Monday, February 27, 2012

वैभवशाली अतीत के साक्षी हैं गोलकोण्डा के खण्डहर- 2


किले के शीर्ष से हैदराबाद का विस्तार
पिछले अंक से आगे............
                  गोलकोण्डा किले के आठ द्वारों में मुख्य द्वार बाला हिसार है. बाला हिसार द्वार के भीतर के मुख्य आकर्षण एक तीन मंजिला अस्स्लाह खाना, नगीना बाग़, अकन्ना मदन्ना आफिस, रामदास जेल व दरबार हाल है. गाइड बताता है कि किले के प्रवेश द्वार पर यदि ताली भी  बजाई जाये तो लगभग एक किलोमीटर दूर इस पहाड़ी पर बने बालाहिसार द्वार तक इसकी गूँज सुनाई देती है. गोलकोण्डा किला वास्तुकला  का यह अद्भुत व अनूठा नमूना तो है ही.
                इतिहास में अक्सर जिक्र आता है कि राजा, महाराजा, सुल्तान, बादशाह युद्ध के मैदान में जितनी जीवटता दिखाते थे, अपने शान-ओ-शौकत के लिए भी वे उतने जाने जाते रहे हैं. शिकार, युद्ध, संगीत,  नृत्य राजाओं, महाराजाओं व बादशाहों का शौक रहा है. मोहम्मद कुली क़ुतुब शाह भी अपवाद नहीं थे. गोलकोण्डा
किले के शीर्ष पर निर्मित अद्भुत शिल्प का नमूना ये मंदिर 
के महलों में भी नर्तकियों के पैरों के घुँघरू और पायल की झंकार, ढोलक-तबले की थाप व महल में गायिकाओं के गले से निकली मधुर स्वर लहरियां और बादशाह व उनके मेहमानों की वाह, वाह की आवाजों तथा ठहाकों का अहसास आज भी कहीं न कहीं बना रहता है. तारामथी व प्रेमाथि महल की मुख्य नर्तकियों में रही.
पौराणिक कथाओं की नायिकाओं की भांति नृत्य व संगीत को समर्पित ये दोनों बहिने अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन किया करती थी. सुल्तान अपने महल से सीधे देखकर ही जिसका आनंद उठाता था. उन दोनों बहिनों की याद में बना तारामथी गण मंदिर और प्रेमाथि नृत्य मंदिर आज भी अपनी और आकर्षित करता है. देवदासी भागमती व कुली क़ुतुब शाह की प्रेमगाथा का साक्षी महल का जर्रा-जर्रा है. सुल्तान कुली क़ुतुब शाह भागमती के मोहपाश में इस तरह बंधे कि वे ताउम्र भागमती के ही होकर रह गए.
किले के शीर्ष से दिखते भग्नावशेष व हैदराबाद का विस्तार
 भागमती बेगम बनी और नाम दिया गया हैदरजहां. कहते हैं कि हैदरजहां के नाम से ही हैदराबाद शहर बसाया गया. कुली क़ुतुब शाह यद्यपि शिया मुसलमान थे किन्तु हिन्दुओं के साथ कभी कोई भेदभाव नहीं रखा. उनके शासन में कई हिन्दू सूबेदार व दरबारी थे.              एक समय गोलकोण्डा क्षेत्र हीरों की माईन्स के लिए ही नहीं अपितु हीरों के व्यापार के लिए भी प्रसिद्द रहा है.
हैदराबाद की मशहूर चारमिनार
क़ुतुब शाही खानदान के शासक मोहम्मद अबुल हसन ताना शाही (जो कि क़ुतुब शाही वंश के अंतिम शासक के रूप में जाने जाते हैं) के शासन काल में  28  जून 1685  को आलमगीर औरंगजेब ने किले पर चढ़ाई कर दी. आठ महीने तक औरंगजेब अपनी फ़ौज के साथ वहां पर डटा रहा किन्तु किले पर फतह नहीं कर सका. लौट आया किन्तु एक स्थानीय गद्दार को अपनी सेना में शामिल कर सन 1687 में किले को जीत पाया. क़ुतुब शाही वंश के साम्राज्य के पतन के बाद दख्खन के साम्राज्य को हिंदुस्तान की मुग़ल सल्तनत में शामिल कर दिया गया और आसफ जाह को औरंगजेब द्वारा दक्खन के सूबेदार के तौर पर नियुक्त किया गया. परन्तु सन 1707 में औरंगजेब की मृत्यु और दिल्ली में हिंदुस्तान की सल्तनत पर काबिज औरंगजेब के वारिस का ढीला रवैया देखते हुए सन 1713  में आसफ जाह ने हल्के संघर्ष के बाद मुग़ल साम्राज्य से मुक्ति पा ली तथा 'निजाम-उल-मुल्क' के रूप में स्वतत्र शासन करने लगा. सन 1948 तक
वापसी में किले से उतरते हुए साथी डाक्टर राजेंद्र सिंह
शासन करते रहे. आसफ जाह द्वारा सन 1724  में नगर के गोलकोण्डा किले से लगे हुए उत्तर-पूर्व के कुछ हिस्से को किले में सम्मिलित किया गया जिसे आज 'नया किला' नाम से जाना जाता है.
               लगभग आठ सौ वर्षों तक तेलंगाना में मुस्लिम साम्राज्य का आधिपत्य रहा जिससे वहां की समृद्ध संस्कृति, वृहद् साहित्य और वैभवशाली इतिहास का विकास हुआ. स्वतंत्र भारत में भाषाई आधार पर गठित होने वाले राज्यों में आन्ध्र प्रदेश ही पहला राज्य है. जो कि तेलंगाना, रायल सीमा व आन्ध्र क्षेत्र मिलकर बनाया गया है. गोलकोण्डा किले के इतिहास व सौन्दर्य को भली-भांति समझने के लिए पर्यटको हेतु किले के उत्तरी भाग में सप्ताह के छः दिन 'लाइट एंड साउंड शो' आयोजित किया जाता है जो कि हिंदी, अंग्रेजी व तेलुगु भाषा में अलग-अलग दिन प्रदर्शित होता है.                                                                                    ----- समाप्त -----

