Tuesday, May 13, 2014

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक (3)


पिछले अंक से जारी..........
शिवालिक पहाड़ियों की गोद में
        नहरकटिया में बस पकड़कर हम आगे बढ़े, दक्षिण में अरुणाचल की ओर। दस बारह  कि0मी0 के बाद ही शिवालिक पहाड़ियां प्रारम्भ होती है। सीमान्त राज्य होने के कारण अरुणाचल, नागालैण्ड आदि राज्यों की सीमा में प्रवेश के लिए इनर लाईन कार्ड/परमिट होना नितान्त आवश्यक है। हुकुनजुरी चेकपोस्ट पर चेकिंग से गुजरने के बाद बोगापानी और बरदूरिया जैसे छोटे-छोटे पड़ाव पार कर पैंतीस-चालीस कि0मी0 निरन्तर हल्की चढ़ाई चढ़ते हुये हम पहुँचते हैं तीन हजार फीट ऊँचाई पर बसे हुए तिराप के मुख्यालय खोन्सा में। सहयात्री बताते हैं कि देवमाली, हुकुनजुरी व बरदूरिया क्षेत्र में सर्दियों में प्रायः दिन में भी हाथी सड़क पर आ जाते हैं जिससे घण्टों तक जाम लग जाता है। वन बहुल्य  क्षेत्र होने के कारण असम व अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में जंगली हाथियों की संख्या काफी अधिक है। इसलिये हाथी को यहां "डांगरिया" रूप में पूजा जाता है। (डांगरिया डांगर शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बड़ा, पूज्य अर्थात शिव ) इसीलिये प्रायः जंगली भूभाग पर कोई काम प्रारम्भ करने से पूर्व पेड़ की आड़ में प्रतीक रूप में छोटा सा डांगरिया मन्दिर बनाया जाता है और वहां पर पूजा -हवन किया जाता है। दक्षिण से उत्तर की ओर ढलान लिए खोन्सा की बनावट नरेन्द्रनगर, टिहरी गढवाल से मिलती-जुलती है। आबादी का घनत्व अत्यधिक कम और धारा 371 के लागू रहने के कारण सड़कें सूनी और गांव दूर-दूर हैं। जिला मुख्यालयों में भी कम ही है। खोन्सा में लगभग सभी विभागों के जिला कार्यालय, हायर सेकेण्ड्री स्कूल, श्री मां शारदा मिशन हायर सेकेण्ड्री (गर्ल्स), सी0आर0पी0 का बटालियन हेडक्वार्टर, एक सिनेमाहाल, जिला पुस्तकालय व एक बाजार है। अरुणाचल में जगह-जगह थाने तो खुल गये हैं किन्तु सीमान्त राज्य होने के कारण असम-अरुणाचल सीमा व चौकियों पर सी0आर0पी0 ही तैनात है। जनपद तिराप में वांग्चू, नोक्टे और तंग्छा तीन मुख्य जनजातियों के अतिरिक्त सिंग्फू आदि जातियां है। सबकी अलग बोलियां है, जो वे आपस में भी नहीं समझ पाते हैं और संवाद बनाने के लिये उन्हें भी असमिया या हिन्दी का ही सहारा रहता है।
खोंसा क्लब और दूर पहाड़ियों पर श्री माँ शारदा स्कूल
         प्रशासनिक दृष्टि से तिराप दस सर्किल में बंटा हुआ है। भूमि का बन्दोबस्त न होने के कारण अरुणाचल में अभी तक तहसीलों का गठन नहीं हुआ है। बस, एक सर्किल आफिसर ही सर्किल की सभी शक्तियां रखता है। राजनीतिक मानचित्र के अनुसार छः विधान सभा सीट वाला तिराप ’’अरुणाचल-ईस्ट’’ लोकसभा क्षेत्र के अन्तर्गत है। प्राकृतिक छटा के साथ-साथ दर्शनीय स्थलों में बौद्ध शैली में बना एक गोम्पा मन्दिर व श्री माँ शारदा मिशन का भव्य भवन है।
जिन्दादिल वांग्चुओं की धरती पर
              दूसरी सुबह खोन्सा से पश्चिम में लांगडिंग की ओर बढते हैं, पैंतीस-चालीस कि0मी0 बाद बरसाती नदी टंगसा पड़ती है। जो पंग्चाव की पहाड़ियों से निकलकर  पश्चिम-पूरब और फिर उत्तर को बहती हुयी नाकफन नदी में समाहित हो जाती है। (देहरादून की दो टोंस नदियों - हर की दून उदगम वाली तथा दूसरी मसूरी की पहाड़ियों से निकलने वाली, का पौराणिक नाम भी टंगसा/तमसा ही है)। टंगसा से पहले ही एक सड़क बारह-चौदह कि0मी0 पर बसे सीमान्त क्षेत्र वाक्का को चली जाती है। वाक्का के आसपास दालचीनी के पेड़ बहुतायत में है। चौड़ी घाटी वाले इस क्षेत्र में थोड़ी मेहनत की जाये तो खेती की अच्छी संभावना है। किसी विभाग में कार्यरत एक असमियां युवा अनूप गोहाईं से भेंट होती है। टूटी फूटी हिन्दी में वह हमारा मार्गदर्शन करता है और आगे बढकर अपनी धुन में मस्त होकर गाना शुरु करता है- 
’’धुनिया धुनिया सैंतोली, धुनिया धुनिया सैंतोली..........’’  
