Tuesday, August 29, 2017

पलायन की पीड़ा

आज सुबह रेडियो पर एक गीत सुन रहा था। गीत का मुखड़ा है;
   ‘‘बूझ मेरा क्या नांम रे, नदी किनारे गांव रे।
  पीपल झूमे मोरे आंगना, ठण्डी-ठण्डी छांव रे।.........’’

     गीत गुरूदत्त के प्रोडक्शन में बनी, राजखोसला द्वारा निर्देशित और देव साहब, वहीदा रहमान व शकीला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘सी आई डी’ का है। यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखा गया, ओ. पी. नैयर साहब केे संगीत निर्देशन में तैयार किया गया है और सुरीली आवाज है शमशाद बेगम की। गीत भीतर तक झकझोर गया। हर शब्द मन में गहरे उतर गये। तपती दोपहरी में जैसे भटकती हुयी बदलियां बरस जाये। मन के किसी कोने फिर तो मिट्टी की सोंधी गंध, पीपल की ठण्डी बयार और नदी की कलकल ध्वनि का प्रभाव छाने लगा।     महानगरों में पली-बढ़ी युवा पीढ़ी इस गीत के मायने शायद ही जान पाये। युवा पीढ़ी ही क्यों   वे भी तो कहाँ जान पाते हैं जोे गांव के होते हुये भी गांव का सुख नहीं उठा पाये। और जो हम इस गीत का अर्थ जान पा रहे हैं, समझ रहे हैं वे भी तो मन मसोस कर रह रहे हैं। जी चाहता है सारे बन्धन तोड़कर लौट जायें अपने गांव। शहर की छाया से दूर, शहरी व्याधियों से मुक्त अपने गांव। वहाँ जहाँ बस गांव हो, खेत-खलिहान हो, पानी से भरी नहरें हों, चारों ओर हरियाली हो, खेतों में खुशहाली हो, पक्षियों का कोलाहल हो, बहते झरने हों और अपने लोग हों। बस।
    परन्तु दूसरे ही पल सोचता हूँ क्या सचमुच हम गांव में रह सकेेंगे। गांव में रहने लायक साहस जुटा सकेंगे कभी। नहीं शायद। सच! सुविधाओं के किस कदर दास बन गये हम। कितने लाचार हैं हम। कितने बेवश। बहुत सुविधाभोगी भी तो जो हो गये हैं हम। काश !!...........

