटी हुयी रस्सियों को, क्योंकि अक्सर 
कालेज से घर लौटकर रखे पाता मै औजार या टोकरे अपने बिस्तर पर, या
दाल, मिर्च, धनिया, मसाले रखे होते मेरी पढाई की मेज पर ! मुझे तुम्हारे ............

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
घर के छोटे से कोने में देवी-देवताओं की फोटुओं, मूर्तियों के बीच 
सजा रखी क्यों तुमने मेरे शहीद फौजी भाई की पुरानी तस्वीर 
और दीप, शंख, घंटी, नारियल के साथ जाने क्यों रखे हुए हैं 
कुलदेवता, भैरों, नरसिंग के नाम से पुड़ियों में कई-कई उठाणे ! मुझे तुम्हारे ............

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
अपनी तरह के स्पष्टवादी लोगों से क्यों करती हो नफरत, तभी तो  
बात-बेबात फूट पड़ती पणगोले सी किसी पर अकारण ही, और कभी 
हाथों में ज्यूंदाल लिए खड़ी नतमस्ता देवता-अदेवता के हुंकार पर
मांगती वरदान अपने-पराये और गाँव-कुनबों की राजी ख़ुशी का ! मुझे तुम्हारे .............






Wednesday, June 22, 2011

माधो सिंह भंडारी: एक शापित महानायक

मलेथा व अलकनंदा का विहंगम दृश्य               छाया: साभार गूगल
                ऐतिहासिक पुरुष वीर माधो सिंह भंडारी का नाम गढ़वाल के घर घर में आज भी श्रृद्धा व सम्मान के साथ लिया जाता है. महाराजा महीपति शाह के शासनकाल में प्रधान सेनापति रहते हुए उन्होंने अनेक लड़ाईयां लड़ी व गढ़वाल की सीमा पश्चिम में सतलज तक बढाई. गढ़वाल राज्य की राजधानी तब श्रीनगर (गढ़वाल) थी और  श्रीनगर के पश्चिम में लगभग पांच मील दूरी पर अलखनंदा नदी के दायें तट पर भंडारी का पैतृक गाँव मलेथा है. डाक्टर भक्तदर्शन के अनुसार "लगभग सन 1585 में जन्मे भंडारी सन 1635 में मात्र पचास वर्ष की आयु में छोटी चीन (वर्तमान हिमाचल)में वीरगति को प्राप्त हुए." उनके गाँव मलेथा में समतल भूमि प्रचुर थी किन्तु सिंचाई के साधन न होने के कारण मोटा अनाज उगाने के काम आती थी और अधिकांश भूमि बंजर ही पड़ी थी.  भूमि के उत्तर में निरर्थक बह रही चंद्रभागा का पानी वे मलेथा लाना चाहते थे किन्तु बीच में एक बड़ी पहाड़ी बाधा थी. उन्होंने लगभग 225फीट लम्बी, तीन फिट ऊंची व तीन फिट चौड़ी सुरंग बनवाई किन्तु पानी नहर में चढ़ा ही नहीं. किवदंती है कि एक रात देवी ने स्वप्न में भंडारी को कहा कि यदि वह नरबली दे तो पानी सुरंग पार कर सकता है. किसी अन्य के प्रस्तुत न होने पर उन्होंने अपने युवा पुत्र गजे सिंह की बलि दी और पानी मलेथा में पहुँच सका. मृत्यु के बाद गजे सिंह की आत्मा का प्रलाप निम्न कविता में अभिव्यक्त है.
भंडारी द्वारा निर्मित सुरंग                               छाया: साभार गूगल
तुम तो वनराज की उपाधि पा चुके पिता 
किन्तु मै तो मेमना ही साबित हुआ. 
लोकगीतों के पंखों पर बिठा दिया
तुम्हे जनपद के लोगों ने,
इतिहास में अंकित हो गयी तुम्हारी शौर्यगाथा.
और मै मात्र- एक निरीह पशु सा,
एक आज्ञाकारी पुत्र मात्र- त्रेता के राम सा.
छोड़ा जिसने राजसी ठाठबाट,
समस्त वैभव और सभी सुख.
और मैंने,
आहुति दे डाली जीवन की तुम्हारी इच्छा पर. 
मलेथा में माधो सिंह भंडारी स्मारक                 छाया: साभार गूगल
क्या राम की भांति
मेरा भी समग्र मूल्यांकन हो पायेगा?

