Monday, December 24, 2018

व्हाई डिड नॉट यू सिंग कमली ‘सतपुली का सैण मा...’

बचपन में एक कारुणिक गीत अक्सर सुनते थे;
द्वी हजार आठ भादौं का मास, सतपुली मोटर बगीन खास।
शिवानन्द को छयो गोवरधन दास, छै हजार रुप्या थै वैका पास।

जिया ब्वै कू बोलणू रोणू नी मैकु .....। 

 (दुःख है कि आज पूरा गीत याद नहीं है। संवत 2008 के भादौं/सन् 1951 सितम्बर माह की घटना है जब सतपुली में पूर्वी नयार नदी की बाढ़ में जन-धन व मवेशियों की भारी हानि हुयी। बाढ़ की विकरालता की कल्पना इसी से की जा सकती है कि नयार नदी पर बना पुल भी बाढ़ की भेंट चढ़ गया। उसी त्रासदी में जीवन खो देने वाले एक शिवानन्द के पुत्र गोवरधन भी थे जिन पर आशु कवियों द्वारा उपरोक्त गीत रचा गया था।)
 सतपुली की बात आते ही इस मार्मिक गीत की पंक्तियां जेहन में गूंजने लगती और ऐसा लगता कि सतपुली आज भी उस घटना से उबर नहीं पाया होगा। सच कहूँ तो सतपुली के प्रति संवेदना का कुहासा वर्षों बाद तब छंटा जब प्रख्यात गीतकार चन्द्र सिंह राही जी ने 1983 में फिल्म ‘‘जग्वाळ’’ के लिए गीत गाया था।
‘नि जाणू नि जाणू कतई नि जाणू सतपुळी का मेळा मेरी बऊ सुरेला।
नि जाणू नि जाणू जमई नि जाणू पंचमी का मेळा मेरी बऊ सुरेला।
सतपुळी का सैण मेरी बऊ सुरेला।..................’
सतपुली का दूसरा रोमाण्टिक पहलू भी है, दिल ने तब माना।
सतपुली मैंने सन् 1990 में पहली बार देखा, जब इलाहाबाद से लौटते हुये कोटद्वार से श्रीनगर जाना हुआ। सन् 1951, 1983 और 1990 के बाद जमाना बहुत बदल चुका है। तीस हजार से अधिक आबादी वाले पूर्वी नयार नदी के बायें तट पर बसा सतपुली आज नगर पंचायत क्षेत्र है। पौड़ी जिले के पन्द्रह विकास खण्डों में से एक सतपुली, दो सौ तिरेसठ गांव वाला विकासखण्ड सतपुली अब एक पृथक तहसील भी है। 105 किलोमीटर लम्बे पौड़ी-कोटद्वार मार्ग के लगभग मध्य में स्थित और समुद्रतल से मात्र साढ़े छः सौ मीटर ऊंचाई पर बसा सतपुली समशीतोष्ण जलवायु वाला नगर है। सतपुली नगर से एक किलोमीटर पश्चिम में पूर्वी व पश्चिमी नयार नदी का संगम है और निरन्तर पश्चिम वाहिनी होते हुये नेगी जी की ‘‘रुकदी छै ना सुख्दी छै, नयार जनी बग्दी छै.......’’ के यथार्त के साथ लगभग पच्चीस किलोमीटर दूरी तय कर ब्यासघाट के पास गंगा नदी की बाहों में समाकर अपना अस्तित्व खो बैठती है। 

आज सतपुली नगर में अनेक कार्यालयों के अतिरिक्त राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाएं, इण्टर कॉलेज, आई0 टी0 आई0, पोलीटेक्निक, नवोदय विद्यालय, राजकीय महाविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थान ही नहीं ‘द हँस फाउण्डेशन’ का सभी सुविधाओं से युक्त 150 बेड का अस्पताल भी है। पौड़ी, कोटद्वार ही नहीं सतपुली नगर देवप्रयाग, थलीसैण आदि महत्वपूर्ण स्थलों से भी सीधा जुड़ा हुआ है। 
माना जाता है कि कोटद्वार से इस मार्ग पर सातवें पुल के पास बसे होने के कारण इसका नाम सात पुल और ‘सतपुली’ पड़ा। उत्तराखण्ड के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी के मौसेरे भाई डेरयाली(गुमखाल) निवासी अड़सठ वर्षीय श्री बीरेन्द्र सिंह बिष्ट जी बताते हैं कि उनके दादा स्व0 चन्द्र सिंह बिष्ट आजादी से पहले सतपुली में बस गये थे और सन् पचास के दशक में वे सतपुली के मालदार लोगों में से थे क्योंकि उनका व्यवसाय ठीक-ठाक चलता था। छहत्तर वर्ष की आयु में उनका देहान्त सन् 1972 में हो गया। श्री बीरेन्द्र सिंह बिष्ट जी का कहना था कि उसी दौर में राजस्थान मारवाड़ से रोजगार की तलाश में जोधराज नाम का एक व्यक्ति आया और दूसरों की मजदूरी करते-करते सतपुली में बस गया और कुछ साल सतपुली का बड़ा व्यापारी बन गया। आज राजस्थान निवासी जोधराज जी के वंशज सतपुली मंे है या नहीं कहा नहीं जा सकता।
डामटा व छाम की ही भांति ‘‘माछा-भात’’ के लिए विख्यात सतपुली को साहित्यकार अशोक कण्डवाल जी के कविता संग्रह ‘‘गौंदार की रात’’ में जगह नहीं मिल पायी। (मुझे यकीन है/ तुम कभी/ डामटा नहीं गये/तुमने/छाम भी नहीं देखा/फिर तुम्हें क्या पता/ जमुना या/ भागीरथी की/ मछलियों की/ पाँखें ओर आँखंे/ कैसी होती है।..........) 

पाँच-छ दशक पहले तक सतपुली में होटल व्यवसायियों की अपेक्षा स्थानीय निवासी कम थे। सड़क मार्ग से जुड़े होने के कारण सुबह जल्दी बस पकड़ने या देर शाम को पहुँचने पर परदेश से आने-जाने वाले लोग प्रायः सतपुली में रुक जाते थे और पौड़ी, कोटद्वार जाने वाली बसें यहाँ पर कुछ देर के लिए अवश्य रुकती थी। फिर जी. एम. ओ. यू. कार्यालय भी सतपुली में था। सतपुली में अक्सर फौजियों की गहमा-गहमी रहती थी। वक्त बदला, फौजियों का आना-जाना कम हुआ क्योंकि ज्यादातर फौजी सुविधाजनक स्थानों पर बस गये हैं। सतपुली में आज आस-पास के गांवों के लोग ही नहीं नौकरी-पेशा बाहरी व्यवसायी लोग भी बस गये हैं।  नयार नदी की उपजाऊ घाटी में बसे खैरासैण, राज सेरा, चमशु, बड़खोलू, रौतेला, बूंगा, बांघाट, बिलखेत, दैसण, मरोड़ा आदि गांवों की भूमि कभी सोना उगलती थी। बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि कुछ दशक पहले तक ही सतपुली गढ़वाल का एक सम्पन्न अन्न भण्डार क्षेत्र था। परन्तु आज पलायन के कारण अधिकांश गांवों की भूमि बंजर पड़ी हुयी है। 
उत्तराखण्ड राज्य की इस अठारहवीं वर्षगांठ पर एक प्रश्न मन में अवश्य उठता है कि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी की इस नयार घाटी में क्या कभी फसलंे फिर से लहलहायेगी, दूध-घी की नदियां फिर से बहेगी, वह बहार फिर से लौट सकेगी, खण्डहर हो चुके घरों में क्या कभी फिर से दीया जल सकेगा?

