Thursday, December 30, 2010

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें

        कुछ समय पूर्व टी वी पर "इंडियन आयीडियल" शो चल रहा था. एक शो के दौरान एक प्रत्याशी द्वारा वह देश भक्ति गीत गाया गया जो लता जी की आवाज में हम बचपन से सुनते आ रहे हैं  ( बल्कि एक पूरी पीढ़ी जवान हुयी और अब बूढी हो रही है, जिसका एक-एक शब्द व लय याद है  " - - - - ऐ मेरे वतन के लोगों - - - - -  " ) तो निर्णायक ही नहीं, दर्शक भी खिसिया गए. क्योंकि यह एक ऐसा गीत है जो श्रोता किसी और आवाज में सुनना बर्दाश्त नहीं कर सकते, चाहे वह स्थापित गायक, गायिका ही क्यों न हो. 
               मुझे भी लगता है कि नव वर्ष पर मै चाहे कैसा भी लिखूं लगता है भावनाएं तो अव्यक्त ही रह गयी है. नए वर्ष पर मुझे आज भी हरिवंश राय बच्चन जी कि इस कविता के बराबर कोई कविता जमती ही नहीं है. अतः पाठकों को भी नव वर्ष की अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ बच्चन जी की यह लोकप्रिय  'नव  वर्ष'  कविता भेज रहा हूँ ;   
नव वर्ष,
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव !

नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग !
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह !
गीत नवल,
प्रीत नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल !
 

Sunday, December 26, 2010

माया बांद के बहाने

                                                                      Photo-Subir
व्यंग्य
                राज्य की राजधानी से अब 'छुमा बौ'  पैसेंजेर के साथ-साथ 'भानुमती ' मेल और 'लीला घस्यारी' एक्सप्रेस बसें भी चला करेगी. कई बरसों से ठन्डे व सुस्त पड़े राज्य के नौ रत्नों में गिने जाने वाले "उखड़ी क्लब" की एक खास सभा में बोलते हुए राज्य के घोषणा मंत्री जी ने कहा कि छुमा बौ  बस की थकी हुयी रफ़्तार को देखते हुए राजधानी से शीघ्र ही प्रत्येक जिला मुख्यालय के लिए भानुमती मेल और लीला घस्यारी एक्सप्रेस सर्विस भी चलायी जाएगी. उन्होंने सौं (कसम) खाते हुए कहा कि हमारी सरकार द्वारा ये घोषणाएं महज़ चुनावी घोषणाएं नहीं है. ये सभी  सेवाएँ जनता को समर्पित की जायेगी.
       'उखड़ी क्लब' के खचाखच भरे सभागार में घोषणा मंत्री जी ने उखड़ी (असिंचित) भूमि का क्षेत्रफल लगातार बढ़ते जाते रहने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि ये हमारे लिए बड़ी उपलब्धि है. कारण चाहे बारिस का कम होना हो, सरकार द्वारा सिंचाई के साधन मुहैया न कराना हो, या किसानों का खेती से मोहभंग हो, या पलायन, या जो भी हो हमारे लिए खुशी की बात है. जनता कई तरह के तनावों से मुक्त रहेगी, उखड बढ़ेंगे और बारिस होगी नहीं, बारिस नहीं तो खेती भी नहीं, बंदरों, सूअरों के उत्पात की भी चिंता नहीं. खूंटे पर पशु नहीं होंगे और आँगन भी साफ सुथरा रहेगा. और फिर "गाय न बाछी, नींद आये आछी "   वाली कहावत चरितार्थ होगी. मंत्री जी ने कहा कि हमारी सरकार ने निर्यात पर पूरी तरह से रोक लगा दी है और आयात को खुला रखा है. अब बाहर से आने वाले किसी भी वाहन को पुलिस चेक नहीं किया करेगी. बाहर से सभी कुछ लाने की खुली स्वतंत्रता है, अन्न, सब्जी, दूध, मावा, पक्की, कच्ची..... परन्तु राज्य से बाहर कुछ नहीं जायेगा, न कोदा झंगोरा, न गहत भट्ट, न घी की माणी और न ही किल्मोड़ा टिमरू. और हो सका तो हम राज्य से बहने वाली सभी नदियों का पानी भी रोकने का प्रयास करेंगे. "पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आये"   पर उन्होंने चिंता व्यक्त की. प्रत्येक नदी-नालों और गाड-गदेरों पर बांध बनाने का भी उन्होंने आश्वासन दिया. पलायन को रोकने के लिए सरकार की ठोस रणनीति के बारे में जब टोप्ल्या पत्रकार द्वारा सवाल उठाया गया तो मंत्री जी ने खुलासा किया कि हमारी युवा पीढ़ी वास्तव में घर, परिवार व माँ, बाप से दूरी बनाये रखना चाहती है. जिससे वे पढाई, नौकरी, रोजगार आदि सवालों से बचे रहें. इस मुद्दे पर सरकार द्वारा सम्यक विचार कर छानियों को फिर से बसाने की योजना तैयार कर ली गयी है. राज्य सरकार छानी निर्माण अथवा जीर्णोद्धार ऋण भी बेरोजगार युवाओं को देगी ताकि छानिया फिर से बस सके और युवा पीढी पलायन की बजाय छानियों में सकूं से जिंदगी बिता सके. आगामी चुनाव में यदि हमारी सरकार पुनः सत्ता में आयी तो बेरोजगारों को "छानी भत्ता" भी दिया जायेगा. 
         सभा में हवाई योजना मंत्री जी ने पहाड़ों के विकास के लिए रज्जू मार्ग बनाने की बात रखी. आवागमन की सुविधा बढ़ेगी तो सभी गाँव, नगर एक दूसरे से जुड़ सकेंगे और पलायन भी रुक सकेगा. बांधों के निर्माण से बिजली पैदा होगी और रज्जू सञ्चालन में कोई दिक्कत नहीं आयेगी. मंत्री जी ने प्रत्येक गाँव में एक paying गेस्ट हाउस बनाने का भी सुझाव रखा जिससे गाँव के ही दो चार युवकों को रोजगार मिल सकेगा. 
       सभा में उध्यान विद्यालय के संचालक द्वारा विचार व्यक्त किये गए की हमें प्रचलित फल आम, लीची, सेब आदि के उत्पादन के साथ साथ अपने पारंपरिक फलों जैसे किल्मोड़ा, हिंसालू, करौंदा, काफल, तिम्ला आदि के उत्पादन और संवर्धन पर अधिकाधिक ध्यान देना होगा. इन्हें ही पुराणों में कंदमूल फल कहा जाता है और इनके निर्यात से विदेशी मुद्रा भी प्राप्त हो सकेगी. फलोत्पादन तकनीक जानने हेतु जगह-जगह प्रशिक्षण केंद्र भी स्थापित किये जाने होंगे. ग्राम प्रधान सभा के अध्यक्ष द्वारा प्रत्येक धार पर बरसाती पानी के पोखर बनाकर मछली पालन का भी सुझाव रखा गया जिस पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई. लेखक द्वारा पहाड़ की बिगड़ती अर्थव्यवस्था में बैलों पर होने वाले औसत खर्चे का ब्यौरा रखा गया और बैलों के बदले खच्चरों द्वारा हल लगाने व मंडई करने का भी सुझाव रखा गया और कहा कि खच्चर बैलों के मुकाबले ज्यादा उपयोगी साबित होगा. पहाड़वासी यदि खच्चरों की पूंछ मरोड़ कर हल लगाने में सफल हो गए तो प्रत्येक घर के आँगन में दो चार खच्चर अवश्य हिन् हिनाते हुए दिखेंगे और बैल भैंसे (male bafaloe ) की भांति तिरष्कृत हो जाया करेंगे.  
                अंत में उखड़ी क्लब के अध्यक्ष द्वारा सभी वक्ताओं का आभार व्यक्त किया गया और क्लब के घटते सदस्यों पर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि अन्य भाषा संस्कृति के लोग जहाँ अपने क्लबों पर हजारों रूपया बहाते हैं,अपने समाज और संस्कृति के लिए बेधड़क प्रयास करते हैं,  वहीं हमारे लोग अपनी बोली भाषा और अन्न को अपनाने में पिछड़ापन महसूस करते हैं. शदियों से मन में घर कर गए इस 'कॉम्लेक्स' को उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि यदि सभी लोग साथ दें तो हम प्रत्येक जिला मुख्यालयों में कम से कम उखड़ी क्लब की एक एक धर्मशाला अवश्य बनवायेंगे.  