ऐसी भी क्या विवशता थी पिता,
ऐसी भी क्या शीघ्रता थी 
मै राणीहाट से लौटा भी नहीं था कि
तुमने कर दिया मेरे जीवन का निर्णय.
सोचा नहीं तुमने कैसे सह पायेगी
यह मर्मान्तक पीड़ा, यह दुःख 
मेरी जननी, सद्ध्य ब्याहता पत्नी
और दुलारी बहना.
क्या कांपी नहीं होगी तुम्हारी रूह,
काँपे नहीं तुम्हारे हाथ 
मेरी गरदन पर धारदार हथियार से वार करते हुए,
ओ पिता,
मै तो एक आज्ञाकारी पुत्र का धर्म निभा रहा था 
किन्तु तुम, क्या वास्तव में मलेथा का विकास चाहते थे
या तुम्हे चाह थी मात्र जनपद के नायक बनने की ?

और यदि यह सच है तो पिता मै भी शाप देता हूँ कि
जिस भूमि के लिए मुझे मिटा दिया गया- उस भूमि पर
अन्न खूब उगे, फसलें लहलहाए किन्तु रसहीन, स्वाद हीन !
और पिता तुम, तुम्हारी शौर्यगाथाओं के साथ-
पुत्रहन्ता का यह कलंक तुम्हारे सिर, तुम्हारी छवि धूमिल करे !!