Friday, August 18, 2017

अद्भुत-अनोखी है अनुगूंज हमारे ढोल की

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ढोल पूड़ बैठ्यां तेरा सुर्ज चन्दरमा। कुण्डली मां नागदेव, कन्दोटी ब्रह्मा।
कन्दोटी ब्रह्मा, डोरी गणेश कु वास।। चार दिना कि चान्दना ....       भाई नरेन्द्र सिंह नेगी जी की आवाज में ‘सुरमा सरेला’ का यह गीत तो सबने सुना होगा। ढोल दमाऊं गढ़वाल, कुमाऊँ ही नहीं अपितु जौनसार, हिमाचल व जम्मू आदि हिमालयी क्षेत्रों का प्रमुख वाद्ययंत्र है। ढोल क्या है, इसकी उत्पति कैसे हुयी इसका विषद वर्णन ‘ढोलसागर’ में वर्णित है। 
 ढोलसागर शिव-पार्वती संवाद के रूप में लिखा गया ग्रन्थ है। माना जाता है कि ढोलसागर ग्रन्थ ‘शंकर वेदान्त’ अर्थात ‘शब्द सागर’ का छोटा रूप है। ढोलसागर के प्रथम भाग को ‘जोगेश्वरी ढोलसागर’ कहा जाता है जिसमें सृष्टि की उत्पति के बारे में है। नाथपन्थ का इस भाग पर पूरा प्रभाव माना जाता है। ग्रन्थ के दूसरे भाग में ढोल का वर्णन, उसकी उत्पति तथा उसके बजाने की कला का सुन्दर वर्णन है। इसे ‘चिष्टकला ढोलसागर’ कहा जाता है। ढोलसागर ताल संबन्धी ग्रन्थ भी है और ताल का प्रणेता शिव को माना गया है। ताल का अर्थ शिवशक्ति (ता-शिव तथा ल-शक्ति) माना जाता है, इसलिये शिव-शक्ति को ढोल की आत्मा स्वीकारा गया है। आदि ढोल का नाम इसलिये ‘शिवजन्ती’ भी कहा गया है।
Image may contain: 2 people, people standing देवताओं का आह्वाहन और उन्हें अवतरित करने मंे सिद्धहस्त होने के कारण ही आवजियों को ‘देवदास’ कहा जाता है और ढोलसागर का ज्ञाता होने के कारण ‘सरस्वति पुत्र’ भी। .... जीवनस्तर सुधारने व विकास के नाम पर आज पलायन पूरे देश ही नहीं अपितु पूरे विश्व के सभी समाजों में व सभी स्तर पर हो रहा है। ऐसे में संक्रमण के इस दौर में आवजियों/बाजगियों द्वारा भी उन्नत जीवनयापन के लिये या अन्य कारणो से अपने पेशे से मुहँ मोड़ लेने के कारण पर्वतीय समाज में एक प्रकार की सांस्कृतिक शून्यता सी आ गयी है।
भारतीय संगीत शास्त्र में समय व मौसम के अनुसार रागों का वर्णन है। उसी प्रकार ढोलसागर में भी समय, मौसम तथा परिस्थितियों के लिये अलग-अलग तालों का वर्णन है। आवजियों द्वारा मुख्यतः बढ़ै या बढ़ई, धुयेंळ या धुयांळ, शब्द या शबद, रहमानी अर्थात अभियान और नौबत ताल ही बजाये जाते हैं। परन्तु परिस्थिति विशेष के अनुसार वे अन्य ताल भी उतनी ही शिद्दत से बजा सकते हैं। आवजी/बाजगी के पास ज्ञान का अनन्त भण्डार माना जाता है, उनको सरस्वति पुत्र कहने के पीछे भी तर्क यही है। क्योंकि लौकिक अलौकिक ही नहीं उससे परे भी जो है, उन पर आवजी की पकड़ मानी जाती है।
दो वर्ष पहले माननीय हरीश रावत जी की सरकार में संस्कृति विभाग के सौजन्य से देहरादून में आयोजित ‘झुमैलो’ कार्यक्रम यादगार बन गया था और आज माननीय सतपाल महाराज जी के प्रयास से संस्कृति विभाग द्वारा ही गंगाद्वार अर्थात हरद्वार में ‘उत्तराखण्ड की लोक परम्परा में आदि नाद ढोल-दमाउं’ अर्थात ‘नमोनाद’ का आयोजन किया गया। इसके लिये महाराज जी व संस्कृति निदेशालय, उत्तराखण्ड को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया ही जाना चाहिये। महाराज जी के प्रेमनगर आश्रम के ‘गोवर्धन हॉल’ में उत्तराखण्ड के विभिन्न जनपदों से आये हुये एक साथ बारह सौ से अधिक ढोलियों को देखना और सुनना अविस्मरणीय अनुभव है। इसकी अनुगूंज उत्तराखण्ड के वायुमण्डल में लम्बे समय तक रहेगी। उनका यह प्रयास निस्सन्देह ढोलियों के बीच सामुहिकता व सामुदायिकता की भावना को अंकुरित करेगा ही साथ ही उन्हें इस आयोजन द्वारा अपने को आंकने/परखने का मौका मिला है जिससे वे अपनी इस कला को और भी निखारेंगे। सोने को निरन्तर तपाकर निखारने की कला में सिद्धहस्त भाई प्रीतम भरतवाण और सबसे संवाद व इतनी अधिक लोगों के लिये व्यवस्था बनाये रखने के लिये हमें भाई बलराज नेगी जी का भी आभार करना नहीं भूलना चाहिये।