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Monday, May 18, 2020

हमारे मेले व त्यौहार

गल्ली थौळू पर विशेष
             मनुष्य जैसे-जैसे सभ्य होता गया उसके अन्दर असुरक्षा की भावना बढ़ने लगी, असुरक्षा से हवस और संग्रहण की प्रवृत्ति पुष्ट हुयी और धीरे-धीरे उसके चारों ओर एक ऐसा दायरा बन गया जिसमें हर कोई अधिकाधिक संग्रह करने की ओर उन्मुख होता है, एक नये समाज का निर्माण होने लगा। जो उनके जैसे नहीं हो सके वे ऐसे समाज से बाहर हो गये और इस तथाकथित सभ्य समाज ने अपने से कमतर समझे जाने वाले समाज को नाम दिया आदिवासी समाज। सच भी है आदिवासी समाज आज भी सभ्य समाज की चालाकियां कदाचित ही समझ पाया हो आदिवासी प्रकृति की गोद में उन्मुक्त व उल्लास से भरा जीवन जीते आये हैं। प्रकृति सानिध्य में वे प्रकृति के हर सुख-दुख में शरीक होते। प्रकृति की पीड़ा वे समझते। प्रायः आदिवासी समाज की पहचान क्षेत्रीय आधार पर होती। परन्तु अब धीरे-धीरे अधिकांश आदिवासी समाजों में भी जातिगत अवधारणा विकसित हुयी है और वे मुख्य समाज में जुड़ने लगे।
            आज उत्तराखण्डी समाज भी उसी प्रक्रिया से गुजर रहा है। मुख्य समाज में समाहित होने के प्रयास भले ही हों किन्तु सदैव वर्तमान में जीने वाले ऐसे समाज में उत्सवधर्मिता कम नहीं हुयी है। उतरायणी मेला, स्याल्दे बिखोती, पूर्णागिरी मेला, कण्डाळी मेला, नन्दा राजजात, कण्वाश्रम मेला, ज्वाल्पा मेला, काण्डा मेला आदि असंख्य मेले उत्तराखण्डी संस्कृति की अभिन्न पहचान है।
            उत्तराखण्ड ही क्या टिहरी गढ़वाल में भी कुछ ऐसे मेले हैं जो प्रतिवर्ष आयोजित होते हैं। धार्मिक श्रेणी के इन मेलों में जन-जन की आस्था है और इनके लिए जनसमुदाय पूरे वर्ष भर प्रतीक्षा करता है यथा; सुरकण्डा का गंगा दशहरा मेला, कुंजापुरी तथा चन्द्रबदनी के नवरात्र मेले, बूढ़ाकेदार का कैलापीर मेला, सेम-मुखेम मेला, सिद्धपीठ ओणेश्वर कोटेश्वर महादेव मेला, ज्वाला देवी-विनयखाल मेला, माणेकनाथ मेला, मकर संक्रान्ति व बसन्त पंचमी मेला, अलेरू-रथी देवता का मेला प्रमुख है।
            इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे मेले भी हैं जो स्थान विशेष पर आयोजित होने के कारण जाने जाते हैं। यह अलग बात है कि इनका स्वरूप भी कहीं-कहीं धार्मिक है। यथा; छाम-कण्डीसौड़, नगुण, देवीसौड़, कमान्द, नैखरी(चन्द्रबदनी), चम्बा, पथल्डा(हिण्डोलाखाल), चम्बा(वीर गबर सिंह का मेला), रौड़धार, खण्डोगी, अंजनीसैण, डिबनू, बादशाही थौल, बग्वान, महड़, जामणीखाल, पौड़ीखाल आदि अनेक मेले।

