Wednesday, September 29, 2010

जनता - गैरसैण राजधानी / सत्ता - गुजरी हुयी कहानी !

Chandan Negi        Photo-Subir
             युगीन यथार्थ की विसंगतियों के खिलाफ गत तीन दशक से निरंतर सक्रिय व जुझारू कवि चन्दन सिंह नेगी (या 'चन्दन उपेक्षित' जैसे कि वे कवि सम्मेलनों में व मित्रों के बीच जाने जाते हैं ) अपनी कविताओं व लेखों के माध्यम से वे जन जागरण में लगे रहे हैं. अपने धारदार व सार्थक लेखों से उन्होंने उत्तराखण्ड हिमालय की समस्याओं को विभिन्न राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पत्र -पत्रिकाओं में उठाया है. उत्तराखण्ड के लिए कुछ कर गुजरने की प्रबल इच्छा उनके मन में सदैव  रहती है. उनके लेख व कवितायेँ उनकी पीड़ा, उनकी छटपटाहट को अभिव्यक्त करते हैं. 1986 में युवा कवियों के कविता संकलन 'बानगी' में प्रकाशित उनकी कवितायेँ काफी चर्चा में रही. 1995 में लोकतंत्र अभियान, देहरादून द्वारा प्रकाशित "उत्तराखंडी जनाकांक्षा के गीत" में उनके वे जनगीत संकलित हैं जो उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान सड़कों पर, पार्कों में तथा नुक्कड़ नाटकों में गाये गए और वे गीत प्रत्येक आन्दोलनकारी की जुवां पर थे. यह उनकी जीवटता का ही प्रमाण है कि समाज में व्याप्त संक्रमण के खिलाफ वे आज भी संघर्षरत है. "जनता उत्तराखंडी" कविता उनके द्वारा बारामासा पत्रिका के लिए प्रेषित की गयी थी, किन्तु कतिपय कारणों से प्रकाशित नहीं हो पाई थी.

जनता- तनी मुठ्ठियाँ सबकी,  जनता- जीत हमारी पक्की,  जनता- अपने पर विश्वास,  सत्ता- हार चुकी अबकी !

जनता- सीधे बोली मात,  जनता- वक्त नहीं है आज,  जनता- सड़कों पर सैलाब,  सत्ता- झेलेगी प्रतिघात !

जनता- घर-घर में अंगार,  जनता- पहुँच गयी दरबार,  जनता- गाँव-गाँव में जलसे,  सत्ता- चौतरफा लाचार  !

जनता- सधे हुए कुछ वोट,  जनता- नया करारा नोट,  जनता- दाग रही सवाल,  सत्ता- सिले हुए अब ओंठ  !

जनता- उठे हुए सब लोग,  जनता- चुने हुए सब लोग,  जनता- होली और दीवाली,  सत्ता- पिटे हुए कुछ लोग !

जनता- रौद्र रूप विकराल,  जनता- शेर मूंछ का बाल,  जनता- बदला लेगी अब तो,  सत्ता- बकरी जैसा हाल !

जनता- क्रांति-क्रांति का शोर,  जनता- गर्जन है घनघोर,  जनता- करवट ले गयी अब तो,  सत्ता- कटी पतंग की डोर  !

जनता- तेरा मेरा साथ,  जनता- दिल से दिल की बात,  जनता- खुली हवा में घूमे,  सत्ता- दम घोंटू हालात  !

जनता- जनता उत्तराखंडी,  जनता- कमला, दुर्गा, चंडी,  जनता- जय हो उत्तराखण्ड,  सत्ता- सांस पड़ रही ठंडी !

जनता- फिर से नयी जवानी,  जनता- गैरसैण राजधानी,  जनता- निकल पडी सड़कों पर,  सत्ता - गुजरी हुयी कहानी !  

