Wednesday, February 14, 2018

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(4)

पूजा-अर्चना के बाद मैं खैटपर्वत पर श्रीमद्भागवत कथा व शिवपुराण के आयोजक पण्डित प्रेमदत्त नौटियाल ‘कामिड’ जी से मिला। उन्हें अपना परिचय दिया और अपनी दो पुस्तकें भंेट की, वे बड़े गदगद हुये। बौंसेळ -पिलखी निवासी नौटियाल जी ने बताया कि ‘पहले खैट पर्वत एक निर्जन स्थान ही था। आम लोगों में यह धारणा थी कि इस पर्वत पर आने वाले को आछरी हर लेती है, इसलिये रुकना तो छोड़िये आम आदमी यहाँ आने से ही आदमी कतराता था। सन् 1983 में उनके द्वारा एक छोटा सा मन्दिर बनवाया गया, तब से प्रतिवर्ष भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा है। फलस्वरूप आज लोगों की धारणा ही नहीं बदली बल्कि उनकी आस्था भी बढ़ी और आज इसी आस्था के कारण ही यहाँ पर दो मन्दिर, धर्मशाला, भोजनालय, भागवत कथा के लिये मंच और प्रवेशद्वार आदि का निर्माण हो चुका है। विद्युत लाईन बिछने से खैट मन्दिर जगमगाने लगा है। थाथ गांव से पैदल मार्ग तो बना ही है बल्कि भटवाड़ा से भी सड़क निर्माण का कार्य शुरू हो चुका है। पेयजल आदि अन्य आवश्यक सुविधाओं की मांग को लेकर भागवत कथा समाप्त होने के तुरन्त बाद वे यहीं आमरण अनशन पर बैठ  जायंेगे....।’  आछरियों का स्मरण कर मैंने मन ही मन अपने से पूछा कि यह कैसा परियों का देश है जहाँ पर लोग अपनी मांग मनवाने के लिये धरने पर बैठते हैं। स्वायत्त राज्य की मांग को लेकर उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेता व पूर्व मंत्री दिवाकर भट्ट जी भी एक बार खैट पर आमरण अनशन पर बैठकर शासन-प्रशासन के पसीने छुड़वा चुके हैं और अब कामिड जी....।  हे भगवती, तू ही देखना!  

कामिड जी से बातचीत के बाद रसोईघर में गया। भोजन वहाँ पर तैयार था- दाल, सब्जी, रोटी व भात भी। इस ऊँचाई पर भरपेट स्वादिष्ठ भोजन मिल जाये तो और क्या चाहिये। उन्होंने ही बताया कि 'इस बार कथा सुनने कम लोग ही आ रहे हैं। थाथ, म्यूंडा, सारफूल, नन्वां, कोळ, भटवाड़ा, तुन्यार आदि गांवों से लोग आते हैं और शाम को वापिस लौट जाते हैं। हाँ, भण्डारे के दिन अवश्य डेढ़-दो सौ श्रद्धालु आने की उम्मीद है।' रसोईघर में काम करने वाले तीनो लोग स्थानीय ही थे, परन्तु भोजन के बाद बिना दूध की चाय देने पर मैंने पूछा कि ‘क्या कोई श्रद्ध ा लु दूध लेकर नहीं आता है?’ तो उनका कहना था कि ‘गांव में अब कितने लोग हैं जो भैंस पालते हैं और जिनकी भैंस है भी उनमंे इतनी श्रद्धा नहीं है कि दूध पहुँचा दें।’  मैंने उन्हें श्रीअमरनाथ यात्रा मार्ग पर चलने वाले लंगरों के बारे में अपने अनुभव बताये तो उन्होंने कहा कि ‘इस प्रकार की आस्था हमारे लोगों में नहीं है। यह तो पण्डित नौटियाल जी की ही साख है कि कुछ दानी लोग उनके कहने पर आटा, चावल, दाल, आदि राशन खच्चरों से यहाँ भिजवा देते हैं। अन्यथा यहाँ पर खाना क्या चाय भी शायद ही मिले। पानी भी थाथ गांव से खच्चरों से मंगाना पड़ता है। भण्डारा निपटने के बाद जो राशन बच जाती है हम उसे यहीं छोड़़ देते हैं, जिससे कभी भी कोई आना चाहें तो वे खाना बनाकर खा सकते हैं, धर्मशाला में ओढ़ने-बिछाने के लिये काफी कम्बल हैं
और लोग यदा-कदा आते भी हैं।’ बातें करते हुये रात काफी बीत चुकी थी। धर्मशाला जाने के लिये बाहर निकला तो एकाएक शीतलहर सी चलने का अहसास हुआ। मई की गर्मी में कहाँ मैदानों में पंखे का रेगुलेटर पूरा घुमाने के बाद भी बार-बार छत पर नजर जाती है कि पंखा चल भी रहा है या नहीं और कहाँ खैटपर्वत पर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानों कई चलते कूलर एक साथ मेरी ओर घुमा दिये हों। धर्मशाला में कम्बल काफी थे, परन्तु मैं आदतन अपने साथ स्लीपिंग बैग व एक गरम शॉल जरूर रखता हूँ।