             टिहरी गढ़वाल की चौवन पट्टियों में इक्कीस गांवों की एक पट्टी है धारमण्डल। प्रतापनगर तहसील के अन्तर्गत इस पट्टी में भी प्रतिवर्ष तीन मेले आयोजित होते हैं; मदननेगी(बीस गते बैसाख- जिसमें स्थानीय देवता मदननेगी की पूजा अर्चना की जाती है), गल्ली(पांच गते जेठ- जिसमें गल्ली अर्थात गलेश्वर महादेव की पूजा की जाती है) और दयारा(छः गते जेठ- जिसमें स्थानीय देवता नागर्जा की पूजा की जाती है, हालांकि कुछ लोग दयारा में सिलंग्वा देवता के पूजे जाने की बात करते है)। दयारा नाम की जगह टिहरी बांध में डूब जाने के कारण अब दयारा का मेला उनके पुनर्वास स्थल भानियावाला में ही हर वर्ष आयोजित किया जाता है।
मेला को गढ़वाली भाषा में थौळू या कौथिग भी कहा जाता है और मेले में प्रतिभाग करने वाले को थौळेर या कौथिगेर। ‘कौथिगेरू न थौळू भरीगे, स्याळी सुरमा...’  
              चालीस-बयालीस साल पहले गल्ली थौळू में एक-दो बार ही मेरा जाना हुआ परन्तु आज भी जब उसकी याद आती है तो आदिम युग के दृश्य आंखों के आगे तैरने लगते हैं। जब टेमरू, बांज, तुंगला आदि के डण्डों से खूंखार मर्द प्रतिशोध की भावना से एक-दूसरे पर टूट पड़ते थे और परिणाम औरतों व बच्चों का सहम जाना और फिर घायलों को चारपाई पर डालकर अस्पताल के लिए रवाना करना। यह मंजर तब हर वर्ष के मेले में होता था। न जाने क्यों गल्ली का थौळू खून-खराबे के लिए अभिशप्त था। तब शायद ही कभी सौहार्दपूर्ण ढंग से मेला निपटा हो। ऐसा भी नहीं कि झगड़ा अचानक जुट जाता हो। यह सब पूर्व नियोजित होता था। लड़ाई-झगड़े करने वाले इस तैयारी से जाते थे कि आज हमने उस गांव वालों को सबक सिखाना है। यह अलग बात है कि कभी-कभी वे खुद ही पिट जाते थे। बल्कि छ महीने, साल भर पहले ही धमकी दी जाती थी कि ‘मिलना बेटे गल्ली के थौळू में’। लड़ाई का उद्देश्य कोई किला फतह करना नहीं केवल नाक की लड़ाई होती थी। किसी ने किसी की बहू-बेटी छेड़ दी तो उसका बदला गल्ली के थौळू में उतारा जाता था। अपनी शूरवीरता दिखाने का यह अवसर आदिम खयालों वाले लोग चूकते नहीं थे। लड़ाई-झगड़ा, मारपीट कब से गल्ली में चला आ रहा था कह नहीं सकते किन्तु बीसवीं सदी के आठवें दशक तक यह जारी रहा।
            थौळू मेलो के पीछे की अवधारणा थी परस्पर मिलन और आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी। बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि थौळू की परिकल्पना तब की गयी होगी जब बहू-बेटियां वर्षों तक आपस में नहीं मिल पाती होगी। तब वे अपने शुभचिन्तक द्वारा सूचना भेजती थी कि फलानी को कहना कि इस बार अमुक थौळू में जरूर आना। और सचमुच जब दो सहेलियां, या दो रिश्तेदार, या ननद-भावजें ऐसे मेलों में मिलती थी तो उनका गले लग-लगकर रोना धोना मैंने भी कई बार अपनी आँखों से देखा है। परन्तु गल्ली के थौळू में करुण रस और वियोग श्रंगार नहीं वीर रस की प्रधानता होती जब दो गुट आपस में टूट पड़ते थे। मेलास्थल की हालत तो ऐसी हो जाती थी जैसे साण्डों की लड़ाई में खड़ी फसल वाले खेत।

