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Wednesday, July 29, 2020

उफ, ये देहरादून की बारिस !

वर्षा ऋतु में पच्चीस-तीस साल पहले के देहरादून की बारिस के कुछ किस्से भुलाये नहीं भूलते।


1.    विभागीय मुख्यालय- लखनऊ से रोकड़िया के. बी. श्रीवास्तव देहरादून आये थे। हमारा ऑफिस तब बसन्त विहार में था। के. बी. बाबू को शाम जनता एक्सप्रेस से लौटना था। दिन भर साथ ही ऑफिस में रहे, शाम को घर लौटते समय मैंने कहा मैं आपको स्टेशन छोड़ देता हूँ। सोचा अनुराग नर्सरी के आसपास चाय पीते हुये चलेंगे पर ऑफिस से निकले ही थे कि आशमान झमाझम बरसने लगा। इसलिए चाय का बिचार त्यागकर चलते रहे। कांवली रोड वाले बिन्दाल पुल पर पहुँचे तो पुल डूब चुका था (तब पुराना पुल संकरा और नीचे था)। गोबिन्दगढ़ से जाना चाहा पर वहाँ भी सड़कों पर पानी लबालब भरा था। वापस बल्लीवाला चौक, बल्लूपुर चौक, चकरॉता रोड, तिलक रोड, भण्डारी चौक होते हुये रेलवे स्टेशन पहुँचे तो ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। बारिस में सड़क के अदृश्य गड्ढों से ही नहीं सामने वाले की रफ ड्राईविंग से भी स्कूटर चलाते हुये बचकर चलना होता है। बारिस इतनी तेज थी कि अण्डरगारमेण्ट्स तक में से भी पानी इतना बह रहा था जैसे नदी में डुबकी मारकर बाहर निकलने पर।

2.    एक बार मेरे दोनों बच्चों को बुखार आ गया। शायद छः-सात साल के रहे होंगे। दिन चढ़ने पर बुखार तेज होता गया था। मैंने श्रीमती जी को और बच्चों को स्कूटर पर बिठाया और डॉक्टर दिखाने को निकला। समय थोड़ा गलत चुन लिया था, दिन के डेढ़-पौने दो बजे होंगें। एक डॉक्टर के पास गया पर वे उठने की तैयारी में थे और ‘शाम को आना’ कहकर निकल गये। दूसरे और फिर तीसरे के पास, पर सभी ने शाम को दिखाने को कहा। मैंने श्रीमती जी को कहा ‘अब आ गये हैं तो फिर शाम को दिखाकर ही जायेंगे। लिहाजा समय काटने के लिए पिक्चर ही देख लेते हैं, दो से पाँच का शो।’ वह राजी हो गयी। हम चकरॉता रोड पर नटराज सिनेमा चले गये।
          पिक्चर खत्म होकर बाहर निकले तो बाहर आशमान झमाझम बरस रहा था। नटराज वाला चौकीदार शो शुरू होने पर चैनल बन्द कर देता है पर बारिस रुकने के इन्तजार में हमारे जैसे चार-छः और लोग भी चैनल के बाहर खड़े थे। हॉल के बरामदे का प्रोजक्शन मुश्किल से एक-डेढ़ फीट ही बाहर होगा जिससे हम उस तेज बारिस में कमर से नीचे भीग ही रहे थे। पौन घण्टा रुकने के बाद भी बारिस नहीं रुकी तो मैंने स्कूटर स्टार्ट किया, पर बुरी
तरह भीगने के कारण डॉक्टर के पास जाने की हमारी स्थिति नहीं थी इसलिए सीधे घर आ गये। यह सोचकर कि डॉक्टर को कल दिखा देंगे। रात खाना खाते समय देखा तो बच्चों का बुखार पूरी तरह गायब था।

