Saturday, December 10, 2016

वीर सैनिकों की स्मृति में आयोजित खलंगा मेला

                    देहरादून में एक लम्बा अरसा बीत गया। परन्तु हर वर्ष आयोजित होने वाले खलंगा मेले में जा ही नहीं पाया। कई बार सोचता परन्तु....। इस बार ‘बलभद्र खलंगा विकास समिति, नालापानी, देहरादून’ द्वारा आयोजित मेले के लिये समय निकाल ही लिया। कई मित्रों को फोन किया परन्तु सब कहीं न कहीं व्यस्त थे। वरिष्ठ पत्रकार व कवि चेतन खड़का जी ही साथ दे पाये। हमेशा सोचता कैसा है वह नालागढ़ जिसे दो सौ वर्ष पूर्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फौज हजारों सैनिकों की कुर्बानी के बाद भी लम्बे समय तक नहीं भेद पायी। हजारों पैदल, सैकड़ों घुड़सवार सैनिक तथा प्रचुर मात्रा में बन्दूक, गोला-बारूद, तोप से लैस अंग्रेज सेना की क्या परेशानी रही कि मुठ्ठी भर गोरखा सैनिकों को एक ही बार के आक्रमण में नहीं जीत पाये, जैसे कि उन्हें आशा थी। गोरख्याणी(गोरखा शासन) से त्रस्त गढ़वाल की प्रजा व राजा के साथ देने पर भी गोरखा सैनिकों के अन्दर
इतना आत्मबल कहाँ से आया कि उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना के नाकों चने चबवा दिये।
                देहरादून शहर के उत्तर-पूरब में लगभग आठ किलोमीटर दूरी पर और ननूरखेड़ा, मंगलूवाला, बझेत, अस्थल व किरसाली गांव के मध्य साल के घने जंगल के बीच लगभग 850 मीटर पर स्थित यह दुर्ग नुमा क्षेत्र वास्तव में बहुत दुर्गम है। आज भले ही वहाँ तक सड़क बन गयी है परन्तु दो सौ साल पूर्व की स्थिति की कल्पना की जा सकती है। वीर गाथा प्रकाशन, विद्याभवन-दोगड़ा-गढ़वाल द्वारा प्रकाशित डॉ0 शिवप्रसाद डबराल की पुस्तक ‘गोरख्याणी’ में ‘खलंगा’ का अभिप्राय ‘सैन्य शिविर’ है। इतिहासकारों के अनुसार गोरखा शासन गढ़वाल, कुमाऊँ व सिरमौर राज्यों के लिये एक काला अध्याय है। गोरखा शासन के  मात्र बारह साल के अल्पकाल में जो अत्याचार हुए वह सैकड़ों वर्ष के शासनकाल में मुगलों ने भी नहीं किया और न ही अंग्रेजों ने। प्रजा की दुर्दशा पर मोलाराम की कविता उस काल की साक्षी है।
‘मालक रहा न गढ़ मैं मुल्क षुवार हो गया।
साहेब गुलाम पाजी सब इकसार हो गया।
काजी करै न काज सित्मगार हो गया।
रैयत पै जुल्म जोर बिसियार हो गया।
क्या षूब श्रीनग्र था उजार हो गया।...........’