           पिछली सदी के आठवें दशक तक रजाखेत क्षेत्र में सड़क नहीं थी। हम भी जब अपने गांव से गल्ली जाते तो बेरगडी, नारगढ़, भौन्याड़ा, पाचरी, भाषली होते हुये गल्ली पहुंचते। पूर्व विधायक श्री बिक्रम सिंह नेगी द्वारा अपने ब्लॉक प्रमुख काल में क्षेत्र के प्रधानों के सहयोग से आज भले ही गल्ली में भव्य मन्दिर बनवाया गया है किन्तु तब केवल वहाँ पर एक मण्डला(मिट्टी-पत्थरों से तैयार एक प्रतीकात्मक मन्दिर) ही था। मन्दिर के पुजारी आस-पास के ही ब्राह्मण होते थे और मेले में कफलोग, नेल्डा, म्यूंडा, सिलोळी, तुन्यार, कोटचौरी-भाषली, कोळगाैं-भटवाड़ा, खाण्ड आदि गांवों के ढोल सम्मिलित होते थे। हालांकि दबदबा तब तुन्यार और सिलोळी वालों का ही रहता था। इतनी अधिक जोड़ी ढोलों की नाद से तब पूरी गल्ली गाड की घाटी गुंजायमान होती थी। रोमांच भर जाता था। पांव थिरकने लगते थे। स्वर लहरियंा गूंजने लग जाती थी। तब एकाएक कहीं से उन्मादित मर्द विघ्न डालते थे। सपना टूट जाने का सा अहसास होता था।
           संचार साधनों और यातायात की सुविधा होने के साथ-साथ जगह-जगह बाजार उपलब्ध है जिससे मेलों का स्वरूप बदल गया है। थौळू मेले अब औपचारिकता रह गये हैं। फिर भी यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि आज की पीढ़ी शिक्षित व समझदार हैं। अब गल्ली के थौळू में पहले की भांति झगड़े-फसाद नहीं होते हैं।
गलेश्वर महादेव से प्रार्थना है कि इस साल का मेला कोरोना की भेंट अवश्य चढ़ गया है परन्तु जब भी मेला हो सुखमय हो, उल्लासपूर्ण हो और पारस्परिक सद्भाव बना रहे।

Saturday, August 04, 2018

माँ को याद करते हुये..............



       माँ की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 2011 में माँ हमें छोड़ गयी थी। यदि माँ जीवित होती तो आज चौरासी की होती, परन्तु वह तो सात साल पहले ही चौरासी के जाल से मुक्त हो गयी। शास्त्रों में ज्ञान का भण्डार है किन्तु हम शोक में डूबे रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्ययोग के माध्यम से समझाते हुए कहा कि;

नैनं छिदन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः !
न चौनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः !!

