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Wednesday, August 08, 2018

एक महान योद्धा की शहादत दिवस पर.....

        बाबा मोहन उत्तराखण्डी शहीद न होते तो क्या आज उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों को सरकारी नौकरी में आरक्षण मिल पाता? नहीं न! न होते वे शहीद तो गैरसैण राजधानी को लेकर सरकार पर इतना दबाव बना रहता? नहीं न! और हम इतने कृतघ्न हैं कि उनके शहीद दिवस पर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं। उनकी न कोई मूर्ति, न उनके नाम से विश्वविद्यालय, न चिकित्सालय, न पुस्तकालय, न कोई कॉलोनी, न स्कूल कॉलेज ही और न कोई स्मारिका। कुछ भी तो नहीं। हम लगभग उनको भुला चुके हैं। एक व्यक्ति गैरसैण राजधानी को लेकर अपना प्राणोत्सर्ग कर चुका है और हम हैं कि........।
            कौन थे बाबा मोहन उत्तराखण्डी? जिला गढ़वाल के एकेश्वर ब्लॉक के बंठोली गांव में सेना अधिकारी मनवर सिंह नेगी व सरोजनी देवी के पुत्र रूप में 3 दिसम्बर 1948 को जन्में मोहन सिंह नेगी एक जीवट, कर्मठ व दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। प्रारम्भिक शिक्षा मैन्दाणी में और इंटर तक की पढ़ाई दुगड्डा में करने के बाद 1969 में उन्होंने रेडियो आपरेटर ट्रेड में आई०टी०आई० किया और 1970 में बंगाल इंजीनियर्स में भर्ती हो गये। सेना में उनका ज्यादा दिन मन नहीं लगा और 1975 में फौज की नौकरी छोड़ गांव में खेती बाड़ी से गुजारा करने लगे और साथ ही समाजसेवा भी। उनके व्यवहार व सामाजिक दायित्वों के निर्वाहन में उनकी भूमिका देखकर वे 1983 से वे निरन्तर दो बार ग्रामप्रधान रहे।
            ग्रामप्रधानी के दौरान ही उनका जुड़ाव यू.के.डी. से हुआ तो फिर तो उनपर आन्दोलनों का जुनून सवार हो गया। उत्तराखण्ड आन्दोलन को लेकर 1994 में तीन सौ दिन का क्रमिक अनशन किया तो 1994 मुज्जफर काण्ड का उन्हें इतना आघात लगा कि दाढ़ी व बाल काटना ही छोड़ दिया, भरा-पूरा परिवार छोड़ दिया, गेरुआ वस्त्र पहनना व केवल एक बार भोजन करना शुरू किया और यहाँ तक कि अपना पूरा नाम ‘मोहन सिंह नेगी’ की जगह ‘बाबा मोहन उत्तराखण्डी’ लिखना शुरू किया। और यह जूनून उन पर अन्तिम समय तक सवार रहा जब तक वे गैरसैण राजधानी को लेकर आदिबद्री के निकट बेनीताल में टोपरी उड्यार में 02 जुलाई 2004 से अकेले ही अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर नहीं बैठ गये। यहीं 39 दिन की भूख हड़ताल ने 9 अगस्त 2004 को उनकी जीवनलीला समाप्त कर दी।
         उनकी शहादत की खबर सुनकर राज्यवासी आक्रोशित हो उठे, जगह-जगह आन्दोलन हुये और दस अगस्त 2004 को प्रदेश व्यापी हड़ताल व बन्द किया गया। उत्तराखण्ड सरकार ने ‘डेमेज कण्ट्रोल’ के लिए आनन-फानन में आन्दोलनकारियों के लिए आरक्षण की घोषणा कर दी और बाबा मोहन उत्तराखण्डी को भुला दिया गया। किसी शायर ने क्या खूब कहा है;
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

(स्रोत साभार- एल.मोहन कोठियाल के लेख ‘जिसने गैरसैण के लिये जान दे दी थी.....’ के सम्पादित अंश)

Wednesday, September 07, 2016

भगतु व पत्वा गोर्ला रावत (समय- 17वीं शताब्दी का अंतिम अंश)

             गढ़वाल के भडों(वीरों) में इन दो जुड़वाँ भाइयों का ऊँचा स्थान है। गोर्ला वंश डोटी व काली कुमाओं में अधिकारहीन होने के बाद गढ़वाल राज्य की शरण में आया था और उसे चौन्दकोट परगने के गुराड़ गाँव में निवास दिया गया था। वहां पहले गुराड़ी नेगी थोकदार थे। लेकिन किसी कारणवश उन्हें पूर्वी नयार के समीप चौमासु आदि गांवों में नेग दे दिया गया और उनकी थोकदारी गोर्ला वंश के प्रथम आगुन्तक भड़ को दे दी गयी। धीरे धीरे उस वंश को कई गांवों की थोकदारियां प्राप्त हो गयी। लेकिन कोई ठोस इलाका अर्थात (पट्टी) उनके पास नहीं थी। अपने बुद्धि चातुर्य तथा वीरता से उनका गढ़वाल के राजवंश से वैवाहिक सम्बन्ध हो गया और दरबार में उनका दबदबा इतना बढ़ गया कि ‘‘भैर गोर्ला, भितर गोर्ला, अर्ज विनती कैमू कर्ला’’ की कहावत प्रचलित हो गयी। उसी वंश के थोकदार के घर में गुराड़ गाँव में इन दो जुड़वाँ भाइयों का जन्म हुआ था।
               इनके बड़े होने पर गृह-कलह की आशंका पैदा हो गयी। यद्यपि ये दो भड़ बड़ी माता के पुत्र थे, लेकिन छोटी माता का पुत्र इनसे जेठा था। अतः इस बात को लेकर कि जेष्ठत्व पत्नी का माना जाना चाहिए या पुत्र का- एक मतभेद पैदा हो गया। इनके विपक्ष में एक तर्क यह भी था कि जुड़वाँ होने के कारण थोकदारी को दो बराबर भागों में विभाजित करना होगा। आखिर यह सारा मसला गढ़वाल के महाराज के सम्मुख पेश किया गया। उन्होंने सब तर्कों पर विचार करके यह बुद्धिमतापूर्ण निर्णय दिया कि गुराड़ की थोकदारी तो उम्र में ज्येष्ठ पुत्र को ही मिलनी चाहिए। लेकिन अगर ये जुड़वाँ भाई पूर्वी सीमा पर जाकर कुमाउंनी सरदार का सिर काट लायें तो गुजडू व खाटली की थोकदारी इन्हें दे दी जाएगी। उन दिनों एक कुमाउंनी सरदार ने उस इलाके में आतंक व अत्याचार मचा रखा था और वहां का तत्कालीन थोकदार उसका मुकाबला नहीं कर पा रहा था।
बस इन दो भड़ों को क्या चाहिए था? ये तो अपनी वीरता प्रदर्शित करने के लिए उत्सुक थे ही। अतः उन्होंने एक शुभ दिन अपनी वीर माता के साथ गुराड़ से विदाई ली और पूर्वी सीमा की ओर प्रस्थान किया। वहाँ जाकर उन्होंने जनता का मजबूत संघटन तैयार किया और कांडा (पट्टी खाटली) में अपना केंद्र स्थापित किया। आखिर सब तैयारी करके एक दिन कुमाउनी फौज से इनकी भिड़न्त हो गयी। ये बड़ी बहादुरी से लड़े और कुमाउनी फ़ौज भगा दी गयी। उसके बाद उसने उस इलाके की ओर कभी भूल कर भी नजर नहीं उठाई। इनके भी कई साथी वीरगति को प्राप्त हुए और ये जख्मी दशा में उस कुमाउनी सरदार का सिर लेकर श्रीनगर दरबार में उपस्थित हुए। महाराज ने इनकी भूरी भूरी प्रशंसा की और चूंकि प्रत्येक भड़ पर ४२ -४२ घाव आये थे, अतः इन्हें उतने ही गांवों की थोकदारी प्रदान की गयी।
                    इस प्रकार विजय प्राप्त करके और महाराज से पुरस्कार पाकर श्री भगतु गोर्ला ने सिसई (पट्टी खाटली) में और पत्वा गोर्ला ने पड़सोली (पट्टी गुजडू) में अपने केंद्र स्थान निश्चित किये तथा भविष्य में दक्षिण-पूर्वी सीमा की जोरदार रक्षा की। इनके वंशज आज भी विद्यमान है। श्री भगतु गोर्ला के वंशजों में श्री उमेश्वर सिंह, डिप्टी कलेक्टर प्रमुख हैं। श्री पत्वा गोर्ला के वंशजों में श्री विष्णु सिंह रावत, संचालक- वीविंग फैक्टरी कोटद्वार तथा श्री नारायण सिंह रावत सदस्य जिला बोर्ड प्रमुख हैं.