Tuesday, February 21, 2012

वैभवशाली अतीत के साक्षी हैं गोलकोण्डा के खण्डहर- 1


ग्रेनाईट पत्थरों से बना किला और  दीवारें
                             पिछले पांच हजार वर्षों का इतिहास साक्षी है कि भारतवर्ष में यूनानी, शक, कुषाण, हूण, तुर्क, अफगान, मंगोल, पुर्तगाली, डच, फ़्रांसिसी और अंग्रेज जातियों का आगमन हुआ. जिन्होंने भारतवर्ष की संस्कृति, समाज, धर्म व रहन सहन को ही प्रभावित नहीं किया अपितु स्वयं भी भारतीय परिवेश से बहुत कुछ सीखा. भारतीय इतिहास में मध्यकालीन अर्थात मुग़लकालीन समय अपनी विशिष्ठता के लिए आज भी याद किया जाता है. मुग़ल बादशाह शाहजहाँ का समय मुगलों के इतिहास में स्वर्णिम काल रहा है. उनके शासनकाल में ही लालकिला (दिल्ली) का निर्माण, राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरण, बेगम मुमताज महल की याद में विश्व प्रसिद्द धरोहर ताजमहल का निर्माण. शाहजहाँ का मयूर सिंहासन और उस पर जड़ा कोहिनूर हीरा का जिक्र आज भी बड़े फक्र से किया जाता है. कोहिनूर हीरे की चमक से बड़े-बड़े राजा महाराजाओं की आँखे चुंधिया गयी थी. किन्तु  कोहिनूर आज लन्दन के एक संग्रहालय की शोभा बढा रहा है. सभी जानते है कि कोहिनूर हीरा गोलकोण्डा माइन्स (हैदरबाद) की देन हैं.
 किले का प्रवेश द्वार 
                           हैदराबाद प्रवास के दौरान वहां पर चारमिनार, हुसैनसागर, एन टी आर पार्क, सलारजंग  संग्रहालय, रामोजी फिल्म सिटी, बिडला मंदिर आदि देखने के बाद गोलकोण्डा फोर्ट देखने की बड़ी इच्छा हुयी. गोलकोण्डा के बारे में कुछ जानने से पहले हमें पीछे भारतीय इतिहास पर नजर दौड़ानी होगी.
वास्तुशिल्प का अद्भुत नमूना है ये दीवारें
                       आन्ध्रा का सर्वप्रथम उल्लेख मौर्यकालीन समय में मिलता है. किन्तु व्यापक रूप से यह तब जब जाना गया जब तेरहवीं सदी में ककातियों ने वारंगल को राजधानी बनाते हुए आन्ध्रा देश की सीमाओं का विस्तार किया. चौदहवीं सदी के पूर्वार्ध (सन 1323) में ही दिल्ली के सुल्तान तुगलक ने ककातियों को पराजित कर वहां पर अपना साम्राज्य स्थापित किया. किन्तु ककातियों के साम्राज्य से पूर्व में टूटकर जो चार रियासतें अलग हुयी थी तुगलक शासकों को उन्हें कभी भी अपने साम्राज्य में मिलाने में रूचि नहीं रही. और ये अप्रत्यक्ष रूप से तुगलकों के हिमायती रहकर स्वतंत्र रूप से शासन करते रहे. किन्तु विजयनगर रियासत के शासकों ने किले की दीवार बनकर दो सौ वर्षों से अधिक समय तक मुस्लिम साम्राज्य के विस्तार को रोके रखा. जिसके लिए वे कभी किसी सुल्तान की सहायता मांगते और कभी किसी की. यह स्थिति ज्यादा समय तक न रह सकी. अंततः बीजापुर, गोलकोण्डा, अहमदनगर और बिदार के शासक सुल्तान कुली क़ुतुब शाह के नेतृत्व में संगठित हुए और विजयनगर की विशाल सेना को तलाईकोटा के युद्ध में पराजित कर एक संयुक्त साम्राज्य स्थापित किया- दख्खन साम्राज्य. जिसके प्रथम शासक कुली क़ुतुब शाह ने गोलकोण्डा को राजधानी बनाया.
किले से हैदराबाद का दृश्य और मै
                       गोलकोण्डा पूर्व से ही एक ऐतिहासिक किला रहा है. गोलकोण्डा, जिसका तेलगु में शाब्दिक अर्थ है - ग्वाले की पहाड़ी.  राजधानी बनाने के बाद कुली क़ुतुब शाह ने किले के स्वरुप में व्यापक बदलाव किये. वर्तमान हैदराबाद शहर से छ-सात मील पश्चिम में लगभग चार सौ फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित किले को सुल्तान ने बड़े धैर्य और रुचिपूर्ण ढंग से बनाया. पहाड़ी के चारों ओर सात किलोमीटर परिधि में फैले ग्रेनाइट पत्थरों से बनी किले की बाहरी दीवार को वृत्ताकार रूप देकर उसके अन्दर नगर बसाया गया. इसके बाद दूसरे भीतरी घेरे में दोहरी दीवार देकर (अपेक्षाकृत ऊंची भूमि पर) महल के कारिन्दों व सैन्य अधिकरियों को बसाया गया. और भीतरी घेरे व पहाड़ी पर महल, बारादरी, दरबार-ए-आम, दरबार-ए-खास, तोपखाना, मंदिर व मस्जिद तथा जलाशय बनाये गए. आठ प्रवेश द्वारों व 15 से 18 मीटर ऊंचे सत्तासी झरोखेदार बुर्जों वाले हिन्दू, इस्लाम व फारसी शैली में निर्मित लगभग खंडहर हो चुके महल आज भी अपने भव्यता की कहानी बयां करते हैं.
 हुसैन सागर झील (टैंक पौंड)का विस्तार  
                  किले के निर्माण से अधिक महत्वपूर्ण था किले में पेयजल आपूर्ति. चार सौ फिट ऊंची पहाड़ी पर बने किले में लगभग साढे चार सौ वर्ष पूर्व पानी पहुँचाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य था. लेकिन उस समय के वास्तुशिल्पियों व योजनाकारों ने यह सम्भव कर दिखाया.  इब्राहीम कुली क़ुतुबशाह के शासन के दौरान ही हुसैनशाह वली ने सन 1562  में मूसी नदी की एक धारा को मोड़कर विशाल झील का निर्माण करवाया गया. जिसे आज हुसैन सागर या टैंक बंड के नाम से जाना जाता है.