       माँ डेढ़ साल तक स्किन (बायीं जांघ के) कैंसर से ग्रस्त रही। पहले वह सामने की ओर घुटने के नीचे था, चिकित्सकों की बातों में आकर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा वह ऑपरेट किया गया तो कुछ महीनों बाद जांघ पर निकल गया और फिर बढ़ता गया। दवाईयां सब फेल हो गयी यहाँ तक कि पतंजलि का स्वर्ण भस्म, डायमंड पावडर, गिलोय आदि सभी कुछ। बाद में किसी ने कीमोथेरेपी की सलाह दी और किसी ने रेडियोलॉजी की, परन्तु चिकित्सकों ने आयु अधिक होने का हवाला देकर केवल सेवा करने को कहा। होनी को कौन टाल सकता है। यह मानकर सन्तोष कर लेता हूँ कि सभी की माँ एक न एक दिन उन्हें छोड़ कर चली जाती है।
           मेरी माँ पढ़ी लिखी नहीं थी, निपट अपढ़ थी। परन्तु मुझे शिक्षित करने को लेकर वह सचेत भी थीं। मेरी एडमिशन फीस हो या मासिक फीस, घर में न होने पर वह गांव में ऊज-पैंछ(उधार) कर व्यवस्था कर लेती थी और न मिलने पर अनाज भी बेच देती। पिताजी सेना में थे, जिनका भेजा गया मनिऑर्डर कभी-कभी समय पर नहीं मिल पाता था।(मनिऑर्डर न मिलने का कारण डाक व्यवस्था ही दोषी नहीं थी बल्कि मुख्य था हमारे सात-आठ गांवों का डाकखाना जिस दुकानदार को मिला हुआ था वह मनिऑर्डर आने की सूचना समय पर नहीं देता था। लोग कहते थे कि वह लोगों के मनिऑर्डरों से अपना बिजनिस चला रहा है अर्थात उन पैंसो को ‘रोटेट’करता था)
         खेती-किसानी के कार्य के समय माँ उसके लिए पूरी तरह समर्पित हो जाती थी। तब उसके लिए मेरी पढ़ाई-लिखाई व स्कूल कॉलेज कोई मायने नहीं रखता था केवल खेती प्राथमिकता होती। मुझे आदेश मिलता कि आज स्कूल नहीं जायेगा क्योंकि आज रोपाई है या आज मण्डवार्त है या आज मळवार्त है या आज हल बाना है और हळया के साथ एक सहायक की जरूरत है आदि आदि। मेरे ना-नुकुर करने पर वह गुस्सा करते हुये भी गर्व से कहती ‘हम किसाण हैं। (किसाण अर्थात किसान, वैसे गढ़वाली में किसाण ‘कर्मठ’ को भी कहा जाता है) माँ सचमुच में ही किसाण थी- दोनो अर्थों में। उसने हम नादान भाई-बहनों के साथ अकेले दम पर पूरी खेती सम्भाल रखी थी। माँ के बलबूते ही तब हमारे सिंचित खेतों से लगभग बीस बोरी धान और बीस दोण गेंहूं होने की मुझे याद है और उड़द, मसूर, भट्ट आदि दालें व काखड़ी, मंुगरी के साथ भेण्डी, आलू, प्याज व चौलाई, राई आदि सब्जियां भी खूब होती थी। उखड़ थे सही, परन्तु दूर थे इसलिए उन्हें छोड़ दिया गया था। बिना दूध के हम कभी रहे नहीं और न मोल का ही खाया, एक भैंस हमेशा आंगन में होती थी।
         खेती-किसानी के काम में मेरी रुचि न होने या न कर सकने के कारण माँ अक्सर दुखी होकर कहती थी कि ‘कैसे खायेगा तू ? न तू भैंस दुहना जानता है, न हल लगान और न लकड़ियां काटना। तुझे कौन लड़की देगा? अकेले पढ़-लिखकर हो जायेगा तेरा गुजारा?.......’ माँ की जितनी समझ थी उस हिसाब से उसकी चिन्ता वाजिब थी। परन्तु माँ के ऐसे प्रश्नों का मेरे पास एक ही उत्तर होता कि सभी का गुजारा हो जाता है माँ, हर कोई अपना पेट भर लेता है। और ईश्वर की दया से आज बिना खेती-किसानी के गुजारा कर ले रहा हूँ।
         परन्तु आज माँ नहीं है। माँ नहीं है तो खेत बंजर हो गये हैं, घर-आंगन सूना पड़ा है, मकान में दीमक और मकड़ियों ने ठिकाना बना लिया है, माँ के लगाये पेड-पौधे सूख गये हैं या सूखने की कगार पर हैं। गांव में रौनक नहीं है और गांव अपना जैसा भी नहीं है। जिस आंगन में हम उछल-कूद करते थे वहाँ अब बन्दरों की धमा-चौकड़ी है। सब कुछ चला गया है माँ के साथ। ऐसे में तुम्हारा न होना बहुत सालता है माँ।...........
  विनम्र श्रद्धांजलि माँ।

Thursday, February 16, 2012

नीलकंठ - जहाँ सम्भव है क्लेश व संताप से मुक्ति

महाशिव रात्रि पर्व पर विशेष -
गंगाजी, परमार्थ निकेतन व हिमालय- ऋषिकेश
             भारतवर्ष में सभी धर्मों, सभी समाजों में पौराणिक कथायें  व्यापक रूप में है. विशेषतः हिन्दू धर्म में. पुराणों व पौराणिक महाकाव्यों में विस्तार से कथाएं मिलती है. कथा है कि देवताओं और राक्षसों के में सदैव युद्ध चलते रहे. कभी किसी कारणवश और कभी किसी. शीर्ष देवताओं की सलाह पर उनके मध्य तय हुआ कि समुद्र मंथन किया जाय और मंथन से जो भी रत्न प्राप्त होंगे उन्हें समान रूप से आपस में बाँट दिया जायेगा. मंथन से चौदह रत्न प्राप्त हुए. जिसमे एक 'कालकूट' विषकलश भी था, हलाहल. उसके ताप से चारों दिशाओं में व्याकुलता फैलने लगी, त्राहि-त्राहि मचने लगी. निवारण हेतु सभी सुर-असुर भगवान ब्रह्मा व विष्णु के पास गए. उन्होंने भगवान शिव की उपासना करने को कहा. सरल ह्रदय और भक्तों की पुकार पर शीघ्र ही द्रवित होने वाले शिव प्रकट हुए और समस्त प्राणियों के हित को ध्यान में रखते हुए हलाहल को धारण किया. यद्यपि भगवान शंकर ने योगबल से उसे कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया किन्तु उसके प्रभाव से वे बेचैन हो उठे और विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया. तभी से भगवान शिव नीलकंठ कहे जाने लगे.