सुबह उठकर बाहर घूमने लगा। दुर्गा मन्दिर के पीछे एक समतल व खुली जगह है, जिसे ‘आछरी खल्याण’ (परियों का आंगन) कहा जाता है। वहाँ से नीचे भिलंगना घाटी का विहंगम व मनभावन दृश्य देखा। धारमण्डल, ढुंगमन्दार ही नहीं भिलंगना पार माता चन्द्रबदनी मन्दिर का कुछ हिस्सा और खासपट्टी व कोटी-फैगूल के अनेक गांवों का ‘बर्ड आई व्यू’ यहाँ से दिखाई देता है।

 मन्दिर परिसर में क्या किसने बनवाया और क्या किसने, सभी जगह संगमरमर पत्थरों पर नाम-पते लिखकर दानदाताओं ने चिपका रखे थे। जब मूल रूप से अपने गांव के और टिहरी के जाने-माने वकील स्वर्गीय वंशीलाल पुण्डीर जी की धर्मपत्नी श्रीमती रोशनी देवी पुण्डीर द्वारा कथामंच निर्माण में सहयोग करने के बावत लगाया गया मार्बल पत्थर पढ़ा तो अच्छा लगा। नीचे उतरकर पण्डित नौटियाल जी को खैटपर्वत के विकास जैसे पुनीत कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन देकर मैंने विदा ली। 

खैट से वापस लौटते हुये मैंने अंकित को छेड़ा ‘यार, खैट पर्वत पर आछरियां तो आई ही नहीं।’  परन्तु उसका जवाब था कि ‘रात को ढोल बजने की आवाज आपने नहीं सुनी सर क्या?’  तो मैं अवाक रह गया, रात आछरियां खैट से गुजरी और मैं सुन नहीं पाया। ले बेटा, मैं इस बार फिर वंचित रह गया। वैसे मेरा मानना है कि लोगों में यह भ्रान्ति मनोवैज्ञानिक होती है। वृन्दावन(मथुरा) में एक छोटी सी बगिया है जिसे वहाँ के स्थानीय लोग वृन्दावन गार्डन कहते हैं। वहाँ घूमते हुये गाईड ने सरल व सपाट शब्दों में बताया कि ‘साहब, रात को यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण बांसुरी बजाते हैं। परन्तु जो सुनता है उसकी मौत हो जाती है।’  मैं मन ही मन हँसा कि इस तरह की आस्था को क्या कहें? अन्धविश्वास? बांसुरी तो बजती है परन्तु सुनने वाला कोई जीवित नहीं बचता। तो भाई, फिर यह किसने बताया होगा कि रात को बांसुरी बजती है? खैटपर्वत की आछरियों के बारे में क्या यह ऐसी ही आस्था नहीं है?

आखिर आछरी क्या है? कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड, नेपाल आदि हिमालय क्षेत्र की आस्थाएं व मान्यताएं एक सी है। इनका कहीं न कहीं आपस में आध्यात्मिक संबन्ध है। जिन्हें हम आछरी कह रहे हैं हिमाचल में उन्हें जोगणियां और अनेक जगहों पर इन्हें यक्षणियां कहा जाता है। ‘आछरी’ शब्द वस्तुतः प्राचीन किराती बोली का शब्द माना  जाता है।  लाहोल स्पीति में इन दैवीय शक्तियों को खांडरूम कहते हैं। डॉ0 वीरेन्द्र सिंह बर्त्वाल की पुस्तक ‘गढ़वाली गाथाओं में लोेक और देवता’ में उल्लेख किया गया है कि ‘अधिकांशतः इन्हें अविवाहित युवतियों की अतृप्त आत्माएं माना जाता है। चटकीले रंग, श्रंगार, सुन्दर पुष्प और सुमधुर संगीत इन्हें बहुत प्रिय है। विशेषतः बसन्त )तु में, जब पर्वत की चोटियों में नाना प्रकार के पुष्प खिले हों, तब सुमधुर संगीत बजाया जाए तो माना जाता है कि उस संगीतज्ञ के प्राण हर लेती है।.’  

‘.....एक जागर में इन्हें रावण द्वारा शिव को भंेट स्वरूप दी गई कन्या बताया गया है। इन्हें शिव की देवदासियां या लंका की लंक्वाली भी कहा गया है। एक अन्य जागर में इन्हंे रुक्मणियां कहा गया है। कहीं इन्हें सात और कहीं नौ बहने माना गया है।...’

‘.....चौंदाणा गांव में आशा रावत नामक व्यक्ति(राजा) था। उसकी छः पत्नियां थी, किन्तु उनसे उसकी कोई सन्तान नहीं हुयी। जब आयु बहुत हुयी तो आशा मन ही मन बहुत निराश-चिंतित हुआ। मन की व्यथा आँसुओं के रूप में फूट पड़ी। वह चिंतित हो उठा कि मेरा वंश कैसे आगे बढ़ेगा और मेरी जो इतनी बड़ी कृषि भूमि है, उसका उपभोग कौन करेगा? इस अन्न को कौन खायेगा?