बहरहाल! इतिहास में इतना कुछ अंकित है कि पढकर रांेगटे खड़े हो जाते हैं।
                         खलंगा मेले में भ्रमण के दौरान एक मित्र का फोन आया। कहने लगे ‘यह तो गढ़वालियों के लिये गुलामी का प्रतीक है और गढ़वालियों को इसमें शामिल ही नहीं होना चाहिये।’ मैंने कहा कि ‘लाल किला, ताजमहल आदि ही नहीं संसद भवन, गेटवे ऑव इण्डिया आदि भी तो गुलामी के प्रतीक हैं। देहरादून में एफ. आर. आई. के भवन, सर्वे ऑव इण्डिया की व्यवस्था आदि भी तो गुलामी की प्रतीक है। तो क्या हमें उनसे भी
दूर रहना चाहिये?.......’ खैर।
                        शहर से दूर होने के कारण मेले में ज्यादा भीड़ नहीं थी। मंच पर सांस्कृतिक कार्यक्रम सुबह ग्यारह बजे से देर तक चलते रहे। परन्तु दिन में ध्यान अक्सर भटक जाता है जिससे लोग इतना लुत्फ नहीं
उठा पाये। मेले में सेलु रोटी, भुटवा, चना छोला, चोमिन, मोमो आदि खूब बिक रहा था। पहली बार मैंने भी लहसुन प्याज की चटनी के साथ सेलु रोटी खायी। मेला स्थल से लगभग तीन सौ मीटर ऊपर पहाड़ी पर बलभद्र खलंगा युद्ध स्मारक (1814) देखने भी गये। इतनी ऊँचाई से देहरादून का विंहगम दृश्य देखकर बहुत अच्छा लगा। सोचा यदि यह मेला तीन-चार दिन चलता तो परिवार सहित अवश्य आता। वायु ध्वनि प्रदूषण आदि से मुक्त इस घने जंगल के बीच में कुछ पल गुजारना किसे अच्छा नहीं लगेगा।

Wednesday, September 07, 2016

भगतु व पत्वा गोर्ला रावत (समय- 17वीं शताब्दी का अंतिम अंश)

             गढ़वाल के भडों(वीरों) में इन दो जुड़वाँ भाइयों का ऊँचा स्थान है। गोर्ला वंश डोटी व काली कुमाओं में अधिकारहीन होने के बाद गढ़वाल राज्य की शरण में आया था और उसे चौन्दकोट परगने के गुराड़ गाँव में निवास दिया गया था। वहां पहले गुराड़ी नेगी थोकदार थे। लेकिन किसी कारणवश उन्हें पूर्वी नयार के समीप चौमासु आदि गांवों में नेग दे दिया गया और उनकी थोकदारी गोर्ला वंश के प्रथम आगुन्तक भड़ को दे दी गयी। धीरे धीरे उस वंश को कई गांवों की थोकदारियां प्राप्त हो गयी। लेकिन कोई ठोस इलाका अर्थात (पट्टी) उनके पास नहीं थी। अपने बुद्धि चातुर्य तथा वीरता से उनका गढ़वाल के राजवंश से वैवाहिक सम्बन्ध हो गया और दरबार में उनका दबदबा इतना बढ़ गया कि ‘‘भैर गोर्ला, भितर गोर्ला, अर्ज विनती कैमू कर्ला’’ की कहावत प्रचलित हो गयी। उसी वंश के थोकदार के घर में गुराड़ गाँव में इन दो जुड़वाँ भाइयों का जन्म हुआ था।