                                                                           (स्रोत साभार- गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ -डॉ0 भक्तदर्शन ! संस्करण- 1952  )

Friday, July 20, 2012

जिन पर वतन को नाज है !


             क्या कभी आपने सुना है कि फ़ौज का कोई  सिपाही ड्यूटी के दौरान ऊंघ या सो रहा हो और कोई अदृश्य शक्ति उस सिपाही को थप्पड़ मार कर जगा दे? कभी सुना है कि बरसों पहले शहीद हुए रणबांकुरे के शहीदस्थल पर पहुँचते ही फ़ौज के जवान तुरंत सैल्यूट करें? उस स्थल पर आज भी उस शहीद के लिए बिस्तर लगाया जाता है, कम्बल तह करके रखा जाता है और सुबह जब देखते हैं तो कम्बल खुला हुआ मिलता है ? शहीदस्थल के आसपास घाटी में आज भी किसी स्त्री की चीख सुनाई दे कि "जागो ! जागो ! आ गए ! मारो ! मारो !"........ जी हाँ ! यह वाकया है तवांग जिले की नूरानांग पहाड़ियों का. जसवंतगढ़ का.
                अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में स्थित है नूरानांग की पहाड़ियां. जो तेजपुर (आसाम ) से तवांग रोड पर लगभग 425 किलोमीटर दूरी पर है. तवांग के उत्तर में चीन (तिब्बत) है और पश्चिम में भूटान. यह सन 1962 की बात है, जब चीन ने विस्तारवादी सोच के तहत पंचशील समझौते को धता बताते हुए भारत पर आक्रमण कर दिया था. लगभग 14,000 फीट ऊँचाई पर स्थित सीमान्त क्षेत्र की नूरानांग पहाड़ी व आसपास के इलाके का सुरक्षा का दायित्व तब गढ़वाल रेजिमेंट की चौथी बटालियन पर था. यहाँ तक पहुँचने के लिए टवांग चू नदी को पार करना होता है. हाड़ कंपा देने वाली इस ठण्ड में भी चीनी सेना 17 नवम्बर 1962 को सुबह छ बजे से ही छ से अधिक बार हमला कर चुकी थी.
              से0 ले0 विनोद कुमार गोस्वामी ने एक चीनी को रायफल सहित कैद कर लिया था किन्तु विशेष परिस्थितियों में उसे मौत की नींद सुला देना पड़ा. दूसरे मोर्चे पर सेकण्ड लेफ्टिनेंट एस0 एन0 टंडन ने धैर्य और साहस के साथ चीनी सेना के आक्रमण को एक हद तक विफल कर दिया था. विशाल चीनी सेना के निरन्तर अग्निवर्षा से हिंदुस्तान के वीर सैनिक एक एक कर शहीद होते रहे. इस मोर्चे पर लैंस नायक त्रिलोक सिंह, रायफल मैन जसवंत सिंह और लैंस नायक गोपाल सिंह ही बचे रह गए थे, वे रेंगते हुए गए, शत्रु के मोर्चे पर ग्रेनेड फेंके तथा एम0 एम0 जी0 को उठाकर अपने पास ले आये. शत्रुओं के कुछ सैनिक मारे गए और कुछ घायल हो गए.
              तीनों जवान शत्रुओं पर गोले बरसाते रहे. किन्तु चीनी सैनिक एक मरता तो दूसरा उसकी जगह आ कर ले लेता. और फिर उनकी ओर से निरन्तर हमला जारी रहा. जिसके परिणाम स्वरुप हमारे जवान एक एक कर देश के काम आते रहे. पीछे से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल पा रही थी. लड़ते-लड़ते लैंस नायक त्रिलोक सिंह और गोपाल सिंह भी वीरगति को प्राप्त हो गए. अब अकेले रायफल मैन जसवंत सिंह रावत ने मोर्चा सम्भाल लिया. वहां पर पांच बंकरों पर मशीनगन लगायी गयी थी. और रायफल मैन जसवंत सिंह छिप छिपकर और  कभी पेट के बल लेटकर दौड़ लगाता रहा और कभी एक बंकर से तो कभी दूसरे से और तुरन्त तीसरे से और फिर चौथे से, अलग अलग बंकरों से शत्रुओं पर गोले बरसाता रहा. पूरा मोर्चा सैकड़ों चीनी सैनिकों से घिरा हुआ था और उनको आगे बढ़ने से रोक रहा था तो जसवंत सिंह का हौसला, चतुराई भरी फुर्ती. चीनी सेना यही समझती रही कि हिंदुस्तान के अभी कई सैनिक मिल कर आग बरसा रहे हैं. जबकि हकीकत कुछ और थी. इधर जसवंत सिंह को लग गया था कि अब मौत निश्चित है अतः प्राण रहते तक माँ भारती और तिरंगे की आन बचाए रखनी है. जितना भी एमुनिशन उपलब्ध था, समाप्त होने तक चीनियों को आगे नहीं बढ़ने देना है. और वह अलौकिक शक्ति ही रही होगी कि दरबान सिंह नेगी, गबर सिंह नेगी और चन्द्र सिंह गढ़वाली की आत्मोत्सर्ग करने की परम्परा को आगे बढाता वह वीर जवान, रणबांकुरा बिना थके, भूखे-प्यासे पूरे 72 घंटे (तीन दिन तीन रात) तक चीनी सेनाओं की नाक में दम किये रहा.
             परन्तु होनी को कौन टाल सकता है. एक लामा ने चीनी सेना के सामने यह रहस्य उद्घाटन कर दिया कि वह भारतीय जवान तो अकेले ही लड़ रहा है. यह सुनते ही चीनी सेना टिड्डी दल की भांति इस गढ़सिंह पर चारों ओर से टूट पडी और प्रतिशोध के पागलपन में इस वीर जवान का सर कलम कर ले गए. चीनी सैनिक इस वीर जवान का सर लेकर अपने देश लौटे कि उससे पहले ही जसवंत की वीरता की कहानी वहां तक पहुँच चुकी थी. चीनी सेना के डिव कमाण्डर ने अपने उन जवानों को बुरी तरह फटकारा और लकड़ी की पेटी में उस सर को रखकर ससम्मान इस अनुशंसा के साथ भेजा कि " इसमें वह वीर जवान सो रहा है जिसने चीन के पूरे डिविजन को 72 घंटे तक आगे बढ़ने से रोके रखा. भारत सरकार बताये कि इस वीर की वीरता को क्या सम्मान दिया गया."   यह भी अजब संयोग रहा कि जिस जसवंत सिंह का नाम भारतीय सेना ने गुमशुदा या भगोडे सैनिकों की सूची में डाल दिया था  वही माँ भारती का सच्चा सपूत निकला.
              ले0 ज0 बी0 एम0 कौल ने अपनी पुस्तक 'अनटोल्ड स्टोरी' में लिखा है कि " " जिस वीरता व साहस से गढ़वाली बटालियन ने चीनियों का मुंहतोड़ जवाब दिया यदि उसी प्रकार भारतीय सेना की अन्य बटालियनें भी, जो वहां पर तैनात थी, प्रयास करती तो नेफा की तस्वीर आज कुछ और ही होती"    वीर जसवंत सिंह रावत के शौर्य से प्रभावित होकर आर्मी हेडक्वार्टर ने 17 नवम्बर को 'नूरानांग दिवस' तथा नूरानांग पहाड़ी को 'जसवंत गढ़' नाम दिया. इसी जसवंतगढ़ में उस वीर सैनिक को आज भी पूरे सम्मान के साथ याद किया जाता है. नूरानांग की पहाड़ियों पर जो लड़ाई हुयी उसमे कुल 162 जवान वीरगति को प्राप्त हुए, 264 कैद कर लिए गए और 256 जवान मौसम की मार से या अन्य कारणों से तितर बितर हो गए. वीरता पुरस्कार से जो सम्मानित हुए वे इस प्रकार हैं  महावीर चक्र - ले0 क0 भट्टाचार्य जी एवं रा0 मै0 जसवंत सिंह रावत (मरणोपरांत), वीर चक्र - से0 ले0 विनोद कुमार गोस्वामी (मरणोपरांत), , सूबेदार उदय सिंह रावत, सूबेदार रतन सिंह गुसाईं, रा0 मै0 मदन सिंह रावत, लैं0 ना0 त्रिलोक सिंह नेगी (मरणोपरांत), लैं0 ना0 गोपाल सिंह गुसाईं (मरणोपरांत), सेना मेडल - नायक रणजीत सिंह गुसाईं आदि..
           पौड़ी गढ़वाल,उत्तराखंड के वीरोंखाल के ग्राम बाडियूं, पट्टी खाटली में गुमान सिंह रावत व लीला देवी के घर ज्येष्ठ पुत्र के रूप में जुलाई 1941 को इस वीर नायक जसवंत का जन्म हुआ. हाईस्कूल करने के बाद वे अगस्त 1960 को फ़ौज में भर्ती हो गए. जसवंत के पूर्वज गढ़वाल की ऐतिहासिक वीरांगना तीलू रौतेली के वंशज माने जाते हैं. जो रावतों में विशेष जाति 'गोर्ला रावत' कहलाते हैं।
                   यह भी सत्य है कि महापुरुषों के सम्बंध में समाज अनेक किवदंतियां गढ़ देता है. वीर जसवंत के विषय में भी कहा जाता है कि नूरानांग पहाड़ी पर तैनाती के दौरान उनका 'सीला' नाम की स्थानीय युवती से प्यार हो गया था. कहा जाता है कि जिन 72 घंटों में जसवंत सिंह संघर्ष कर रहे थे उस समय भी वह युवती साथ थी. भोजन व्यवस्था व हौसला आफजाई वही करती रही. तदोपरांत वह कहाँ गयी, जीवित बची या मारी गयी. कुछ स्पष्ट नहीं है. परन्तु माना जाता है कि नूरानांग पहाड़ियों पर आज "   जागो, जागो ! आ गए, मारो, मारो !"    की जो आवाज कभी कभार सुनाई  देती है वह उसी युवती की है. सत्य ईश्वर ही जान सकता है. 
हाँ, राजीव कृष्ण सक्सेना जी  की यह कविता अवश्य याद आती है;
             जुड़ा हूँ अमिट इतिहास से कैसे भुला दूं ?  जो जागृत प्रीत की झंकार वह कैसे भुला दूं ?
          जो घुट्टी संग भारतवर्ष की ममता मिली थी. उसे कैसे भुला कर आज माँ तुझसे विदा लूं ?
                     (सामग्री स्रोत साभार - विमल साहित्यरत्न की पुस्तक "  हीरो आफ नेफा  "  के सम्पादित अंश) 