Thursday, December 16, 2010

रिमोट कण्ट्रोल

Golkunda,,Hyderabad  Photo-Subir
  दिगपाल सिंह कोहली
               
                 यथार्त के धरातल पर रहते हुए यदि कोई सीधे और सपाट शब्दों में अपनी बात इस अंदाज़ में कहे कि बात का मर्म भी लोगों की समझ में आ जाय और बुरा भी न लगे, ऐसी क्षमता विरलों में ही होती है. पर भाई दिगपाल सिंह कोहली कौन सी बात  कब, कैसे और किस प्रकार बात की जानी है बखूबी जानते हैं. उनकी यह रचना पाठकों को अवश्य गुदगुदाएगी .

काश! हम कर सकते बीवी को कण्ट्रोल,
कभी घर में हमारा भी होता निर्णायक रोल. काश! बना दे कोई बीवी का रिमोट कण्ट्रोल.

मेरा अधिकार हो गुस्सा और प्यार पर,
उसका हक रहे मान मनुहार पर, उसकी जुबान पर हाँ, मेरे हों आदेश के बोल! काश, कोई बना .................

मैं जैसा चाहूं उसे नचाऊँ,
हर वो काम करे वह जो मैं उसे बताऊँ, वो बने कठपुतली मेरे हाथ में हो डोर! काश, कोई बना .....................

कभी न मांगे मुझसे कोई हिसाब,
न पूछे क्या लाये मेरे लिए आप, कहे 'कबूल मेरे सरताज!' न पूछे उसका मोल! काश, कोई बना ................

खुदा ने भी किस रचना को साकार किया,
बस, एक जुबान देकर उसे बेकार किया, इतनी खूबसूरत रचना हो गई बेमोल! काश, कोई बना .................

रिमोट भी ऐसा जो सिर्फ़ हैस्बैंड से हो बूट,
सारी सुविधा न हों पर जरूरी फॉरवर्ड और mute, सामने ही नहीं हो फोन पर भी हो कण्ट्रोल! काश, कोई बना ...........

दिल पर तो है कब्ज़ा मेरा वो दिमाग से न ले काम,
नज़रों पर ही नहीं, जुबान पर भी हो लगाम, जागते हुए रहे कब्ज़े में, हो सपनों पर भी कण्ट्रोल! काश, कोई बना ..............

कुछ पाबंदियां ही सही यारों, मगर care तो करती है,
हमें पसंद न हो पर, हमपर नज़र रखती है, दुनिया की कोई मशीन उसे कैसे करे कण्ट्रोल!  काश, कोई न बनाये ............. 
                                                                                                                                   

Sunday, December 12, 2010

ह्यूंद की खातिर

Pahalgam, J&K                                  Photo-Subir
गढ़वाली लोक कथा
                पुरानी बात है. तकनीकी विकास तब नाम मात्र था, संसाधनों की कमी थी किन्तु अभावग्रस्त होते हुए भी लोग सुख, संतोष से गुजारा कर लेते थे. दिन रात मेहनत-मजदूरी से जो मिल जाता लोग उसी के लिए ईश्वर का धन्यवाद करते न अघाते थे, और सुख चैन से रहते.  मनुष्य प्रकृति के नज़दीक थे और प्रकृति उनकी सहचारिणी.
             गढ़वाल के एक गाँव में एक दम्पति रहता था. सगे-सम्बन्धी गाँव में थे किन्तु अकेला भाई होने के कारण वह एक अकेले मकान में रहता था. छल-कपट रहित दम्पति जैसे तैसे अपना गुज़ारा कर लेते थे. पति गाँव में उठने बैठने और सभी कामों में शरीक होने के कारण दुनियादारी जानता था किन्तु पत्नी अत्यंत भोली और दूसरों पर सहज ही विश्वास कर लेने वाली  थी. पहाड़ों में गर्मी का मौसम जहाँ आनंददायी होता है वहीं सर्दियाँ कष्टकारी. और अभाव में गुज़र बसर कर रहे लोगों का तो...... परन्तु पक्षी भी आने वाले समय को भांपते हुए अपनी व्यवस्था कर लेता है फिर इन्सान क्यों नहीं कर सकता. यह दम्पति भी जो थोड़ा बहुत बच जाता उसे सम्भाल कर रखते -जलावन लकड़ी, गरम कपडे, कम्बल, घी आदि. सर्दियों के लिए जो जो इकहट्टा करते पति अपनी पत्नी को अवश्य बताता कि यह ह्यूंद (शीतकाल) की खातिर है. विडम्बना यह थी कि पत्नी दूसरे मुल्क की थी और बहुत सारे शब्दों का अर्थ वह नहीं समझ पाती थी. ह्यूंद का अर्थ भी वह नहीं समझ पाई थी और न ही अपने पति को पूछ पाई. पर उसके मन में यह जरूर था कि ह्यूंद उसके पति का कोई अज़ीज़ है जिसके लिए वह इतना इकहट्टा कर रहा है.
                           इस बात को उनके गाँव का एक धूर्त व्यक्ति जान गया था कि पत्नी ह्यूंद का अर्थ नहीं जानती है और वह मौके की तलाश में रहने लगा. एक दिन पति किसी काम से दूसरे गाँव गया तो इस धूर्त व्यक्ति को मौका मिल गया. थोड़ी वेश भूषा बदल कर वह इस भोली स्त्री के पास पंहुचा और वह सब सामान मांग बैठा जो उसके पति ने ह्यूंद की खातिर रखा था. स्त्री के यह पूछने पर कि वह कौन है तो वह बोल बैठा कि- "मुझे नहीं जानती?  मै ही तो ह्यूंद हूँ....." और सारा सामान लेकर वह धूर्त चम्पत हो गया.                                       