Monday, June 13, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 5

यात्रा संस्मरण  -  गतांक से आगे.... 
पञ्चतरणी का मनमोहक दृश्य 
पञ्चतरणी और अमरावती नदी का संगम
     पञ्चतरणी में रात लंगर छक कर टैंट में लौटे तो एक अधेड़ मराठी दम्पति उस टैंट की दूसरी चारपाइयों में लेटे थे. औरत कराह रही थी और पुरुष उसकी तीमारदारी में लगा था. ठेठ मराठी बोलने से पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया, फिर मालूम हुआ कि वे बालटाल से हेलीकाप्टर द्वारा अमरनाथ दर्शन को आये थे. पञ्चतरणी से पालकी द्वारा अमरनाथ दर्शन कर आये. परन्तु आने जाने में बुरी तरह भीग गए. हेलीकाप्टर से आये थे तो कपडे, बरसाती या रेन कोट साथ ले कर नहीं आये. परन्तु घाटी में कोहरा होने के कारण हेलीकाप्टर शाम को आया ही नहीं. फिर यशपाल ने अपने सूखे कपडे उस महिला को पहनने को दिए और टैंट में खाली पड़ी चारपाइयों की रजाईयां उसे ओढ़ाई गयी. तब कहीं उस महिला की कंपकंपी और कराहट बंद हुयी. पुरुष रात भर टूर पैकेज वाले व अपने गाइड को गाली देते रहे. सुबह विदा होते वक्त उनकी आँखों में आंसू छलक आये.
              अमरनाथ पहुँचने की उत्सुकता व उत्कंठा के चलते सुबह छ बजे ही पञ्चतरणी से चल पड़े. कुछ दूर पञ्चतरणी नदी के किनारे किनारे चल कर और फिर भैरों घाटी की एक मील की चढ़ाई पार कर समतल मार्ग आता है. पहाडी के साथ साथ चलते एक मोड़ पर दायी ओर देखते हैं तो अमरावती की सुरम्य घाटी दिखाई देती है और यहीं से श्रीअमरनाथ के प्रथम दर्शन होते हैं. बारिस नहीं थी. मौसम साफ, स्वच्छ, शांत, स्निग्ध था. थोडा रुकते हैं- अमरावती के उस पार मार्ग से बालटाल आने जाने वाले यात्रियों की भीड़ थी और नीचे पञ्चतरणी तथा अमरावती के संगम पर अभिभूत करने वाला सौन्दर्य. अमरावती के बाएं किनारे पर चलते आगे बढ़ते हैं. यात्रियों द्वारा 'बर्फानी बाबा की जय', 'बम बम भोले' तथा 'हर हर महादेव' की जय- जयकार पूरी घाटी को गूंजा रही थी. दर्शन की वह घड़ी अब आने ही वाली है. पांव स्वतः ही आगे बढ़ते प्रतीत होते हैं, लगता है जैसे कोई अदृश्य शक्ति हमें अपनी ओर आकृष्ट कर रही हो. अमरावती नदी के दर्शन कहीं कहीं ही हो रहे थे, शेष उसके ऊपर ग्लेशियर जमे पड़े थे. अब हम भी मार्ग छोड़कर नदी के ऊपर बर्फ पर चलना शुरू करते हैं. आगे गुफा से पहले घाटी में सैकड़ों टैंट लगे हुए थे. एक टैंट में अपने कुली के भरोसे सामान रखकर पंच्स्नानी के बाद प्रसाद लेते है. परन्तु यह क्या? कुली, घोड़े खच्चर, पालकी वाले तो मुस्लिम है ही किन्तु प्रसाद, बेलपत्री, फोटो आदि बेचने वाले भी मुस्लिम लोग. सांप्रदायिक सद्भाव का यह अद्भुत समन्वय है. और आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब ज्ञात हुआ कि आरती उतारने की जिम्मेदारी भी उसी मुसलमान गड़रिये बूटा मलिक के वंशज को है जिसने सैकड़ों वर्ष पहले इस गुफा की खोज की थी. आगे बढ़ते हुए ठीक उस स्थान पर पहुँचते हैं जहां से सर उठा कर देखें तो वह पवित्र गुफा दिखाई दे रही थी, बस, अब कुछ सीढ़ियों भर का फासला शेष था. सैकड़ों दर्शनार्थियों के साथ ढाई-तीन सौ सीढियां चढ़कर, भोले की जय जयकार करते हुए जैसे ही गुफा के द्वार पर पहुंचे तो मन अद्भुत आनंद से रोमांचित हो उठा. आँखों की कोरें भीग आयी. समुद्र तल से 13500 फिट ऊँचाई पर स्थित प्रकृति द्वारा निर्मित लगभग साठ फिट चौड़ी, तीस फिट गहरी और अठारह फिट ऊंची इस गुफा में न कोई मूर्ती है न कोई द्वार. है तो केवल बर्फ का एक शिवलिंग जिसका स्वतः निर्मित हो जाना ही अलौकिक शक्ति है. वर्षों से कल्पना में संजोये व इतने दिनों
अमरावती नदी के ऊपर खड़े साथी यशपाल रावत 
तक पल रही आस्था के चलते गुफा के सम्मुख चमत्कार से अभिभूत हो आश्चर्य व श्रृद्धावश सर चबूतरे पर रखना चाहा परन्तु ग्रिल की बाधा के कारण हाथ जोड़ कर ही रह गए. आँखे बंद करता हूँ तो भीतर अतल गहराइयों में परंपरागत शिव आरती की जगह गुरुवाणी गूँजती है; इक ओंकार सतनाम कर्ता पुरुख निर्भोग निर्भय अकाल मूरत अजोनी सैभंग ...........! गुफा में कबूतरों को देखना शुभ माना जाता है. हमें भी ऊपर जगह