Wednesday, August 08, 2018

एक महान योद्धा की शहादत दिवस पर.....

        बाबा मोहन उत्तराखण्डी शहीद न होते तो क्या आज उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों को सरकारी नौकरी में आरक्षण मिल पाता? नहीं न! न होते वे शहीद तो गैरसैण राजधानी को लेकर सरकार पर इतना दबाव बना रहता? नहीं न! और हम इतने कृतघ्न हैं कि उनके शहीद दिवस पर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं। उनकी न कोई मूर्ति, न उनके नाम से विश्वविद्यालय, न चिकित्सालय, न पुस्तकालय, न कोई कॉलोनी, न स्कूल कॉलेज ही और न कोई स्मारिका। कुछ भी तो नहीं। हम लगभग उनको भुला चुके हैं। एक व्यक्ति गैरसैण राजधानी को लेकर अपना प्राणोत्सर्ग कर चुका है और हम हैं कि........।
            कौन थे बाबा मोहन उत्तराखण्डी? जिला गढ़वाल के एकेश्वर ब्लॉक के बंठोली गांव में सेना अधिकारी मनवर सिंह नेगी व सरोजनी देवी के पुत्र रूप में 3 दिसम्बर 1948 को जन्में मोहन सिंह नेगी एक जीवट, कर्मठ व दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। प्रारम्भिक शिक्षा मैन्दाणी में और इंटर तक की पढ़ाई दुगड्डा में करने के बाद 1969 में उन्होंने रेडियो आपरेटर ट्रेड में आई०टी०आई० किया और 1970 में बंगाल इंजीनियर्स में भर्ती हो गये। सेना में उनका ज्यादा दिन मन नहीं लगा और 1975 में फौज की नौकरी छोड़ गांव में खेती बाड़ी से गुजारा करने लगे और साथ ही समाजसेवा भी। उनके व्यवहार व सामाजिक दायित्वों के निर्वाहन में उनकी भूमिका देखकर वे 1983 से वे निरन्तर दो बार ग्रामप्रधान रहे।
            ग्रामप्रधानी के दौरान ही उनका जुड़ाव यू.के.डी. से हुआ तो फिर तो उनपर आन्दोलनों का जुनून सवार हो गया। उत्तराखण्ड आन्दोलन को लेकर 1994 में तीन सौ दिन का क्रमिक अनशन किया तो 1994 मुज्जफर काण्ड का उन्हें इतना आघात लगा कि दाढ़ी व बाल काटना ही छोड़ दिया, भरा-पूरा परिवार छोड़ दिया, गेरुआ वस्त्र पहनना व केवल एक बार भोजन करना शुरू किया और यहाँ तक कि अपना पूरा नाम ‘मोहन सिंह नेगी’ की जगह ‘बाबा मोहन उत्तराखण्डी’ लिखना शुरू किया। और यह जूनून उन पर अन्तिम समय तक सवार रहा जब तक वे गैरसैण राजधानी को लेकर आदिबद्री के निकट बेनीताल में टोपरी उड्यार में 02 जुलाई 2004 से अकेले ही अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर नहीं बैठ गये। यहीं 39 दिन की भूख हड़ताल ने 9 अगस्त 2004 को उनकी जीवनलीला समाप्त कर दी।
         उनकी शहादत की खबर सुनकर राज्यवासी आक्रोशित हो उठे, जगह-जगह आन्दोलन हुये और दस अगस्त 2004 को प्रदेश व्यापी हड़ताल व बन्द किया गया। उत्तराखण्ड सरकार ने ‘डेमेज कण्ट्रोल’ के लिए आनन-फानन में आन्दोलनकारियों के लिए आरक्षण की घोषणा कर दी और बाबा मोहन उत्तराखण्डी को भुला दिया गया। किसी शायर ने क्या खूब कहा है;
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

(स्रोत साभार- एल.मोहन कोठियाल के लेख ‘जिसने गैरसैण के लिये जान दे दी थी.....’ के सम्पादित अंश)

Tuesday, August 07, 2018

राजनीतिक और राजनीति

लोकतंत्र में इतनी स्वतंत्रता तो है कि राजनीतिज्ञों को गाहे-वेगाहे हर कोई कोस सकता है। हाँ, कोसने का अन्दाज सबका जुदा होता है। एक साधारण व्यक्ति और एक कवि की भाषा शैली में अन्तर बहुत होता है। कुमाऊं के सुप्रसिद्ध कवि शेरदा ‘अनपढ और गढरत्न नरेन्द्र सिंह नेगी जी की उलाहना भरी रचनाओं में आप स्वयं ही देख लें।
तुम समाजाक इज्जतदार, हम भेड़-गंवार        - शेरदा अनपढ -
तुम सुख में लोटी रया,
हम दुःख में पोती रया !
तुम स्वर्ग, हम नरक,
धरती में, धरती आसमानौ फरक !

तुमरि थाइन सुनुक र्वट,
हमरि थाइन ट्वाटे-ट्वट !
तुम ढडूवे चार खुश,
हम जिबाई भितेर मुस !
तुम तड़क भड़क में,
हम बीच सड़क में !
तुमार गाउन घ्युंकि तौहाड़,
हमार गाउन आंसुकि तौहाड़ !
तुम बेमानिक र्वट खानयाँ,
हम इमानांक ज्वात खानयाँ !
तुम पेट फूलूंण में लागा,
हम पेट लुकुंण में लागाँ !
तुम समाजाक इज्जतदार,
हम समाजाक भेड़-गंवार !
तुम मरी लै ज्यूने भया,
हम ज्यूने लै मरिये रयाँ !
तुम मुलुक के मारण में छा,
हम मुलुक पर मरण में छा !
तुमुल मौक पा सुनुक महल बणैं दीं,
हमुल मौक पा गरधन चड़ै दीं !
लोग कुनी एक्कै मैक च्याल छाँ,
तुम और हम,
अरे! हम भारत मैक छा,
सो साओ ! तुम कै छा !
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गरीब दाता मातबर मंगत्या        - नरेन्द्र सिंह नेगी -