Friday, November 19, 2010

कितने कितने अतीत

1.
बैठा हूँ जब भी कहीं एकान्त पाने की चाह में, जाने क्यों गिद्ध,चील सी झपट पड़ती यादें.
याद आते पहाड़, गर्वोन्नत खड़े चीड़ देवदार, औ' ढलान पर अटके हुए छोटे-छोटे गाँव.
घाटियों में इठलाती, इतराती अल्हड़ नदियां, और पहाड़ की बाँहों में टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियां.
जाने क्यों लगता है आज भी-  गुजरे समय और गुजरी घटनाओं के साथ ही
गाँव के चौराहे पर बैठ फटी एड़ियां मलासते, कई-कई अतीत थामे मैं अब भी वहीं कहीं हूँ !
2.
गाँव, पंख फैलाये तितली के आकार सा, पहाड़ी ढलान पर पसरा हुआ है छोटा सा गाँव.
सात घर तितली की पीठ पर, तीन नीचे-तीन ऊपर, औ' दर्ज़नों चिपके हुए से हैं पंखों पर.
बिचले घर में आँगन बड़ा और एक खाली गौशाला, गौशाला में चलती एक छोटी पाठशाला
वहीँ आँगन के दूसरे छोर पर, सहेलियों की गोद में सिर दिए अंगूठे से जूं मसलती औरतें
जाने क्यों लगता है आज भी- हार गए बच्चों के कान पर थूक लगा चिढाते
हम उम्र दोस्तों संग खेल-खेल में धींगामुश्ती करते, शैतान बच्चों की लिस्ट में मै भी हूँ ! 
3.
गाँव, गाँव में जातियां अलग, कुनबे अलग, खोले अलग, पर दुःख दर्द एक सा, हर्षोल्लास एक सा
क्या नर, क्या नारी चहक रहे सभी भारी, सबकी चहेती मंगली का ब्याह जो है आज,
ब्याह की तैयारी में जुटा है सारा गाँव, औ' उधर रास्ते में चार पैसे की आस लिए गोबर गणेश सजा
बारात की बाट देखते दीवारों की ओट से बच्चे, रात बारातियों संग खाना खाने की जिद करते बच्चे
जाने क्यों लगता है आज भी- बारात की मर्चीली दाल-भात छकते, सिसकारी भरते
भैजी की 'रिजेक्ट' कमीज़ पहने लम्बी आस्तीन से, आंसू- सेमण पोंछते बच्चों की पंगत में मै भी हूँ !
4.                                                        
गाँव, पहाड़ी ढलान पर पसरा हुआ है छोटा सा गाँव, सामने फैले खेतों के सामानांतर
मीलों लम्बी है एक पहाड़ी नदी, औ' नदी में हजारों रोखड़, लाखों छोटे बड़े पत्थर.
नदी में नहाते, पत्थरों पर घड़ियाल सा पसरते, रौखडों में दुबकी मछलियाँ मारते लड़के,
तड़पती मछलियाँ देख उल्लासित होते लड़के, भूनकर चटकारे ले-लेकर खूब खाते लड़के.
जाने क्यों लगता है आज भी-  दिन भर नहाते, पसरते, मछलियाँ मारते या
चुल्लू, किल्मोड़ा, हिंसालू  ठून्गते-  डरते घबराते घर लौटते लड़कों की दंगल में मै भी हूँ !   
5.
गाँव, चीड़ के पेड़ों से युक्त ढलुवा वनभूमि पीछे, हस्त रेखाओं जैसे बरसाती गदेरे
चीड़ के पेड़ों के आसपास आंखमिचौनी खेलते, पिरूल पर फिसलते लड़के लड़कियां
हँसते खेलते गाय बैल बकरियां हंकाते, दूर निकल पड़ते किशोर लड़के लड़कियां
स्त्री-पुरुष रिश्तों की समझ भले नहीं, पर इशारों में बतियाते हैं लड़के लड़कियां
जाने क्यों लगता है आज भी- भूखे प्यासे जंगलों में बाजूबंद गाते, बांसुरी बजाते
 औ' शाम ढले थके हारे घर लौटते ग्वालों की टोली में मै भी हूँ !
6.
गाँव,  आस्थाएं अनेक, गीत अनेक रीतियाँ अनेक, पर पहाड़ की संस्कृति है एक
बार त्यौहार पंचायती चौक में अलाव जला, थड्या चौंफुला झुमैलो तांदी पर थिरकते
रोमांचित हो ढोल-दमौं की थाप पर नाचते, ढोल-दमौं गरमाने और सुस्ताने के बीच,
बायीं हथेली कान पे धर दायाँ हाथ हवा में लहराते पंवाडा गाने का रामू दा का शौक,
जाने क्यों लगता है आज भी- रात भर अपनी नृत्यकला का जौहर दिखाते  
कुल्हे मटका-मटका हाथ हवा में लहराते, ठुमके लगाने वाले मर्दों की घेर में मै भी हूँ                                  
7.
गाँव,  दीपावली के रतजगों से उबरे भी कि, जुट जाता नौरते की तैयारी में फिर से सारा गाँव
पूरे नौ दिन-आठ रात, ढोल-दमौं, नृत्य नाटिका- मत्स्य भेदन से लेकर महाभारत युद्ध तक
अक्सर नाचते पंडों -जुधिश्टर भीम अर्जुन दुर्पदा, नतमस्तक हो करते दर्शक चावलों की वर्षा
ढाल, कटार लिए नाचते-नाचते ही जब बकरे को, दांतों से पकड़ सिर के पीछे उठा फेंकती दुर्पदा
जाने क्यों लगता है आज भी- सयाने की तलवार से चोटिल बलि के भैंसे को दौड़ाते
निरीह-निर्दोष भैंसे के शरीर पर, तलवार-खुन्खरियों से वार करने वाले 'शूरवीरों' में मै भी हूँ !
8.
गाँव, गाँव की बातें अनगिनत, यादें अनगिनत, रीतियाँ अनेक, परम्पराएँ अनेक कुप्रथाएं भी अनेक
कई घटनाओं, कई हादसों, कई झगड़ों का साक्षी है गाँव, बाढ़ कभी सूखा कभी अकाल भी झेला है गाँव
बार-त्यौहार, खुदेड गीतों या संगरांद की नौबत धुयांल से,  भूत-पिशाच कभी देवताओं की हुंकार से
भैरो मंदिर में भक्तों के विलाप और घंटों की गूँज से, कई वर्षों, कई युगों से गूंजता रहा है गाँव
जाने क्यों लगता है आज - अपने गाँव अपने मुल्क से दूर
घूमते-टहलते शब्दों की जुगाली करते, अतीत खंगालते, शेखी बघारते
पराये शहर की गुमनाम गली में मुठ्ठी भर सम्पति पर इतराते- इठलाते,
हर रोज कभी सड़क, कभी पार्क किनारे चेन पकड कर कुत्ता हगाते
 'सभ्रांत' (?) प्रवासी पहाड़ियों की जमात में मै भी हूँ !