नीलकंठ क्षेत्र का विहंगम दृश्य
             विष के प्रभाव से बेचैन भगवान शिव शिवालिक पहाड़ियों की गोद में गंगा तट पर कुछ समय बिताने के बाद वे शांत व शीतल स्थान को खोजते हुए समीप स्थित मणिकूट पर्वत के निकट ही बरगद की छांव तले समाधिस्थ हो गए. (मणिकूट पर्वत को ही चन्द्रकूट के नाम से भी जाना जाता है ). मणिकूट, विष्णुकूट तथा ब्रह्मकूट के मूल में स्थित और मधुमती (मणिभद्रा) व पंकजा (चन्द्रभद्रा) नदियों का संगम होने के कारण यह क्षेत्र शीतलता प्रदान करने वाला है. उधर देवी सती ने व्याकुलता व उन्हें खोजने में चालीस हजार बरस बिता दिए. कैलाश पर्वत पर भी किसी को पता ही नहीं था कि भगवान शंकर कहाँ चले गए. ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देव व उनके परिजन उन्हें खोजने निकल पड़े. तब उन्हें ज्ञात हुआ कि शंकर इस शीतल व रमणीक  स्थल पर ध्यानस्थ होकर कालकूट विष की उष्णता को शांत कर रहे हैं. भगवान शिव के समाधिस्थल से अग्निकोण में पंकजा नदी के उद्गम स्थल के ऊपर बैठकर श्री सती भी तपस्या करने लगी. देवता लोग जब वहां पहुंचे तो जिस पर्वत पर श्री सती ध्यानस्थ थी ब्रह्मा जी उसके शीर्ष पर बैठे, दूसरे पर्वत के शीर्ष पर भगवान विष्णु और एक अन्य पर शेष देवता शिव की समाधि टूटने तक विराजमान रहे.
            श्री सती जहाँ पर साधनारत रही वह स्थल भुवनेश्वरी सिद्धपीठ के नाम से विख्यात हो गया, ब्रह्मा जी के विराजमान होने के कारण ब्रह्मकूट, विष्णु के विराजमान होने के कारण विष्णुकूट तथा तीसरा शिखर मणिकूट के नाम से जाना जाने लगा. श्री सती के बीस हजार वर्षों तक तपस्यारत रहने के बाद अर्थात साठ  हजार वर्षों बाद भगवान शिव की समाधि टूटी. तब समस्त देवताओं द्वारा विनती करने पर वे कैलाश धाम लौटे. जिस वटवृक्ष के मूल में समाधि लगाकर वे बैठे थे कालांतर में वे वहां पर स्वयंभू लिंग रूप में प्रकट हुए.
             ऋषिकेश में गंगा नदी के बाएं तट पर स्थित है स्वर्गाश्रम. गंगा हमारी संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक विरासत है. गंगा की महिमा सुन्दर ढंग से निम्न श्लोक में कही गयी  है. 
स्मृतार्तीनाशिनी गंगा नदीनां प्रवर मुने,   सर्वपापक्षय करी                     सर्वोपद्रवनाशिनी.
सर्वतीर्थाभिषेकाणि यानि पुण्यानि तानि वै, गंगा विन्द्वभिषेकस्य कलां नहिर्न्ति षोडशीम.   
नीलकंठ महादेव मंदिर
स्वर्गाश्रम के निकट अर्थात गंगा के पूरब की ओर जो पर्वत दिखाई देता है वह है मणिकूट पर्वत. जिसके पार्श्व भाग में द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक नीलकंठ महादेव जी विराजमान है. मणिकूट पर्वत का फैलाव गंगा नदी के समानान्तर उत्तर से दक्षिण की ओर है. रामझूला पुल पार कर स्वर्गाश्रम से पैदल ही धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ते हुए पर्वतशिखर की ओर बढ़ते हैं और लगभग एक किलोमीटर बाद चिल्लाह-कुनाव सड़क को सीधे पार करते है. रास्ता हलकी चढ़ाई वाला है व जंगल के बीच से होकर गुजरता है किन्तु जंगल का घनत्व काफी कम है. आगे पानी का एक छोटा सा नाला है. जिस पर नीलकंठ यात्री अपनी प्यास बुझाते हैं. डेढ़-दो किलोमीटर चलते रहने के बाद रास्ते की चढ़ाई कुछ तीखी हो जाती है. किन्तु पांच फीट चौड़ा व पक्का रास्ता होने तथा श्रद्धालुओं के निरंतर आवागमन के कारण चढ़ाई खलती नहीं है. अपितु घना व मिश्रित वन क्षेत्र होने के कारण हम प्रकृति का आनंद उठाते हुए चलते हैं. यह समस्त क्षेत्र हाथी बाहुल्य राजा जी नेशनल पार्क के भीतर है जिससे हाथियों की उपस्थिति काफी ऊपर के जंगलों में भी देखी जा सकती है. जो कि सुरक्षा की लिहाज से चिंताजनक है. लगभग दो-ढाई किलोमीटर चढ़ते रहने के बाद एक जल स्रोत पड़ता है. तेज चढ़ाई पर चढ़ते हुए हम लंगूर, बंदरों व तरह-तरह के पक्षियों की आवाजें सुनते हुए चार-साढ़े चार किलोमीटर बाद पानी की टंकी तक पहुँचते हैं, जहाँ पर एक चाय की दुकान भी है. यहाँ पर सुस्ताने व चाय पीने के बाद मै व साथी बालम सिंह राणा आगे बढ़ जाते हैं. ढाई-तीन सौ मीटर चलने के बाद चढ़ाई वाला मार्ग समाप्त हो जाता है और प्रारंभ होती है पुण्डरासु गाँव के असिंचित खेतों की श्रृंखला. समुद्रतल से लगभग 3750  फीट ऊँचाई पर स्थित इस बिंदु से यदि हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो ऋषिकेश व गंगाजी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है और दूर जौलीग्रांट एयरपोर्ट और देहरादून का कुछ हिस्सा. काश ! हम पैराग्लाईडर होते.    
साथी बालम सिंह राणा व मै
पूरब की ओर मुंह कर खड़े होते हैं तो बायीं ओर मणिकूट, दायीं ओर विष्णुकूट और सामने ब्रह्मकूट और ठीक उसके नीचे भुवनेश्वरी सिद्धपीठ.  कुछ आगे बढ़कर नीलकंठ महादेव जी के दर्शन होते हैं. आह, कितना सुन्दर वर्णन ग्रंथों में मिलता है;
मणिकूटस्थ मूसेतु पित्वातै कालकूटकम,
स्थितः श्री नीलकंठो$सौ भक्तः कल्याण कारकः. 
 श्रृद्धालु भोले बाबा की जय का उद्घोष करने लगते हैं. डेढ़ किलोमीटर की उतराई पर चलने के बाद हम बाबा के दर्शन करते हैं. मंदिर में शिवलिंग पर जल व बेलपत्री चढाने के बाद दूसरी ओर से बाहर निकलते हैं. धूप-अगरबत्ती के लिए बाहर ही तख्ती है. मंदिर से कुछ सीढियां चढ़ने के बाद एक कक्ष में साधू बाबा जलते हवनकुंड से हमें भभूत देते हैं. यह मंदिर हरिद्वार दक्ष मंदिर समिति के अधीन है. पुजारियों की नियुक्ति और मंदिर की व्यवस्था वे ही देखते हैं. ऋषिकेश, हरिद्वार के निकट होने के कारण यहाँ साल भर भक्तों का तांता लगा ही रहता है. किन्तु मुख्य मेला महाशिवरात्रि को संपन्न होता है जिसमे देश-विदेश के लाखों श्रृद्धालु दर्शनार्थ आते हैं. इसके अतिरिक्त सावन व माघ माह के प्रत्येक सोमवार को भी बड़ी संख्या में भक्त पहुँचते हैं. अब मंदिर तक सड़क होने के कारण भक्तों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुयी है. सड़क स्वर्गाश्रम से कुछ दूर गंगा की विपरीत दिशा में बाएं तट पर होते हुए गरुड़ चट्टी, फूल चट्टी के बाद फिर ह्यून्ल नदी के किनारे किनारे बढ़ने के बाद ऊपर चढ़ती है. पंद्रह-सोलह किलोमीटर का यह मार्ग अत्यंत रमणीकता लिए हुए है.