                                                                                                                      शेष अगले अंक में ........


Thursday, February 16, 2012

नीलकंठ - जहाँ सम्भव है क्लेश व संताप से मुक्ति

महाशिव रात्रि पर्व पर विशेष -
गंगाजी, परमार्थ निकेतन व हिमालय- ऋषिकेश
             भारतवर्ष में सभी धर्मों, सभी समाजों में पौराणिक कथायें  व्यापक रूप में है. विशेषतः हिन्दू धर्म में. पुराणों व पौराणिक महाकाव्यों में विस्तार से कथाएं मिलती है. कथा है कि देवताओं और राक्षसों के में सदैव युद्ध चलते रहे. कभी किसी कारणवश और कभी किसी. शीर्ष देवताओं की सलाह पर उनके मध्य तय हुआ कि समुद्र मंथन किया जाय और मंथन से जो भी रत्न प्राप्त होंगे उन्हें समान रूप से आपस में बाँट दिया जायेगा. मंथन से चौदह रत्न प्राप्त हुए. जिसमे एक 'कालकूट' विषकलश भी था, हलाहल. उसके ताप से चारों दिशाओं में व्याकुलता फैलने लगी, त्राहि-त्राहि मचने लगी. निवारण हेतु सभी सुर-असुर भगवान ब्रह्मा व विष्णु के पास गए. उन्होंने भगवान शिव की उपासना करने को कहा. सरल ह्रदय और भक्तों की पुकार पर शीघ्र ही द्रवित होने वाले शिव प्रकट हुए और समस्त प्राणियों के हित को ध्यान में रखते हुए हलाहल को धारण किया. यद्यपि भगवान शंकर ने योगबल से उसे कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया किन्तु उसके प्रभाव से वे बेचैन हो उठे और विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया. तभी से भगवान शिव नीलकंठ कहे जाने लगे.