Saturday, November 06, 2010

ये कैसी राजधानी है !!

Clock Tower, Dehradun Photo-Subir
         युगीन यथार्थ की विसंगतियों के खिलाफ गत तीन दशक से निरंतर सक्रिय व जुझारू कवि चन्दन सिंह नेगी अपनी कविताओं, लेखों व जनगीतों के माध्यम से जन जागरण में लगे हैं......... उनके लेख व कवितायेँ उनकी पीड़ा, उनकी छटपटाहट को अभिव्यक्त करते हैं.........1986 में युवा कवियों के कविता संकलन 'बानगी' में प्रकाशित उनकी कवितायेँ काफी चर्चा में रही.......... 1995 में लोकतंत्र अभियान, देहरादून द्वारा प्रकाशित "उत्तराखंडी जनाकांक्षा के गीत"  में उनके वे जनगीत संकलित हैं जो उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान सड़कों पर,पार्कों तथा नुक्कड़ नाटकों में गाये गए और वे गीत प्रत्येक आन्दोलनकारी की जुवां पर थे............समाज में व्याप्त संक्रमण के खिलाफ वे आज भी संघर्षरत है. 
यहाँ प्रस्तुत है उनका सद्ध्य प्रेषित जनगीत ;

 ये कैसी राजधानी है! ये कैसी राजधानी है!!
                                  हवा में जहर घुलता औ' जहरीला सा पानी है !!! ये कैसी राजधानी.......

शरीफों के दर्द को यहाँ कोई नहीं सुनता,
                                  यहाँ सबकी जुवां पर दबंगों की कहानी है !! ये कैसी राजधानी.........

कहाँ तो साँझ होते ही शहर में नींद सोती थी,
                                  कहाँ अब 'शाम होती है' ये कहना बेमानी है !! ये कैसी राजधानी.......

मुखौटों का शहर है ये ज़रा बच के निकलना तुम,
                                  बुढ़ापा बाल रंगता है ये कैसी जवानी है !! ये कैसी राजधानी.......

नदी नालों की बाहों में बिवशता के घरौंदे हैं,
                                  गरीबी गाँव से चलकर यहाँ होती सयानी है !! ये कैसी राजधानी......

शहर में पेड़ लीची के बहुत सहमे हुए से हैं,
                                  सुना है एक 'बिल्डर' को नयी दुनिया बसानी है !! ये कैसी राजधानी......

न चावल है, न चूना है, न बागों में बहारें है,
                                  वो देहरादून तो गम है फ़क़त रश्मे निभानी है !! ये कैसी राजधानी......

महानगरी 'कल्चर' ने सब कुछ बदल डाला,
                                  इक घन्टाघर पुराना है औ' कुछ यादें पुरानी है !! ये कैसी राजधानी.......

Thursday, October 28, 2010

दिल ढून्ढता है फिर वही.....

