Friday, July 01, 2016

मेरी प्यारी घुघुती जैली

         घुघुती का महत्व किसी अन्य क्षेत्र के लिये कितना है कहना मुश्किल है। परन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती सबके गले की घुघुती है। चैत-बैसाख की बात हो और घुघुती न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। खुदेड़(विरह) गीतों की बात हो और घुघुती न हो ऐसा भी नहीं हो सकता। घुघुती हमारे लोक में इस तरह रच-बस गयी है कि हम घुघूती के बिना गांव की कल्पना ही नहीं कर सकते। गांव याद आता है तो गांव में घुघुती याद आ जाती है। कभी ओखली के आस-पास, कभी चौक में, कभी बर्तन धोने वाली जगह पर, कभी छत की मुण्डेर पर और कभी आंगन किनारे खड़े पेड़ों पर।
       घुघुती की महत्ता हमारे लिये कितनी है यह आप समझ सकते हैं; बचपन में दादी, नानी अक्सर एक लोरी सुनाया करती थी- ‘‘घुघुती, बासुती, क्या खान्दी, दूधभाती.......’’
       किशोरावस्था में रेडियो पर एक गाना सुनते; ‘‘ना बास घुघुती चैत की, खुद लगीं छ माँ मैत की।......’’.
      पिछली सदी के आठवें दशक में अक्सर गोेपाल बाबू गोस्वामी के स्वर में यह गाना जरूर बजता था; ‘‘आमा की डायी मां घुघुती न बासा, घुघुती न बासा......’’
     फिर नेगी जी का जमाना आया तो उनके स्वर मेें यह गीत प्रायः सुनाई पड़ता; ‘‘घुघुती घुरॉण लगीं म्यारा मैत की, बौड़ी-बौड़ी ऐगे ऋतु ऋतु चैत की।.......’’
      नेगी जी ने तो उपमा केे तौर पर भी घुघुती की सांकी(गर्दन) को महत्ता दी है; ‘‘कख बटि लै होली घुघुती सी सांकी, कख पायी होली स्या छुंयाळ आँखी....’’
       और अब किशन महिपाल जी तो घुघुती वाले इस लोकगीत के साथ माणा से मुम्बई तक धूम मचाये हुये है; ‘‘किंगर का छाला घुघुती, पंगर का डाळा घुघुती, भै घुर घुरॉन्दि घुघुती, फुर उड़ॉन्दि घुघुती......’’
      हिन्दी फिल्म या साहित्य में कबूतर को पत्रवाहक के रूप में दिखाया जाता है। परन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती पत्रवाहक नहीं स्वयं सन्देशवाहक के रूप में गीतों में मौजूद है;   ‘....उड़ि जा ऐ घुघुती न्हैं जा लदाख, हाल म्यरा बतै दिया म्यारा स्वामी पास।.....’
या फिर- ‘...मेरी प्यारी घुघुती जैली, मेरी माँजी तैं पूछि ऐली।.......’
      घुघुती हमें कितनी प्रिय है वह इस बात से देखा जा सकता है कि मुम्बई में बसी उत्तराखण्डी एक महिला का ब्लॉग का नाम ही है ‘घुघुती बासुती’।
       कूर्माचल सांस्कृतिक परिषद, देहरादून की स्मारिका का नाम भी है ‘घुघुती’।
        और हिन्दी साहित्य की कहानी, कविता, सम-सामयिक आदि विभिन्न विधाओं पर सतत लेखन करने वाले स्वनाम धन्य विद्वान लेखक देवेश जोशी जी ने अपनी एक किताब का नाम ही रख डाला है ‘घुघुती ना बास’
.         .इससे यह सोच सकते हैं कि घुघुती हमारे लोकजीवन व जनमानस में कही गहरी छाप छोड़े हुये है जिसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।

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