           टंगसा पार कर हम वांग्चू जनजातीय क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और दस-बारह कि0मी0 बाद ही पहंुचते हैं लॉगंडिगं कस्बे में। रास्ते में सेनुआ नामक जगह पर भूमि संरक्षण विभाग का प्रशिक्षण केन्द्र हैं। खोन्सा के आसपास जहां घने बांस के जंगल हैं वहीं लॉगंडिंग कस्बा कछुए की आकृति वाले पहाड़ी की ढलान पर बसा हुआ है और आसपास गांव होने के कारण इसका सौन्दर्य भी आकर्षित करता हैं। लॉगंडिंग के निकट एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर देखते हैं तो दक्षिण में भारत-बर्मा की सीमा पर शिवालिक पहाड़ियां और सुदूर उत्तर में असम के मैदान और असम के पास अरुणाचल में उच्च हिमालय। जगह-जगह तेल के कुओं से रिसने वाली गैस जल रही है। रात को ऐसा प्रतीत होता है मानो सैकड़ों लोग हाथों में मशाल लिये ‘’रगांली बिहू’’ का आनन्द ले रहे हों।
         पूर्वोत्तरवासियों की बनावट व कद-काठी जहाँ मंगोलों से मिलती है वहीं वांग्चू लोगों की मुखाकृति मंगोलों की भांति तो है किन्तु आकार में वे प्रायः लम्बे-चौडे़ होतहैं। कमर में छोटी लंगोट बांधे, काले दाँत और हाथ में दाव (पाठल) लिये कभी कोई वांग्चू एकाएक मिले तो शरीर ंिसंहर जाता है। बलिष्ठ भुजायें और पुष्ट जंघायें उनकी ताकत का अहसास कराये बिना नहीं रहती। (अरुणाचल की कुछ जनजातियों में सफेद-साफ दाँत अच्छे नहीं माने जाते। इसलिये वे जंगली पेड़ की छाल दांतों पर रगड़ कर दाँत काले करते है) शाम को निकट स्थित जेडुआ के गांवबूढ़ा श्री आबू वांग्चू के यहां से निमत्रंण मिलता है तो मैं और गुनिन गोगोई चले जाते हैं। गांव तक सड़क है। कमर में लंगोट व लंगोट में खुंसी दाव तथा बाहर से मेहरून रंग के कोट पहने लगभग साठ वर्षीय गांवबूढ़ा की दो-ढाई हजार फीट कवर्ड एरिया लिये बांस व टोको पात से बनी हवेली गांव के शुरू में ही है। मेहरून रंग के कोट पहनने का अघिकार केवल गांव बूढा को ही होता है। (फर्न परिवार के ’टोको’ पौधे के पत्ते, आकार में पपीते के पत्तों की भांति किन्तु काफी मोटे व बड़े होते हैं। स्थानीय लोग टोको पात का प्रयोग छाते के रूप में भी करते हैं) प्रवेश द्वार पर मिथुनों के दो बड़े-बड़े सिर स्वागत करते हैं। भीतर बढ़ते हैं तो फर्श न सीमेण्ट का है न मिट्टी का, बल्कि लकड़ियों की बल्लियों पर टिका हुआ बांस की चटाई का है। चटाईयों का ही पार्टीशन देकर कई कमरे बनाये गये थे, सभी सदस्यों के लिये अलग-अलग कमरे। बैठक की दीवार पर गांवबूढा की राज्य के मुख्यमंत्री माननीय श्री गेगोंग अपांग, स्व0 प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी व अन्य राजनीतिक हस्तियों के साथ खिंची तस्वीरें टंगी थी। घर के बीच में चटाई के ऊपर थोड़ी मिट्टी बिछाकर उस पर जांती रखी हुयी थी और जांती पर ही खाना पक रहा था। एल्मुनियम की बाहर-भीतर पूरी तरह काली पड़ चुकी डेगची पर भात बन रहा था और वैसी ही दूसरी पर बिना तेल, हल्दी व मसाले का मुर्गा। गांवबूढ़ा बताता है कि वे लोग तेल, मसाला नहीं खाते हैं और न ही चाय पीते हैं। घर में प्रवेश करने से लेकर रात सोने तक वे चावल की बनी हुयी शराब लावपानी अवश्य पिलाते रहते हैं जब तक कि पीने वाला ही मना न कर दे।  