नीलकंठ क्षेत्र का विहंगम दृश्य
             विष के प्रभाव से बेचैन भगवान शिव शिवालिक पहाड़ियों की गोद में गंगा तट पर कुछ समय बिताने के बाद वे शांत व शीतल स्थान को खोजते हुए समीप स्थित मणिकूट पर्वत के निकट ही बरगद की छांव तले समाधिस्थ हो गए. (मणिकूट पर्वत को ही चन्द्रकूट के नाम से भी जाना जाता है ). मणिकूट, विष्णुकूट तथा ब्रह्मकूट के मूल में स्थित और मधुमती (मणिभद्रा) व पंकजा (चन्द्रभद्रा) नदियों का संगम होने के कारण यह क्षेत्र शीतलता प्रदान करने वाला है. उधर देवी सती ने व्याकुलता व उन्हें खोजने में चालीस हजार बरस बिता दिए. कैलाश पर्वत पर भी किसी को पता ही नहीं था कि भगवान शंकर कहाँ चले गए. ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देव व उनके परिजन उन्हें खोजने निकल पड़े. तब उन्हें ज्ञात हुआ कि शंकर इस शीतल व रमणीक  स्थल पर ध्यानस्थ होकर कालकूट विष की उष्णता को शांत कर रहे हैं. भगवान शिव के समाधिस्थल से अग्निकोण में पंकजा नदी के उद्गम स्थल के ऊपर बैठकर श्री सती भी तपस्या करने लगी. देवता लोग जब वहां पहुंचे तो जिस पर्वत पर श्री सती ध्यानस्थ थी ब्रह्मा जी उसके शीर्ष पर बैठे, दूसरे पर्वत के शीर्ष पर भगवान विष्णु और एक अन्य पर शेष देवता शिव की समाधि टूटने तक विराजमान रहे.
            श्री सती जहाँ पर साधनारत रही वह स्थल भुवनेश्वरी सिद्धपीठ के नाम से विख्यात हो गया, ब्रह्मा जी के विराजमान होने के कारण ब्रह्मकूट, विष्णु के विराजमान होने के कारण विष्णुकूट तथा तीसरा शिखर मणिकूट के नाम से जाना जाने लगा. श्री सती के बीस हजार वर्षों तक तपस्यारत रहने के बाद अर्थात साठ  हजार वर्षों बाद भगवान शिव की समाधि टूटी. तब समस्त देवताओं द्वारा विनती करने पर वे कैलाश धाम लौटे. जिस वटवृक्ष के मूल में समाधि लगाकर वे बैठे थे कालांतर में वे वहां पर स्वयंभू लिंग रूप में प्रकट हुए.
             ऋषिकेश में गंगा नदी के बाएं तट पर स्थित है स्वर्गाश्रम. गंगा हमारी संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक विरासत है. गंगा की महिमा सुन्दर ढंग से निम्न श्लोक में कही गयी  है. 
स्मृतार्तीनाशिनी गंगा नदीनां प्रवर मुने,   सर्वपापक्षय करी                     सर्वोपद्रवनाशिनी.
सर्वतीर्थाभिषेकाणि यानि पुण्यानि तानि वै, गंगा विन्द्वभिषेकस्य कलां नहिर्न्ति षोडशीम.   
नीलकंठ महादेव मंदिर
स्वर्गाश्रम के निकट अर्थात गंगा के पूरब की ओर जो पर्वत दिखाई देता है वह है मणिकूट पर्वत. जिसके पार्श्व भाग में द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक नीलकंठ महादेव जी विराजमान है. मणिकूट पर्वत का फैलाव गंगा नदी के समानान्तर उत्तर से दक्षिण की ओर है. रामझूला पुल पार कर स्वर्गाश्रम से पैदल ही धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ते हुए पर्वतशिखर की ओर बढ़ते हैं और लगभग एक किलोमीटर बाद चिल्लाह-कुनाव सड़क को सीधे पार करते है. रास्ता हलकी चढ़ाई वाला है व जंगल के बीच से होकर गुजरता है किन्तु जंगल का घनत्व काफी कम है. आगे पानी