अमरावती नदी पर टैंट व पार्श्व में अमरनाथ गुफा
तलाशते पंख फड फडाते चार कबूतर दिखाई दिए. जिस निर्जन स्थल में मीलों तक कोई आबादी नहीं वहां पर कबूतर, चमत्कार ही तो हैं. बर्फ का शिवलिंग अब मात्र दो ढाई फिट का ही रह गया था. (जबकि यात्रा प्रारंभ में यह सोलह फिट का तक होना बताया जाता है) प्रसाद चढाने के बाद लोग पिघलते हुए शिवलिंग का पानी घर के लिए बर्तनों में भर रहे थे. गुफा के दाहिनी ओर चट्टान का स्वरुप कुछ बुझे हुए चूने की भांति है, लोग भभूत के रूप में घर ले जाते हैं. घर से निकलते वक्त एक दो ने मुझे भी कहा कि वहां से भभूत जरूर ले
गुफा द्वार पर दर्शनार्थियों की भीड़            छाया:  साभार गूगल
आना. चट्टान की जड़ पर काफी बड़ा गड्ढा सा बन गया. गुफा को खतरा न हो इसलिए सेना ने कंटीले तार वहां पर डाल रखे थे, उसके बावजूद लोग खोदते जा रहे थे. एक जवान ने जब यह देखा तो एक लड़के पर बुरी तरह बिगड़ा, लहजा ठेठ हरियाणवी था " "अबे तू यहाँ अमरनाथ की गुफा खोदने आया क्या ?"
           अमरनाथ के विषय में एक कथा प्रचलित है ; एक बार पार्वती ने भगवान शंकर से जानना चाहा कि  संसार के सब प्राणी तथा पार्वती स्वयं भी जन्म मृत्यु से बंधे हैं तो भगवान शंकर क्यों नहीं. भगवान  ने कहा कि यह सब अमरकथा के कारण है. पार्वती ने सुनने की जिज्ञासा प्रकट की. निर्जन स्थल की तलाश में उन्होंने पार्वती सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया. अनंत नाग में उन्होंने अपने नागों को त्याग दिया, पहलगाम में नंदी बैल को (जिससे उसका नाम बैलगाम व तदनंतर पहलगाम पड़ा ), चन्दनबाड़ी में अपने माथे का चन्दन धोया, शेषनाग स्थल में गले में पड़े शेषनाग का त्याग किया, महागुनुष टॉप पर गणेश जी को बिठाया और पञ्चतरणी में पञ्च विकारों को त्याग दिया. फिर पार्वती के साथ तांडव नृत्य कर इस गुफा में मृगछाल बिछाकर बैठ गए. कथा सुनाने से पूर्व उन्होंने कालाग्नि को आदेशित किया कि वह गुफा के आसपास समस्त प्राणियों को भस्म कर दे जिससे कोई भी अमरकथा सुनकर अमर न हो जाय......... आदि आदि  (यह वृतांत बहुत लम्बा है और उम्मीद है कि सभी विद्वान ब्लोगर्स सुने या पढ़े ही होंगे)          
सिंध नदी तट पर बालटाल व पड़
      गुफा से नीचे उतरकर एक लंगर में खाकर वापस बालटाल के लिए चल पड़े. बराड़ी, दोमेल होते हुए यह चौदह किलोमीटर का यह मार्ग सुरक्षित नहीं है. नीचे उन्माद से परिपूर्ण विकराल रूप धारण किये सिन्धु नदी और ऊपर कच्ची पहाड़ियां. इस पहाड़ी से पत्थर गिर कर(विशेष कर बारिस में ) कब इहलीला समाप्त कर दे या पाँव फिसल कर नीचे नदी अपने आगोश में ले ले, सब भगवान भरोसे. 
     इस यात्रा के विषय में इतना अवश्य कहूँगा  कि केन्द्रीय सुरक्षा बलों का संरक्षण, हर पड़ाव पर चिकित्सा शिविर और जगह जगह लंगर न हो तो
बालटाल में हेलीपैड तथा  टैक्सी व बस स्टैंड
प्रति दिन औसतन पंद्रह हज़ार पहुँचने वाले यात्रियों के स्थान पर मात्र डेढ़ दो सौ लोग ही पहुँच पाए. पिट्ठू(कुली), पालकी वाले व घोड़े वालों के साथ यदि मिल बैठकर भाड़े की प्रीपेड की व्यवस्था लागू जा सके तो यात्री अपने को ज्यादा महफूज़ महसूस करेंगे. शेषनाग व पञ्चतरणी में शौचालय की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, जिससे टैंट के चारों ओर गन्दगी देखी जाती है. मुख्य यह है कि पूरे मार्ग पर यात्रियों द्वारा प्लास्टिक कचरा फैलाया जाता है, मानो हम लोग नरक को स्वर्ग तो नहीं बना सकते किन्तु स्वर्ग को नरक बनाने की काबिलियत तो हममे है ही.     
श्रीनगर में डल झील का अभिभूत करता सौन्दर्य 
      एक रात बालटाल में रूककर सोनमर्ग, गंदरबल, श्रीनगर, अनंतनाग होते हुए वापस जम्मू पहुँचते हैं.कश्मीर का सौन्दर्य निस्संदेह स्वर्गिक है. किसी कवि ने ठीक ही कहा है;
अगर फिरदेश बरा हाय ज़मी अस्थ,
हमी अस्थ, हमी अस्थ, हमी अस्थ, हमी अस्थ.
                                                                                                                              ........समाप्त........ 