एक दिन उसने अपनी सभी पत्नियों को बुलाकर मन की बात उन्हें बताई। इन पत्नियों में सबसे बड़ी रानी बुटोल्या बोली-‘हे स्वामी, पुरुषों के मुहँ से ऐसे निराशाजनक और हताशापूर्ण वचन शोभा नहीं देते हैं। आप चिंतित क्यों होते हो? सातवां विवाह कर लीजिये। आप पंवारों के गांव थाथ जाईए और वहाँ से विवाह करके आईए। आशा रावत थाथ में दीपा पंवार के घर गया। उसने दीपा पंवार को कहा कि मैं निपूता-निःसंतान रह गया हूँ। छः पत्नियों से एक भी संतान नहीं जन्मी, इसलिये मैं तुम्हारी जवान बहन का हाथ मांगने आया हूँ। दीपा पंवार ने आशा रावत को अपनी बहन देवा से विवाह करने का वचन दे दिया। उनका विवाह हो गया। देवा गर्भवती हुई। नौ महिने बाद उसकी नौ कन्याएं पैदा हो गई। इनके नाम कमला, देवा, आशा, बासादेई, इगुला रौतेली, बिगुला रौतेली, सदेई रौतेली, वरदेई रौतेली, गरदुआ रौतेली रखे गये।...’।
यही विलक्षण कन्यायें कुछ समय बाद आछरियां बनी, पुस्तक में आगे ऐसा ही वर्णित है। 

खैटपर्वत पर जाने से पहले कुछ लोगों ने बताया था कि वहाँ खड़ी दीवार पर छोटी-छोटी उरख्याळी (ओखलियां) बनी हुयी है और उनके सामने गिंजाळी (धान कूटने के लिए प्रयोग में आने वाला मूसल) रखी रहती है व रोज सुबह ओखलियों के सामने ताजा भूसा मिलता है। लोगों का मानना है कि रात को आछरियां वहाँ आकर धान कूटती है और चली जाती है। खैट से नीचे उतरने के बाद भटवाड़ा गांव में सड़क किनारे की एक दुकान पर फुरसत में बैठे हुये चौंड निवासी सत्तर वर्शीय श्री भोला राम सेमवाल जी सेे मैने इस बात का जिक्र किया कि ‘खैटपर्वत पर मैं काफी देर तक दीवार पर बनी '
उरख्याळी-गिंजाळी’ वाली जगह ढूंढता रहा परन्तु वह नहीं दिखी।’ तो उन्होंने बताया कि 'उरख्याळी-गिंजाळी जहाँ पर थी उस स्थान पर तो अब रक्षपाल का मन्दिर बन गया है। बचपन में हम घास काटने खैटखाल (खैटपर्वत) जाते थे तो वहाँ पर कई बार ताजा भूसा हमने भी देखा है। सन् 1983 से पहले खैट पर मात्र एक ‘मण्डला’ (पत्थरों से तैयार किया गया मन्दिरनुमा एक ढांचा मात्र) था, जिसके ऊपर एक झण्डी लगी रहती थी। इस कारण कुछ लोग खैटखाल को ‘झण्डीधार’ भी कहते थे।’  

सेमवाल जी से यह नई बात मालूम हुयी कि खैटपर्वत को स्थानीय लोग खैटखाल नाम से जानते हैं। तट, खाई, टीला, घाटी आदि का वर्णन हम जब करते हैं तो उस स्थान के भूगोल की कल्पना हम दिमाग मंे करने लगते हैं।  ठीक इसी प्रकार गढ़वाल में यदि किसी जगह के नाम में यदि ‘खाल’ शब्द जुड़ा हुआ है तो हम समझ जाते हैं कि खाल नाम के उस स्थान से पहाड़ी के दोनांे ओर का दृश्य दिखाई देता होगा। और खैटपर्वत से तो पूरी कायनात ही.....।

भूलवश कुछ लोग आज खैट को कोटी-फैगूल पट्टी के अन्तर्गत मानते हैं जबकि खैट प्रतापनगर तहसील की धारमण्डल पट्टी में स्थित है। कोटी-फैगूल पट्टी भिलगंना के बायीं ओर स्थित है जबकि खैट दायीं ओर। सेना से सेवानिवृत्त तुन्यार निवासी श्री सुरेन्द्र सिंह रौतेला जी खैटपर्वत तक रोप वे ले जाने के लिये काफी उत्साहित दिखे। इस सम्बन्ध में पर्यटन मंत्री श्री सतपाल महाराज जी से भी वे बात कर चुके हैं और शीघ्र ही इस पर कार्यवाही होनी है, उन्होंने बताया। खैटपर्वत भविष्य में सड़क, वायु व रज्जू मार्ग से जुड़ जायेगा तो निस्सन्देह टिहरी गढ़वाल ही नहीं पूरे उत्तराखण्ड का यह एक दर्शनीय व रमणीक स्थल बनेगा।