Friday, May 31, 2013

मुक्ति

दुराचारी राजा के षडयन्त्र की शिकार
निर्दोष किन्तु कलंकिनी घोषित
पति परित्यक्ता किन्तु अकारण ही
परिवर्तित हो गयी शिलारूप में
मै आश्रमवासिनी ऋषिपत्नी अहल्या।

अयोध्या के राजदुलारे राम !
आँखें पथरा गयी तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम, जो समझे हो दर्द कौशल्या का
महारानी होने पर भी उपेक्षित
लाचार बूढ़े दशरथ के समक्ष ही
झेलती दंश कैकेई का कई बार।
मेरी पीड़ा भी समझो राम !
अपने प्रिय गौतम, पुत्र सद से बिछुड़ी हुयी।
तड़पते होंगे कपिलवस्तु में निश्चित् ही
मेरा सद अैर मेरे प्रिय भी मेरी प्रतीक्षा में।

रघुवंशी परम्पराओं के निर्वाहक राम !
उद्धारक बन मुक्ति दो इस शिलारूप से।
तुम्हारा यश, तुम्हारी कीर्ति फैले चहुँदिशा कि
मर्यादाओं की नई परिभाषायें गढता राम
पद, व्यक्ति नहीं, न्याय व सत्य के निमित्त है।
दण्डित किया जा सकता है नारी होने पर भी
कुलटा ताड़का को, तो इन्द्र की उद्ण्डता के लिये
निर्दोष अहल्या को पुनर्प्रतिष्ठा क्यों नहीं ?