 
3.    मेरे बच्चे तब डालनवाला के एक प्राईवेट स्कूल में पढ़ते थे और बस से आते-जाते थे। आशमान में बदरा घिर आये थे। बाजार से लौट रहा था तो सोचा बच्चे भीग न जायें क्यों न मैं ही उन्हें लेते चला जाऊं। पर तेज बारिस में मैं ही नहीं बच्चे भी बुरी तरह भीग गये। आराघर चौक पहुँचा तो देखा कि आठ-नौ साल के कुछ स्कूली बच्चे उस बारिस में नहर से लगी सड़क पर अपने बस्ते बहा रहे थे और नहीं बहने पर किक मार रहे थे।                                                                                            
(पुराने लोगों को पता है कि आराघर चौक में पहले एक बहुत बड़ा पिलखन का पेड़ था और सड़क दो हिस्सों में बंटी थी। पिलखन के पेड़ की सीध में धर्मपुर की ओर अर्थात आज की सड़क के बीचों-बीच दस-बारह दुकानों का एक छोटा सा बाजार भी था। जिसमें गढ़वाल ऑप्टिकल्स, शराब का ठेका और उसकी बगल में मच्छी की पकौड़ी बनाने वाले की व अन्य दुकानें थी। तब देहरादून की नहरें आज की तरह भूमिगत नहीं थी। ई. सी. रोड और बलवीर रोड का पानी जब बाजार के पीछे वाली पतली सड़क पर बहता था तो काफी बहाव हो जाता था। भारी बस्ते तो नहीं पर जूते-चप्पल आसानी से बह जाते थे।)    

Tuesday, November 19, 2019

जी.टी.एस.(Great Trigonometrical Survey) बंेच मार्क

            हैदराबाद में ‘‘सर्र्वेइंग इंस्टीट्यूट’’ में प्रशिक्षण के दौरान एक दिन हॉस्टल में बैठे थे, जी.टी.एस.(Great Trigonometrical Survey) पर चर्चा हुयी तो एक मित्र ने बताया कि ‘उच्च हिमालय में एक क्षेत्र विशेष के सर्वेक्षण के लिए एक बार हम पर्मानेण्ट बेंच मार्क ढूंढ रहे थे। मैप हमारे हाथ मे था और गणना की तो देखा कि जहाँ पर जी.टी.एस. बंेच मार्क था उसके ऊपर तो एक स्थाई पुलिस चेक पोस्ट स्थापित हो चुकी है। चौकी प्रभारी को यह बात बतायी गयी तो वह आपे से बाहर हो गया कि ‘यह नहीं हो सकता, हमारी पोस्ट कई सालों से यहाँ पर है, आप कन्फ्ूयज है, कहीं और ढूंढ लीजिए।’ अब क्या करें। अगला जी.टी.एस. बंेच मार्क मीलों दूर और सड़क मार्ग से परे था। चौकी प्रभारी नहीं माना तो हमारे सर्वे ऑफीसर भी फैल गये। फील्ड कार्य का लम्बा तजुर्बा होने के कारण उन्हें अपने पर पूरा विश्वास था। उन्होंने चौकी प्रभारी को जी.टी.एस. बंेच मार्क संरचना विस्तार से समझाया और कहा कि ‘यदि यहाँ प्रयुक्त पीतल की प्लेट, जिस पर संख्या अंकित है, नहीं मिलती है तो आप हमारे विरुद्ध कार्यवाही कर सकते हैं।’ चौकी हटाई गयी और अंकित पीतल की प्लेट देखकर चौकी प्रभारी को अपनी गलती का अहसास हुआ और शायद उस दिन ही वह सर्वे ऑव इण्डिया विभाग की महत्ता समझा होगा।

            
          प्रसंग इसलिए कि इसी माह शुरूआत में जनकवि व पर्यावरणविद चन्दन नेगी जी के साथ मसूरी घूम रहा था तो सन् 1885 में निर्मित कुलड़ी स्थित ‘सेण्ट्रल मेथोडिस्ट चर्च’ देखने भीतर गये। चर्च के आंगन में उत्तरी दिशा में एक जी.टी.एस. बंेच मार्क -1908 पर नजर पड़ी, जिस पर समुद्र तल से ऊंचाई 8570.028 फीट अंकित है। (गौरतलब है कि ब्रिटिश सिस्टम- एफ. पी. एस. में लम्बाई के माप फीट में है जबकि अमेरिकन सिस्टम एम. के. एस. में माप मीटर में लिखे जा रहे हैं।)
           