तुम लोणधरा ह्वैल्या,
पर हम गोर-बखरा नि छां।
तुम गुड़ ह्वै सकदां,
पर, हम माखा नि छां।
तुम देखि हमारी लाळ नि चूण,
तुमारि पूंछ पकड़ि हमुन पार नि हूण।
हम यै छाला तुम वै छाला।
तुमारी आग मांगणू
गाड तरि हम नि ऐ सकदा।
तुमारा बावन बिन्जन, छत्तीस परकार
तुम खुणी, हम नि खै सकदा।
हमारी कोदै रोट्टी, कण्डाळ्यू साग
हमारी गुरबत हमारू भाग।


तुम तैं भोट छैणी छ, त आवा
हमारी देळ्यूं मा खड़ा ह्वा
हत्त पसारा ! .... मांगा !
भगवानै किरपा सि हमुमां कुछ नी, पर
तुमारी किरपा सि दाता बण्यां छां।।

    @@@@@@

Saturday, August 04, 2018

माँ को याद करते हुये..............



       माँ की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 2011 में माँ हमें छोड़ गयी थी। यदि माँ जीवित होती तो आज चौरासी की होती, परन्तु वह तो सात साल पहले ही चौरासी के जाल से मुक्त हो गयी। शास्त्रों में ज्ञान का भण्डार है किन्तु हम शोक में डूबे रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्ययोग के माध्यम से समझाते हुए कहा कि;

नैनं छिदन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः !
न चौनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः !!

       माँ डेढ़ साल तक स्किन (बायीं जांघ के) कैंसर से ग्रस्त रही। पहले वह सामने की ओर घुटने के नीचे था, चिकित्सकों की बातों में आकर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा वह ऑपरेट किया गया तो कुछ महीनों बाद जांघ पर निकल गया और फिर बढ़ता गया। दवाईयां सब फेल हो गयी यहाँ तक कि पतंजलि का स्वर्ण भस्म, डायमंड पावडर, गिलोय आदि सभी कुछ। बाद में किसी ने कीमोथेरेपी की सलाह दी और किसी ने रेडियोलॉजी की, परन्तु चिकित्सकों ने आयु अधिक होने का हवाला देकर केवल सेवा करने को कहा। होनी को कौन टाल सकता है। यह मानकर सन्तोष कर लेता हूँ कि सभी की माँ एक न एक दिन उन्हें छोड़ कर चली जाती है।
           मेरी माँ पढ़ी लिखी नहीं थी, निपट अपढ़ थी। परन्तु मुझे शिक्षित करने को लेकर वह सचेत भी थीं। मेरी एडमिशन फीस हो या मासिक फीस, घर में न होने पर वह गांव में ऊज-पैंछ(उधार) कर व्यवस्था कर लेती थी और न मिलने पर अनाज भी बेच देती। पिताजी सेना में थे, जिनका भेजा गया मनिऑर्डर कभी-कभी समय पर नहीं मिल पाता था।(मनिऑर्डर न मिलने का कारण डाक व्यवस्था ही दोषी नहीं थी बल्कि मुख्य था हमारे सात-आठ गांवों का डाकखाना जिस दुकानदार को मिला हुआ था वह मनिऑर्डर आने की सूचना समय पर नहीं देता था। लोग कहते थे कि वह लोगों के मनिऑर्डरों से अपना बिजनिस चला रहा है अर्थात उन पैंसो को ‘रोटेट’करता था)
         खेती-किसानी के कार्य के समय माँ उसके लिए पूरी तरह समर्पित हो जाती थी। तब उसके लिए मेरी पढ़ाई-लिखाई व स्कूल कॉलेज कोई मायने नहीं रखता था केवल खेती प्राथमिकता होती। मुझे आदेश मिलता कि आज स्कूल नहीं जायेगा क्योंकि आज रोपाई है या आज मण्डवार्त है या आज मळवार्त है या आज हल बाना है और हळया के साथ एक सहायक की जरूरत है आदि आदि। मेरे ना-नुकुर करने पर वह गुस्सा करते हुये भी गर्व से कहती ‘हम किसाण हैं। (किसाण अर्थात किसान, वैसे गढ़वाली में किसाण ‘कर्मठ’ को भी कहा जाता है) माँ सचमुच में ही किसाण थी- दोनो अर्थों में। उसने हम नादान भाई-बहनों के साथ अकेले दम पर पूरी खेती सम्भाल रखी थी। माँ के बलबूते ही तब हमारे सिंचित खेतों से लगभग बीस बोरी धान और बीस दोण गेंहूं होने की मुझे याद है और उड़द, मसूर, भट्ट आदि दालें व काखड़ी, मंुगरी के साथ भेण्डी, आलू, प्याज व चौलाई, राई आदि सब्जियां भी खूब होती थी। उखड़ थे सही, परन्तु दूर थे इसलिए उन्हें छोड़ दिया गया था। बिना दूध के हम कभी रहे नहीं और न मोल का ही खाया, एक भैंस हमेशा आंगन में होती थी।
         खेती-किसानी के काम में मेरी रुचि न होने या न कर सकने के कारण माँ अक्सर दुखी होकर कहती थी कि ‘कैसे खायेगा तू ? न तू भैंस दुहना जानता है, न हल लगान और न लकड़ियां काटना। तुझे कौन लड़की देगा? अकेले पढ़-लिखकर हो जायेगा तेरा गुजारा?.......’ माँ की जितनी समझ थी उस हिसाब से उसकी चिन्ता वाजिब थी। परन्तु माँ के ऐसे प्रश्नों का मेरे पास एक ही उत्तर होता कि सभी का गुजारा हो जाता है माँ, हर कोई अपना पेट भर लेता है। और ईश्वर की दया से आज बिना खेती-किसानी के गुजारा कर ले रहा हूँ।
         परन्तु आज माँ नहीं है। माँ नहीं है तो खेत बंजर हो गये हैं, घर-आंगन सूना पड़ा है, मकान में दीमक और मकड़ियों ने ठिकाना बना लिया है, माँ के लगाये पेड-पौधे सूख गये हैं या सूखने की कगार पर हैं। गांव में रौनक नहीं है और गांव अपना जैसा भी नहीं है। जिस आंगन में हम उछल-कूद करते थे वहाँ अब बन्दरों की धमा-चौकड़ी है। सब कुछ चला गया है माँ के साथ। ऐसे में तुम्हारा न होना बहुत सालता है माँ।...........
  विनम्र श्रद्धांजलि माँ।