               इनके बड़े होने पर गृह-कलह की आशंका पैदा हो गयी। यद्यपि ये दो भड़ बड़ी माता के पुत्र थे, लेकिन छोटी माता का पुत्र इनसे जेठा था। अतः इस बात को लेकर कि जेष्ठत्व पत्नी का माना जाना चाहिए या पुत्र का- एक मतभेद पैदा हो गया। इनके विपक्ष में एक तर्क यह भी था कि जुड़वाँ होने के कारण थोकदारी को दो बराबर भागों में विभाजित करना होगा। आखिर यह सारा मसला गढ़वाल के महाराज के सम्मुख पेश किया गया। उन्होंने सब तर्कों पर विचार करके यह बुद्धिमतापूर्ण निर्णय दिया कि गुराड़ की थोकदारी तो उम्र में ज्येष्ठ पुत्र को ही मिलनी चाहिए। लेकिन अगर ये जुड़वाँ भाई पूर्वी सीमा पर जाकर कुमाउंनी सरदार का सिर काट लायें तो गुजडू व खाटली की थोकदारी इन्हें दे दी जाएगी। उन दिनों एक कुमाउंनी सरदार ने उस इलाके में आतंक व अत्याचार मचा रखा था और वहां का तत्कालीन थोकदार उसका मुकाबला नहीं कर पा रहा था।
बस इन दो भड़ों को क्या चाहिए था? ये तो अपनी वीरता प्रदर्शित करने के लिए उत्सुक थे ही। अतः उन्होंने एक शुभ दिन अपनी वीर माता के साथ गुराड़ से विदाई ली और पूर्वी सीमा की ओर प्रस्थान किया। वहाँ जाकर उन्होंने जनता का मजबूत संघटन तैयार किया और कांडा (पट्टी खाटली) में अपना केंद्र स्थापित किया। आखिर सब तैयारी करके एक दिन कुमाउनी फौज से इनकी भिड़न्त हो गयी। ये बड़ी बहादुरी से लड़े और कुमाउनी फ़ौज भगा दी गयी। उसके बाद उसने उस इलाके की ओर कभी भूल कर भी नजर नहीं उठाई। इनके भी कई साथी वीरगति को प्राप्त हुए और ये जख्मी दशा में उस कुमाउनी सरदार का सिर लेकर श्रीनगर दरबार में उपस्थित हुए। महाराज ने इनकी भूरी भूरी प्रशंसा की और चूंकि प्रत्येक भड़ पर ४२ -४२ घाव आये थे, अतः इन्हें उतने ही गांवों की थोकदारी प्रदान की गयी।
                    इस प्रकार विजय प्राप्त करके और महाराज से पुरस्कार पाकर श्री भगतु गोर्ला ने सिसई (पट्टी खाटली) में और पत्वा गोर्ला ने पड़सोली (पट्टी गुजडू) में अपने केंद्र स्थान निश्चित किये तथा भविष्य में दक्षिण-पूर्वी सीमा की जोरदार रक्षा की। इनके वंशज आज भी विद्यमान है। श्री भगतु गोर्ला के वंशजों में श्री उमेश्वर सिंह, डिप्टी कलेक्टर प्रमुख हैं। श्री पत्वा गोर्ला के वंशजों में श्री विष्णु सिंह रावत, संचालक- वीविंग फैक्टरी कोटद्वार तथा श्री नारायण सिंह रावत सदस्य जिला बोर्ड प्रमुख हैं.