          जी.टी.एस. सर्वेक्षण की वह विधा है जिसमें उच्च वैज्ञानिक परिशुद्धता के साथ माप लिए जाते हैं। भारतीय सर्वेक्षण विभाग के स्थापना के लगभग सैंतीस वर्ष बाद एक इन्फेण्ट्री ऑफीसर विलियम लैम्बटन द्वारा यह त्रिकोणमितीय विधा सर्वप्रथम सन् 1802 में प्रारम्भ की गयी थी। आज भले ही उच्च तकनीकी के उपकरण आ गये हैं किन्तु लगभग दो सौ साल पहले इस विधा द्वारा ही माउण्ट एवरेस्ट, के-2 आदि हिमालयी पर्वत श्रेणियों की ऊंचाई की वास्तविक गणना की जा सकी है। भारत की आजादी तक सर्वेक्षण विभाग में गोरे लोग ही मुख्य पदों पर रहे है किन्तु यह गौरव की बात है कि नैन सिंह रावत और कृष्णा सिंह रावत जैसे भारतीय सर्वेक्षकों का ल्हासा-तिब्बत की ऊंचाई और ब्रह्मपुत्र नदी की लम्बाई नापना जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में प्रमुख योगदान रहा है।

Wednesday, October 30, 2019

मेरे मुल्क की लोककथाएं



         क्या आपने ये किस्सा सुना है कि एक शादी में लड़की वालों ने लड़के वालों के सामने शर्त रखी हो कि बाराती सभी जवान आने चाहिए, बूढ़ा कोई न हो। लेकिन बाराती बरडाली के बक्से में छुपाकर एक सयाना व्यक्ति को ले गए। बारात पहुंची तो लड़की के पिता ने शर्त रखी कि सभी मेहमानों के लिए हमने एक-एक बकरे की व्यवस्था कर रखी है। हर एक बाराती को एक-एक बकरा खाकर खत्म करना होगा तभी अगले दिन दुल्हन विदा होगी। यह शर्त सुन कर सभी बाराती सन्न रह गए।
         एक बाराती ने बरडाली के बक्से के पास जाकर सारी बातें बुजुर्ग से कही तो बुजुर्ग ने उपाय बताया कि एक-एक करके बकरा मारो और मिल बांट कर खाओ। फिर तो सारी रात ऐसा ही किया और बाराती शर्त जीत गए।

         अगर आपने यह किस्सा सुना है और अपनी यादों को ताजा करना चाहते हैं तो आप ‘शूरवीर रावत’ द्वारा संग्रहित, लिप्यांकित लोककथा संग्रह ‘‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’’ जरूर पढ़ें। अगर नहीं सुना है तो तब तो जरूर पढ़ें। समझ लीजिए आपने अपने समय और समाज की नब्ज पढ़ ली।
       शूरवीर रावत द्वारा संग्रहीत इस लोककथा संग्रह की लोककथाएं अपने दौर की सामाजिक सोच और मनोदशाओं को प्रकट कर रही है। ये लोककथाएं बता रही हैं कि हमारे समाज की क्या मान्यताएं और मूल्य हैं, क्या पूज्य, क्या सम्मानजनक और क्या अपमानजनक है। हमारे समाज में किस प्रकार की सोच, विश्वास, अंधविश्वास प्रचलित हैं। ये कथाएं समाजिक सच को पूरी ईमानदारी के साथ बयां कर रही हैं।