Sunday, June 03, 2012

प्रकृति से भावनात्मक तादात्म्य स्थापित करने का नाम है मैती आन्दोलन

वृक्ष दान करते श्री कल्याण सिंह रावत 
'विश्व पर्यावरण दिवस' पर विशेष
कभी वनस्पतियों को
एक कवि की दृष्टि से देखो-
कैसी विशाल कौटुम्बिकता अनुभव होती है.
अमानुषी वन पर्वतों, निर्जन जंगलों,
एकाकी उपत्यकाओं में भी
पत्र लिखी भूषाएं धारे,
सुरम्यवर्णी फूल खोंसे ये वनस्पतियाँ-
भाषातीत संकीर्तन करती
निवेदित, सुगंध ही सुगंध लिखती रहती है.

                                           ......... नरेश मेहता
                         गिरिराज हिमालय का सौन्दर्य श्वेत बर्फ के ऊंचे पहाड़, कल कल निनाद करती नदियां ही नहीं अपितु यहाँ का सघन वन, अनेक जडी बूटियाँ व हरित बुग्याल भी है. राजा भगीरथ व उनके पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की तो गंगा धरती पर अवतरित हुयी. क्या है तपस्या? व्यावहारिक तौर पर विश्लेषण करे तो कतिपय कारणों से हिमालय वृक्षविहीन और बारिस का औसत कम होने लगा होगा. जब बारिस नहीं तो हिमालय में ही सूखा पड़ने लगा होगा. मैदानी भागों में त्राहि त्राहि मचने लगी होगी. ऐसे में जब राजा पहल करेगा तो प्रजा स्वयमेव ही आगे आएगी. राजा भागीरथ व उनके पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की. वह तपस्या नहीं वस्तुतः वृक्षारोपण रहा होगा. जब हिमालय की हरियाली लौटी तो वर्षा हुयी और नदी नालों में पानी ही पानी हो गया होगा. साठ हजार पुरखों के तर्पण की बात जो की गयी है वह रही होगी मैदानी क्षेत्र में पानी का साठ हजार (अर्थात अनेक) प्रकार से उपयोग करना. आज भी अनेक विनाशकारी गलत नीतियों व निरंतर वनों के दोहन के कारण हिमालय वृक्ष विहीन हो रहा है. किन्तु सौभाग्य की बात है कि उत्तराखण्ड हिमालय में आज भी अनेकों भगीरथ हैं. जो पुरखों के तर्पण के लिए नहीं अपितु दुनिया के जीव जंतुओं की रक्षा के लिए तपस्या कर रहे हैं. उनमे अग्रणी हैं उत्तराखण्ड के महान विचारक और मैती आन्दोलन के जन्मदाता कल्याण सिंह रावत.    
वृक्षारोपण करते दूल्हा दुल्हन व मैती बहनें 
                         उत्तराखण्ड की स्थानीय भाषाओँ में 'मैत' का अर्थ है 'मायका' और 'मैती' का अर्थ हुआ 'मायके वाले'. मायके के जल, जंगल, जमीन, खेत-खलिहान, नौले-धारे, पेड़-पौधे सब ससुराल गयी लडकी के लिए मैती हुए. मैती आन्दोलन में शादी के वक्त दूल्हा, दुल्हन वैदिक मंत्रोचार के साथ एक-एक फलदार वृक्ष रोपते हैं और दुल्हन उसे सींचती है. फिर गाँव में जो मैती कोष होता है उसमे एक निश्चित धनराशि दानस्वरुप दिया जाता  है. उत्तराखण्ड में कठिन दुर्गम रास्ते होने के कारण आज भी यह परम्परा है कि दुल्हन की विदाई होती है तो उसका भाई उसे छोड़ने उसके ससुराल जाता है और दूसरे दिन लौटता है. परम्परानुसार दुल्हन अपनी ससुराल में पहली सुबह धारा (जल स्रोत) पूजने जाती है. जहाँ पर मैती आन्दोलन की नीतियों के अनुसार दुल्हन का भाई एक फलदार पेड़ रोपता है और दुल्हन आजीवन उस पेड़ की परवरिश की सौगंध लेती है. इस प्रकार यह आन्दोलन एक भावनात्मक पर्यावरणीय आन्दोलन के रूप में प्रचलित हुआ. शादी के मौके पर हुए इस समारोह के प्रत्यक्षदर्शी ब्राहमण, बाराती व अन्य मेहमान अपने गाँव लौटकर जरूर इसकी चर्चा करते हैं और अपने गाँव में इस प्रकार के आयोजन करने की मंशा रखते हैं. उत्तराखण्ड के नौ-दस हजार गांवों में आज इस आन्दोलन का जूनून यहाँ तक है कि अब लोग शादी के निमंत्रण पत्र पर भी मैती वृक्षारोपण समारोह का उल्लेख करते हैं. इस प्रकार सर्वस्वीकार्यता बनी तो गाँव गाँव में मैती संगठन बने. गाँव की अविवाहित लड़कियों का यह संगठन मैती बहनों का संगठन कहलाता है. गाँव की ही तेज तर्रार लड़की को अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है जिसे दीदी कहा जाता है. शादी के समय प्राप्त दान से कोष तैयार कर खाता खुलवाया जाता है जो कि गाँव की किसी पढ़ी लिखी बहू के नाम होता है. कोष की राशि से फलदार वृक्ष खरीदे जाते है, निर्धन बच्चों की शिक्षा पर खर्च किया जाता है व उन स्त्रियों की मदद की जाती है जो निर्धनता के कारण नंगे पांव ही खेतों, जंगलों में जाती हैं. शादी के समय लगाये गए पेड़ों की देखभाल, खाद पानी देना जैसे कार्य मैती बहनों द्वारा किया जाता है.