                                                                           (स्रोत साभार- गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ -डॉ0 भक्तदर्शन ! संस्करण- 1952  )

Sunday, August 14, 2016

भारतवर्ष में बाल मजदूरी और बाल श्रम कानून

                                   आज मोटर वर्कशॉप, होटलों, दुकानों, घरों, खदानों में, बैण्ड पार्टी में या कबाड़ बीनने वाले के साथ नाबालिग बच्चों को देखकर हम द्रवित हो उठते हैं, हमारे मन में उन बच्चों के प्रति दया उमड़नी स्वाभाविक है। हम दुनिया और ईश्वर को कोसने लग जाते है। परन्तु प्रायः दूसरे ही पल हम व्यवहारिक व व्यवसायिक भी हो जाते हैं, बल्कि कभी-कभी हम उत्पीड़न करते उनके मालिकों की हाँ में हाँ भी मिलाने लग जाते हैं। विडम्बना ही है कि जिस उम्र में बच्चों को स्कूल पढ़ना चाहिये था उस उम्र में वे दो वक्त की रोटी के फेर में अपने मालिकों के हाथों पिट रहे होते हैं। हाय रे भाग्य!
                                     हमारे देश में गरीबी एक ज्वलन्त समस्या
है। जिसके लिये गरीब परिवार के अधिकाधिक सदस्यों को जीविकोपार्जन के लिये दौड़ना-भागना पड़ता है। उच्च व मध्यम वर्ग अपने बच्चों की परवरिश व शिक्षा-दीक्षा भली भांति कर सकता है। वहीं निम्न मध्यम वर्ग भी येन-केन प्रकार से अपने बच्चों के लिये भोजन व शिक्षा की व्यवस्था कर लेता है। परन्तु गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले परिवारों को अक्सर मजबूरन अपने नाबालिग बच्चों को भी मजदूरी की तपिश में झोंकना पड़ता है।
                            भारतवर्ष में बाल श्रम को रोकने के लिये ‘बाल श्रम (निषेध व निवारण) अधिनियम 1986 (1986 की अधिनियम संख्या-61)’ में स्पष्ठ उल्लेख है कि बाल श्रमिकों को कुछ विशेष कार्यों में संलिप्त नहीं
किया जा सकता। और ऐसा करने पर अधिनियम की धारा-3 के अनुसार न्यूनतम तीन माह सश्रम कारावास का प्राविधान है। यदि इस अधिनियम को शक्ती से लागू किया जाये तो बाल श्रम रोका जा सकता है।
चिन्तन: अन्धकारमय जीवन जी रहे ऐसे बच्चों के लिये हम या हमारा समाज क्या कुछ कर सकता है?
     