Monday, June 06, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 4

यात्रा संस्मरण  -  गतांक से आगे....
शेषनाग का शांयकालीन  दृश्य
               शेषनाग पहलगाम के बाद पहला पड़ाव है. हालाँकि कुछ लोग पहलगाम की अपेक्षा चन्दनबाड़ी में रुकना पसन्द करते हैं. एक छोटे से समतल भूभाग पर बसा है यह पड़ाव, यहाँ पर पांच-छ हज़ार लोग एक साथ रुक सकते हैं. इसके पूरब में शेषनाग पर्वत, दक्षिण में उतनी ही ऊँचाई वाला एक दूसरी पहाड़ी. उत्तर में औसत चौड़ाई लिए हुए घाटी और दक्षिण में शेषनाग झील. प्रायः अमरनाथ जाने वाले यात्री ही यहाँ रुकते हैं वापसी में सभी का प्रयास रहता है कि पहलगाम में रुके. बच्चे, वृद्ध व शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों की मजबूरी रहती है. शेषनाग के विषय में एक कथा प्रचलित है कि; यहाँ पर्वत पर वायु रूप में एक अत्यंत बलशाली राक्षस रहता था, जो देवताओं को भांति-भांति के कष्ट पंहुचाता था. देवताओं ने भगवान विष्णु से विनती की, विष्णु ने शेषनाग को आज्ञा दी कि वह अपने हजारों मुखों से वायु को सोख ले. शेषनाग के साथ स्वयं विष्णु भी यहाँ पर प्रकट हुए. वायु के साथ शेषनाग ने उस राक्षस का भक्षण कर लिया. तब से इस पर्वत व झील का नाम शेषनाग पड़ गया. 
शेषनाग से गुफा की और आते यात्री
                         शेषनाग पहुँचने तक जहाँ मौसम साफ़ था वहीं अँधेरा होते-होते बारिस शुरू हो गयी, जो रात भर रुक-रुक कर होती रही. आगे प्रस्थान को लेकर सुबह देर तक अनिश्चितता बनी रही. सात गुणा आठ फीट के टैंट(बल्कि छोलदारी कहना उचित होगा) में बैठे-बैठे मन अकुलाने लगा. साढ़े नौ बजे सी. आर. पी. के लाउडस्पीकर द्वारा आगे मौसम खुला होने की सूचना मिली. अपने-अपने टैंट से यात्री निकलकर गेट के आगे से गुजरते हुए "बर्फानी बाबा की जय" "सी. आर. पी. की जय" कहने लगे, तो जवानों ने हाथ जोड़कर मना कर दिया कि केवल बाबा बर्फानी की जय कहिये, हम तो सेवक हैं. लंगर में हल्का नाश्ता लेकर कुली तय किया और चल पड़े मंजिल की ओर. आधा किलोमीटर नाले के किनारे-किनारे चल कर बर्फ का
महागुनुष टॉप से आगे बढ़ते यात्री 
बना पुल पार करने के बाद चढ़ाई शुरू होती है. सात-आठ माह यह क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है और पूरा वृक्ष विहीन 
है. बारिस के बाद भुरभुरी काली मिटटी वाला रास्ता अत्यंत फिसलन भरा हो जाता है. यात्री हाथ में पकड़ी छड़ी या जमीन में गड़े पत्थरों के सहारे आगे बढ़ते हैं. फिर भी कुछ लोग फिसलकर चोटिल हो रहे थे. तो कहीं बच्चे व युवा काफी नीचे तक फिसल कर ठहाका मार रहे थे. कहीं-कहीं पर सेना के जवान सहारा देकर यात्रियों को आगे बढ़ने का हौसला देते. यात्रा मार्ग के दोनों ओर पहाड़ियों की चोटी पर जगह-जगह पर तैनात जवान हाथ हिलाकर अभिवादन करते. मन में उन जवानों के प्रति आदर का भाव स्वाभाविक है कि हमारी निर्बाध यात्रा के लिए किन कठिन परिस्थितियों में ये घर परिवार से दूर एकाकी जीवन जी रहे हैं.
                        शेषनाग से मात्र तीन मील की दूरी पर इस पूरी यात्रा मार्ग का सबसे अधिक (14500 फीट) ऊँचाई वाला स्थल है एम.जी. टॉप अर्थात महागुनुष टॉप, जो महागणेश का अपभ्रन्श है. सेना के जवानो द्वारा यात्रियों को जलजीरा पिलाया जा रहा था और चलते रहने की विनती की जा रही थी, जिससे उन्हें ओक्सिजन की कमी से कोई तकलीफ न हो. इच्छा थी कि महागुनुष टॉप पर थोड़ी देर बैठकर नज़ारे देखते, फोटोग्राफी करते. परन्तु बारिस