        संग्रह में 42 कथाएं संग्रहीत हैं। ये कथाएं लेखक ने किसी क्षेत्र विशेष में जाकर संग्रहीत नहीं की बल्कि बचपन से लेकर अब तक अपनी स्मृतियों में संचित कथाओं को लिख लिया है। यूं भी लोककथाएं स्मृतियों का आख्यान होती हैं। लेखक के अनुसार, ‘‘ह्यूंद की सर्द रातों में भट्ट, बौंर या भुने हुए आलू खाते हुए और कभी किसी के घर में शादी ब्याह होने पर पड़ाव किसी दोस्त के घर पर होता तो वहां उसकी दादी या घर की ही किसी बुजुर्ग महिला या पुरूष से अनेक कथाएं मैंने सुनी हैं।’’ इन कथाओं का फलक विस्तृत है। इन कथाओं को आप सिर्फ गढ़वाल या उत्तराखण्ड की न कह कर भारत की लोककथाएं भी कह सकते हैं। लेखक के अनुसार, ‘‘इस संग्रह की कथाएं किसी समाज विशेष का प्रतिबिम्ब नहीं हैं बल्कि पूरे जनपद, पूरे राज्य या पूरे मुल्क के किसी भी कोने की कथा हो सकती है।’’
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डॉ0 नन्द किशोर हटवाल
        जिन्होंने पहाड़ों और गांवों में जीवन का अधिकांश हिस्सा बिताया उन्हांने इस संग्रह में संकलित कुछ किस्से-कहानियों को हो सकता है पहले भी सुना हो या पूर्व प्रकाशित संकलनो में पढ़ा हो। संग्रह में संकलित कतिपय कहानियां मैंने पहले भी सुनी-पढ़ी थी तो कतिपय मेरे लिए एकदम नयी थी। असल में लोकसाहित्य अधिकांश विधाएं समाज में एकाधिक रूपों में प्रचलित रहती हैं। लोककथाओं के मामले में यह अधिक है। एक ही कथा के कई वर्जन प्रचलित रहते हैं। जितनी बार आप पढ़ेंगे सुनेंगे उतनी ही बार आपको एक नए रूप से परिचित होने का मौका मिलेगा।
        अपने सधे हुए लेखन से इन लोककथाओं को लेखक ने पठनीय बनाया है। शूरवीर रावत निरन्तर रचना करने वाले लेखक हैं। पूर्व में वे बारामासा पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन करते रहे। यात्राओं पर केन्द्रित उनकी पुस्तक ‘आवारा कदमों की बातें’, कविता संग्रह ‘कितने कितने अतीत’ अपने गांव पर केन्द्रित किताब ‘मेरे गांव के लोग’ और सोशल मीडिया में लिखे गए उनके लेखों का संकलन ‘चबूतरे से चौराहे तक’ उनके लेखन की निरन्तरता को बयां कर रहा है। वे फेसबुक और ब्लॉग के माध्यम से भी निरन्तर सक्रिय हैं।  लोककथा संग्रह ‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’ के लिए रावत जी बधाई के पात्र हैं।

 पुस्तक का नाम -  मेरे मुल्क की लोककथाएं        प्रकाशक -  विनसर पब्लिशिंग कं0  देहरादून,  उत्तराखण्ड
मूल्य - रू. 195 कुल पृष्ठ सं.-144      समीक्षक :  डॉ0 नन्द किशोर हटवाल

Sunday, April 28, 2019

दो कौड़ी का मोल

गुस्से में आदमी पता नहीं क्या-क्या गालियां देता है। गालियों के अलग-अलग रूप है, अलग-अलग स्तर है। देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार गालियों का रूप बदल जाता है। गालियां सुनना कोई भी पसन्द नहीं करता है, किन्तु यदि कोई तीसरा व्यक्ति गालियों में आपके दुश्मन की सात पीढ़ियां नाप रहा हो तो वह सुनना कर्णप्रिय हो सकता है। खैर!!

एक गाली नहीं उलाहना है ‘दो कौड़ी की औकात नहीं और......।’ आखिर ये कौड़ी है क्या? यह प्रश्न सालों से दिमाग को मथ रहा था। उत्तर मिला भी तो सुदूर अण्डमान भ्रमण के दौरान पोर्टब्लेयर के ‘‘नैवल मैरीन म्यूजियम समुद्रिका’’ में।
प्रागैतिहासिक काल में कब्रिस्तानों से प्राप्त प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि कौड़ियां (सीपियां) मुद्रा का प्रारम्भिक रूप है। इसका छोटा, चमकीला व आकार में एक समान होना, कम बजन, प्रचुर मात्रा में आसानी से उपलब्धता आदि गुणों के कारण कौड़ी को मुद्रा रूप में प्रयोग के लिए उचित माना गया। मुद्रा रूप में कौड़ियों का उपयोग अफ्रीका, दक्षिण भारत, फिलीपींस व मलाया में अधिक हुआ माना जाता है। 

प्राचीन चीन में तो बिक्रमीसंवत के दो हजार साल पहले से ही कौड़ियों का उपयोग हुआ माना जाता है।
सिकन्दर महान से पूर्व भारत में कौड़ियों का प्रचलन व्यापक रूप में था। - - - - - - एक खोज के अनुसार सन् 1740 में एक भारतीय रुपये का मूल्य 2400 कौड़ियां थी और सन् 1845 में 6500, जबकि सन् 1920 में शाहपुर सरगोदया में एक रुपये के बदले कुल 960 कौड़ी बदली गयी। 

कौड़ियों को धन का प्रतीक भी माना जाता है। शायद इसीलिए माँ लक्ष्मी की फोटो में कौड़ियों को उनके पैरों पर दिखाने की परम्परा है।

Monday, December 24, 2018

व्हाई डिड नॉट यू सिंग कमली ‘सतपुली का सैण मा...’