Sunday, July 17, 2016

पातीण और पातनी देवी

        पिछले साल विजय दशमी पर गांव जाना हुआ। ट्राली(Rope way) से टिहरी झील पार की और पैदल गांव को चल पड़ा। सोचा दो मील की दूरी के लिये गाड़ी का इन्तजार क्यों करूं। आधा मील ही पहुँचा कि मेरे गांव व मदननेगी जाने वाले रास्ते के मिलान पर पातनी (पातीण) देवी में हाथ स्वतः ही जुड़ गये। पीठ से बैग उतार कर नीचे रखा, यंत्रवत पास ही पातीण के झुरमुट से कुछ पत्तियां तोड़कर देवी के थान पर चढ़ाकर आशीर्वाद लिया और बैठ गया। मेरे गांव के आस-पास ही पातनी देवी के कई थान (स्थान) हैं। गांव से मदननेगी, चम्पाधार, माण्डू होते हुये कठूली जाने वाले रास्ते पर और एक यह अर्थात अलग-अलग दिशा को जाने वाले रास्तों पर। हमारे क्षेत्र के अन्य गांवों के रास्तों पर भी पातनी देवी के  कई थान हैं। पातनी देवी के थान से मतलब बिना किसी ढांचे का मन्दिर। जिसमें दीप, धूप, चढ़ावा आदि कुछ नहीं चढ़ता। दो-चार पत्ते पातीण के डाल दो और हाथ जोड़ दो। रास्ते किनारे ढलान से ऊपर की ओर प्रतीक के तौर पर एक-दो पत्थर और पातीण के कुछ सूखे व हरे पत्तों का ढेर का नाम है पातनीदेवी का थान।
         आखिर क्या है पातनी देवी? माना जाता है कि धर्म की अवधारणा व्यक्ति को अनुशासन में रखने के लिये हुयी है। सामाजिक बन्धनों के साथ-साथ मनुष्य धार्मिक बन्धनों में बान्धने से ही अनुशासित रह सकता है, हमारे पूर्वजों की सोच रही है। लाखों, करोड़ों देवी-देवताओं का उल्लेख हमारे धर्मशास्त्रों में है। तैंतीस करोड़ देवताओं की ‘लिस्ट’ मंे पातनी देवी है या नहीं, कुछ कह नहीं सकता। मेरा मानना है कि पातनीदेवी के थान के मूल में सम्भवतः पातीण के पौधों को समूल नष्ट होने से बचाना भी रहा हो।
उत्तराखण्ड हिमालय में 2000 से 5000 फीट ऊँचाई तक पाये जाना वाला पातीण वह पौधा है जिसे पालतू पशुओं के नीचे बिछाया जाता है- पशुओं को आराम देने की भावना से। परन्तु मूलतः गोबर खाद तैयार करने के निमित्त। यह जौनसार में निनस, निनावा व निनावं, गढ़वाल में तुंगला व पातीण तथा कुमाऊँ में तंग नाम से जाना जाता है। इसे हिन्दी में तुंगला व संस्कृत में तिन्त्रिणी कहा जाता है। अंग्रेजी नाम small flowered poison sumac है और वानस्पतिक नाम Rush parviflora है। जैसा कि संस्कृत नाम(तिन्त्रिणी अर्थात तीन तृण) से ही स्पष्ठ है कि इसकी शाखा पर 0.6 से 2 इन्च आकार के तीन पत्ते फूटते हैं, जिसमें ऊपर का पत्ता बड़ा और आशमान की ओर सिर उठाये होता है जबकि उसके नीचे आमने-सामने के पत्ते छोटे व लम्बवत होते हैं। मई, जून में जहाँ पातीण पर फूल निकलने शुरू हो जाते हैं, वहीं जुलाई, अगस्त में फल पड़ते हैं। तोर के दानों से भी छोटे अर्थात लगभग चार-पाँच मिलीमीटर ब्यास के इसके फल पकने पर हरे से भूरे रंग में बदल जाते हैं। आयुर्वेदिक औषधि के लिये विख्यात अंगूर की भांति गुच्छों के रूप में लदे इन फलों को चिड़िया, गिलहरी, बन्दर ही नहीं बल्कि वनों पर आश्रित पशुचारक, घसियारिनें आदि भी बड़े चाव से खाते हैं।
         पातीण व पातनी देवी से जुड़ी अनेक यादें है। उपयुक्त जलवायु होने के कारण हमारे गांव के उत्तर, दक्षिण व पूरब में पातीण बहुतायत में है। अतः छुट्टी के दिन घर से आदेश मिलता कि अपनी सामर्थ अनुसार खाली बोरी ले जाओ और पातीण काट कर लाओ। यह तीन-चार घण्टे का ही कार्य(हॉफ डे टास्क) होता। परन्तु मन मुताबिक साथी मिल गये तो हम पूरा दिन भी लगा लेते एक बोरी पातीण काटने में। बोरी ठूंस ठूंस कर भर देने के बाद उसे जंगल में साफ जगह पर रख कर कभी बाधा दौड़ में बाधा(हर्डल) के तौर पर बोरियों को रखा जाता और दौड़ लगाते। कभी दौड़कर आते और बोरियों के ऊपर कूदते, यानि बोरियां गद्दों के रूप में इस्तेमाल होती। घर लौटते समय जहाँ हल्की ढालूदार साफ जगह मिलती वहाँ बोरियां नीचे रख दी जाती और लातों से बोरी धकियाकर कुछ दूरी तय कर लेते। एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि जंगल में दिशा-शौच को गये और पानी नहीं मिला। वापसी पर रास्ते में पातनीदेवी का थान पड़ा तो पातनी देवी अपवित्र न हो जाये, इस भावना से थान से एक निश्चित दूरी बनाने के चक्कर में हाथ-पैर कांटों से बुरी तरह छिल गये। चार-पाँच साल पहले एक शाम चम्पाधार होतेे हुये गांव लौट रहा था तो रास्ते में पातीण की आड़ में एक जोड़ा प्रेमालाप में लीन था। पलायन और घरों में ढोर-डंगर कम होने के कारण जंगल में पातीण के बड़े-बड़े झुरमुट जो हो गये हैं।