Sunday, September 26, 2010

चुटकी भर सुख

Pahalgam,  J&K               Photo-Subir
तुम अलापते रहे - /
पहाड़ी धुन में अपने पहाड़ों के प्रणय गीत /
तुम सुनाते रहे- इतिहास हो चुके वीरों की शौर्य गाथाएँ /
तुम भुलाते रहे- अपने पहाड़ से दुखों के दीर्घ प्रसंग /
और वे / 
चूसते रहे तुम्हारे  शिराओं का रक्त- जोंक सा /
तुम्हारे ही लोगों के कन्धों पर चढ़कर /
मुखौटा लगाकर, देते रहे दिलासा कि- /
विकसित होगा यह पहाड़ /
हरियाली लौटेगी इन पहाड़ों की /
परन्तु /
तुम ठगे जाते रहे हो सदा / 
तुम छले जाते  रहे हो सदा /
तुम लूटे जाते  रहे हो सदा /
अरे भाई ! तुम्हे नहीं मालूम क्या /
हरियाली, विकास, खुशहाली, तो पहाड़ के भाग्य  में ही नहीं है /
इस शोषित, दमित पहाड़ में  तो बस /
पहाड़ सी जिन्दगी है /
पहाड़ सी पीड़ा है /
पहाड़ सा अभाव है /
पहाड़ सा रोग है /
पहाड़ सा बुढ़ापा है /
बस नहीं है तो -चुटकी भर सुख !
                                         

Friday, September 24, 2010

भेड़, बकरी से हांके जा रहे हैं टिहरी बाँध प्रभावित

Tehri Dam                       Photo-Subir
                         इधर उत्तराखंड से प्रकाशित एवं प्रसारित लगभग प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रोनिक मीडिया में टिहरी बाँध की झील में टी. एच. डी. सी.(Tehri Hydro Development Corporation) द्वारा लगातार पानी भरे जाने के कारण और उसके उपरांत उपजी परिस्थितियों में प्रायः उत्तरकाशी जिले के ही 60 गांवों के लोगों की व्यथा व्यक्त की जा रही है . काश, समग्र भागीरथी व भिलंगना घाटिवासियों की पीर को कोई फोकोस करता कि टिहरी जिले में 60 गाँव नहीं बल्कि झील के उस पार ही पट्टी - रमोली, ओण, भदूरा, रैका, धारमंडल, केमर, बासर, ढुंगमन्दार के सैकड़ों गांवों के लाखों लोग किस तरह विकास के नाम पर जबरन दो सदी पीछे धकेल दिए गए हैं. परन्तु किसका विकास ? जो विस्थापित हो चुके हैं उनके आंसू अब तक शायद सूख चुके होंगे या उस नए माहौल में अपने को ढाल चुके होंगे जहाँ वे खदेड़ दिए गए थे. किन्तु झील के उस पार ये लाखों लोग अपने पुरखों की भूमि पर, अपने पुस्तैनी मकानों में रहते हुए भी जैसे यातना शिविरों में दिन काट रहे हों. 29 अक्टूबर 2005 का दिन (जब टी-1 और टी-2 बंद कर दी गयी थी.) इन लाखों लोगों के जीवन का वह काला अध्याय है जिसे वे जीवन रहते तक नहीं भूल सकते.
            