                         मैती आन्दोलन के जन्मदाता कल्याण सिंह रावत जी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि वर्ष 1994 में चमोली जनपद (उत्तराखण्ड) के ग्वालदम कसबे से शुरू हुआ उनका यह मैती आन्दोलन पूरे उत्तराखण्ड ही नहीं अपितु देश के अनेक राज्यों में लोकप्रिय हो जाएगा. यहाँ तक कि मैती आन्दोलन से प्रभावित होकर ही अमेरिका, कनाडा, चीन, नार्वे, आस्ट्रिया, थाईलैंड और नेपाल आदि देशों में भी शादी के मौके पर पेड़ लगाये जाने लगे हैं. मैती आन्दोलन की ख़बरें जब कनाडा की पूर्व प्रधानमंत्री फ्लोरा डोनाल्ड ने पढ़ी तो वे इतनी अभिभूत हुयी कि कल्याण सिंह रावत जी से मिलने गोचर(चमोली) ही जा पहुंची. इस आन्दोलन की देन ही है कि गाँव गाँव में मैती जंगलों की श्रंखलायें सजने लगी है. हरियाली दिखाई देने लगी है.  
सांस्कृतिक समारोह के दौरान नृत्य व गायन करती स्थानीय स्त्रियां 
                         मैती आन्दोलन अब शादी व्याह के मौकों पर ही वृक्षारोपण नहीं कर रहा बल्कि दायरे से बाहर निकलकर  'वेलेनटाइन डे' पर भी "एक युगल एक पेड़" का नारा देकर उनसे पेड़ लगवा रहे हैं और वेलेनटाइन जोड़े ख़ुशी ख़ुशी पेड़ लगा रहे हैं. कारगिल शहीदों की याद में बरहामगढ़ी (ग्वालदम) में शहीद वन व वर्ष 2000 में नन्दा राजजात मेले से पूर्व राज्य के तेरह जनपदों से लाये गए पेड़ नौटी(कर्णप्रयाग) में रोपकर उसे 'नन्दा मैती वन' नाम दिया गया. मोरी (उत्तरकाशी) के निकट टोंस नदी के किनारे जब एशिया का सबसे ऊंचा वृक्ष गिरा तो उसकी याद में मैती बहनों द्वारा वहां पर हजारों लोगों की उपस्थिति में एक भव्य शिक्षा प्रद कार्यक्रम आयोजित किया गया और उस महावृक्ष को श्रृद्धांजलि देते हुए वहां पर उसी चीड़ की प्रजाति के पौधे रोपे गए. विशाल टिहरी बाँध बनने के कारण टिहरी शहर के जलसमाधि लेने से पूर्व मैती द्वारा वहां के तैतीस ऐतिहासिक स्थलों की मिटटी को लाकर स्वामी रामथीर्थ महाविद्यालय के प्रांगण में अलग अलग गड्ढों में डालकर उनमे पौधे रोपे गए, दिसंबर 2006 में  एफ०आर०आई० देहरादून द्वारा शताब्दी वर्ष मनाये जाने पर बारह लाख बच्चों के हस्ताक्षर से युक्त दो किलीमीटर लम्बा कपडा एफ०आर०आई० के मुख्य भवन पर लपेटा गया. जिसकी  गांठ तत्कालीन राज्यपाल श्री सुदर्शन अग्रवाल ने बाँधी. इस अवसर पर परिसर में दो पौधे रोपे गए.  राजगढ़ी उत्तरकाशी में तिलाड़ी काण्ड के शहीदों की याद में वृक्ष अभिषेक मेला व नारायणबगड़ (चमोली) में महामृत्युंजय मन्दिर के समीप पर्यावरण सांस्कृतिक मेला आयोजित किये जाते हैं.

                         बैनोली-तल्ला चांदपुर, कर्णप्रयाग, जनपद चमोली में जन्मे व वनस्पति विज्ञान, इतिहास व राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट रावत जी ने राज0 इंटर कालेज में प्रवक्ता (वनस्पति विज्ञान)के रूप में कैरियर शुरू किया और आज उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केंद्र, देहरादून में बतौर वैज्ञानिक कार्यरत हैं. उनका कहना है कि उनके पिता व पितामह भी वन विभाग में नौकरी करते थे. वहां पर उन्हें जंगलों के निकट रहने का मौका मिला. फिर विषय भी वनस्पति विज्ञान रहा तो वे प्रकृति के और निकट आ गए. चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी उनकी प्रेरणा स्रोत रही. रावत जी ने देखा कि वन विभाग हर वर्ष वृक्षारोपण पर  लाखों करोड़ों रुपये खर्च करता है  किन्तु लोगों का भावनात्मक लगाव न होने के कारण वह सफल नहीं होता. परिणाम यह होता है कि सरकार पुनः पुनः उसी भूमि पर वृक्षारोपण करती है जिस पर वह पहले के वर्षों में कर चुकी होती है. सरकारी धन ठिकाने तो लगता है किन्तु वन क्षेत्र नहीं बढ़ता है.
                         उन्होंने इसे एन०जी०ओ० क्यों नहीं बनाया इस पर वे खुल कर कहते है कि आज अनेक एन०जी०ओ० कागजों तक ही सीमित हैं, जिससे उनकी साख घटी है. रावत जी का उद्देश्य पर्यावरण हित है न कि धन कमाना. मैती आन्दोलन को पैसे से जोड़ दिया जाएगा तो इसकी आत्मा मर जायेगी. वे इसे निस्वार्थ भाव से इस मुकाम तक ले आये और चाहते हैं कि यह एक स्वतः स्फूर्त आन्दोलन की भांति कार्य करे.
                         उतराखंड के अनेक सामाजिक संगठनों द्वारा श्री रावत को गढ़ गौरव, गढ़विभूति, उत्तराँचल प्रतिभा सम्मान, दून श्री, बद्रीश प्रतिभा सम्मान सहित दो दर्जन से अधिक सम्मानों से नवाजा जा चुका है। किन्तु यह दुखद पहलू ही है कि पर्यावरण के नाम पर दिए जाने वाले सरकारी पुरस्कारों से चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी की भांति कल्याण सिंह रावत जी को भी अभी तक वंचित रखा गया है. जो कि सरकारी पुरस्कारों में बन्दरबाँट या पुरस्कारों के नाम पर दलगत व जातिगत राजनीति की कहानी ही बयां करती है.
                           (स्रोत - श्री कल्याण सिंह रावत जी से उपलब्ध सामग्री व उनसे हुयी बातचीत  के आधार पर)  
 