Sunday, May 13, 2018

मरास की महत्ता


        आज घर के पिछवाड़े लगभग पांच सौ वर्गफीट के किचन गार्डन में तीन बाय तीन फिट का एक गड्ढ़ा बना दिया है मरास के लिए। फल व सब्जी के छिलके जो पहले कूड़े के ढेर में चले जाते थे अब हम उसे मरास में डालेंगे। बीच-बीच में पलटते रहने से यह जैविक खाद बनेगी और घर के गमलों व किचन गार्डन के काम आयेगी। गढ़वाली भाषा में ‘मरास’ गोबर के ढेर को कहते हैं। घरों में ढोर-डंगरों के मल को एक नियत स्थान पर ढेर बनाकर रखा जाता है और सड़ने पर उसे खाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं। मरास संभवतः ‘मरा’ व ‘अंश’ शब्दों से मिलकर बना होगा। जो कि पहले मराशं, फिर मराश और अब मरास कहकर उच्चारित हो रहा है। कभी-कभी मरास शब्द का प्रयोग केवल एक ढेर के लिए भी होता है। यथा; ‘तै थैंं खाणै पूरी मरास छैन्दि...।’ ‘अफु मरास कर पसर्यूं अर हैका पर हुकम चलौणू....।’(विस्तार में तो गढ़वाली भाषा के महारथी रमाकांत बेंजवाल जी ही बता सकते हैं।)
      
मरास की बात चली तो बचपन की याद आ गयी। गांव के हमारे छः वास(तीन बौण्ड/पाण्डा और तीन ओबरे) वाले घर में मेरा व मेरे चाचा जी का परिवार रहता था। तीन बौण्ड(ऊपर के कमरों) के आगे पूरी लम्बाई में ग्रिल से बन्द बरामदा था और उसके आगे पूरी लम्बाई में ही लगभग डेढ़ फीट चौड़ा पत्थरों की स्लेट का छज्जा। आंगन में उतरने के लिए सीढ़ी दोनों परिवारों की एक ही थी। आंगन के खूंटों पर दोनो परिवारों की कम से कम दो भैंसें व उनके बछड़े तथा बैल बन्धे रहते थे, यानि कि कम से कम सात-आठ पशु। दोनों परिवार अपने-अपने पशुओं का गोबर उठाते और अपनी-अपनी मरास में डाल देते। लगभग डेढ़ सौ घन फीट क्षमता वाला हमारी मरास का गड्ढा छ महीने में तो भर ही जाता था। क्योंकि डंगरों द्वारा खाने से छोड़े गये घास व पुआल के अलावा डंगरों के नीचे बिछाया गया तुंगला व अन्य घास के पत्तों के साथ घर के फल सब्जियों के छिलके और घर के आंगन में पेड़-पौधों से झड़े हुय पत्ते काफी हो जाते थे। हर ढाई-तीन महीने बाद माँ कहती कि ‘जा, मरास पलट दे!’ अर्थात फावड़े से ऊपर का गोबर नीचे और नीचे का ऊपर कर दे, ताकि वह भली-भांति सड़ जाय। तो मैं अक्सर टाल जाता था। भला-बुरा कहते हुये माँ फिर स्वयं ही पलटने लग जाती।
      मरास को पलटते रहने की अहमियत तब पता नहीं थी। मेरी माँ निपट अनपढ़ थी परन्तु कृषिकार्य की समझ उसकी बहुत विकसित थी। कौन सा बीज किस खेत में और कब बोना चाहिए वह भली-भंाति जानती थी। कौन से पौधे की कलम कब, कैसे और कहाँ लगाना है वह जानती थी। आज घर में बेटा व बहू पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय से कृषि में स्नातक/परास्नातक अवश्य हैं परन्तु किचन गार्डन तो छोड़िए उन्हें अपनी नौकरियों के चलते गमलों को देखने तक की फुरसत नहीं है।
      बैसाख, जेठ में जहाँ अरबी, अदरक व हल्दी के खेतों में गोबर डाला जाता वहीं मंगसीर में गेहूं बोने के बाद गोबर अवश्य डालते। गांव के सभी काम सामुदायिकता की भावना से होते थे इसलिए खेतों में गोबर भी औरतें
मिल-जुलकर ही डालती थी। पुरुष फावड़े से खोदकर गोबर झालों(रिंगाल के बड़े टोकरों) में भरता और औरतंें सिर पर रखकर कई-कई फेरों में गोबर को खेतों तक पहुँचाती। औरतों का झुण्ड गोबर के भारी-भारी टोकरे सिर पर होने के बावजूद हँसते-बातें करते हुये घर से खेत के बीच का फासला तय करती और खिलखिलाते व ठिठोली करते हुये वापस लौटती। खेतों में गोबर डालने की इस प्रक्रिया को गढ़वाली भाषा में ‘मळवार्त’ कहा जाता और मळवार्त के दिन इन मेहनतकश औरतों को दोपहर का भोजन, शाम को चाय के साथ घी का हलुवा या आलू-प्याज की पकोड़ी और रात को लबा-लब घी के साथ गरमा-गरम लड़बड़ी दाल भात।

Monday, March 19, 2018

बसन्त ऋतु के बहाने



  जब डाण्डी-काण्ठी में बर्फ पिघलने लगती, ठण्डी चुभती हवाओं से निजात मिलने लगती, घाटियों में फ्यूंली और खेतों में सरसों का पीलापन छा जाता और गुदड़ी में देर तक दुबकने की अपेक्षा मन बाहर भागने के लिये मचल उठता तब लगता था कि सचमुच बसन्त आ गया है। यह बचपन की बात है।  
    चैत की पहली सुबह मुहँ अन्धेरे ही आधी-अधूरी नींद की खुमारी में षाम को धो-धाकर रखी गयी फुलकण्डी (रिंगाल की बनी छोटी टोकरी) उठाते और चल पड़ते ताजे फूल चुनने। तब घर-घर षौचालय नहीं थे इसलिये गाड-गदेरे या नहर किनारे निवृत्त होकर फुर्ती से फूल चुनने लगते। फूलदेई का नियम है कि सूरज उगने से पहले ही फूल घर की देहरी पर डाले जायें। अपने घर में ही नहीं अपितु आस-पास के उन घरों की देहरियों पर भी जिन घरों में अकेले बुजुर्ग या केवल वयस्क रह रहे हों (रिष्ते निभाने के लिये कम लोभवष ज्यादा)। चैत्र मास के अन्त में अर्थात पापड़ी (बैषाख) सक्रान्ति को ऐसे घरों से आषीर्वाद के अतिरिक्त थोड़ी-बहुत नगदी जो मिल जाती थी।