             राजनितिक दृष्टि से मंदिर व यह क्षेत्र जनपद पौड़ी गढ़वाल में तहसील व विकासखंड यमकेश्वर के उदयपुर तल्ला पट्टी की पुण्डरासु गाँव में है. व समीपस्थ गाँव आमसौड़, तोली, मराल व भाद्सी आदि हैं. यहाँ पर मराल डाकखाने के अतिरिक्त छोटा सा बाजार, एक थाना व इण्टर कालेज है. मंदिर के चारों ओर काफी रिहाईशी मकान है, जिनमे बड़ी संख्या में श्रृद्धालु मेले के दौरान रुकते हैं. मंदिर के लिए ऋषिकेश (पशुलोक बैराज) से एक रज्जू मार्ग प्रस्तावित तो है किन्तु कब बनेगा पता नहीं. यह भी सोचनीय है कि बद्रीनाथ धाम में मंदिर के चारों ओर जिस प्रकार बेतरतीब मकान बन गए हैं, आबादी बस गयी है उसकी छाया यहाँ पर भी दिखती है.  परन्तु नीलकंठ महादेव जी के दर्शनों से जो तृप्ति व आनंद प्राप्त होता है उसे महसूस कर हम आदि शंकराचार्य जी का यह ब्रह्मवाक्य दुहरा सकते हैं; " ब्रह्म सत्यम जगतमिथ्या "       