Sunday, April 22, 2012

अब तुम्हारे हवाले वतन.....

पेशावरकाण्ड की 82 वीं वर्षगांठ पर विशेष  
                       स्वतंत्रता आन्दोलन में जिस सेनानी में गांधी जैसी अहिंसा दृष्टि, नेहरु जैसी सौम्यता, पटेल जैसी दृढ़ता, सुभाष जैसा दुस्साहस, भगत सिंह जैसे विचार और चन्द्रशेखर 'आजाद' जैसा स्वाभिमान एक साथ देखा जा सकता है वह सिर्फ और सिर्फ चन्द्र सिंह गढ़वाली ही थे.
गढ़वाली  (25/12/1891 - 01/10/1979 )
                        आजादी की लड़ाई पूरे भारतवर्ष में लड़ी जा रही थी और शांति व सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस व सेना जगह-जगह तैनात थी. पेशावर में भी गढ़वाल रायफल्स की 2 /18 बटालियन की 'ए' कम्पनी तैनात थी. इंडियन नेशनल कांग्रेस की पहल पर पेशावर शहर के किस्साखानी बाजार में देशभक्त पठानों द्वारा 23 अप्रैल 1930 को अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाते व तिरंगा हाथों में लहराते हुए नमक सत्याग्रह के पक्ष में एक जुलूस निकाला जा रहा था कि एक अंग्रेज अधिकारी द्वारा आजादी के इन दीवानों पर गोली चलाने का निर्देश दिया गया-'गढ़वाल, थ्री राउंड फायर!' किन्तु क्वार्टर मास्टर(न0-253, प्लाटून न0-4)चन्द्र सिंह भंडारी पुत्र जाथली सिंह भंडारी, निवासी- मासौं, थलीसैण, पौड़ी गढ़वाल (जिन्होंने बाद में अपना उपनाम 'भंडारी' के स्थान पर 'गढ़वाली' लिखा व इसी नाम से आज हम उन्हें जानते हैं) ने अपनी प्लाटून न0-4 व प्लाटून न0-1 के सिपाहियों को तत्काल निर्देश दिया 'गढ़वाली सीज फायर !' जवानों ने गढ़वाली के आदेश का पालन करते हुए गोली चलाने से इंकार कर दिया. बंदूकें निर्दोष देशभक्त पठानों पर नहीं उठी तो नहीं उठी. 
                        दोनों ओर से प्रतिक्रिया हुयी, जबरदस्त. अंग्रेज अधिकारी हतप्रभ रह गये और देशभक्त पठान गढ़वाली जवानों की जय-जयकार करने लगे. देखते ही देखते यह खबर आग की तरह चारों ओर फ़ैल गयी. जनता उन वीर जवानों को देखने के लिए सड़कों पर उमड़ पड़ी और अंग्रेजों की नींद उड़ गयी. आज गढ़वाली सेना ने अपने ही अंग्रेज अधिकारी का आदेश मानने से इंकार कर दिया गया था. सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य में यह पहला सैनिक विद्रोह था. वह भी उन गढ़वाली वीरों द्वारा जो प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस के मोर्चे पर अंग्रेजों के पक्ष में लड़ते हुए अपना लोहा मनवा चुके थे. यह माना जाता है कि कूटनीति के तहत ही अंग्रेजों द्वारा पठानों के दमन हेतु गढ़वाली जवानों को तैनात किया गया था. वे जानते थे कि गढ़वाली सेना में सभी जवान हिन्दू हैं और पेशावर में आजादी के सभी दीवाने मुस्लिम पठान. फिर फायर हेतु कोई लिखित आदेश भी नहीं दिया गया. वे जानते थे कि गोली काण्ड होते ही इसे सांप्रदायिक रूप दिया जाएगा और वे "divide and rule" के तहत हिंदुस्तान पर अपना साम्राज्य लम्बे समय तक बनाये रख सकेंगे. चन्द्र सिंह गढ़वाली व उनकी सैनिक टुकड़ी को संभवतः इस षड्यंत्र की भनक एक दिन पहले ही लग गयी थी. और परिणति "  सीज फायर "   के रूप में हुयी. इस अभूतपूर्व घटना ने कई मिशालें कायम कर दी. पहली, यह कि देशभक्त सत्याग्रहियों पर गोली न चलाकर अहिंसा का अनूठा उदहारण, अन्यथा अंग्रेजों की मंसा तो जालियांवाला बाग़ की पुनरावृत्ति की थी. दूसरी, ब्रिटिश अधिकारियों की साम्प्रदायिक दंगे फ़ैलाने की कुचेष्टा पर कुठाराघात. तीसरी, ब्रिटिश साम्राज्य को यह सन्देश कि फौजी अनुशासन भी देशभक्ति का ज्वार नहीं रोक सकता और न ही कोई भय उन्हें पथ से डिगा सकता है. कालांतर में आजाद हिंद फ़ौज के गठन और ब्रिटिश रायल नेवी विद्रोह के लिए भी इसी पेशावर काण्ड ने प्रेरक का काम किया.