                                                                                    Photo-Subir
पिछली बरसात में  खिर्सू जाना हुआ. कुछ ऐसे ही. (वैसे फुर्सत हो तो हर वर्ष वर्षात में कहीं न कहीं निकलने का प्रयास करता हूँ) खिर्सू में पल पल बदलते मौसम का मिजाज देखकर मन आल्हादित हो उठता है. कुदरत के अलग अलग रंग देखने को मिलते हैं यहाँ पर. इस पल पूरी धूप खिली होती है और अगले ही पल कोहरा, और क्षण भर बाद ही झमा-झम बारिस. कभी पहाडी की पूरबी ढलान पर धूप पसरी होती  है तो पश्चिमी ढलान पर कोहरा. कभी यह छोटा सा पहाडी क़स्बा पूरा का पूरा कोहरे के आगोश में चला जाता है. जैसे छोटा बच्चा आँख मिचौनी खेल रहा हो. खिर्सू अपनी रमणीकता के लिए विख्यात तो है ही, किन्तु यहाँ वर्षा सुन्दरी का मनभावन रूप भी सम्मोहित करने वाला होता है. ऐसे में डाक बंगले के वरामदे में बैठकर प्रकृति के इस रूप का आनंद तो उठाया ही जा सकता है.
परन्तु खिर्सू ही क्यों, मन को अभिभूत करने वाला यह सौंदर्य हिमालय अंचल के चप्पे-चप्पे में व्याप्त है. वर्षा ऋतु  में तो समूचा पहाड़ ही सद्ध्य स्नाता सुन्दरी सा दिखता है. पत्ता-पत्ता तक जैसे अपने अस्तित्व  का वोध करता हो. कल-कल करते बहते झरने और अठखेलियाँ करते नदी नाले धरती को अलंकृत ही करते हैं. हरे भरे जंगलों में कहीं पशुओं के गले की घंटियों की टुन टुन और कहीं ग्वालों की बांसुरी पर गूंजती पहाडी धुन, तो कहीं घसियारिनों के  कंठ से फूटते दर्द भरे विरह गीत. सब कुछ  भुला देने के लिए काफी है यह  मनोहारी दृश्य.  ऐसे स्थलों पर सैकड़ों, हजारों विषैले भाव लिए हमारा मन जाने कैसे हल्का सा महसूस करने लगता है. यह सच है कि पहाड़ों पर जैसे जैसे हम ऊँचाई कि ओर उठते जाते हैं हमारा शरीर और मन तनावमुक्त सा होने लगता है, बिलकुल निर्मल. (जैसे ठहरे पानी में गन्दगी तलहटी पर  बैठ जाती  है.) ईश्वर से निकटता सी महसूस होने लगती है. और आधुनिक सुविधाओं से लैस यह रूमानी दुनिया बिलकुल बेमानी सी लगती है.
पहाड़ों की ऊंचाइयों तक पहुँचने के लिए हमें घाटियों से ही होकर गुजरना होता है. घाटियों का सौंदर्य भी अत्यंत सम्मोहक होता है. पहुँच मार्ग तथा अनुकूल मौसम होने के कारण हिमालय की लगभग सभी घाटियों में आश्रम, हट्स तथा रेसोर्ट्स बने हुए हैं. इनमे समय गुजारने  का सौभाग्य विरलों को ही मिल पाता है. तनाव और  चिंता से मुक्त होकर ही प्रकृति से सीधा साक्षात्कार किया जा सकता है. हिमालयी जन जन को  घाटियों में या ऊंचे पहाड़ों पर लम्बे समय तक एकान्तिक सुख भोगने का हक तो विरासत में मिला था. परन्तु हमारे अज्ञान, हमारी लालसा  और हमारी हवश ने हमें इन सबसे वंचित कर दिया है. छानी या खेडा ('temporary huts ) के रूप में हमारे पूर्वज हमें बहुत कुछ दे गए. दूसरे शब्दों में कहें तो ये पंचसितारा रेसोर्ट्स, हट्स या आश्रमों का प्रवास हमारे पुरखों की जीवन शैली की नक़ल मात्र तो है. बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि छानियों का प्रवास हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग था. यह अवश्य शोध का विषय हो सकता  है कि छानियों की शुरुआत कब और कैसे हुयी, कहाँ और क्यों हुयी? छानियों का हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन पर क्या प्रभाव रहा? वर्तमान में छानियों की क्या उपयोगिता है? आदि, आदि .
मेरा मानना है कि छानियों की स्थापना के मूल में संभवतः नागा आदिवासियों की भांति झूम खेती (shifting cultivation ) का प्रचलन  रहा हो. थका देने वाली इस अवैज्ञानिक पद्यती से निजात पाने या जंगलों के समाप्त हो जाने के कारण  अर्थात भूमि की अनुपलब्धता ने धीरे धीरे झूम खेती के प्रचालन को समाप्त कर एक ही स्थान को अस्थाई निवास के रूप में चुन लिया गया हो. कृषि यंत्रों का विकास, बीज सरंक्षण और कृषि भूमि को समतल करने की महत्ता को जब हमारे पुरखों ने जाना या समझा होगा तो अधिकाधिक भूमि पर खेती करने की लालसा भी उनके अन्दर पैदा हुयी होगी. इसके अतिरिक्त गाँव में जनसंखया  घनत्व अधिक होने के कारण रिहाइशी भूमि में कमी और घास, चारा व जलावन लकड़ी की समस्या भी छानियों के विकास में सहायक रही होगी.  अत्यधिक शर्दी या अत्यधिक गर्मी से बचने के लिए भी अस्थाई निवास की आवश्यकता महसूस की जाती रही होगी. जैसा कि सीमान्त  क्षेत्र के लोग शीतकाल में मीलों दूर नीचे घाटियों में चले आते हैं.  इसके विपरीत घाटियों के वासिंदे गर्मियों में ऊंची पहाड़ियों पर चले जाते हैं. आज भी ये परंपरा हिमालयी क्षेत्रों में कायम है. इन सब कारणों से अस्थाई निवास के रूप में छानियों का विकास हुआ होगा. एक परंपरा का सूत्रपात हुआ होगा .
छानियों के प्रभाव के विभिन्न पहलुओं पर विवेचना से पूर्व यह जानना होगा कि छानी संस्कृति पर्वतीय लोक जीवन की अमूल्य विरासत है. संयुक्त परिवार में बारी-बारी से भाइयों को छानी में भेजने की परंपरा रही है. जहाँ पर रहकर कड़ी मेहनत कर वे खाद्द्यान्न उत्पादित करते, गाय भैंस पालकर घी, दूध की प्रचुरता बनाये रखते और फुर्सत के क्षणों  में आस पास वृक्षारोपण कर फल-फूलों से स्थान  की शोभा बढ़ाते . छानियों में ही कदाचित बच्चों के अन्दर स्वालंबन और निर्भीकता की भावना का विकास होता होगा. यहीं पर प्रकृति से सीधा साक्षात्कार होता है और छानियों में ही आस्थाएं फलती फूलती होगी. नवदम्पति को अधिकाधिक एकांत प्रदान करने की भावना से भी छानी में भेजने की परंपरा रही है. (अर्थात छानियों का प्रयोग आधुनिक हनीमून हट्स की भांति भी होता रहा है)
छानियां जहाँ नवदम्पतियों के हर्षोल्लास का साक्षी रहा है वहीँ विरह में टेसुए बहाने के लिए भी छानियां उपयुक्त रही है. छानी में  एकाकी जीवन जी रहे नायक की पीड़ा को गढ़वाल के लोकप्रिय कवि नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है;
त्वे  खुनि मेरी मालु भैंसी पालीं छ, घ्यू दै की ठेकी लुकैक धरीं छ,
सैन्त्यु समाल्युं छ कुट्यूं पिस्युं छ, चौंल्ह छड्यां छिन दाल दलीं  छ,       
तेरा बाना छौं  खैरी खानि ऐ जा.......... !
परस्पर सहभागिता,  आत्मनिर्भरता का पाठ,  माटी से जुड़ाव, पशुओं से प्रेम, सीमित साधनों के भीतर जीविका चलाने का सबक और दायित्वों का निर्वाहन नवदम्पति छानियों में ही सीखता रहा होगा. परन्तु गाँव परिवार से दूरी, सामाजिक समारोहों से कटे रहने तथा एकाकी जीवन जीने के कारण बौद्धिक विकास में गतिरोध, तार्किक क्षमता का अभाव तथा बच्चों को उचित शैक्षणिक माहौल न मिलना आदि छानी प्रवास का नकारात्मक पहलू रहा है. संयुक्त परिवारों के टूटने, शिक्षा, नौकरी, रोजगार के लिए समूचे पहाड़ से ही पलायन के कारण छानियां खंडहरों में तब्दील हो गयी है और कहीं सड़क, बाज़ार आदि सुबिधायें मिल जाने के कारण छानियां स्थाई आवास के रूप में बदल गयी है.
आज जनसँख्या वृद्धि ,भ्रष्टाचार, प्रदूषण, गुण्डा गर्दी के कारण जब नगरों महानगरों क्या छोटे कस्बों तक में जीवन सुरक्षित नहीं है,शुद्ध हवा पाणी का अभाव है, शिक्षा, चिकित्सा, आदि बुनियादी सुविधाएँ तक आम आदमी से दूर होती जा रही है. privatisation के इस दौर में सरकारी नौकरी भी अब हाथ में नहीं रही. तो फिर हम कस्बों, नगरों व महानगरों  में क्यों रह रहे हैं. आधुनिक यातायात, संचार साधनों व अन्य सुविधाओं के साथ हम छानियों को फिर जीवित कर सकें तो यह महत्वपूर्ण कदम होगा. पूर्वजों की इस विरासत को हम सहेज सकें तो उनका आशीर्वाद अवश्य हमारे साथ होगा.  हम दुनिया की भागम भाग व रेलम रेल की जिंदगी से हटकर एक उन्मुक्त जीवन जी सकेंगे, एक निर्भय समाज का निर्माण कर सकेंगे. जिन्होंने छानियों का सुख भोगा है उन्हें मै ख्वाबों में ग़ालिब का यह शेर गुनगुनाते हुए सुनता हूँ ;
दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन,
बैठे रहे जाना किये तस्सबूरे हुए ..............       