बचपन में एक कारुणिक गीत अक्सर सुनते थे;
द्वी हजार आठ भादौं का मास, सतपुली मोटर बगीन खास।
शिवानन्द को छयो गोवरधन दास, छै हजार रुप्या थै वैका पास।

जिया ब्वै कू बोलणू रोणू नी मैकु .....। 

 (दुःख है कि आज पूरा गीत याद नहीं है। संवत 2008 के भादौं/सन् 1951 सितम्बर माह की घटना है जब सतपुली में पूर्वी नयार नदी की बाढ़ में जन-धन व मवेशियों की भारी हानि हुयी। बाढ़ की विकरालता की कल्पना इसी से की जा सकती है कि नयार नदी पर बना पुल भी बाढ़ की भेंट चढ़ गया। उसी त्रासदी में जीवन खो देने वाले एक शिवानन्द के पुत्र गोवरधन भी थे जिन पर आशु कवियों द्वारा उपरोक्त गीत रचा गया था।)
 सतपुली की बात आते ही इस मार्मिक गीत की पंक्तियां जेहन में गूंजने लगती और ऐसा लगता कि सतपुली आज भी उस घटना से उबर नहीं पाया होगा। सच कहूँ तो सतपुली के प्रति संवेदना का कुहासा वर्षों बाद तब छंटा जब प्रख्यात गीतकार चन्द्र सिंह राही जी ने 1983 में फिल्म ‘‘जग्वाळ’’ के लिए गीत गाया था।
‘नि जाणू नि जाणू कतई नि जाणू सतपुळी का मेळा मेरी बऊ सुरेला।
नि जाणू नि जाणू जमई नि जाणू पंचमी का मेळा मेरी बऊ सुरेला।
सतपुळी का सैण मेरी बऊ सुरेला।..................’
सतपुली का दूसरा रोमाण्टिक पहलू भी है, दिल ने तब माना।
सतपुली मैंने सन् 1990 में पहली बार देखा, जब इलाहाबाद से लौटते हुये कोटद्वार से श्रीनगर जाना हुआ। सन् 1951, 1983 और 1990 के बाद जमाना बहुत बदल चुका है। तीस हजार से अधिक आबादी वाले पूर्वी नयार नदी के बायें तट पर बसा सतपुली आज नगर पंचायत क्षेत्र है। पौड़ी जिले के पन्द्रह विकास खण्डों में से एक सतपुली, दो सौ तिरेसठ गांव वाला विकासखण्ड सतपुली अब एक पृथक तहसील भी है। 105 किलोमीटर लम्बे पौड़ी-कोटद्वार मार्ग के लगभग मध्य में स्थित और समुद्रतल से मात्र साढ़े छः सौ मीटर ऊंचाई पर बसा सतपुली समशीतोष्ण जलवायु वाला नगर है। सतपुली नगर से एक किलोमीटर पश्चिम में पूर्वी व पश्चिमी नयार नदी का संगम है और निरन्तर पश्चिम वाहिनी होते हुये नेगी जी की ‘‘रुकदी छै ना सुख्दी छै, नयार जनी बग्दी छै.......’’ के यथार्त के साथ लगभग पच्चीस किलोमीटर दूरी तय कर ब्यासघाट के पास गंगा नदी की बाहों में समाकर अपना अस्तित्व खो बैठती है। 