                        चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके अन्य साथियों को गोरों ने उसी दिन हिरासत में लिया. सभी जवानों ने अपने-अपने हथियार स्वयं ही जमा कर दिए. अन्यथा दूसरी सेनाएं भय से या सम्मान से उनके पास आने से बच रही थी. 24 अप्रैल को एक अंग्रेज अधिकारी ने गढ़वाली फौजियों को गाली दी तो रायफलमैन दौलत सिंह रावत व लांसनायक भीम सिंह ने फौजी बूटों से उसकी मरम्मत कर दी. चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों को मालूम था कि कोर्ट मार्शल होगा और फांसी तक की सजा हो सकती है, किन्तु अंग्रेजों के एक और षड्यंत्र से वे अनजान थे. पेशावर से बाहर ले जाने के लिए इस फौजी टुकड़ी को जिस रेल में बिठाया गया उसे समुद्र में डुबोने की योजना थी. पेशावरवासियों को जब इसकी भनक लगी तो उन्होंने रेल रोक दी. फिर इस टुकड़ी को एबटाबाद होते हुए काकुल ले जाकर तोप से उड़ाने की योजना बनी किन्तु आजादी की मतवाली जनता वहां भी बाधक बनी. दूसरी ओर अंग्रेजों को यह आशंका भी सताने लगी कि यदि इन्हें तोप, गोली से उड़ा दिया गया तो कहीं राष्ट्रव्यापी सैनिक विद्रोह न हो जाय.
                       कोर्ट मार्शल की कार्यवाही 2 जून से 8 जून तक चली. जवानों की ओर से मुकुन्दी लाल बैरिस्टर ने पैरवी की. आरोप तय हुआ कि सिपाहियों ने आदेश का उल्लंघन किया है व अनुशासन तोडा है. गढ़वाली व सभी साथी पहले ही स्पष्ट कर चुके थे कि बहरी दुश्मनों द्वारा आक्रमण करने पर वे अपनी जान तक न्यौछावर करने से नहीं हिचकते किन्तु निरपराध व निहत्थे नागरिकों पर गोली चलाना फौजी अनुशासन नहीं हो सकता. बैरिस्टर की बचाव की दलील भी इसीके आस पास थी. फ़ौज का काम सीमा पर युद्ध लड़ना हैं, जनता पर गोली चलाना नहीं. फौजी अदालत ने 11 जून 1930 को फैसला सुना दिया- दोनों प्लाटूनों के 60  जवानों की सेना से बर्खास्तगी तथा सम्पति, वेतन व पूरा जमा फंड जब्त. चन्द्र सिंह गढ़वाली सहित 17 जवानों को एक साल से लेकर कालापानी/आजीवन कारावास तक की सजा सुनाई गयी (गढ़वाली को कालापानी तथा हवालदार नारायण सिंह गुसाईं, नायक जीत सिंह रावत व नायक केशर सिंह रावत को 15-15 साल की जेल की सजा हुयी) और 43 जवानों को लाहोर होते हुए वापस गढ़वाल रायफल्स के मुख्यालय लैंसडौन भेज दिया गया.
                         लाहोर में इन गढ़वाली सिपाहियों का जोरदार स्वागत हुआ और देखते ही देखते 12000/= रुपये इकट्ठे किये गए. किन्तु सभी जवानों ने रुपये लेने से इंकार कर दिया और कठिन परिस्थितियों में ही जीवन गुजारा किया. चन्द्र सिंह गढ़वाली व उनके साथियों को एबटाबाद, डेरा इस्माइलखां, लखनऊ, बरेली, देहरादून व अल्मोड़ा की जेलों में रखा गया. साथी 16 जवान पहले ही जेल से छूट गए किन्तु चन्द्र सिंह गढ़वाली 11 साल, 3 महीने व 18 दिन जेल में रहने के बाद 26 सितम्बर 1941 को रिहा हुए. जेल में रहते हुए उन्हें अनेक प्रख्यात क्रांतिकारियों का सानिध्य मिला. जिनमे प्रमुख थे- यशपाल, शिव वर्मा व रमेश सिन्हा. गाँधी जी व मोतीलाल नेहरु से वे मुलाकात पहले कर चुके थे और जवाहर लाल नेहरु, सुभाष चन्द्र बोस, आचार्य नरेंद्र देव आदि उनसे मिलने आये.
                   चन्द्र सिंह गढ़वाली जेल से तो छूट गए किन्तु अंग्रेज सरकार ने उनके गढ़वाल प्रवेश पर रोक लगा दी थी. जिससे वे पूरी तरह आजादी की लड़ाई में शामिल हुए और भारत छोडो आन्दोलन के दौरान वे इलाहबाद में गिरफ्तार हुए और 3 वर्ष जेल में रहे. 16 वर्ष से अधिक समय बाद 26 दिसम्बर 1946 को वे गढ़वाल लौटे. इस सपूत को देखने के लिए लोग उमड़ पड़े. जगह जगह उनका स्वागत हुआ. चन्द्र सिंह गढ़वाली संभवतः देश के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी होंगे जो 14 वर्ष से अधिक समय तक जेल में रहे. किन्तु दुखद पहलु यह भी रहा कि गांधी जी पेशावरकाण्ड के लिए गढ़वाली की आलोचना कर चुके थे अपितु 20 फरवरी 1932 को लन्दन में द्वितीय गोलमेज सम्मलेन के दौरान उन्होंने गढ़वाली की रिहाई के लिए कोई मांग भी नहीं रखी. कुछ समय बाद देश आजाद हुआ किन्तु देशभक्ति का जज्बा उनके अन्दर बना रहा. वे टिहरी रियासत के खिलाफ जनक्रांति में सम्मिलित हुए. शराब विरोधी आन्दोलन हो या भविष्य में उत्तराखंड  बनने पर  राजधानी गैरसैंण को  बनाये जाने का चिंतन अथवा जन सरोकारों को लेकर कोई और मुददा. वे आजीवन संघर्षरत रहे. इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जिस देशभक्त को भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए था, जिनके नाम पर पुरस्कार की घोषणा होनी चाहिए थी. उस वीर सेनानी को कोई पदम् पुरस्कार तक भी नहीं दिया गया.  
                                         साभार- महीपाल सिंह नेगी के आलेख  "गढ़वाली सीज फायर"  के सम्पादित अंश