Friday, October 08, 2010

आना फुर्सत में कभी मेरे पहाड़ में !

                                         Photo- Subir
मंद, मंद मुस्कान उस फागुनी शाम की 
खिल उठे हों बसन्त हजारों जैसे
रंग-विरंगे फूलों से मेरे लकदक पहाड़ में !

अपने में ही खोकर मुस्कराकर गुनगुनाना
छेड़ रहे हो संगीत सावन भादों  के 
झरने हजारों जैसे मेरे हरे-भरे पहाड़ में ! 

ढक देना शरमाकर कभी यूँ ही मुंह दुपट्टे से
छिप गया हो चाँद पूनो का जैसे 
घनघोर मेरे चीड-देवदारू के पहाड़ में !

बातों बातों में यक-ब-यक उदास हो जाना
शांत दोपहरी में घिर आयी बदरी जैसे
आषाढ़ के मेरे उमड़ते, घुमड़ते पहाड़ में  !

डूबना ख़यालों में गुमसुम पलकें बंद कर
गिर रहे हों फाहे बर्फ के जैसे
शीत भरे मेरे सर्द बर्फीले पहाड़ में ! 
                                               

Wednesday, September 29, 2010

जनता - गैरसैण राजधानी / सत्ता - गुजरी हुयी कहानी !

Chandan Negi        Photo-Subir
             युगीन यथार्थ की विसंगतियों के खिलाफ गत तीन दशक से निरंतर सक्रिय व जुझारू कवि चन्दन सिंह नेगी (या 'चन्दन उपेक्षित' जैसे कि वे कवि सम्मेलनों में व मित्रों के बीच जाने जाते हैं ) अपनी कविताओं व लेखों के माध्यम से वे जन जागरण में लगे रहे हैं. अपने धारदार व सार्थक लेखों से उन्होंने उत्तराखण्ड हिमालय की समस्याओं को विभिन्न राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पत्र -पत्रिकाओं में उठाया है. उत्तराखण्ड के लिए कुछ कर गुजरने की प्रबल इच्छा उनके मन में सदैव  रहती है. उनके लेख व कवितायेँ उनकी पीड़ा, उनकी छटपटाहट को अभिव्यक्त करते हैं. 1986 में युवा कवियों के कविता संकलन 'बानगी' में प्रकाशित उनकी कवितायेँ काफी चर्चा में रही. 1995 में लोकतंत्र अभियान, देहरादून द्वारा प्रकाशित "उत्तराखंडी जनाकांक्षा के गीत" में उनके वे जनगीत संकलित हैं जो उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान सड़कों पर, पार्कों में तथा नुक्कड़ नाटकों में गाये गए और वे गीत प्रत्येक आन्दोलनकारी की जुवां पर थे. यह उनकी जीवटता का ही प्रमाण है कि समाज में व्याप्त संक्रमण के खिलाफ वे आज भी संघर्षरत है. "जनता उत्तराखंडी" कविता उनके द्वारा बारामासा पत्रिका के लिए प्रेषित की गयी थी, किन्तु कतिपय कारणों से प्रकाशित नहीं हो पाई थी.

जनता- तनी मुठ्ठियाँ सबकी,  जनता- जीत हमारी पक्की,  जनता- अपने पर विश्वास,  सत्ता- हार चुकी अबकी !

जनता- सीधे बोली मात,  जनता- वक्त नहीं है आज,  जनता- सड़कों पर सैलाब,  सत्ता- झेलेगी प्रतिघात !

जनता- घर-घर में अंगार,  जनता- पहुँच गयी दरबार,  जनता- गाँव-गाँव में जलसे,  सत्ता- चौतरफा लाचार  !

जनता- सधे हुए कुछ वोट,  जनता- नया करारा नोट,  जनता- दाग रही सवाल,  सत्ता- सिले हुए अब ओंठ  !

जनता- उठे हुए सब लोग,  जनता- चुने हुए सब लोग,  जनता- होली और दीवाली,  सत्ता- पिटे हुए कुछ लोग !

जनता- रौद्र रूप विकराल,  जनता- शेर मूंछ का बाल,  जनता- बदला लेगी अब तो,  सत्ता- बकरी जैसा हाल !

जनता- क्रांति-क्रांति का शोर,  जनता- गर्जन है घनघोर,  जनता- करवट ले गयी अब तो,  सत्ता- कटी पतंग की डोर  !

जनता- तेरा मेरा साथ,  जनता- दिल से दिल की बात,  जनता- खुली हवा में घूमे,  सत्ता- दम घोंटू हालात  !