का एक छोटा सा नाला है. जिस पर नीलकंठ यात्री अपनी प्यास बुझाते हैं. डेढ़-दो किलोमीटर चलते रहने के बाद रास्ते की चढ़ाई कुछ तीखी हो जाती है. किन्तु पांच फीट चौड़ा व पक्का रास्ता होने तथा श्रद्धालुओं के निरंतर आवागमन के कारण चढ़ाई खलती नहीं है. अपितु घना व मिश्रित वन क्षेत्र होने के कारण हम प्रकृति का आनंद उठाते हुए चलते हैं. यह समस्त क्षेत्र हाथी बाहुल्य राजा जी नेशनल पार्क के भीतर है जिससे हाथियों की उपस्थिति काफी ऊपर के जंगलों में भी देखी जा सकती है. जो कि सुरक्षा की लिहाज से चिंताजनक है. लगभग दो-ढाई किलोमीटर चढ़ते रहने के बाद एक जल स्रोत पड़ता है. तेज चढ़ाई पर चढ़ते हुए हम लंगूर, बंदरों व तरह-तरह के पक्षियों की आवाजें सुनते हुए चार-साढ़े चार किलोमीटर बाद पानी की टंकी तक पहुँचते हैं, जहाँ पर एक चाय की दुकान भी है. यहाँ पर सुस्ताने व चाय पीने के बाद मै व साथी बालम सिंह राणा आगे बढ़ जाते हैं. ढाई-तीन सौ मीटर चलने के बाद चढ़ाई वाला मार्ग समाप्त हो जाता है और प्रारंभ होती है पुण्डरासु गाँव के असिंचित खेतों की श्रृंखला. समुद्रतल से लगभग 3750  फीट ऊँचाई पर स्थित इस बिंदु से यदि हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो ऋषिकेश व गंगाजी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है और दूर जौलीग्रांट एयरपोर्ट और देहरादून का कुछ हिस्सा. काश ! हम पैराग्लाईडर होते.    
साथी बालम सिंह राणा व मै
पूरब की ओर मुंह कर खड़े होते हैं तो बायीं ओर मणिकूट, दायीं ओर विष्णुकूट और सामने ब्रह्मकूट और ठीक उसके नीचे भुवनेश्वरी सिद्धपीठ.  कुछ आगे बढ़कर नीलकंठ महादेव जी के दर्शन होते हैं. आह, कितना सुन्दर वर्णन ग्रंथों में मिलता है;
मणिकूटस्थ मूसेतु पित्वातै कालकूटकम,
स्थितः श्री नीलकंठो$सौ भक्तः कल्याण कारकः. 
 श्रृद्धालु भोले बाबा की जय का उद्घोष करने लगते हैं. डेढ़ किलोमीटर की उतराई पर चलने के बाद हम बाबा के दर्शन करते हैं. मंदिर में शिवलिंग पर जल व बेलपत्री चढाने के बाद दूसरी ओर से बाहर निकलते हैं. धूप-अगरबत्ती के लिए बाहर ही तख्ती है. मंदिर से कुछ सीढियां चढ़ने के बाद एक कक्ष में साधू बाबा जलते हवनकुंड से हमें भभूत देते हैं. यह मंदिर हरिद्वार दक्ष मंदिर समिति के अधीन है. पुजारियों की नियुक्ति और मंदिर की व्यवस्था वे ही देखते हैं. ऋषिकेश, हरिद्वार के निकट होने के कारण यहाँ साल भर भक्तों का तांता लगा ही रहता है. किन्तु मुख्य मेला महाशिवरात्रि को संपन्न होता है जिसमे देश-विदेश के लाखों श्रृद्धालु दर्शनार्थ आते हैं. इसके अतिरिक्त सावन व माघ माह के प्रत्येक सोमवार को भी बड़ी संख्या में भक्त पहुँचते हैं. अब मंदिर तक सड़क होने के कारण भक्तों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुयी है. सड़क स्वर्गाश्रम से कुछ दूर गंगा की विपरीत दिशा में बाएं तट पर होते हुए गरुड़ चट्टी, फूल चट्टी के बाद फिर ह्यून्ल नदी के किनारे किनारे बढ़ने के बाद ऊपर चढ़ती है. पंद्रह-सोलह किलोमीटर का यह मार्ग अत्यंत रमणीकता लिए हुए है.