    भिलंगना की उपत्यका में बसे मेरे गांव सान्दणा से टिहरी (अब जलमग्न) दो मील हवाई दूरी और लगभग ढाई सौ मीटर गहराई पर दक्षिण पष्चिम में है जबकि मेरी माँ का मायका कठूली लगभग एक मील हवाई दूरी पर ही उत्तर-पूर्व में सौ मीटर ऊँचाई पर स्थित है। चौथी-पांचवी कक्षा में चम्पाधार स्कूल जो कि मेरे गांव व कठूली के बीच था, में पढ़ाई की तो स्कूल से छुट्टी होने के बाद महीने में एक-दो बार मैं अपने सहपाठी कठूली के सयाणा मामा के बेटे बल्ली (बलवीर) के साथ ननिहाल चला जाता था। पांचवीं कक्षा में रहा हूँगा जब एक बार चैत षुरू होने से ठीक एक दिन पहले कठूली गया तो बल्ली ने कहा कि चलो एक घर बनाते हैं। घर या घरौन्दा बनाने के मूल में एक मन्दिर बनाने व प्रकृति पूजा का भाव रहता होगा षायद। मैंने झट से हाँ कर दी, इसलिये कि यह मेरे लिये नया अनुभव था, हमारे गांव में इस तरह के घरौन्दे बनाने की परम्परा जो नहीं थी। इस काम में मैंने बढ़-चढ़ कर उसका साथ दिया। मन्दिरों की आकृति का ठीक-ठाक ज्ञान न होने के कारण उसके घर के आंगन के एक कोने में हमसे जो बना वह आम घरों की भांति ही था- वही दो मंजिला घर। स्वयं हमने गोबर-मिट्टी से उस घर की लिपाई की और ढालदार छत के साथ प्रतीक रूप में सामने दरवाजे खिड़कियां भी बना दी। दूसरी सुबह चैत की पहली तारीख को हम दोनों ने सुबह चुनकर लाये गये ताजे फ्यूंली, लैण्टाना, ग्वीर्याळ, डैंकण आदि के फूलों से उस घराैंदे को सजाया और अनाम देवी/देवता की पूजा कर व आषीर्वाद लेकर स्कूल चले गये। उस चैत महीने में कम से कम पाँच-छः बार मैं स्कूल से सीधे कठूली गया, केवल इसलिये कि उस घर की देखभाल कर फूल चढ़ा सकूं और आषीर्वाद ले सकंू। सच कहूँ तो मन में कहीं यह आषंका भी थी कि ऐसा न हो कि घरौन्दा बनाने और पूजा करने का सारा प्रतिफल अकेले बलवीर को ही मिल जाय और मैं रीता ही रह जाऊँ।
(आज बलवीर हिन्दुस्तान के सबसे खूबसूरत शहर चण्डीगढ़ में बस गया है और मैं देहरादून वाला हो गया।)

Wednesday, February 14, 2018

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(4)

पूजा-अर्चना के बाद मैं खैटपर्वत पर श्रीमद्भागवत कथा व शिवपुराण के आयोजक पण्डित प्रेमदत्त नौटियाल ‘कामिड’ जी से मिला। उन्हें अपना परिचय दिया और अपनी दो पुस्तकें भंेट की, वे बड़े गदगद हुये। बौंसेळ -पिलखी निवासी नौटियाल जी ने बताया कि ‘पहले खैट पर्वत एक निर्जन स्थान ही था। आम लोगों में यह धारणा थी कि इस पर्वत पर आने वाले को आछरी हर लेती है, इसलिये रुकना तो छोड़िये आम आदमी यहाँ आने से ही आदमी कतराता था। सन् 1983 में उनके द्वारा एक छोटा सा मन्दिर बनवाया गया, तब से प्रतिवर्ष भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा है। फलस्वरूप आज लोगों की धारणा ही नहीं बदली बल्कि उनकी आस्था भी बढ़ी और आज इसी आस्था के कारण ही यहाँ पर दो मन्दिर, धर्मशाला, भोजनालय, भागवत कथा के लिये मंच और प्रवेशद्वार आदि का निर्माण हो चुका है। विद्युत लाईन बिछने से खैट मन्दिर जगमगाने लगा है। थाथ गांव से पैदल मार्ग तो बना ही है बल्कि भटवाड़ा से भी सड़क निर्माण का कार्य शुरू हो चुका है। पेयजल आदि अन्य आवश्यक सुविधाओं की मांग को लेकर भागवत कथा समाप्त होने के तुरन्त बाद वे यहीं आमरण अनशन पर बैठ  जायंेगे....।’  आछरियों का स्मरण कर मैंने मन ही मन अपने से पूछा कि यह कैसा परियों का देश है जहाँ पर लोग अपनी मांग मनवाने के लिये धरने पर बैठते हैं। स्वायत्त राज्य की मांग को लेकर उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेता व पूर्व मंत्री दिवाकर भट्ट जी भी एक बार खैट पर आमरण अनशन पर बैठकर शासन-प्रशासन के पसीने छुड़वा चुके हैं और अब कामिड जी....।  हे भगवती, तू ही देखना!  

कामिड जी से बातचीत के बाद रसोईघर में गया। भोजन वहाँ पर तैयार था- दाल, सब्जी, रोटी व भात भी। इस ऊँचाई पर भरपेट स्वादिष्ठ भोजन मिल जाये तो और क्या चाहिये। उन्होंने ही बताया कि 'इस बार कथा सुनने कम लोग ही आ रहे हैं। थाथ, म्यूंडा, सारफूल, नन्वां, कोळ, भटवाड़ा, तुन्यार आदि गांवों से लोग आते हैं और शाम को वापिस लौट जाते हैं। हाँ, भण्डारे के दिन अवश्य डेढ़-दो सौ श्रद्धालु आने की उम्मीद है।' रसोईघर में काम करने वाले तीनो लोग स्थानीय ही थे, परन्तु भोजन के बाद बिना दूध की चाय देने पर मैंने पूछा कि ‘क्या कोई श्रद्ध ा लु दूध लेकर नहीं आता है?’ तो उनका कहना था कि ‘गांव में अब कितने लोग हैं जो भैंस पालते हैं और जिनकी भैंस है भी उनमंे इतनी श्रद्धा नहीं है कि दूध पहुँचा दें।’  मैंने उन्हें श्रीअमरनाथ यात्रा मार्ग पर चलने वाले लंगरों के बारे में अपने अनुभव बताये तो उन्होंने कहा कि ‘इस प्रकार की आस्था हमारे लोगों में नहीं है। यह तो पण्डित नौटियाल जी की ही साख है कि कुछ दानी लोग उनके कहने पर आटा, चावल, दाल, आदि राशन खच्चरों से यहाँ भिजवा देते हैं। अन्यथा यहाँ पर खाना क्या चाय भी शायद ही मिले। पानी भी थाथ गांव से खच्चरों से मंगाना पड़ता है। भण्डारा निपटने के बाद जो राशन बच जाती है हम उसे यहीं छोड़़ देते हैं, जिससे कभी भी कोई आना चाहें तो वे खाना बनाकर खा सकते हैं, धर्मशाला में ओढ़ने-बिछाने के लिये काफी कम्बल हैं
और लोग यदा-कदा आते भी हैं।’ बातें करते हुये रात काफी बीत चुकी थी। धर्मशाला जाने के लिये बाहर निकला तो एकाएक शीतलहर सी चलने का अहसास हुआ। मई की गर्मी में कहाँ मैदानों में पंखे का रेगुलेटर पूरा घुमाने के बाद भी बार-बार छत पर नजर जाती है कि पंखा चल भी रहा है या नहीं और कहाँ खैटपर्वत पर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानों कई चलते कूलर एक साथ मेरी ओर घुमा दिये हों। धर्मशाला में कम्बल काफी थे, परन्तु मैं आदतन अपने साथ स्लीपिंग बैग व एक गरम शॉल जरूर रखता हूँ।