जनता- जनता उत्तराखंडी,  जनता- कमला, दुर्गा, चंडी,  जनता- जय हो उत्तराखण्ड,  सत्ता- सांस पड़ रही ठंडी !

जनता- फिर से नयी जवानी,  जनता- गैरसैण राजधानी,  जनता- निकल पडी सड़कों पर,  सत्ता - गुजरी हुयी कहानी !  

Sunday, September 26, 2010

चुटकी भर सुख

Pahalgam,  J&K               Photo-Subir
तुम अलापते रहे - /
पहाड़ी धुन में अपने पहाड़ों के प्रणय गीत /
तुम सुनाते रहे- इतिहास हो चुके वीरों की शौर्य गाथाएँ /
तुम भुलाते रहे- अपने पहाड़ से दुखों के दीर्घ प्रसंग /
और वे / 
चूसते रहे तुम्हारे  शिराओं का रक्त- जोंक सा /
तुम्हारे ही लोगों के कन्धों पर चढ़कर /
मुखौटा लगाकर, देते रहे दिलासा कि- /
विकसित होगा यह पहाड़ /
हरियाली लौटेगी इन पहाड़ों की /
परन्तु /
तुम ठगे जाते रहे हो सदा / 
तुम छले जाते  रहे हो सदा /
तुम लूटे जाते  रहे हो सदा /
अरे भाई ! तुम्हे नहीं मालूम क्या /
हरियाली, विकास, खुशहाली, तो पहाड़ के भाग्य  में ही नहीं है /
इस शोषित, दमित पहाड़ में  तो बस /
पहाड़ सी जिन्दगी है /
पहाड़ सी पीड़ा है /
पहाड़ सा अभाव है /
पहाड़ सा रोग है /
पहाड़ सा बुढ़ापा है /
बस नहीं है तो -चुटकी भर सुख !
                                         

Friday, September 24, 2010

भेड़, बकरी से हांके जा रहे हैं टिहरी बाँध प्रभावित

Tehri Dam                       Photo-Subir
                         इधर उत्तराखंड से प्रकाशित एवं प्रसारित लगभग प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रोनिक मीडिया में टिहरी बाँध की झील में टी. एच. डी. सी.(Tehri Hydro Development Corporation) द्वारा लगातार पानी भरे जाने के कारण और उसके उपरांत उपजी परिस्थितियों में प्रायः उत्तरकाशी जिले के ही 60 गांवों के लोगों की व्यथा व्यक्त की जा रही है . काश, समग्र भागीरथी व भिलंगना घाटिवासियों की पीर को कोई फोकोस करता कि टिहरी जिले में 60 गाँव नहीं बल्कि झील के उस पार ही पट्टी - रमोली, ओण, भदूरा, रैका, धारमंडल, केमर, बासर, ढुंगमन्दार के सैकड़ों गांवों के लाखों लोग किस तरह विकास के नाम पर जबरन दो सदी पीछे धकेल दिए गए हैं. परन्तु किसका विकास ? जो विस्थापित हो चुके हैं उनके आंसू अब तक शायद सूख चुके होंगे या उस नए माहौल में अपने को ढाल चुके होंगे जहाँ वे खदेड़ दिए गए थे. किन्तु झील के उस पार ये लाखों लोग अपने पुरखों की भूमि पर, अपने पुस्तैनी मकानों में रहते हुए भी जैसे यातना शिविरों में दिन काट रहे हों. 29 अक्टूबर 2005 का दिन (जब टी-1 और टी-2 बंद कर दी गयी थी.) इन लाखों लोगों के जीवन का वह काला अध्याय है जिसे वे जीवन रहते तक नहीं भूल सकते.
            
                        उपरोक्त पट्टियों के गांवों तक पहुँचने के लिए भल्डियाना मोटर पुल के अलावा आधा दर्ज़न झूला पुल थे। झील बनने के बाद ये सभी पुल डूब गए। टिहरी बांध के खैर ख्वाहों ने यह क्यों नहींp सोचा कि जिनका आवागमन इन पुलों से होकर था वे अब कैसे आएंगे जायेंगे? अपढ़ जनता, गंवार लोग क्या जाने कि एक दिन ऐसा भी होगा, किन्तु जो पढ़े लिखे और चतुर थे वे क्या कर गए? स्यांसू और पीपल डाली पुल की स्थिति अच्छी नहीं है। डोबरा में पुल बनाने की सुध भी झील बनने के कई महीनो बाद आयी. डोबरा पुल तीन साल के भीतर तैयार करने का आश्वासन था. लेकिन अभी लगता नहीं कि यह पुल जल्दी तैयार हो पायेगा। यह बाँध प्रभावितों का उपहास ही तो है ।अभी तो स्थिति यह है कि जीरो पॉइंट वाले पुल से लोग आ जा रहे हैं परन्तु इस पुल के डूबने के बाद? (क्योंकि टिहरी बांध के फेस-3 PSP के लिए इस पुल का डूबना भी तय है ) तब ? तब लगभग 15 किलोमीटर दूरी और बढ़ जायेगी। झील के ठीक उस पार मेरा गाँव भी है. पहले ऋषिकेश, देहरादून या कहीं से भी टिहरी पहुँचने तक की चिंता होती थी. टिहरी से घंटे भर में ही पैदल घर पहुँच जाते थे. ऐसे ही वापस आना होता था, दोपहर दो बजे भी गाँव से चलते तो शाम तक देहरादून पहुँच जाते. परन्तु अब! सुबह के देहरादून से चले शाम तक भी अपने गाँव पहुँच जाय भरोसा नहीं है. मान लें लगातार गाड़ियाँ मिलती भी रहे तो भी पहले की तुलना में 60 रुपये किराया अतिरिक्त और चार घंटे बर्बाद ऊपर से. यानी पूरा दिन बर्बाद. वही स्थिति वापसी की भी है. सुबह आठ बजे से पहले गाँव छोड़ दिया तो ठीक, नहीं तो दूसरे दिन. गाँव में सुख दुःख में शामिल होने के लिए मुझे साल में औसतन बीस बार गाँव जाना पड़ता है. अर्थात साल के चालीस दिन और चौबीस सौ रुपये मै अतिरिक्त किराया दे रहा हूँ. यह तब है जब मेरा परिवार अपने पैत्रिक गाँव में नहीं है. मेरे जैसे हजारों प्रभावित प्रवासी हैं जो इतना ही या इससे भी अधिक अतिरिक्त भुगतान कर रहे हैं. और उनकी स्थिति तो और भी बदतर है जो पूरी तरह झील के उस पार गांवों में रह रहे हैं।वे दुहरी मार झेल रहे हैं। रास्ते न होने के कारन दुकानदारों की मनमाफिक दर पर सामान खरीद रहे हैं और दुःख बीमारी या सरकारी कम से हफ्ते दस दिन में नयी टिहरी आना होता है वह अलग से. कभी अपने दादा - नाना से सुनते थे कि वे लोग ढान्कर आते थे देहरादून (जरूरत भर का महीनों का सामान एक साथ खरीद कर लाते ).आज झील के उस पार के लोग पुनः ढान्कर आ रहे हैं. टिहरी बांध विकास का प्रतीक हो सकता है लेकिन किसके लिए? हमें क्या मिला?
                