                        उपरोक्त पट्टियों के गांवों तक पहुँचने के लिए भल्डियाना मोटर पुल के अलावा आधा दर्ज़न झूला पुल थे। झील बनने के बाद ये सभी पुल डूब गए। टिहरी बांध के खैर ख्वाहों ने यह क्यों नहींp सोचा कि जिनका आवागमन इन पुलों से होकर था वे अब कैसे आएंगे जायेंगे? अपढ़ जनता, गंवार लोग क्या जाने कि एक दिन ऐसा भी होगा, किन्तु जो पढ़े लिखे और चतुर थे वे क्या कर गए? स्यांसू और पीपल डाली पुल की स्थिति अच्छी नहीं है। डोबरा में पुल बनाने की सुध भी झील बनने के कई महीनो बाद आयी. डोबरा पुल तीन साल के भीतर तैयार करने का आश्वासन था. लेकिन अभी लगता नहीं कि यह पुल जल्दी तैयार हो पायेगा। यह बाँध प्रभावितों का उपहास ही तो है ।अभी तो स्थिति यह है कि जीरो पॉइंट वाले पुल से लोग आ जा रहे हैं परन्तु इस पुल के डूबने के बाद? (क्योंकि टिहरी बांध के फेस-3 PSP के लिए इस पुल का डूबना भी तय है ) तब ? तब लगभग 15 किलोमीटर दूरी और बढ़ जायेगी। झील के ठीक उस पार मेरा गाँव भी है. पहले ऋषिकेश, देहरादून या कहीं से भी टिहरी पहुँचने तक की चिंता होती थी. टिहरी से घंटे भर में ही पैदल घर पहुँच जाते थे. ऐसे ही वापस आना होता था, दोपहर दो बजे भी गाँव से चलते तो शाम तक देहरादून पहुँच जाते. परन्तु अब! सुबह के देहरादून से चले शाम तक भी अपने गाँव पहुँच जाय भरोसा नहीं है. मान लें लगातार गाड़ियाँ मिलती भी रहे तो भी पहले की तुलना में 60 रुपये किराया अतिरिक्त और चार घंटे बर्बाद ऊपर से. यानी पूरा दिन बर्बाद. वही स्थिति वापसी की भी है. सुबह आठ बजे से पहले गाँव छोड़ दिया तो ठीक, नहीं तो दूसरे दिन. गाँव में सुख दुःख में शामिल होने के लिए मुझे साल में औसतन बीस बार गाँव जाना पड़ता है. अर्थात साल के चालीस दिन और चौबीस सौ रुपये मै अतिरिक्त किराया दे रहा हूँ. यह तब है जब मेरा परिवार अपने पैत्रिक गाँव में नहीं है. मेरे जैसे हजारों प्रभावित प्रवासी हैं जो इतना ही या इससे भी अधिक अतिरिक्त भुगतान कर रहे हैं. और उनकी स्थिति तो और भी बदतर है जो पूरी तरह झील के उस पार गांवों में रह रहे हैं।वे दुहरी मार झेल रहे हैं। रास्ते न होने के कारन दुकानदारों की मनमाफिक दर पर सामान खरीद रहे हैं और दुःख बीमारी या सरकारी कम से हफ्ते दस दिन में नयी टिहरी आना होता है वह अलग से. कभी अपने दादा - नाना से सुनते थे कि वे लोग ढान्कर आते थे देहरादून (जरूरत भर का महीनों का सामान एक साथ खरीद कर लाते ).आज झील के उस पार के लोग पुनः ढान्कर आ रहे हैं. टिहरी बांध विकास का प्रतीक हो सकता है लेकिन किसके लिए? हमें क्या मिला?
                
                        सभी जानते हैं कि टिहरी का जिला मुख्यालय भले ही पहले नरेन्द्रनगर था किन्तु टिहरी की भिलंगना और भागीरथी घाटीवासियों का व्यापारिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक केंद्र टिहरी नगर ही था। टिहरी की नुमाइश, 26 जनवरी की परेड, रामलीला, कृष्णलीला, जनरल करिअप्पा फुटबाल टूर्नामेंट, साधुराम फुटबाल टूर्नामेंट और खिचड़ी, पंचमी को लगने वाले मेले कोई कैसे भूल सकता है? और आज! टिहरी हम से छिना, हमारे स्कूल कॉलेज हम से छिने, हमारे खेल के मैदान छिने, मेले त्यौहार हम से छिने, बाज़ार और सिनेमाहाल तक हम से छिना, यहाँ तक कि मुर्दा घाट तक हम से छीन लिए गए हैं। हम तो केवल बांध की कीमत अदा कर रहे हैं !!

                     
                         भू वैज्ञानिकों की राय झील बनने के बाद इन गांवों की स्तिथि के बारे में क्या कहती है इसका आकलन किया जाना आवश्यक है. परन्तु सच्चाई यह है कि झील के दोनों ओर पहाड़ियों का ढलान प्रायः 25 - 30 अंश तक है. और गाँव चट्टानों पर नहीं कंकड़ पत्थर और मिटटी के ढेर पर बसे हुए हैं. कभी कल-कल करती, अठखेलियाँ खेलती, बहती भिलंगना और भागीरथी नदी आज काली नागिनों सी पसरी हुयी है चुपचाप. डर सा लगता है कि जैसे वे शिकार का इंतजार कर रही हो. सच यह भी है कि झील का पानी इन गांवों के नीचे ही नीचे घुसकर जमीनों को कमजोर बना रहा है, ईश्वर करे कभी तेज बारिस हो, या कभी हल्का सा भूकंप भी आये तो निश्चित है कि लगभग 70 किलोमीटर लम्बी झील के दोनों ओर बसे सैकड़ों गावों में से कुछ गाँव अवश्य दरक कर झील की आगोश में ----------. ईश्वर करे सचमुच अगर ऐसा हुआ तो!! कल्पना से ही रूह कांप उठती है.  