चावल की बनी इस शराब का स्वाद कुछ-कुछ ताजी व गाढी मठ्ठा की तरह था। गांवबूढ़ा के घर में न रजाई है, न बिस्तर और न तकिया। सोचता हूँ कि जब गांव में सम्पन्न माने जाने वाले इस व्यक्ति के ये हाल हैं तो सामान्यजन के कैसे होंगे? लकड़ी का टुकड़ा सिरहाने रखकर जांती के आसपास ही पसर जाते हैं। कुछ जांती के नीचे राख में दबी आग की गरमी और कुछ लावपानी का नशा कि घण्टे-डेढ घण्टे करवटें बदलने के बाद नंगी चटाई पर नींद आ ही जाती है। सुबह जागकर चाय पीने की बड़ी तीव्र इच्छा होती है किन्तु गांवबूढ़ा असमर्थता व्यक्त करता है। दिशा-शौच के लिये पानी की बोतल आदि खोजता हूँ तो गांवबूढ़ा हँसकर मना कर देता है, कहता है ’’अजी! हम लोग कहाँ पानी इस्तेमाल करते हैं।’’
            सुबह मैं गांवबूढा, उनके दो सहयोगी तथा ग्रामीण निर्माण विभाग के जे0ई0 गुनिन गोगोई व मैं दो-तीन कि0मी0 उतरकर खेतों में गये। सहयोगी के कन्धे पर झोला लटका था और हाथ में कभी न धुली गयी एक अल्मुनियम की डेगची व जांती। एक गदेरे में प्रस्तावित नहर हेतु दो घण्टे चली नाप-जोख के बाद खेत के किनारे बैठ गये। इतने में सहयोगियों द्वारा बिना तेल मसाले का मुर्गा बना दिया गया था और चावल पकाना शेष था। वे ढाई-तीन इंच व्यास का लम्बा कच्चा बांस काटकर लाये थे, फटाफट एक-एक फिट के आठ दस ठूंगे (कलमनुमा टुकड़े)े किये, उनमें पानी भरा और चौड़े पत्तों में चावल बांधकर ठूंगे मे रखते गये, फिर ठूंगे जलती आग में पत्थरों के सहारे खड़े कर कुछ देर पकने दिया गया। बड़म-बड़म कर बांस फूटने लगे तो उन्हे आग से हटाकर ठूंगे फाड़कर चावल की पोटली बाहर निकाली। चावल पक चुका था, फिर मुर्गे के साथ वह चावल खाया तो उसका स्वाद वर्षों बाद आज भी जीभ पर है।  
 अरुणाचल, नागालैण्ड और बर्मा सीमा पर
          लांगडिंग से पंग्चाव के लिये कच्ची सड़क तो है किन्तु सार्वजनिक परिवहन नहीं। सुबह लॉगंडिंग से चलकर लगभग चौदह कि0मी0 दूर मिण्टोगं गांव पहुँचते हैं। रास्ते में गावं इक्का दुक्का हीे है, एक जगह आर्मी का कम्पनी हेडक्वार्टर है। मिण्टोंग में राजस्थानी मूल के युवा दुकानदार भवंर सिंह को स्थानीय वांग्चू से उलझते और उसी की बोली में बात करते देखा तो लगा कि आदमी प्रयास करने से काफी कुछ सीख सकता है। उत्तराखण्ड के लोग दूर प्रदेश में नौकरी भले ही करे परन्तु व्यापार शायद ही कभी करे। मिण्टांेग में पडा़व डाला। बारह-चौदह साल के लड़कों को नग्न देखकर अटपटा लगता था। किन्तु जब सभी आयुवर्ग की स्त्रियों को केवल अधोभाग को एक छोटे से गमछे से ढके लगभग