             राजनितिक दृष्टि से मंदिर व यह क्षेत्र जनपद पौड़ी गढ़वाल में तहसील व विकासखंड यमकेश्वर के उदयपुर तल्ला पट्टी की पुण्डरासु गाँव में है. व समीपस्थ गाँव आमसौड़, तोली, मराल व भाद्सी आदि हैं. यहाँ पर मराल डाकखाने के अतिरिक्त छोटा सा बाजार, एक थाना व इण्टर कालेज है. मंदिर के चारों ओर काफी रिहाईशी मकान है, जिनमे बड़ी संख्या में श्रृद्धालु मेले के दौरान रुकते हैं. मंदिर के लिए ऋषिकेश (पशुलोक बैराज) से एक रज्जू मार्ग प्रस्तावित तो है किन्तु कब बनेगा पता नहीं. यह भी सोचनीय है कि बद्रीनाथ धाम में मंदिर के चारों ओर जिस प्रकार बेतरतीब मकान बन गए हैं, आबादी बस गयी है उसकी छाया यहाँ पर भी दिखती है.  परन्तु नीलकंठ महादेव जी के दर्शनों से जो तृप्ति व आनंद प्राप्त होता है उसे महसूस कर हम आदि शंकराचार्य जी का यह ब्रह्मवाक्य दुहरा सकते हैं; " ब्रह्म सत्यम जगतमिथ्या "       