सुबह उठकर बाहर घूमने लगा। दुर्गा मन्दिर के पीछे एक समतल व खुली जगह है, जिसे ‘आछरी खल्याण’ (परियों का आंगन) कहा जाता है। वहाँ से नीचे भिलंगना घाटी का विहंगम व मनभावन दृश्य देखा। धारमण्डल, ढुंगमन्दार ही नहीं भिलंगना पार माता चन्द्रबदनी मन्दिर का कुछ हिस्सा और खासपट्टी व कोटी-फैगूल के अनेक गांवों का ‘बर्ड आई व्यू’ यहाँ से दिखाई देता है।

 मन्दिर परिसर में क्या किसने बनवाया और क्या किसने, सभी जगह संगमरमर पत्थरों पर नाम-पते लिखकर दानदाताओं ने चिपका रखे थे। जब मूल रूप से अपने गांव के और टिहरी के जाने-माने वकील स्वर्गीय वंशीलाल पुण्डीर जी की धर्मपत्नी श्रीमती रोशनी देवी पुण्डीर द्वारा कथामंच निर्माण में सहयोग करने के बावत लगाया गया मार्बल पत्थर पढ़ा तो अच्छा लगा। नीचे उतरकर पण्डित नौटियाल जी को खैटपर्वत के विकास जैसे पुनीत कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन देकर मैंने विदा ली। 

खैट से वापस लौटते हुये मैंने अंकित को छेड़ा ‘यार, खैट पर्वत पर आछरियां तो आई ही नहीं।’  परन्तु उसका जवाब था कि ‘रात को ढोल बजने की आवाज आपने नहीं सुनी सर क्या?’  तो मैं अवाक रह गया, रात आछरियां खैट से गुजरी और मैं सुन नहीं पाया। ले बेटा, मैं इस बार फिर वंचित रह गया। वैसे मेरा मानना है कि लोगों में यह भ्रान्ति मनोवैज्ञानिक होती है। वृन्दावन(मथुरा) में एक छोटी सी बगिया है जिसे वहाँ के स्थानीय लोग वृन्दावन गार्डन कहते हैं। वहाँ घूमते हुये गाईड ने सरल व सपाट शब्दों में बताया कि ‘साहब, रात को यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण बांसुरी बजाते हैं। परन्तु जो सुनता है उसकी मौत हो जाती है।’  मैं मन ही मन हँसा कि इस तरह की आस्था को क्या कहें? अन्धविश्वास? बांसुरी तो बजती है परन्तु सुनने वाला कोई जीवित नहीं बचता। तो भाई, फिर यह किसने बताया होगा कि रात को बांसुरी बजती है? खैटपर्वत की आछरियों के बारे में क्या यह ऐसी ही आस्था नहीं है?

आखिर आछरी क्या है? कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड, नेपाल आदि हिमालय क्षेत्र की आस्थाएं व मान्यताएं एक सी है। इनका कहीं न कहीं आपस में आध्यात्मिक संबन्ध है। जिन्हें हम आछरी कह रहे हैं हिमाचल में उन्हें जोगणियां और अनेक जगहों पर इन्हें यक्षणियां कहा जाता है। ‘आछरी’ शब्द वस्तुतः प्राचीन किराती बोली का शब्द माना  जाता है।  लाहोल स्पीति में इन दैवीय शक्तियों को खांडरूम कहते हैं। डॉ0 वीरेन्द्र सिंह बर्त्वाल की पुस्तक ‘गढ़वाली गाथाओं में लोेक और देवता’ में उल्लेख किया गया है कि ‘अधिकांशतः इन्हें अविवाहित युवतियों की अतृप्त आत्माएं माना जाता है। चटकीले रंग, श्रंगार, सुन्दर पुष्प और सुमधुर संगीत इन्हें बहुत प्रिय है। विशेषतः बसन्त )तु में, जब पर्वत की चोटियों में नाना प्रकार के पुष्प खिले हों, तब सुमधुर संगीत बजाया जाए तो माना जाता है कि उस संगीतज्ञ के प्राण हर लेती है।.’  

‘.....एक जागर में इन्हें रावण द्वारा शिव को भंेट स्वरूप दी गई कन्या बताया गया है। इन्हें शिव की देवदासियां या लंका की लंक्वाली भी कहा गया है। एक अन्य जागर में इन्हंे रुक्मणियां कहा गया है। कहीं इन्हें सात और कहीं नौ बहने माना गया है।...’

‘.....चौंदाणा गांव में आशा रावत नामक व्यक्ति(राजा) था। उसकी छः पत्नियां थी, किन्तु उनसे उसकी कोई सन्तान नहीं हुयी। जब आयु बहुत हुयी तो आशा मन ही मन बहुत निराश-चिंतित हुआ। मन की व्यथा आँसुओं के रूप में फूट पड़ी। वह चिंतित हो उठा कि मेरा वंश कैसे आगे बढ़ेगा और मेरी जो इतनी बड़ी कृषि भूमि है, उसका उपभोग कौन करेगा? इस अन्न को कौन खायेगा?

एक दिन उसने अपनी सभी पत्नियों को बुलाकर मन की बात उन्हें बताई। इन पत्नियों में सबसे बड़ी रानी बुटोल्या बोली-‘हे स्वामी, पुरुषों के मुहँ से ऐसे निराशाजनक और हताशापूर्ण वचन शोभा नहीं देते हैं। आप चिंतित क्यों होते हो? सातवां विवाह कर लीजिये। आप पंवारों के गांव थाथ जाईए और वहाँ से विवाह करके आईए। आशा रावत थाथ में दीपा पंवार के घर गया। उसने दीपा पंवार को कहा कि मैं निपूता-निःसंतान रह गया हूँ। छः पत्नियों से एक भी संतान नहीं जन्मी, इसलिये मैं तुम्हारी जवान बहन का हाथ मांगने आया हूँ। दीपा पंवार ने आशा रावत को अपनी बहन देवा से विवाह करने का वचन दे दिया। उनका विवाह हो गया। देवा गर्भवती हुई। नौ महिने बाद उसकी नौ कन्याएं पैदा हो गई। इनके नाम कमला, देवा, आशा, बासादेई, इगुला रौतेली, बिगुला रौतेली, सदेई रौतेली, वरदेई रौतेली, गरदुआ रौतेली रखे गये।...’।
यही विलक्षण कन्यायें कुछ समय बाद आछरियां बनी, पुस्तक में आगे ऐसा ही वर्णित है। 