नंग धड़गं आते-जाते देखा तो सन्न रह गया। सोचा विकास के सरकारी आंकड़े कितने झूठे हैं ? यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ है और लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। समूह में स्त्रियों के चलने पर कहीं से घण्टियों की आवाज आ रही थी तो मैने सोचा कहीं भेड़-बकरी या गाय चर रहीं होंगी। लेकिन तब एक स्थानीय व्यक्ति ने ही बताया कि आकर्षण के लिये अविवाहित लड़कियां गमछे के नीचे घण्टियां बाँधा करती हैं।यहां सभी के जीवन में हर्ष और उल्लास है। लड़के-लड़कियों को अपने जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता है। इसके लिए प्रत्येक गांव में अलग से एक मोरंग घर बना होता है। (मोरंग असमिया के मोरम शब्द का अपभ्रंश है अर्थात् प्रेम, प्यार) मोरंग घर में युवक-युवतियां रात को एकत्रित होकर नाच-गाना करते है और एक दूसरे की भावनाओं, विचारों से परिचित होते हैं और यहीं होते हैं फैसले जीवन के, शादी के। हाँ, विवाह के बाद युवक-युवती का मोरंग में प्रवेश बन्द हो जाता हैं। मोरंग घर को ’’बैचलर क्लब’’ की संज्ञा भी दी जा सकती है। यहीं पर लड़के-लड़कियों के बीच विवाह पूर्व ऐसे सम्बन्ध भी स्थापित हो जाते हैं जो हमारे समाज में वर्जित हैं।  आदिवासी समाज में प्रायः विवाह की कोई विशेष रीति-रिवाज, परम्परायें नहीं है। लड़का लड़की आपस में मिलते हैं, साथ घूमते फिरते हैं, और साथ रह भी लेते हैं, एक-दूसरे को भली भांति परखते हैं। कभी लम्बा समय भी लगता है। एक-दूसरे को जंच गये तो रहने का फैसला कर लेते हैं। शादी की रश्म के नाम पर न बारात, न बाजे, न पालकी और न गहने। गहनों का फैशन पूर्वाेत्तर राज्यों में प्रायः नहीं है, गांववालों व रिश्तेदारों को हैसियत के अनुसार एक, या एकाधिक मिथुन काटकर मीट-भात व लावपानी की दावत दी जाती है। शादी का जश्न दो-तीन दिनों तक नहीं कई दिनों तक चलता है। (साण्ड व गौर के अंतः प्रजनन से तैयार प्रजाति मिथुन कहलाती है)
           शाम को मैं भवंर सिंह को पूछता हूँ कि ये लोग खेती नहीं करते क्या? कहने लगा वह दिखाई तो दे रही साहब! कहीं कहीं वह हरी झाड़ियां। कच्चू की खेती थी वह , जो अरबी की तरह होता है। झूम खेती ;ैीपजिपदह बनसजपअंजपवदद्ध का यहां पर प्रचलन है। प्रत्येक एक-दो साल बाद भूमि चयन की जाती है, सफाई की जाती है और फिर दाव द्वारा ही जमीन खोद कर खेत तैयार कर कच्चू आलू की भांति लगा दिया जाता है और कुछ महीनों में ही फसल तैयार। (दाव ही इन आदिवासियों का एकल हथियार है। दाव पाठल के रूप में इस्तेमाल होती है तो कुदाल के रूप में भी, सब्जी-मीट काटने के लिये चाकू के रूप में भी तो बाल काटने के लिए उस्तरे के तौर पर भी) अन्य धान, दाल, सब्जियां बोना लोगों ने अभी सीखा नहीं है। किन्तु धीरे-धीरे अब लोग जानने लग गये हैं। झूम खेती से एक ओर जंगल तेजी से साफ हो रहें है और पर्यावरण