आज सतपुली नगर में अनेक कार्यालयों के अतिरिक्त राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाएं, इण्टर कॉलेज, आई0 टी0 आई0, पोलीटेक्निक, नवोदय विद्यालय, राजकीय महाविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थान ही नहीं ‘द हँस फाउण्डेशन’ का सभी सुविधाओं से युक्त 150 बेड का अस्पताल भी है। पौड़ी, कोटद्वार ही नहीं सतपुली नगर देवप्रयाग, थलीसैण आदि महत्वपूर्ण स्थलों से भी सीधा जुड़ा हुआ है। 
माना जाता है कि कोटद्वार से इस मार्ग पर सातवें पुल के पास बसे होने के कारण इसका नाम सात पुल और ‘सतपुली’ पड़ा। उत्तराखण्ड के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी के मौसेरे भाई डेरयाली(गुमखाल) निवासी अड़सठ वर्षीय श्री बीरेन्द्र सिंह बिष्ट जी बताते हैं कि उनके दादा स्व0 चन्द्र सिंह बिष्ट आजादी से पहले सतपुली में बस गये थे और सन् पचास के दशक में वे सतपुली के मालदार लोगों में से थे क्योंकि उनका व्यवसाय ठीक-ठाक चलता था। छहत्तर वर्ष की आयु में उनका देहान्त सन् 1972 में हो गया। श्री बीरेन्द्र सिंह बिष्ट जी का कहना था कि उसी दौर में राजस्थान मारवाड़ से रोजगार की तलाश में जोधराज नाम का एक व्यक्ति आया और दूसरों की मजदूरी करते-करते सतपुली में बस गया और कुछ साल सतपुली का बड़ा व्यापारी बन गया। आज राजस्थान निवासी जोधराज जी के वंशज सतपुली मंे है या नहीं कहा नहीं जा सकता।
डामटा व छाम की ही भांति ‘‘माछा-भात’’ के लिए विख्यात सतपुली को साहित्यकार अशोक कण्डवाल जी के कविता संग्रह ‘‘गौंदार की रात’’ में जगह नहीं मिल पायी। (मुझे यकीन है/ तुम कभी/ डामटा नहीं गये/तुमने/छाम भी नहीं देखा/फिर तुम्हें क्या पता/ जमुना या/ भागीरथी की/ मछलियों की/ पाँखें ओर आँखंे/ कैसी होती है।..........) 

पाँच-छ दशक पहले तक सतपुली में होटल व्यवसायियों की अपेक्षा स्थानीय निवासी कम थे। सड़क मार्ग से जुड़े होने के कारण सुबह जल्दी बस पकड़ने या देर शाम को पहुँचने पर परदेश से आने-जाने वाले लोग प्रायः सतपुली में रुक जाते थे और पौड़ी, कोटद्वार जाने वाली बसें यहाँ पर कुछ देर के लिए अवश्य रुकती थी। फिर जी. एम. ओ. यू. कार्यालय भी सतपुली में था। सतपुली में अक्सर फौजियों की गहमा-गहमी रहती थी। वक्त बदला, फौजियों का आना-जाना कम हुआ क्योंकि ज्यादातर फौजी सुविधाजनक स्थानों पर बस गये हैं। सतपुली में आज आस-पास के गांवों के लोग ही नहीं नौकरी-पेशा बाहरी व्यवसायी लोग भी बस गये हैं।  नयार नदी की उपजाऊ घाटी में बसे खैरासैण, राज सेरा, चमशु, बड़खोलू, रौतेला, बूंगा, बांघाट, बिलखेत, दैसण, मरोड़ा आदि गांवों की भूमि कभी सोना उगलती थी। बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि कुछ दशक पहले तक ही सतपुली गढ़वाल का एक सम्पन्न अन्न भण्डार क्षेत्र था। परन्तु आज पलायन के कारण अधिकांश गांवों की भूमि बंजर पड़ी हुयी है। 
उत्तराखण्ड राज्य की इस अठारहवीं वर्षगांठ पर एक प्रश्न मन में अवश्य उठता है कि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी की इस नयार घाटी में क्या कभी फसलंे फिर से लहलहायेगी, दूध-घी की नदियां फिर से बहेगी, वह बहार फिर से लौट सकेगी, खण्डहर हो चुके घरों में क्या कभी फिर से दीया जल सकेगा?

Tuesday, August 07, 2018

राजनीतिक और राजनीति

लोकतंत्र में इतनी स्वतंत्रता तो है कि राजनीतिज्ञों को गाहे-वेगाहे हर कोई कोस सकता है। हाँ, कोसने का अन्दाज सबका जुदा होता है। एक साधारण व्यक्ति और एक कवि की भाषा शैली में अन्तर बहुत होता है। कुमाऊं के सुप्रसिद्ध कवि शेरदा ‘अनपढ और गढरत्न नरेन्द्र सिंह नेगी जी की उलाहना भरी रचनाओं में आप स्वयं ही देख लें।
तुम समाजाक इज्जतदार, हम भेड़-गंवार        - शेरदा अनपढ -
तुम सुख में लोटी रया,
हम दुःख में पोती रया !
तुम स्वर्ग, हम नरक,
धरती में, धरती आसमानौ फरक !