                          टिहरी बांध का जलस्तर लगातार बढाया जा रहा है. 820 , 825 और अब 830 मीटर आर0 एल0 तक. और टिहरी बांध द्वारा विस्थापन किया गया (संभवतः) केवल 840 मीटर आर एल तकत्रिकोणमिति का साधारण छात्र भी जानता है कि 25 - 30 अंश के ढलान पर 10 मीटर (840 - 830) की ऊँचाई हो तो क्षैतिज दूरी क्या रह जाएगी? अभिप्राय यह कि 840 क़ी रेखा को टच करने वाले या उसके निकटतम मकान या गाँव कितने समय तक अपने स्थान पर टिके रह सकेंगे ? टिहरी बांध के अभियंता या भू वैज्ञानिक क्या यह हकीकत नहीं जानते ? टी. एच. डी. सी. के प्रबंधकों द्वारा तर्क दिए जा रहे हैं कि ऋषिकेश हरिद्वार आदि मैदानी भागों में तबाही मचे इसलिए झील में पानी भरा जा रहा है. गोया कि मैदानी भागों के लोग इंसान है और टिहरी झील के आस पास रहने वाले लोग भेड़ बकरी या जैसे कि बर्ड फ्लू के दौरान इंसानों को बचाने के लिए मुर्गियों को मार दिया जाता है ऋषिकेश हरिद्वार आदि मैदानी भागों को बचाने का तर्क कम से कम टिहरी वालों के गले तो बिलकुल नहीं उतरा. बाँध बने हुए तो अभी पांच साल भी पूरे नहीं हुए और भिलंगना व भागीरथी हजारों सालों से बह रही है। बरसात तब भी होती थी, मैदानी भागों में आबादी तब थी। तब तो कुछ हुआ नहीं। टिहरी वालों ने यही तो फ़रियाद की थी कि जो पानी भिलंगना व भागीरथी में पीछे से आ रहा है, उसे बहने दो झील से अतिरिक्त पानी न छोड़ा जाय (फिर टिहरी झील में पानी इस स्तर तक भी टी एच डी सी ने ही तो भरा।)वैसे मीडिया ने जो खुलासा किया कि टी एच डी सी अधिक बिजली पैदा कर झोली भरने के लालच में तथा कोटेश्वर डाम को बचाने के लिए ही यह सब करता रहालेकिन कोटेश्वर डाम को फिर भी नहीं बचा पाया लेकिन झील के चारों ओर सैकड़ों बर्षों से बसे बासिंदों के मन में आतंक बनाने में अवश्य कामयाब रहा आज झील का स्तर जब अपने चरम पर हैं तो क्या एक उच्चस्तरीय दल ( जिसमे जीववैज्ञानिक, भू वैज्ञानिक, पर्यावरणविद, सामाजिक कार्यकर्त्ता, स्थानीय जनप्रतिनिधि तथा केंद्र राज्य सरकार के विशेषज्ञ सम्मिलित हों ) द्वारा झील के चारों ओर कम से कम 950 मीटर आरएल० तक के गावों का व्यापक सर्वेक्षण आकलन किया जाना आवश्यक नहीं है? आपदा प्रबंधन विभाग क्या आपदा के बाद ही योजनायें बनाएगा? सरकार की नींद क्या घटना के बाद टूटेगी? जन प्रतिनिधी घटना के बाद ही टेसुए बहायेंगे ? कौन जवाब देगा !!
                                                                                    