का गम्भीर संकट पैदा हो गया है वहीं दूसरी ओर पारिस्थितीकीय संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। मिण्टोंग से निर्माणाधीन मिण्टोंग-खासा सड़क पर अगली सुबह जब पैदल बढने लगे तो रास्ते में साथ आये दो स्थानीय युवा तेजी से एक जगह पर दौड़े तो मैं भी पीछे-पीछे भागा और दौड़ने का कारण पूछा तो कहने लगे ’निगोनी है’ निगोनी अर्थात चूहा। देखते-देखते एक युवक ने बिल में हाथ डाला दिया। मैं काँप उठा कि बिल में कही साँप हुआ तो? लेकिन जब उसने हाथ बाहर खींचा तो हाथ में मधुमख्खियों का छत्ता और कोहनी तक लिपटी हुयी सैकड़ों मधुमख्खियां। परन्तु वह इस प्रकार हटा रहा था मानो घरेलू मख्खियां हों। चूहे के पीछे सारा सामान जमीन पर पटक कर दूर तक अन्धे की तरह दौड़ने पर आश्चर्य हुआ। पूछा तो कहने लगा’’ आपको पता नहीं चूहा हमारे यहां विशिष्ट भोजन है जो मेहमानों के लिये खासतौर पर तैयार किया जाता है।’’ वांग्चू जनजाति के लोग सभी जीवों का भक्षण करते हैं। बच्चे-बूढ़ों के हाथों में गुलेल रहती है और कमर में दाव। गांव का प्रत्येक परिवार एक-दो बन्दूकें रखता ही है। कहां साठ प्रतिशत भाग वन क्षेत्र होने के कारण अरुणाचल जैव विविधता के लिये सबसे सुरक्षित राज्य हो सकता था और कहां यह मरघट का सा सन्नाटा। न कहीं चिड़ियों की चहचहाट और न जानवरों की आवाजें। बन्दर भी मनुष्यों से कम से कम सौ मीटर का फासला बना कर रहते हैं। बाहरी लोग मजाक में अक्सर कहते भी हैं ’’उड़ने वाले में हवाई जहाज और पैर वालों में चारपाई छोड़कर आदिवासी सभी कुछ खा जाते हैं।’’ ऐसी भी अफवाह यहां पर थी कि कुछ दशक पूर्व तक दुश्मनों का मांस खाने की प्रथा भी रही। रात खासा से कुछ पहले कमुआ- नकनू गांव में बिताकर वापस मिण्टोंग लौट आये ।
            
        अगली सुबह पश्चिम में चौदह-पन्द्रह कि0मी0 दूरी पर स्थित पंग्चाव आये । पंग्चाव सर्किल हेडक्वार्टर है। यहीं बर्मा, नागालैण्ड व अरुणाचल की सीमा आपस में मिलती है। पंग्चाव से आगे कोई मार्ग नहीं है। नागालैण्ड को अरुणाचल से जोड़ने वाली यह अकेली सीमा हो सकती है यदि सड़क कोहिमा तक बढ़ायी जाय। दो राज्यो की बीच प्रगाढता आयेगी ही अपितु खोन्सा, लॉगंडिंग आदि स्थानों से कोहिमा व गोहाटी जाने वालों के लिए दूरी घट जायेगी। लगभग साढ़े चार हजार फीट ऊंचाई पर स्थित पंग्चाव से पश्विम में नागालैण्ड और दक्षिण में बर्मा के बेहतरीन नजारे देख  सकते है। यहां पर सेना व सी0आर0पी0 तैनात है। सी0आर0पी0 कैम्प सबसे ज्यादा ऊँचाई पर है। रातें काफी सर्द होती है, एक सी0आर0पी0 जवान से दोस्ती में रात का जुगाड़ हो जाता है। दूसरे दिन वापस खोन्सा होते हुये देवमाली पहंुचे।                      शेष अगले अंक(4) में...............

Friday, April 18, 2014

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक (2)

 पिछले अंक से जारी..........
