Sunday, August 14, 2016

भारतवर्ष में बाल मजदूरी और बाल श्रम कानून

                                   आज मोटर वर्कशॉप, होटलों, दुकानों, घरों, खदानों में, बैण्ड पार्टी में या कबाड़ बीनने वाले के साथ नाबालिग बच्चों को देखकर हम द्रवित हो उठते हैं, हमारे मन में उन बच्चों के प्रति दया उमड़नी स्वाभाविक है। हम दुनिया और ईश्वर को कोसने लग जाते है। परन्तु प्रायः दूसरे ही पल हम व्यवहारिक व व्यवसायिक भी हो जाते हैं, बल्कि कभी-कभी हम उत्पीड़न करते उनके मालिकों की हाँ में हाँ भी मिलाने लग जाते हैं। विडम्बना ही है कि जिस उम्र में बच्चों को स्कूल पढ़ना चाहिये था उस उम्र में वे दो वक्त की रोटी के फेर में अपने मालिकों के हाथों पिट रहे होते हैं। हाय रे भाग्य!
                                     हमारे देश में गरीबी एक ज्वलन्त समस्या
है। जिसके लिये गरीब परिवार के अधिकाधिक सदस्यों को जीविकोपार्जन के लिये दौड़ना-भागना पड़ता है। उच्च व मध्यम वर्ग अपने बच्चों की परवरिश व शिक्षा-दीक्षा भली भांति कर सकता है। वहीं निम्न मध्यम वर्ग भी येन-केन प्रकार से अपने बच्चों के लिये भोजन व शिक्षा की व्यवस्था कर लेता है। परन्तु गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले परिवारों को अक्सर मजबूरन अपने नाबालिग बच्चों को भी मजदूरी की तपिश में झोंकना पड़ता है।
                            भारतवर्ष में बाल श्रम को रोकने के लिये ‘बाल श्रम (निषेध व निवारण) अधिनियम 1986 (1986 की अधिनियम संख्या-61)’ में स्पष्ठ उल्लेख है कि बाल श्रमिकों को कुछ विशेष कार्यों में संलिप्त नहीं
किया जा सकता। और ऐसा करने पर अधिनियम की धारा-3 के अनुसार न्यूनतम तीन माह सश्रम कारावास का प्राविधान है। यदि इस अधिनियम को शक्ती से लागू किया जाये तो बाल श्रम रोका जा सकता है।
चिन्तन: अन्धकारमय जीवन जी रहे ऐसे बच्चों के लिये हम या हमारा समाज क्या कुछ कर सकता है?