       

Saturday, February 11, 2012

गांधीदर्शन के सजग प्रहरी थे भक्त दर्शन

                        जन्मशती पर विशेष 
          राजनीति में ऐसे बहुत कम नेता हैं जिन्होंने राजनीतिक या सामाजिक जीवन में सादगी और शुचिता के साथ सफ़र शुरू कर जीवन भर उच्च मानवीय मूल्यों का निर्वाहन किया हो. स्व० भक्तदर्शन सिंह रावत जी ऐसे ही राजनेताओं में थे. जिन्होंने गांधीवादी चिंतन के साथ अपनी सामाजिक-राजनीतिक यात्रा शुरू की और जीवन भर उसका निर्वाह किया.
                 ग्राम- भौराड़, पट्टी- सांवली, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड) निवासी बुद्धि देवी व गोपाल सिंह रावत के घर 12  फरवरी 1912  को जन्मे भक्त दर्शन के बचपन का नाम राज दर्शन था. जो उनके पिता द्वारा 1911 में जार्ज पंचम के दिल्ली आगमन से प्रभावित होकर रखा गया था. होश सँभालने पर उन्हें इस नाम में ब्रिटिश राज की बू आने लगी अतः बदलकर 'भक्त दर्शन' रख दिया. डी० ए० वी० देहरादून कालेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने गांधी दर्शन को आत्मसात करके स्वतंत्रता संग्राम में कूदने का निर्णय लिया. सन 1929 में लाहौर कांग्रेस के स्वयं सेवक बने. महज 18 वर्ष की उम्र में सन 1930 में नमक आन्दोलन में जेल गए. उच्च शिक्षा की प्राप्ति हेतु वे 1932  से 1934 तक शांति निकेतन में रहे. जहाँ पर उन्हें गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर व आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सानिद्ध्य मिला. सन 1937  में इलाहाबाद विश्वविध्यालय से राजनीति शास्त्र में एम्0 ए0 की पढाई के बाद गढ़वाल की लोकप्रिय पत्रिका "गढ़देश" के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया और फिर सन 1939 तक "कर्मभूमि" साप्ताहिक पत्र के संपादक रहे. इसके माध्यम से गढ़वाल के ग्रामीण इलाकों में राष्ट्रीय आन्दोलन की मशाल जलाई. एक अगस्त सन 1941 में तिलक दिवस पर बद्रीनाथ में सरकार विरोधी नारे लगाते व तिरंगा झंडा फहराते हुए पकड़े जाने पर उन्हें बंदी बनाया गया. आठ अगस्त को अदालत ने नौ माह कैद व एक सौ रुपये अर्थदंड की सजा सुनाई. सन 1942 - 45 के बीच वे कई बार जेल गए. जेल में यातनाएं भोगने के बाद भी वे अपने पथ से नहीं डिगे. यह स्वदेशी और गांधीवादी दर्शन का ही जूनून रहा होगा कि 17 फरवरी सन 1931 को उनकी शादी सावित्री देवी से संपन्न हुयी. अपनी शादी पर उन्होंने शर्त रखी कि बारात में वही जायेगा जो खादी पहनेगा. उन्होंने शादी में न कोई भेंट स्वीकार की और न ही मुकुट पहना. विवाह के अगले ही दिन स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने हेतु घर से निकले और संगलाकोटी में देशप्रेम से ओतप्रोत ओजस्वी भाषण के कारण गिरफ्तार किये गए.