Saturday, February 11, 2012

गांधीदर्शन के सजग प्रहरी थे भक्त दर्शन

                        जन्मशती पर विशेष 
          राजनीति में ऐसे बहुत कम नेता हैं जिन्होंने राजनीतिक या सामाजिक जीवन में सादगी और शुचिता के साथ सफ़र शुरू कर जीवन भर उच्च मानवीय मूल्यों का निर्वाहन किया हो. स्व० भक्तदर्शन सिंह रावत जी ऐसे ही राजनेताओं में थे. जिन्होंने गांधीवादी चिंतन के साथ अपनी सामाजिक-राजनीतिक यात्रा शुरू की और जीवन भर उसका निर्वाह किया.
                 ग्राम- भौराड़, पट्टी- सांवली, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड) निवासी बुद्धि देवी व गोपाल सिंह रावत के घर 12  फरवरी 1912  को जन्मे भक्त दर्शन के बचपन का नाम राज दर्शन था. जो उनके पिता द्वारा 1911 में जार्ज पंचम के दिल्ली आगमन से प्रभावित होकर रखा गया था. होश सँभालने पर उन्हें इस नाम में ब्रिटिश राज की बू आने लगी अतः बदलकर 'भक्त दर्शन' रख दिया. डी० ए० वी० देहरादून कालेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने गांधी दर्शन को आत्मसात करके स्वतंत्रता संग्राम में कूदने का निर्णय लिया. सन 1929 में लाहौर कांग्रेस के स्वयं सेवक बने. महज 18 वर्ष की उम्र में सन 1930 में नमक आन्दोलन में जेल गए. उच्च शिक्षा की प्राप्ति हेतु वे 1932  से 1934 तक शांति निकेतन में रहे. जहाँ पर उन्हें गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर व आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सानिद्ध्य मिला. सन 1937  में इलाहाबाद विश्वविध्यालय से राजनीति शास्त्र में एम्0 ए0 की पढाई के बाद गढ़वाल की लोकप्रिय पत्रिका "गढ़देश" के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया और फिर सन 1939 तक "कर्मभूमि" साप्ताहिक पत्र के संपादक रहे. इसके माध्यम से गढ़वाल के ग्रामीण इलाकों में राष्ट्रीय आन्दोलन की मशाल जलाई. एक अगस्त सन 1941 में तिलक दिवस पर बद्रीनाथ में सरकार विरोधी नारे लगाते व तिरंगा झंडा फहराते हुए पकड़े जाने पर उन्हें बंदी बनाया गया. आठ अगस्त को अदालत ने नौ माह कैद व एक सौ रुपये अर्थदंड की सजा सुनाई. सन 1942 - 45 के बीच वे कई बार जेल गए. जेल में यातनाएं भोगने के बाद भी वे अपने पथ से नहीं डिगे. यह स्वदेशी और गांधीवादी दर्शन का ही जूनून रहा होगा कि 17 फरवरी सन 1931 को उनकी शादी सावित्री देवी से संपन्न हुयी. अपनी शादी पर उन्होंने शर्त रखी कि बारात में वही जायेगा जो खादी पहनेगा. उन्होंने शादी में न कोई भेंट स्वीकार की और न ही मुकुट पहना. विवाह के अगले ही दिन स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने हेतु घर से निकले और संगलाकोटी में देशप्रेम से ओतप्रोत ओजस्वी भाषण के कारण गिरफ्तार किये गए.
                 स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान व कांग्रेसजनों के बीच गांधीवादी विचारक व पवित्र जीवन मूल्यों पर निष्ठा के लिए प्रसिद्धि के कारण उन्हें सन 1952 में प्रथम लोकसभा चुनाव में गढ़वाल से कांग्रेस प्रत्याशी बनाया गया. वे गढ़वाल से लगातार चार बार सांसद चुने गए. वे देश के ऐसे चुनींदा नेताओं में थे जिनकी योग्यता, निष्ठा व सदाचार के लिए जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री व इन्दिरा गांधी ने अपने मंत्रीमंडल में स्थान दिया. केन्द्रीय शिक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने केन्द्रीय विद्यालयों तथा केन्द्रीय हिंदी निदेशालय की स्थापना करवाई. केन्द्रीय विद्यालय संगठन के वे प्रथम अध्यक्ष रहे. त्रिभाषा फार्मूला की दृष्टि से इस योजना को सर्वाधिक महत्व देकर संगठन को प्रभावशाली बनाया. 
                 सन 1971 में कांग्रेस में इन्दिरा की लहर होने के बावजूद महज 59 वर्ष की उम्र में स्वेच्छापूर्वक राजनीति से सन्यास ले लिया. स्वच्छ और सिद्धांतपरक राजनीति के हिमायती भक्त दर्शन के विषय में पूर्व सांसद वाल्मीकि चौधरी ने कहा था " मैंने किसी नेता के बारे में आज तक यह नहीं सुना कि स्वास्थ्य ठीक होते हुए भी राजनीति से हट गए हों."  इंदिरा जी के जोर देने पर भक्त दर्शन जी ने साफ़ कह दिया था कि वे इस वर्ष ही नहीं भविष्य में भी कभी चुनाव नहीं लड़ेंगे. कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि- वोटरों से पिछली बार ही कह दिया था कि अब अपने लिए वोट मांगने नहीं आऊँगा. अपने संकल्प का निर्वहन उन्होंने भीष्म प्रतिज्ञा की भांति किया. 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया' उक्ति को चरितार्थ करते हुए राजनीति से सन्यास लेने के बाद सामान्य व्यक्ति की भांति जीवन यापन किया. 
                भक्त दर्शन एक कुशल लेखक के रूप में भी प्रसिद्द हुए. गढ़वाल के प्राचीन इतिहास, संस्कृति, समाज, साहित्य, धर्म, कला व शौर्य का प्रदर्शन करने वाले दिवंगत लोगों को आधार मानकर "गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ" "श्रीदेव सुमन स्मृति ग्रन्थ" आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ उन्होंने समाज को दिए. कलाविद मुकुन्दी लाल बैरिस्टर, अमर सिंह रावत व उनके अविष्कार तथा स्वामी रामतीर्थ पर उनके आलेख आज भी प्रकाशदीप की भांति है. इसके लिए उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया. सन 1971 से 1972 तक वे उत्तर प्रदेश खादी बोर्ड के उपाध्यक्ष, सन 1972 से सन 1977 तक कानपुर विश्वविध्यालय के कुलपति तथा सन 1988 से सन 1990 तक उ0 प्र0 हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष पद पर रहे.
                   देहरादून में वे किराये के मकान में रहते थे. खद्दर का कुरता पायजामा, जैकेट और कंधे पर लम्बा थैला उनकी पहचान थी. उनके पास गाड़ी तो क्या साईकिल तक नहीं थी. जहाँ जाते पैदल ही जाते. गांधी दर्शन को जीवन पर्यंत ओढने बिछाने वाले इस नायक ने 30 अप्रैल 1991  को देहरादून के सरकारी दून अस्पताल में अंतिम सांस ली.
                                                                                     
                                                   आलेख - चन्दन सिंह नेगी (देहरादून) व दर्शन सिंह रावत (उदयपुर) 

Tuesday, April 19, 2011

जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो क़ुरबानी........