खैटपर्वत पर जाने से पहले कुछ लोगों ने बताया था कि वहाँ खड़ी दीवार पर छोटी-छोटी उरख्याळी (ओखलियां) बनी हुयी है और उनके सामने गिंजाळी (धान कूटने के लिए प्रयोग में आने वाला मूसल) रखी रहती है व रोज सुबह ओखलियों के सामने ताजा भूसा मिलता है। लोगों का मानना है कि रात को आछरियां वहाँ आकर धान कूटती है और चली जाती है। खैट से नीचे उतरने के बाद भटवाड़ा गांव में सड़क किनारे की एक दुकान पर फुरसत में बैठे हुये चौंड निवासी सत्तर वर्शीय श्री भोला राम सेमवाल जी सेे मैने इस बात का जिक्र किया कि ‘खैटपर्वत पर मैं काफी देर तक दीवार पर बनी '
उरख्याळी-गिंजाळी’ वाली जगह ढूंढता रहा परन्तु वह नहीं दिखी।’ तो उन्होंने बताया कि 'उरख्याळी-गिंजाळी जहाँ पर थी उस स्थान पर तो अब रक्षपाल का मन्दिर बन गया है। बचपन में हम घास काटने खैटखाल (खैटपर्वत) जाते थे तो वहाँ पर कई बार ताजा भूसा हमने भी देखा है। सन् 1983 से पहले खैट पर मात्र एक ‘मण्डला’ (पत्थरों से तैयार किया गया मन्दिरनुमा एक ढांचा मात्र) था, जिसके ऊपर एक झण्डी लगी रहती थी। इस कारण कुछ लोग खैटखाल को ‘झण्डीधार’ भी कहते थे।’  

सेमवाल जी से यह नई बात मालूम हुयी कि खैटपर्वत को स्थानीय लोग खैटखाल नाम से जानते हैं। तट, खाई, टीला, घाटी आदि का वर्णन हम जब करते हैं तो उस स्थान के भूगोल की कल्पना हम दिमाग मंे करने लगते हैं।  ठीक इसी प्रकार गढ़वाल में यदि किसी जगह के नाम में यदि ‘खाल’ शब्द जुड़ा हुआ है तो हम समझ जाते हैं कि खाल नाम के उस स्थान से पहाड़ी के दोनांे ओर का दृश्य दिखाई देता होगा। और खैटपर्वत से तो पूरी कायनात ही.....।

भूलवश कुछ लोग आज खैट को कोटी-फैगूल पट्टी के अन्तर्गत मानते हैं जबकि खैट प्रतापनगर तहसील की धारमण्डल पट्टी में स्थित है। कोटी-फैगूल पट्टी भिलगंना के बायीं ओर स्थित है जबकि खैट दायीं ओर। सेना से सेवानिवृत्त तुन्यार निवासी श्री सुरेन्द्र सिंह रौतेला जी खैटपर्वत तक रोप वे ले जाने के लिये काफी उत्साहित दिखे। इस सम्बन्ध में पर्यटन मंत्री श्री सतपाल महाराज जी से भी वे बात कर चुके हैं और शीघ्र ही इस पर कार्यवाही होनी है, उन्होंने बताया। खैटपर्वत भविष्य में सड़क, वायु व रज्जू मार्ग से जुड़ जायेगा तो निस्सन्देह टिहरी गढ़वाल ही नहीं पूरे उत्तराखण्ड का यह एक दर्शनीय व रमणीक स्थल बनेगा।

Tuesday, January 23, 2018

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(3)

थोड़ी देर रुककर फिर आगे बढ़े। कुछ दूरी तक पहाड़ी के पार्श्व भाग में बांज के जंगल के बीच चले, लगभग तीन-साढ़े तीन सौ मीटर तक खड़ी चढ़ाई और फिर समतल भूभाग पर पचास-साठ मीटर दूरी का तीन फीट चौड़ा रास्ता, बल्कि रास्ता क्या इसे बालकोनी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। क्योंकि रास्ते के नीचे भटवाड़ा-गडोलिया की ओर सैकड़ों फिट गहरी खाई थी। भगवान न करे इस जगह पर यदि कोई फिसल जाय तो जान बचने की बात तो दूर रही शरीर के टुकड़े ही ढूंढ़ते रह जायेंगे परिजन। बालकोनी पार कर जब रक्षपाल मन्दिर में पहुँचे तो ऊपर वाले का आभार जताये बिना न रह सका। 

रक्षपाल मन्दिर के सामने की चट्टान पर भटवाड़ा गांव के कुछ लोग सब्बल, गैंती से पत्थर निकाल रहे थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि मन्दिर के सामने जो थोड़ी समतल व खुली जगह है उसे और चौड़ा कर हेलीपैड बनाया जा रहा है। आने वाले समय में श्र द्धालु वैष्णव देवी की भांति खैट मन्दिर दर्शन के लिये हेलीकॉप्टर से पहुँच सकेंगे।
यह‘रक्षपाल मन्दिर मूलतः मधु-कैटभ का मन्दिर है, इसी स्थान पर माँ दुर्गा ने मधु-कैटभ दैत्यों का वध किया था।’  पौराणिक कथा के अनुसार मधु और कैटभ नाम के दो दैत्यों का जन्म भगवान विष्णु के कान के मैल से हुआ माना जाता है। उत्तराखण्ड की लोकदेवी माँ नन्दा के राजजात मार्ग पर भी अनेक जगहों पर राक्षसों के साथ माँ नन्दा द्वारा यु( करने का वर्णन मिलता है। 2014 की राजजात में जब डोलियां नन्दकेशरी मन्दिर में रुकी थी तो वहाँ पर ही मुझे एक पुजारी ने बताया कि नन्दकेशरी नामक पड़ाव में माँ नन्दा देवी अष्टभुजा रूप में अवस्थित है और माँ नन्दा द्वारा मधु-कैटभ का वध इसी स्थान पर किया गया था। आलोचक मन फिर
कहने लगा कि यार यदि मधु-कैटभ का वध यदि नन्दकेशरी में किया जा चुका था तो फिर खैट के निकट इस स्थान पर मधु-कैटभ का पुनः वध कैसे किया गया? नकारा नहीं जा सकता है कि किसी देवस्थान की महत्ता बढाने के लिये उसे पौराणिक घटनाओं का जामा पहनाने की दुर्बलता सभी जगहों पर है। 