                 स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान व कांग्रेसजनों के बीच गांधीवादी विचारक व पवित्र जीवन मूल्यों पर निष्ठा के लिए प्रसिद्धि के कारण उन्हें सन 1952 में प्रथम लोकसभा चुनाव में गढ़वाल से कांग्रेस प्रत्याशी बनाया गया. वे गढ़वाल से लगातार चार बार सांसद चुने गए. वे देश के ऐसे चुनींदा नेताओं में थे जिनकी योग्यता, निष्ठा व सदाचार के लिए जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री व इन्दिरा गांधी ने अपने मंत्रीमंडल में स्थान दिया. केन्द्रीय शिक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने केन्द्रीय विद्यालयों तथा केन्द्रीय हिंदी निदेशालय की स्थापना करवाई. केन्द्रीय विद्यालय संगठन के वे प्रथम अध्यक्ष रहे. त्रिभाषा फार्मूला की दृष्टि से इस योजना को सर्वाधिक महत्व देकर संगठन को प्रभावशाली बनाया. 
                 सन 1971 में कांग्रेस में इन्दिरा की लहर होने के बावजूद महज 59 वर्ष की उम्र में स्वेच्छापूर्वक राजनीति से सन्यास ले लिया. स्वच्छ और सिद्धांतपरक राजनीति के हिमायती भक्त दर्शन के विषय में पूर्व सांसद वाल्मीकि चौधरी ने कहा था " मैंने किसी नेता के बारे में आज तक यह नहीं सुना कि स्वास्थ्य ठीक होते हुए भी राजनीति से हट गए हों."  इंदिरा जी के जोर देने पर भक्त दर्शन जी ने साफ़ कह दिया था कि वे इस वर्ष ही नहीं भविष्य में भी कभी चुनाव नहीं लड़ेंगे. कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि- वोटरों से पिछली बार ही कह दिया था कि अब अपने लिए वोट मांगने नहीं आऊँगा. अपने संकल्प का निर्वहन उन्होंने भीष्म प्रतिज्ञा की भांति किया. 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया' उक्ति को चरितार्थ करते हुए राजनीति से सन्यास लेने के बाद सामान्य व्यक्ति की भांति जीवन यापन किया. 
                भक्त दर्शन एक कुशल लेखक के रूप में भी प्रसिद्द हुए. गढ़वाल के प्राचीन इतिहास, संस्कृति, समाज, साहित्य, धर्म, कला व शौर्य का प्रदर्शन करने वाले दिवंगत लोगों को आधार मानकर "गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ" "श्रीदेव सुमन स्मृति ग्रन्थ" आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ उन्होंने समाज को दिए. कलाविद मुकुन्दी लाल बैरिस्टर, अमर सिंह रावत व उनके अविष्कार तथा स्वामी रामतीर्थ पर उनके आलेख आज भी प्रकाशदीप की भांति है. इसके लिए उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया. सन 1971 से 1972 तक वे उत्तर प्रदेश खादी बोर्ड के उपाध्यक्ष, सन 1972 से सन 1977 तक कानपुर विश्वविध्यालय के कुलपति तथा सन 1988 से सन 1990 तक उ0 प्र0 हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष पद पर रहे.
                   देहरादून में वे किराये के मकान में रहते थे. खद्दर का कुरता पायजामा, जैकेट और कंधे पर लम्बा थैला उनकी पहचान थी. उनके पास गाड़ी तो क्या साईकिल तक नहीं थी. जहाँ जाते पैदल ही जाते. गांधी दर्शन को जीवन पर्यंत ओढने बिछाने वाले इस नायक ने 30 अप्रैल 1991  को देहरादून के सरकारी दून अस्पताल में अंतिम सांस ली.
                                                                                     
                                                   आलेख - चन्दन सिंह नेगी (देहरादून) व दर्शन सिंह रावत (उदयपुर)