Friday, July 01, 2016

मेरी प्यारी घुघुती जैली

         घुघुती का महत्व किसी अन्य क्षेत्र के लिये कितना है कहना मुश्किल है। परन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती सबके गले की घुघुती है। चैत-बैसाख की बात हो और घुघुती न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। खुदेड़(विरह) गीतों की बात हो और घुघुती न हो ऐसा भी नहीं हो सकता। घुघुती हमारे लोक में इस तरह रच-बस गयी है कि हम घुघूती के बिना गांव की कल्पना ही नहीं कर सकते। गांव याद आता है तो गांव में घुघुती याद आ जाती है। कभी ओखली के आस-पास, कभी चौक में, कभी बर्तन धोने वाली जगह पर, कभी छत की मुण्डेर पर और कभी आंगन किनारे खड़े पेड़ों पर।
       घुघुती की महत्ता हमारे लिये कितनी है यह आप समझ सकते हैं; बचपन में दादी, नानी अक्सर एक लोरी सुनाया करती थी- ‘‘घुघुती, बासुती, क्या खान्दी, दूधभाती.......’’
       किशोरावस्था में रेडियो पर एक गाना सुनते; ‘‘ना बास घुघुती चैत की, खुद लगीं छ माँ मैत की।......’’.
      पिछली सदी के आठवें दशक में अक्सर गोेपाल बाबू गोस्वामी के स्वर में यह गाना जरूर बजता था; ‘‘आमा की डायी मां घुघुती न बासा, घुघुती न बासा......’’
     फिर नेगी जी का जमाना आया तो उनके स्वर मेें यह गीत प्रायः सुनाई पड़ता; ‘‘घुघुती घुरॉण लगीं म्यारा मैत की, बौड़ी-बौड़ी ऐगे ऋतु ऋतु चैत की।.......’’
      नेगी जी ने तो उपमा केे तौर पर भी घुघुती की सांकी(गर्दन) को महत्ता दी है; ‘‘कख बटि लै होली घुघुती सी सांकी, कख पायी होली स्या छुंयाळ आँखी....’’
       और अब किशन महिपाल जी तो घुघुती वाले इस लोकगीत के साथ माणा से मुम्बई तक धूम मचाये हुये है; ‘‘किंगर का छाला घुघुती, पंगर का डाळा घुघुती, भै घुर घुरॉन्दि घुघुती, फुर उड़ॉन्दि घुघुती......’’
      हिन्दी फिल्म या साहित्य में कबूतर को पत्रवाहक के रूप में दिखाया जाता है। परन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती पत्रवाहक नहीं स्वयं सन्देशवाहक के रूप में गीतों में मौजूद है;   ‘....उड़ि जा ऐ घुघुती न्हैं जा लदाख, हाल म्यरा बतै दिया म्यारा स्वामी पास।.....’
या फिर- ‘...मेरी प्यारी घुघुती जैली, मेरी माँजी तैं पूछि ऐली।.......’
      घुघुती हमें कितनी प्रिय है वह इस बात से देखा जा सकता है कि मुम्बई में बसी उत्तराखण्डी एक महिला का ब्लॉग का नाम ही है ‘घुघुती बासुती’।
       कूर्माचल सांस्कृतिक परिषद, देहरादून की स्मारिका का नाम भी है ‘घुघुती’।
        और हिन्दी साहित्य की कहानी, कविता, सम-सामयिक आदि विभिन्न विधाओं पर सतत लेखन करने वाले स्वनाम धन्य विद्वान लेखक देवेश जोशी जी ने अपनी एक किताब का नाम ही रख डाला है ‘घुघुती ना बास’
.         .इससे यह सोच सकते हैं कि घुघुती हमारे लोकजीवन व जनमानस में कही गहरी छाप छोड़े हुये है जिसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।