मधु-कैटभ के बारे में एक दंतकथा यह भी है कि भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ से पाँच हजार साल तक यु( किया। माँ दुर्गा की माया से वे भगवान विष्णु को दैत्य इतना दीन समझने लगे कि उन्हें वर मंागने को कहा। भगवान ने दोनों दैत्यों को उनके द्वारा ही मारे जाने का वरदान मांगा, दैत्यों ने वरदान तो दिया किन्तु यह शर्त रख दी कि उन्हें ऐसी जगह मारा जाय जहाँ इससे पहले कोई न मरा हो। यह सोचकर कि ऐसी जगह तो ब्रह्माण्ड में होगी ही नहीं जहाँ कभी कोई न मरा हो। भगवान विष्णु ने अपनी जांघ को इतना फैला दिया कि वह मैदान के रूप में परिवर्तित हो गया। फिर यु( हुआ तो भगवान विष्णु के वार से मधु दैत्य का सिर कुमाऊं में गिरा और कैटभ का सिर एक निर्जन पर्वत पर। कैटभ के गिरने से वही निर्जन पर्वत ‘कैटेश्वरी’ कहलाने लगा जिसका अपभ्रंश कालान्तर में ‘खैट’ हो गया।

 रक्षपाल मन्दिर से दक्षिण-पूरब की ओर हल्की चढ़ाई वाली लगभग सौ मीटर दूरी तय कर अपनी मंजिल खैट पर्वत पर पहुँचा तो मन अत्यन्त रोमांचित हुआ। लगा जैसे जीते जी ही स्वर्ग मिल गया हो। सामने खैट मन्दिर का प्रवेश द्वार और पीछे डूबती शाम की लालिमा में भिलगंना घाटी व सुदूर पश्चिम में नई टिहरी नगर का विहंगम दृश्य। चारों ओर गहरी घाटियां देखकर आशमान छू लेने की सी प्रतीति हो रही थी और फिर इतनी ऊँचाई पर पहुँचकर तो शरीर वैसे ही रुई जैसा लगने लगता है, मन निर्मल हो जाता है। तेज हवाएं संग उड़ाने पर आमादा थी। भटवाड़ा से खैट भले ही कुल पाँच किलोमीटर की दूरी पर है परन्तु ऊँचाई का फासला लगभग एक हजार मीटर है। देहरादून में मेरे घर से रेलवे स्टेशन भी लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन ऊँचाई का अन्तर है मात्र छब्बीस मीटर। गणित का सवाल है यह। यदि मैं पाँच मीटर प्रति किलोमीटर ऊँचाई के अन्तर वाले रास्ते को पैदल चलकर पैंतालीस-पचास मिनट में तय करता हँू तो औसतन दो सौ मीटर प्रति किलोमीटर ऊँचाई के अन्तर वाले खैट के इस ऊबड़-खाबड़ व पथरीले रास्ते को तय करने में कितना समय लगेगा? अरे चालीस गुना नहीं, कुल चार गुना समय ही लगा मुझे खैट पहुँचने में। 

पाँच-छः सीढ़ियां चढ़कर प्रवेश द्वार पर सिर नवाया और ऊपर लटकी घण्टी बजाई। फिर अपनी मूर्खता पर हँसा कि क्या मैं देवी को अपने आगमन की सूचना दे रहा हूँ? छि, मैं कैसा भक्त हूँ, देवी तो अन्तर्यामी हैं! मन्दिर स्थल वाला यह सम्पूर्ण भू-भाग अलग-अलग ऊँचाई पर छोटे-छोटे टेरैस के आकार में बने हुए हैं। प्रवेश द्वार से नीचे अलग टेरेस, आगे कुछ सीढ़ियां चढ़कर दूसरा टेरेस जिस पर अथिति गृह/धर्मशाला आदि बने हैं, फिर आठ दस सीढ़ियां चढ़कर तीसरा टेरेस, जिस पर पाण्डाल, भागवत कथा के लिये वेदी, वेदी से कुछ दूरी पर पीछे बरसाती जल संग्रह के लिये बावड़ी व भगवान शिव की मूर्ति बनी है तथा चौथे व अन्तिम सबसे ऊँचे टेरेस पर दुर्गा मन्दिर व पीछे काफी खुली जगह है। अर्थात खैट पर्वत की आकृति कुछ-कुछ उल्टे कटोरे जैसी है। भूविज्ञान के अनुसार ऐसे स्थान को अवनति आकार (Anticlinal Sturcture)  कहा जाता है। 

सूर्यास्त का समय था, आरती हो चुकी थी। मन्दिर में भागवत कथा जैसी चहल-पहल नहीं दिखी। यात्री के नाम पर अंकित, मैं और एक तीसरा व्यक्ति मात्र। कथावाचक सहित चार-पाँच पण्डित लोग थे और खाना बनाने वाले तीन-चार लोग। नीचे रक्षपाल मन्दिर के सामने पत्थर निकालने वाले लड़कों के लिये रहने की व्यवस्था वहीं पास में ही थी, परन्तु मन्दिर परिसर में उनकी आवाजाही निरन्तर बनी हुयी थी, खाना वे मन्दिर के भोजनालय में ही खाते थे। मैंने पण्डित जी से अनुरोध किया कि मैं दर्शन व पूजा कर अपनी भेंट मन्दिर में अभी चढ़ाना चाहता हूँ जिससे सुबह जल्दी निकल सकूं, पण्डित विनोद डिमरी जी मान गये। मन्दिर के भीतर प्रवेश कर पण्डित जी ने विधि-विधान से पूजा करवायी, नाला;रक्षासूत्रद्ध मेरे हाथ पर बाँधा, टीका लगाया और मैंने पुष्प, पत्र देवी माँ के चरणों में चढ़ाकर देवी के साथ-साथ पण्डित जी से भी आशीर्वाद लिया। मन्दिर में प्रवेश करने से पहले मेरा अनुमान था कि भीतर आछरी-भराड़ी की पूजा होती होगी। परन्तु भीतर माँ दुर्गा की मूर्ति देखकर थोड़ी हैरानी हुयी। पण्डित जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि आछरी का मन्दिर नीचे प्रवेशद्वार के पास बना हुआ है। (मन ही मन सोचा कि खैटपर्वत पर आछरियों का मन्दिर होना चाहियेे था किन्तु यहाँ तो...। तो क्या आछरी को दुर्गा रूप मान लिया गया है? वैसे इसी मन्दिर के प्रांगण में एक ओर भगवान शंकर की मूर्ति भी स्थापित है। बाजारीकरण के इस दौर में वह दिन दूर नहीं जब कुंजापुरी, सुरकण्डा आदि मन्दिरों की भांति खैटपर्वत पर भी भगवान गणेश, माँ काली, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, भगवान श्रीकृष्ण, वीर हनुमान, शनिदेव आदि अनेक देवताओं की मूर्तियां स्थापित होगी।)