और कुहरे ने हताश किया. हाँ, हवा काफी तेज थी. यहाँ से आगे का मार्ग उतराई वाला है. पाबिलाल में एक श्रृद्धालु द्वारा लंगर की व्यवस्था की गयी थी. बर्तन भांडे सभी बर्फ के ढेर के ऊपर रखे हुए थे, वे भी क्या करते चारों और बर्फ ही बर्फ. भीड़ अधिक थी, बिना कुछ लिए ही बर्फ पर चलते हुए आगे बढ़ जाते हैं. दो-ढाई बना पुल पार करने के बाद चढ़ाई शुरू होती है. सात-आठ माह यह क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है और पूरा वृक्ष विहीन किलोमीटर उतराई के बाद पोषपत्री पहुँचते हैं. शिव शक्ति दिल्ली द्वारा यहाँ एक विशाल लंगर का आयोजन
किया गया था. लंगर में भोजन के साथ लगभग सभी प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन. इस पैदल मार्ग पर यह अकेला विशाल लंगर है. सभी तृप्त होकर आगे बढ़ रहे थे. इस दुर्गम स्थल और मीलों लम्बे पैदल मार्ग पर घोड़े खच्चरों द्वारा इतनी अधिक व्यवस्था. ऐसे शिव भक्तों के प्रति श्रृद्धा स्वयमेव ही उमड़ पड़ती है, हजारों यात्री प्रतिदिन खा पीकर आगे बढ़ रहे हैं. क्या रिश्ता है
पोषपत्री में वर्णित लंगर का दृश्य
हमारा इनसे. अरे, हम तो शादी-व्याह में ही अपने सगे सम्बन्धियों को एक वक्त का खाना खिलाते हैं तो कापी लेकर न्योता लिखने बैठ जाते हैं. सोचकर ग्लानि हुयी.
           पोषपत्री से तीनेक (तथा शेषनाग से बारह) किलोमीटर दूरी पर कई जलधाराओं से युक्त एक समतल भूभाग दिखाई देता है, पञ्चतरणी. मान्यता है कि भगवान शंकर ने यहीं पर अपनी जटा जूट निचोड़ी थी जिससे पांच जलधाराएँ बहने लगी. पाँचों धाराएँ मिलकर पञ्चतरणी नदी बनाती है जो दो किलोमीटर आगे अमरनाथ से आने वाली अमरावती से मिलकर सिन्धु नदी बन जाती है. (ब्लोगर्स कृपया ध्यान दें, सिंध और सिन्धु दो अलग अलग नदियाँ है. सिंध नदी का उद्गम स्थल मानसरोवर झील है और सिन्धु का यह पञ्चतरणी क्षेत्र)  यहाँ पञ्चतरणी नदी के दायें तट पर एक हेलीपैड हैं, जो पहलगाम व बालटाल से हेलीकाप्टर सेवा से जुड़ा है और आगे गुफा तक छ किलोमीटर का रास्ता यात्री पैदल ही तय करते हैं.
दूर से पञ्च तरणी का मनमोहक दृश्य
          पञ्चतरणी में हजारों यात्री रुकने की व्यवस्था है. लंगर भी तीन-चार ठीकठाक हैं. लगातार होती बारिस और पहाड़ों से पिघलकर आती बर्फ से पानी ही पानी हो जाता है. इसलिए मुख्य जलधारा के अतिरिक्त जो हिस्सा सूखा होना चाहिए था वहां भी सूखा मार्ग नहीं मिलता है और हम पानी में ही चल कर छप-छप की आवाज के साथ पञ्चतरणी में प्रवेश करते हैं. ठौरठिकाना तलाशने के बाद सामान रखकर, यशपाल को आराम करता छोड़कर बाहर निकलता हूँ. सैटलाइट फोन के एस. टी. डी.  बूथ पर जाकर घर फोन करना चाहता हूँ परन्तु मिलता नहीं. फिर एक आरती में शामिल होता हूँ. बारिस थम गयी है किन्तु ठीक अँधेरा होने से पहले आकाश में काले बादल छाये देखकर चारों ओर ऊंची-ऊंची निर्जन व हिमाच्छादित पहाड़ियों से घिरी इस घाटी में मन अन्जान आशंका से व्याकुल हो उठता है. सोचने लगा ऐसा ही निर्जन व एकांत ने हिमालयी कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की कविताओं के लिए भाव भूमि का काम किया होगा; 'यम' शीर्षक कविता से ये पंक्तियाँ उनकी बानगी है -
कितना एकांत यहाँ पर है, मै इसी कुञ्ज में दूर्वा पर- लेटूंगा आज शांत होकर जीवन भर चल चल अब थककर ! 
ये पद लो गिरि पर सदा चढ़ें चोटी से घाटी में उतरे, ये पद अब विश्राम मांगते अब इस हरी-भरी धरती में आ !
अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी, छोटे से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी ! 
आँखों में सुख से पिघल पिघल ओंठों में स्मितियां भरता, मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुन्दर घाटी में भरता !
                                                                                                                           
                                                                                                                               शेष अंतिम अंक में .....