Monday, June 13, 2016

और हमारे गांव का सेळ्वाणि सूख गया।

                 पिछले महीने एक शादी के सिलसिले में गांव गया तो भोपाल सिंह भाई जी ने बताया कि सेळ्वाणि सूख गया है। यह अप्रत्याशित तो नहीं था फिर भी मुझे धक्का पहुँचा। लग भी रहा था कि वह सूखने वाला है। क्योंकि इधर कई वर्षों से सेळ्वाणि के ऊपर वाले सैकड़ों खेत बंजर हो गये हैं। जलवाल गांव व खोला गांव के उन खेतों में फसल नहीं बोयी जा रही है और जब फसल नहीं तो न हल चलाया जा रहा है और न सिंचाई ही। फिर वर्षा का औसत भी तो वर्ष दर वर्ष कम हो रहा है। जमीन रिचार्ज कहाँ से होगी? थोड़ा बहुत जो बरसता है वह कब तक रिसेगा?
               सेळ्वाणि अर्थात प्राकृतिक जलस्रोत। जिसे गढ़वाल में धारा या मंगरा भी कहा जाता है। सेळ्वाणि शब्द शायद सेळि शब्द से बना है शायद। सेळि अर्थात ठण्डक पड़ना, सकून मिलना। गरम दोपहरी में ठण्डा पानी मिल जाये तो ‘सेळि पड़गी’ या बच्चा देर से घर लौटे तो ‘अब पड़ी जिकुड़ा सेळि’ अक्सर कहा जाता है। सेळि में पाणी शब्द जुड़ने से ही यह सम्भवतः सेळ्वाणि बना होगा। हमारे गांव का सेळ्वाणि मेरे लिये केवल धारा या मंगरा नहीं था, बल्कि इसके साथ मेरी अनेक खट्टी मीठी यादें भी जुड़ी हैं।

                 पाईप लाईन द्वारा पीने का पानी हमारे गांव में मेरे जन्म से पहले ही पहुँच गया था। गांव के आगे आंगन की तरह फैले खेतों में सिंचाई के लिये तीन नहरें है, पानी की कमी नहीं है। फ्रिज का जमाना नहीं था इसलिये बैसाख-जेठ की प्यास सेळ्वाणि से ही बुझती थी। गरमियों में स्कूल की छुट्टियां होती और सेळ्वाणि पानी लाने की ड्यूटी लड़कों की होती। यह गांव से लगभग आधा मील दूर उत्तर-पश्चिम में गाड(पहाड़ी नदी) के किनारे है। सेळ्वाणि लाने के बहाने अपने-अपने बर्तन लेकर हम शाम को जल्दी ही निकल पड़ते। रास्ते में हमारी बानर सेना लोगों के खेतों से टमाटर, ककड़ी, प्याज या कच्चे आम चुराकर गाड में बड़े-बड़े गंगलोढ़ों पर बैठकर घर से लाये हुये नमक के साथ खाते। लम्बी-लम्बी बातें हांकते, एक-दूसरे से झगड़ते और रोज डेढ़-दो घण्टा बरबाद करके घर लौटते। घर में अक्सर डांट पड़ती। परन्तु हम थे कि कभी नहीं सुधरे। सेळ्वाणि से जुड़ा एक किस्सा और भी है। भाषली गांव के किशोर सिंह पढ़ाई के लिये अपनी फुफू के पास हमारे गांव आया। वह मेरे से एक क्लास सीनियर था। उसके हाथों में एक बार चर्मरोग हो गया। उसके फूफा (स्व0 भगत सिंह खरोला) ने उसे कहा कि वह रोज सुबह सेळ्वाणि जाकर नहाये, जैसे कोई सजा सुना दी हो। परन्तु मजबूरन उसने बात मानी और ताज्जुब कि एक-दो माह में ही रोग दूर हो गया।

         नौकरी के दौरान भी गांव जाने पर मदननेगी आते-जाते मैं सेळ्वाणि में अवश्य रुकता। ठण्डा पानी पीकर वहाँ पर घड़ी भर बैठना भी न भूलता। फिर मन में खयाली पुलाव पकाता कि यदि कभी बहुत सारा धन मेरे पास आ जायेगा तो वहाँ एक-दो अच्छे बाथरूम और शेष पानी को रोककर एक पूल बनाऊँगा, जहाँ पर गांव के लड़के खुल कर नहा सके। परन्तु नौकरी से पेट का गड्ढा ही नहीं भरता कभी। जितना मिले कम ही कम। बहरहाल।

             सेळ्वाणि सूख गया है। घर-घर में अब फ्रिज हैं, इसलिये शायद गांववालों को इसकी कमी नहीं अखरेगी। परन्तु इस तरह हमारे प्राकृतिक जलस्रोत सूख जाना चिन्ता का विषय तो है ही। खेती-बाड़ी से मोहभंग और पलायन का ही परिणाम है यह।