तुमरि थाइन सुनुक र्वट,
हमरि थाइन ट्वाटे-ट्वट !
तुम ढडूवे चार खुश,
हम जिबाई भितेर मुस !
तुम तड़क भड़क में,
हम बीच सड़क में !
तुमार गाउन घ्युंकि तौहाड़,
हमार गाउन आंसुकि तौहाड़ !
तुम बेमानिक र्वट खानयाँ,
हम इमानांक ज्वात खानयाँ !
तुम पेट फूलूंण में लागा,
हम पेट लुकुंण में लागाँ !
तुम समाजाक इज्जतदार,
हम समाजाक भेड़-गंवार !
तुम मरी लै ज्यूने भया,
हम ज्यूने लै मरिये रयाँ !
तुम मुलुक के मारण में छा,
हम मुलुक पर मरण में छा !
तुमुल मौक पा सुनुक महल बणैं दीं,
हमुल मौक पा गरधन चड़ै दीं !
लोग कुनी एक्कै मैक च्याल छाँ,
तुम और हम,
अरे! हम भारत मैक छा,
सो साओ ! तुम कै छा !
@@@@@@


गरीब दाता मातबर मंगत्या        - नरेन्द्र सिंह नेगी -

तुम लोणधरा ह्वैल्या,
पर हम गोर-बखरा नि छां।
तुम गुड़ ह्वै सकदां,
पर, हम माखा नि छां।
तुम देखि हमारी लाळ नि चूण,
तुमारि पूंछ पकड़ि हमुन पार नि हूण।
हम यै छाला तुम वै छाला।
तुमारी आग मांगणू
गाड तरि हम नि ऐ सकदा।
तुमारा बावन बिन्जन, छत्तीस परकार
तुम खुणी, हम नि खै सकदा।
हमारी कोदै रोट्टी, कण्डाळ्यू साग
हमारी गुरबत हमारू भाग।


तुम तैं भोट छैणी छ, त आवा
हमारी देळ्यूं मा खड़ा ह्वा
हत्त पसारा ! .... मांगा !
भगवानै किरपा सि हमुमां कुछ नी, पर
तुमारी किरपा सि दाता बण्यां छां।।

    @@@@@@

Sunday, May 13, 2018

मरास की महत्ता


        आज घर के पिछवाड़े लगभग पांच सौ वर्गफीट के किचन गार्डन में तीन बाय तीन फिट का एक गड्ढ़ा बना दिया है मरास के लिए। फल व सब्जी के छिलके जो पहले कूड़े के ढेर में चले जाते थे अब हम उसे मरास में डालेंगे। बीच-बीच में पलटते रहने से यह जैविक खाद बनेगी और घर के गमलों व किचन गार्डन के काम आयेगी। गढ़वाली भाषा में ‘मरास’ गोबर के ढेर को कहते हैं। घरों में ढोर-डंगरों के मल को एक नियत स्थान पर ढेर बनाकर रखा जाता है और सड़ने पर उसे खाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं। मरास संभवतः ‘मरा’ व ‘अंश’ शब्दों से मिलकर बना होगा। जो कि पहले मराशं, फिर मराश और अब मरास कहकर उच्चारित हो रहा है। कभी-कभी मरास शब्द का प्रयोग केवल एक ढेर के लिए भी होता है। यथा; ‘तै थैंं खाणै पूरी मरास छैन्दि...।’ ‘अफु मरास कर पसर्यूं अर हैका पर हुकम चलौणू....।’(विस्तार में तो गढ़वाली भाषा के महारथी रमाकांत बेंजवाल जी ही बता सकते हैं।)
      