ब्रहमपुत्र की धरती पर
              गोहाटी तक ब्रोडगेज लाईन की लम्बी यात्रा के बाद ट्रेन बदलते हैं और प्रारम्भ होती है मीटर गेज लाईन पर एक उबाऊ, थकानपूर्ण और असमाप्य सी लगती यात्रा। दिल्ली से गोहाटी तक की लगभग 45 घण्टे की यात्रा में एक रफ्तार है और भीड़भाड़ भी। परन्तु गोहाटी से आगे पूरब की ओर बढने पर लगता है कि हम किसी अज्ञात प्रदेश की ओर बढ रहे हैं। यात्रियों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम ही रह जाती है और भाषा बिल्कुल अजनबी सी, असमिया, नागा, बंग्ला, सिलेटी, मणिपुरी आदि। मीटर गेज पर एक तो ट्रेन की सुस्त रफ्तार और भीतर डिब्बे में घुटन भरा सा वातावरण। बाहर छोटे-छोटे स्टेशन पीछे छूटते जाते हैं- नारंगी, हौजाई, लंका आदि, आदि। ट्रेन में हॉकरों का चढना उतरना इस उबाऊपन में और भी खलता है। लगभग छः घण्टे के सफर के उपरान्त गाड़ी में कुछ हलचल होती है तभी जान पड़ता है कि लमडिगं स्टेशन आ गया। लमडिगं से ही असम की बैराक वैली के लिए एक मीटर गेज लाइन अलग कट जाती है जो कि त्रिपुरा, मणिपुर व मिजोरम राज्यों को जोड़ती है। (असम प्राकृतिक रूप से दो भागों में बंटा है - ब्रहमपुत्र वैली और बैराक/बराक वैली) बीस-पच्चीस मिनट बाद लम्बी व्हिसिल के साथ गाड़ी आगे बढ़ती है तो डिब्बों में गिनती की सवारी रह जाती है। खालीपन और भी काटने लगता है। असम और बंगाल में (सिलीगुड़ी के बाहरी भाग - न्यू जलपाइगुड़ी स्टेशन पार करते ही)  गौर करने लायक है जल आप्लावित भूमि में घास-फूस  व बांस से बने घरों के गांव। कहीं लकड़ी के आधार पर ही पूरा घर बनाकर और चौखटों के अन्दर बांस की खपचियां फंसा कर बाहर भीतर मिट्टी अथवा रेत सीमेण्ट का प्लास्टर किया जाता है। बांस से ही कई तरह के घरेलू सामान और चारपाईयां आदि तैयार की जाती है अर्थात् बांस यहां के जीवन का अभिन्न अंग है। प्रायः घरों के आस-पास पोखर या तालाब दिखाई देते हैं और आंगन व पिछवाड़े में केले के झुरमुट। (बाढ़ के दौरान असमिया लोग केले के तनों को ही आपस में बांधकर नाव के रूप में इस्तेमाल करते हैं) लोग प्रायः घर के आंगन या पिछवाड़े नारियल, सुपारी के पेड़ लगाते हैं और उन्हीं पेड़ों से लिपटी होती है पान की लताएं। (सुपारी को स्थानीय भाषा में तामूल कहा जाता है, जो कि संस्कृत शब्द ताम्बूल का अपभ्रंश है) असमिया लोगों के घर जाने पर वे सर्वप्रथम मेहमान को पान, ताम्बूल ही पेश करते है। प्रत्येक घर में पान-तामूल रखने का पीतल का ‘सोराइ’ बर्तन होता है।
खेतों में धान ही बोया जाता है। जुताई बैलों या भैंसों द्वारा ही की जाती है। तालाब पोखरों में बंसी (कांटा) फंसाकर मच्छियां मारना यहां आम ग्रामीणों की दिनचर्या है। मच्छी भात असम बंगाल का प्रिय भोजन है। दालें शायद ही कहीं बोयी जाती हों। हाँ, मुस्लिम बाहुल्य नौगावं जिले में सब्जी की पैदावार अच्छी है। वर्षा की अधिकता के कारण गन्ना व गेहूं पूर्वोत्तर भारत में बोया नहीं जाता है। हिन्दी भाषी राज्यों के लोग यहां प्रायः मजाक में कहते भी हैं कि ”पूर्वोत्तर के लोगों ने आटे और चीनी के पेड़ नहीं देखे है।“