हे निर्भगी, इना गीत न मिसा

                  गढ़वाली के सशक्त हस्ताक्षर है वीरेन्द्र पंवार. कम शब्दों में अधिक कहने की क्षमता रखने वाले वीरेन्द्र की कवितायेँ पिछले दो दशक से गढ़वाली में अपनी उपस्थिति निरंतर दर्ज कर रही है. उनकी क्षणिकाएं पाठकों/श्रोताओं को सोचने पर विवश करती है: पैली/ यीं भूमि म़ा/ देव्तों कु बास छौ / देवतों कि ईं भूमि म़ा / मनख्यूं पर 'बास' आंणि .   एक और क्षणिका है: चुल्ला कि आग /अर पोटगी कि आग म़ा /एक रिश्ता होंद / एक जग जान्द / हैकि मुझ जान्द .  तथा  हमारा पहाड़ा कूड़ा / पैली / तालों कि /नि जाणदा छा / जमानो बदलेगी / अब /मनख्यूं कि /नि जाणना छा .
Ramo ji Film CityHyd.Photo-Subir
                   परन्तु वीरेन्द्र को ज्यादा लोकप्रियता मिली " सब्बी  धाणी  देरादून  /हूणी खाणी देरादून " से  जो नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने अपनी एल्बम ' जदी भग्यानी ' में शामिल की। अधोलिखित नयी कविता उन्होंने हाल ही में मुझे  प्रेषित की है जो उतनी ही तीव्रता से हृदय को छूती है. काफी कुछ कह जाती है वीरेन्द्र पंवार यह कविता;
 हे निर्भगी !
तु कन गीत छै मिसाणी,
जौं गितुन बिन्सिरी नि देखी,
जौन सियां गोरु तका अर्यां मोर नि उगर्याँ,
जौन
नि सारि उकाल्युंक पाणी , पंदेर्यु कि बाच बि नि बनानी जू ,
दथ्युं का
छुंनका बि नि बिन्गनी जौन , पलयेन्त्हरू तक नि पछ्यानी ,
नि बिंग्नी घसेन्यु का खुदेर गीत , बाजूबंद कि रस्याण,
नि पछ्यांनी थड्या चौंफला का झुमैलो , बार - तिवार कौथिगु का मेला ,
जौन नि बरती चर्कड़ी कादैं , हाथ -खुत्युं कि बारामासी तिड्वाल
जौन नि देखि सर्गे आसमा तपत्यंदी सांकि ,
दबद्यंदी आंखी,
नि बींगी गोरु बछरू कि
भौण, जौन माँ -बैन्नयुं कि पीड़ा बि नि बिंगी,
खुद म़ा लगदी
बडुली पराज नि सुवांदी जौन. तु धारू -धारू गीत गाणी छै ,
अर ल्वे का आंसु बोगाणी ब्वे , लाता ऐंची-ऐंच बुखु सी नि उड़ ,धर्तिम बी हेर ,
वख देख हपार, कों चुलंख्युं म़ा पोंचिगै सूरज , छौंप सकदी त छौंप वैकि निवती तैं ,
ठेट समोदर कि  जल्द्यून  म़ा सेलेगे जौन , कर सकदी त महसूस कर वीं सेली तै ,
काचा झयाद्यों म़ा सुद्दी न कर स्याणी ,
इन हाल म़ा न हो एक दिन ,तेरवी छैल ,
पुछू त्वे सि - लाटा तु कन गीत छें मिसाणी  !!

Wednesday, September 22, 2010

पहाडे खातिर

                     पिछली सदी के आखिरी दशक में पूरा उत्तराखंड आंदोलित रहा। जन-जन की केवल एक ही आवाज थी - " पृथक उत्तराखंड राज्य"। आन्दोलन गति पकड़ चुका था, उसी दौरान "पहाडे खातिर " लिखी गयी मेरी गढ़वाली कविता को पत्र - पत्रिकाओं में खूब स्थान मिला, आज ब्लॉग में डाल रहा हूँ, मित्रों की इच्छानुसार ;
पहाडा खातिर ईमानदार हो न हो, 
                                                  पर चरित्र सब्भी चांदा पहाड़ जनो । 
पहाड़ी नांगा तिसाला भुखा मरू त मरू, 
                                            पर बथौं पाणी सब्बी चांदा पहाड़ जनो । 
 चंट हो, चालाक हो, कर्मठ हो, चुप्पा हो,
                                          पर यन नौकर सब्भी चांदा पहाड़ी जनो ।
 पहाडे पीड़ा, पहाडा गीत भला लगु न लगु, 
                                                 पर संगीत सब्भी चांदा पहाड़ जनो ।
 जंगल बगीचा साला साल होणा छ उजाड़,
                                              पर फल फूल सब्भी चांदा पहाड़ जनो ।
 चोरी, घूस बेमानी को मलाल जरूर छ, 
                                          पर रुप्यों को ढेर सब्भी चांदा पहाड़ जनो ।
 पहाडे नौकरी, ठेकेदारी, ब्यापार सब्भी ठीक छ, 
                                                  पर तराश क्वी नि चांदा पहाड़ जनो ।
 भला लग्दा पहाडा डांडा-कांठा, रौन्तेला बुग्याल,
                                        पर सड्क्यों कु कष्ट कवी नि चांदा पहाड़ जनो ।