{सम्पूर्ण उत्तराखंड में वीर सपूतों की याद में जगह-जगह बैसाख और जेठ माह में मेले लगते हैं. अप्रैल 1895में ग्राम मंज्यूड़,पट्टी बमुंड,टिहरी गढ़वाल में बद्री सिंह नेगी के घर जन्मे तथा प्रथम विश्वयुद्ध में शहीद हुए वीर गबर सिंह नेगी, विक्टोरिया क्रास की स्मृति में उनके गाँव के निकट चंबा में 15 दिसंबर 1945 को  वीर गबर सिंह स्मारक बनाया गया, जहाँ पर हर वर्ष बैसाख आठ गते (20 अप्रैल )को विशाल मेला लगता है. गढ़वाल रायफल्स  द्वारा मेला प्रारंभ से पूर्व सलामी दी जाती है. परन्तु 1982 में वीर गबर सिंह नेगी की पत्नी सतुरी देवी के निधन के बाद मेले की अब बस औपचारिकता मात्र रह गयी है.}  
प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ उस समय भारतीय सेनाएं युद्ध के लिए पूर्णतः तैयार नहीं थी. मुख्य कारण यह कि उस समय तक भारतीय सेनाओं को मुख्यतः दो ही कार्य करने होते थे-
1.-देश के भीतर आन्तरिक शांति कायम करना.  और
2.- दूसरे देशों में जाकर ब्रिटेन की सेना को सहायता प्रदान करना. 
अगस्त 01, 1914 को भारतीय सेना युद्ध में भाग लेने के लिए निम्न प्रकार डिविजनों में विभाजित की गयी-
1-पेशावर, 2-रावलपिंडी, 3-लाहौर, 4- क्वेटा, 5-महू, 6 -पूना, 7-मेरठ, 8- लखनऊ, 9-सिकन्दराबाद, और 10-बर्मा 4 
इस महायुद्ध में भारत की रियासती सेनाओं के लगभग 20,000 सैनिकों ने शाही सेना की सेवा के लिए विश्व के विभिन्न रणक्षेत्रों में भाग लिया. भारतीय फौजी दस्तों ने फ़्रांस, बेल्जियम, तुर्की, मेसोपोटामिया (ईराक), फिलिस्तीन, ईरान, मिश्र और यूनान में हुए अनेक युद्धों में भाग लिया. इनमे यूरोप और अफ्रीका में स्थित वे रणक्षेत्र भी सम्मिलित हैं जहाँ खतरों से घिरे विकट दर्रों तथा गर्म जलवायु या अधिक शीत को झेलते हुए भारतीय सैनिकों को अपनी क्षमता का प्रयोग करना पड़ा, जिसके लिए भारतीय सेना के 11 सैनिकों को ब्रिटिश साम्राज्य के सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" (Victoria Cross) से सम्मानित किया गया. इस सन्दर्भ में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने कहा कि "प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सपूतों की वीरता तथा धैर्य की अमर कहानी का मूल्य सम्पूर्ण विश्व की समस्त सम्पति से बढ़ कर है, यदि हमें वह उपहारस्वरुप दी जाय." 
गढ़वाल राइफल्स-हिमालय की गोद में बसे गढ़वाल के वीर सैनिक भारतीय सेना में विशिष्ट स्थान रखते हैं. उनका गौरवपूर्ण इतिहास रहा है. भारतीय सेना में इन्होने अपनी अपूर्व निष्ठा, साहस, लगन, निडरता, कठोर परिश्रम, भाग्य पर विश्वास एवं कर्तव्य पालन से विशिष्ट पहचान बनायी है. प्रथम महायुद्ध में 39वीं गढ़वाल राइफल्स की फर्स्ट व सेकंड बटालियने मेरठ डिविजन के अंतर्गत 11 अक्टूबर 1914 को मरसेल्स पहुँची. उस समय मेरठ डिविजन में तीन ब्रिगेड थे- (i) देहरादून ब्रिगेड  (ii) गढ़वाल ब्रिगेड व   (iii) बरेली ब्रिगेड.  गढ़वाल ब्रिगेड के कमांडर मेजर जनरल एच० डी0 युकेरी तथा ब्रिगेडिएर जनरल ब्लेकेडर के अधीन गढ़वाल रायफल्स ने फ़्रांस तथा बेल्जियम के युद्ध क्षेत्रों पर अपना मोर्चा सम्भाल लिया.
फेस्टुबर्ट का संग्राम (फ़्रांस)- 23, 24 नवम्बर 1914 को फेस्टुबर्ट के निकट जर्मनों के खिलाफ अति महत्वपूर्ण लडाई लड़ी गयी. जर्मन ने यहाँ मोर्चा बना कर खाईयां खोद रखी थी और वहां से जमकर गोलाबारी कर रहे थे. इस फ्रंट पर फिरोजपुर ब्रिगेड को पीछे हटना पड़ा था और उन खाईयों पर जर्मनों ने कब्ज़ा कर दिया था. इन परिस्थितियों में 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट बटालियन को आदेश दिया गया की वे खाई पर आक्रमण करें. लक्ष्य प्राप्ति व परिस्थितियों को पक्ष में करने के लिए सर्वप्रथम बमवर्षा व गोलियों की बौछार की गयी. कमांडर का विचार था कि भयानक वमबर्षा व गोलीबारी से स्थिति पर नियंत्रण होगा, शत्रुओं का मनोबल टूटेगा तथा कवरिंग फायर की मदद से आगे बढ़ सकेंगे. गढ़भूमि का वीर सपूत नायक दरबान सिंह नेगी ही पहला व्यक्ति था जो दुश्मनों की गोलियों और बमों की परवाह न करते हुए कुछ फीट दूरी से ही मुकाबला कर रहा था. इस साहस व वीरतापूर्ण कार्य में दो बार घायल हुआ लेकिन वह सच्चे सैनिक की भांति दर्द की परवाह न करते हुए भी खाई में दुश्मनों से लड़ता रहा. कई बार दुश्मनों को पछाड़ कर पीछे किया और कई बार मौत के मुंह में जाते-जाते बचा और अंततः बुरी तरह घायल होते हुए भी खाईयों पर फतह पा ली. इस अदम्य साहस और शौर्य के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" से सम्मानित किया. इस वीरतापूर्ण मोर्चे पर जान की परवाह न करते हुए जिन्होंने डटकर साथ दिया वे थे- सूबेदार धन सिंह (मिलिटरी क्रास), सूबेदार जगतपाल सिंह रावत(आर्डर ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया) तथा हवालदार आलम सिंह नेगी, लांसनायक शंकरू गुसाईं तथा रायफलमैन कलामू बिष्ट (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट). गढ़वाली जवानों ने दुश्मन की खाईयों में हजारों जर्मन सिपाहियों को मौत की नींद सुला दिया और हजारों को बंदी बना दिया. 24 नवम्बर सुबह तक खाईयों पर पूरी तरह 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट बटालियन के जवानों ने कब्ज़ा कर लिया.
न्यूवे चैपेल का संग्राम (फ़्रांस) - यह सबसे बड़ी एकल लड़ाई थी जिसमे 10 से 12 मार्च 1915 तक चले इस संग्राम में 39वीं गढ़वाल रायफल्स की सेकंड बटालियन ने अपना जौहर दिखाया और इंडियन ट्रूप्स के लिए गौरव की प्राप्ति की. जर्मनों ने यहाँ पर चार मील लम्बा अभेद्नीय मोर्चा कायम कर रखा था. 600 गज का एक फ्रंट अटैक 10 मार्च 1915 की सुबह आर्टिलरी बैराज से शुरू हुआ. उस सुबह कड़ाके की ठण्ड, नमी और घना कोहरा था. इसके अतिरिक्त दलदली खेतों, टूटी झाड़ियों और कांटेदार तारों के कारण परिस्थितियां अत्यंत विकट थी. आमने सामने की भिडंत और भयंकर गोलीबारी और बमवर्षा के बाद रात 10 बजे समाप्त हुआ. इस फ्रंट पर रायफलमैन गबर सिंह नेगी ने दुश्मनों पर बड़े साहस के साथ गोलियां बरसाई जब तक कि वे आत्मसमर्पण के लिए तैयार नहीं हो गए. एक सच्चे सिपाही की भांति वे युद्ध भूमि में अंतिम क्षण तक डटे रहे और फर्ज के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. इस अदम्य साहस और पराक्रम के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मरणोपरांत सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" से सम्मानित किया. इस युद्ध में 20 अफसर और 350 सैनिकों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया उनमे 39वीं गढ़वाल रायफल्स की सेकंड बटालियन के सूबेदार मेजर नैन सिंह (मिलिटरी क्रास), हवालदार बूथा सिंह नेगी (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट), नायक जमन सिंह बिष्ट (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट) तथा सूबेदार केदार सिंह( इंडियन डिसटीन्गुअश सर्विस मेडल) हैं.
 39वीं गढ़वाल रायफल्स की वीरता और साहस से प्रभावित होकर फील्ड मार्शल फ्रेंच ने वायसराय को यह रिपोर्ट भेजी; " इंडियन कोर की सारी यूनिटें जो न्युवे चैपल की लड़ाई में लगी है उन्होंने अच्छा कार्य किया. जिन्होंने विशेष तौर पर प्रसिद्धि पाई उनमे 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट और सेकंड बटालियने प्रमुख है."
          प्रथम विश्वयुद्ध (1914 -18) में 39वीं गढ़वाल रायफल्स दोनों बटालियनों ने विक्टोरिया क्रास सहित 25 मेडल्स प्राप्त किये, जो उन्हें विशिष्ट सैनिक सेवाओं और शौर्य के लिए प्रदान किये गए तथा गढ़वाल रायफल्स को रायल (Royal) की पदवी से भी सम्मानित किया गया. जो युद्ध भूमि में अपने प्राण न्यौछावर कर गए उन सबकी स्मृति में लैंसडौन-जो कि गढ़वाल रायफल्स का मुख्यालय है (पौड़ी. उत्तराखंड) में 1923 में युद्ध स्मारक का निर्माण किया गया. यह स्मारक तीर्थस्थल की भांति पवित्र और पूज्य है.
                                                                                                     
                                                                                                     डॉ० उदयवीर सिंह जैवार
                                                                                    "प्रथम  विश्वयुद्ध  में  गढ़वाल  राइफल्स की भूमिका  (1914-18)" के सम्पादित अंश