लमडिंग से दो घण्टे के सफर के बाद स्टेशन पड़ता है दीमापुर। भाबर क्षेत्र दीमापुर नागालैण्ड का एकमात्र रेलवे स्टेशन है। आजादी के बाद नागालैण्ड अशान्त राज्य रहा। कहां कब क्या घट जाये, हमेशा ही आशंका बनी रहती है। एक अलगाव नागाओं के मन में जो शुरू से पनप रहा था इतने लम्बे अरसे बाद भी दूर नहीं किया जा सका। शायद इसी अलगाव के कारण गोहाटी से आगे पटना, दिल्ली आदि शहरों की ओर बढ़ने पर कुछ नागा कहते भी हैं कि ”इण्डिया जा रहे है“।
दीमापुर से अगला स्टेशन आमगुड़ी है। जोरहाट की सवारी यहां उतर जाती है । आमगुड़ी के बाद ट्रेन सोनारी, नाजिरा, लखुवा, सफेकटी, नामरूप आदि पड़ावों से गुजरती है। (नाजिरा व लखुवा की पहचान ओ0एन0जी0सी0 के ऑयलफील्ड के रूप में भी है) 

चाय के बगीचों के बीच से ट्रेन का छुक-छुक होकर गुजरना मन को रोमांचित करता है। मध्य हिमालय में ऊँचे पहाड़ों पर फैले हैं अनगिनत बुग्याल। जहां कठिन यात्रा के बाद ही पहुंचा जा सकता है। लेकिन असम में दूर-दूर तक फैले ‘ड्रेस्ड ' चाय बागान बुग्यालों का सा भ्रम करा देते हैं। लगता है ऊषा मंगेशकर की सुमधुर आवाज में असमियां गीत यहीं कहीं गूंज रहा है-
"हे अखम देकोर बागीचा रे सुवाली, झुमुर-झुमुर नाचे क्वरूं धेमाली,
हे लछमी न ह्वै मोरे नाम समेली, बीरबलेर बेटी मोर नाम समेली.....‘‘

(असम देश के बगीचे में मैं एक लड़की उधम मचा रही हूं अरे! मैं लक्ष्मी नहीं, मेरा नाम चमेली है। बीरवल की बेटी मैं चमेली हूँ )
असमिया भाषा की विशेषता यह भी है कि ‘च’ का उच्चारण ‘स’ और ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ के रूप में होता है यथा- चाय का साय, सागर का हागर आदि। (वैसे टिहरी गढ़वाल के लम्बगावं क्षेत्र में कहीं-कहीं ‘स’ को ‘ह’ उच्चारित किया जाता है, ) गढ़वाल के लोक वाद्य यन्त्रों में जिस प्रकार ‘मोछंग’ को एक विशिष्ठ स्थान प्राप्त है वहीं असमिया गीतों में प्रायः मोछंग की कर्णप्रिय धुन अवश्य सुनाई देती है। कुमाऊंनियों की भांति असमिया व अरूणाचल की कुछ जनजातियों के लोग भी बात करते समय ‘हूं’ की जगह सांस भीतर खींचकर ‘‘होय’’ कहते हैं। वहीं असमियां भाषा में श्रीनगर, पौड़ी के आसपास बोले जाने वाली गढ़वाली की भांति ही ध्वनि में ‘अ’ का उच्चारण संवृत्त व वृत्तमुखी, अर्थात ‘ओ’ की भांति होता है, जैसे घर का घौर, बडा का बौडा, आदि। और असमियां में महन्त का मोहन्त, बगाईगावं का बोगाइगावं आदि।   
       नामरूप फर्टिलाइजर्स कार्पोरेशन आवॅ इण्डिया के लिये विख्यात है। गोहाटी से चौदह घण्टे की उबाऊ यात्रा के बाद हम पहुंचते हैं मात्र पांच सौ किलोमीटर दूर अपने पड़ाव नहरकटिया। नहरकटिया बूरी डिहींग नदी के बायें तट पर बसा हुआ डिब्रूगढ का तहसील हेडक्वार्टर है। ट्रेन निरन्तर पूरब ढुलियाजान व तिनसुखिया की ओर बढती है। ढुलियाजान में इण्डियन ऑयल कार्पोरेशन का बड़ा प्रतिष्ठान है और तिनसुखिया ऊपरी असम का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र है। 

                                                                                                               अगले अंक में जारी.........