       

Saturday, August 06, 2011

आत्मा अमर है

नैनं छिदन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः l
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः l l
           (श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्ययोग के माध्यम से  समझाते हुए कहा कि - हे अर्जुन, यह आत्मा अमर है. इसे न ही शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गला ही सकता है और न ही हवा उड़ा सकती है.)  
               शास्त्रों में ज्ञान का इतना भंडार होते हुए भी हम है कि स्वभावतः शोक करते हैं. गत बुद्धवार 03 अगस्त को शाम 7:50 पर माँ का देहांत हो गया. माँ लम्बे समय से स्किन (बायीं जांघ के) कैंसर से ग्रस्त थी. और इधर दो माह से बिस्तर पर ही पड़ी थी. पहले घुटने के नीचे था, चिकित्सकों की सलाह पर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा वह ऑपरेट कर दिया गया तो कुछ महीनों बाद जांघ पर निकल गया. अज्ञानतावश माँ ने इसे छुपाये रखा. जब काफी बढ़ गया तो किसी ने कीमोथेरेपी की सलाह दी तो चिकित्सकों ने आयु अधिक होने पर कीमोथेरेपी न करने की बात कह कर केवल सेवा करने को कहा. माँ की इच्छा पर जून माह में हरिद्वार पतंजलि योगपीठ बाबा रामदेव के आश्रम भी ले गया. वहां पर एक माह की स्वर्ण भस्म, डायमंड पावडर, गिलोय आदि आयुर्वेदिक दवाइया दी गयी जिससे कोई लाभ नहीं हो पाया. 02 अगस्त दोपहर तक माँ ने पूरा खाना खाया, अपरान्ह तीन बजे के आस पास तबियत अचानक बिगड़ गयी जो उत्तरोत्तर बढती रही और बुद्धवार शाम को परलोक सिधार गयी. शायद इश्वर की यही इच्छा थी. माँ अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़ गयी. दो बेटे, दो बेटियां व सभी के बारह बच्चे.
                 यह भी संयोग ही कहा जायेगा कि माँ और पिताजी की आयु का अंतर आठ वर्ष का था और उनकी मृत्यु का अन्तराल भी आठ वर्ष ही रहा.

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                    एक निवेदन उन विद्वान ब्लोगर्स से जो यहाँ तक पहुंचे हैं, यह कि -- परम्परानुसार तेरह दिनों तक शोक में रहने के कारण मै आजकल उनकी रचनाओं को पढ़ नहीं पा रहा हूँ और न ही कोई टिपण्णी कर पा रहा हूँ.  कृपया वे क्षमा कर दें.