                        सभी जानते हैं कि टिहरी का जिला मुख्यालय भले ही पहले नरेन्द्रनगर था किन्तु टिहरी की भिलंगना और भागीरथी घाटीवासियों का व्यापारिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक केंद्र टिहरी नगर ही था। टिहरी की नुमाइश, 26 जनवरी की परेड, रामलीला, कृष्णलीला, जनरल करिअप्पा फुटबाल टूर्नामेंट, साधुराम फुटबाल टूर्नामेंट और खिचड़ी, पंचमी को लगने वाले मेले कोई कैसे भूल सकता है? और आज! टिहरी हम से छिना, हमारे स्कूल कॉलेज हम से छिने, हमारे खेल के मैदान छिने, मेले त्यौहार हम से छिने, बाज़ार और सिनेमाहाल तक हम से छिना, यहाँ तक कि मुर्दा घाट तक हम से छीन लिए गए हैं। हम तो केवल बांध की कीमत अदा कर रहे हैं !!

                     
                         भू वैज्ञानिकों की राय झील बनने के बाद इन गांवों की स्तिथि के बारे में क्या कहती है इसका आकलन किया जाना आवश्यक है. परन्तु सच्चाई यह है कि झील के दोनों ओर पहाड़ियों का ढलान प्रायः 25 - 30 अंश तक है. और गाँव चट्टानों पर नहीं कंकड़ पत्थर और मिटटी के ढेर पर बसे हुए हैं. कभी कल-कल करती, अठखेलियाँ खेलती, बहती भिलंगना और भागीरथी नदी आज काली नागिनों सी पसरी हुयी है चुपचाप. डर सा लगता है कि जैसे वे शिकार का इंतजार कर रही हो. सच यह भी है कि झील का पानी इन गांवों के नीचे ही नीचे घुसकर जमीनों को कमजोर बना रहा है, ईश्वर करे कभी तेज बारिस हो, या कभी हल्का सा भूकंप भी आये तो निश्चित है कि लगभग 70 किलोमीटर लम्बी झील के दोनों ओर बसे सैकड़ों गावों में से कुछ गाँव अवश्य दरक कर झील की आगोश में ----------. ईश्वर करे सचमुच अगर ऐसा हुआ तो!! कल्पना से ही रूह कांप उठती है.  

                          टिहरी बांध का जलस्तर लगातार बढाया जा रहा है. 820 , 825 और अब 830 मीटर आर0 एल0 तक. और टिहरी बांध द्वारा विस्थापन किया गया (संभवतः) केवल 840 मीटर आर एल तकत्रिकोणमिति का साधारण छात्र भी जानता है कि 25 - 30 अंश के ढलान पर 10 मीटर (840 - 830) की ऊँचाई हो तो क्षैतिज दूरी क्या रह जाएगी? अभिप्राय यह कि 840 क़ी रेखा को टच करने वाले या उसके निकटतम मकान या गाँव कितने समय तक अपने स्थान पर टिके रह सकेंगे ? टिहरी बांध के अभियंता या भू वैज्ञानिक क्या यह हकीकत नहीं जानते ? टी. एच. डी. सी. के प्रबंधकों द्वारा तर्क दिए जा रहे हैं कि ऋषिकेश हरिद्वार आदि मैदानी भागों में तबाही मचे इसलिए झील में पानी भरा जा रहा है. गोया कि मैदानी भागों के लोग इंसान है और टिहरी झील के आस पास रहने वाले लोग भेड़ बकरी या जैसे कि बर्ड फ्लू के दौरान इंसानों को बचाने के लिए मुर्गियों को मार दिया जाता है ऋषिकेश हरिद्वार आदि मैदानी भागों को बचाने का तर्क कम से कम टिहरी वालों के गले तो बिलकुल नहीं उतरा. बाँध बने हुए तो अभी पांच साल भी पूरे नहीं हुए और भिलंगना व भागीरथी हजारों सालों से बह रही है। बरसात तब भी होती थी, मैदानी भागों में आबादी तब थी। तब तो कुछ हुआ नहीं। टिहरी वालों ने यही तो फ़रियाद की थी कि जो पानी भिलंगना व भागीरथी में पीछे से आ रहा है, उसे बहने दो झील से अतिरिक्त पानी न छोड़ा जाय (फिर टिहरी झील में पानी इस स्तर तक भी टी एच डी सी ने ही तो भरा।)वैसे मीडिया ने जो खुलासा किया कि टी एच डी सी अधिक बिजली पैदा कर झोली भरने के लालच में तथा कोटेश्वर डाम को बचाने के लिए ही यह सब करता रहालेकिन कोटेश्वर डाम को फिर भी नहीं बचा पाया लेकिन झील के चारों ओर सैकड़ों बर्षों से बसे बासिंदों के मन में आतंक बनाने में अवश्य कामयाब रहा आज झील का स्तर जब अपने चरम पर हैं तो क्या एक उच्चस्तरीय दल ( जिसमे जीववैज्ञानिक, भू वैज्ञानिक, पर्यावरणविद, सामाजिक कार्यकर्त्ता, स्थानीय जनप्रतिनिधि तथा केंद्र राज्य सरकार के विशेषज्ञ सम्मिलित हों ) द्वारा झील के चारों ओर कम से कम 950 मीटर आरएल० तक के गावों का व्यापक सर्वेक्षण आकलन किया जाना आवश्यक नहीं है? आपदा प्रबंधन विभाग क्या आपदा के बाद ही योजनायें बनाएगा? सरकार की नींद क्या घटना के बाद टूटेगी? जन प्रतिनिधी घटना के बाद ही टेसुए बहायेंगे ? कौन जवाब देगा !!