मरास की बात चली तो बचपन की याद आ गयी। गांव के हमारे छः वास(तीन बौण्ड/पाण्डा और तीन ओबरे) वाले घर में मेरा व मेरे चाचा जी का परिवार रहता था। तीन बौण्ड(ऊपर के कमरों) के आगे पूरी लम्बाई में ग्रिल से बन्द बरामदा था और उसके आगे पूरी लम्बाई में ही लगभग डेढ़ फीट चौड़ा पत्थरों की स्लेट का छज्जा। आंगन में उतरने के लिए सीढ़ी दोनों परिवारों की एक ही थी। आंगन के खूंटों पर दोनो परिवारों की कम से कम दो भैंसें व उनके बछड़े तथा बैल बन्धे रहते थे, यानि कि कम से कम सात-आठ पशु। दोनों परिवार अपने-अपने पशुओं का गोबर उठाते और अपनी-अपनी मरास में डाल देते। लगभग डेढ़ सौ घन फीट क्षमता वाला हमारी मरास का गड्ढा छ महीने में तो भर ही जाता था। क्योंकि डंगरों द्वारा खाने से छोड़े गये घास व पुआल के अलावा डंगरों के नीचे बिछाया गया तुंगला व अन्य घास के पत्तों के साथ घर के फल सब्जियों के छिलके और घर के आंगन में पेड़-पौधों से झड़े हुय पत्ते काफी हो जाते थे। हर ढाई-तीन महीने बाद माँ कहती कि ‘जा, मरास पलट दे!’ अर्थात फावड़े से ऊपर का गोबर नीचे और नीचे का ऊपर कर दे, ताकि वह भली-भांति सड़ जाय। तो मैं अक्सर टाल जाता था। भला-बुरा कहते हुये माँ फिर स्वयं ही पलटने लग जाती।
      मरास को पलटते रहने की अहमियत तब पता नहीं थी। मेरी माँ निपट अनपढ़ थी परन्तु कृषिकार्य की समझ उसकी बहुत विकसित थी। कौन सा बीज किस खेत में और कब बोना चाहिए वह भली-भंाति जानती थी। कौन से पौधे की कलम कब, कैसे और कहाँ लगाना है वह जानती थी। आज घर में बेटा व बहू पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय से कृषि में स्नातक/परास्नातक अवश्य हैं परन्तु किचन गार्डन तो छोड़िए उन्हें अपनी नौकरियों के चलते गमलों को देखने तक की फुरसत नहीं है।
      बैसाख, जेठ में जहाँ अरबी, अदरक व हल्दी के खेतों में गोबर डाला जाता वहीं मंगसीर में गेहूं बोने के बाद गोबर अवश्य डालते। गांव के सभी काम सामुदायिकता की भावना से होते थे इसलिए खेतों में गोबर भी औरतें
मिल-जुलकर ही डालती थी। पुरुष फावड़े से खोदकर गोबर झालों(रिंगाल के बड़े टोकरों) में भरता और औरतंें सिर पर रखकर कई-कई फेरों में गोबर को खेतों तक पहुँचाती। औरतों का झुण्ड गोबर के भारी-भारी टोकरे सिर पर होने के बावजूद हँसते-बातें करते हुये घर से खेत के बीच का फासला तय करती और खिलखिलाते व ठिठोली करते हुये वापस लौटती। खेतों में गोबर डालने की इस प्रक्रिया को गढ़वाली भाषा में ‘मळवार्त’ कहा जाता और मळवार्त के दिन इन मेहनतकश औरतों को दोपहर का भोजन, शाम को चाय के साथ घी का हलुवा या आलू-प्याज की पकोड़ी और रात को लबा-लब घी के साथ गरमा-गरम लड़बड़ी दाल भात।

Monday, March 19, 2018

बसन्त ऋतु के बहाने



  जब डाण्डी-काण्ठी में बर्फ पिघलने लगती, ठण्डी चुभती हवाओं से निजात मिलने लगती, घाटियों में फ्यूंली और खेतों में सरसों का पीलापन छा जाता और गुदड़ी में देर तक दुबकने की अपेक्षा मन बाहर भागने के लिये मचल उठता तब लगता था कि सचमुच बसन्त आ गया है। यह बचपन की बात है।  
    चैत की पहली सुबह मुहँ अन्धेरे ही आधी-अधूरी नींद की खुमारी में षाम को धो-धाकर रखी गयी फुलकण्डी (रिंगाल की बनी छोटी टोकरी) उठाते और चल पड़ते ताजे फूल चुनने। तब घर-घर षौचालय नहीं थे इसलिये गाड-गदेरे या नहर किनारे निवृत्त होकर फुर्ती से फूल चुनने लगते। फूलदेई का नियम है कि सूरज उगने से पहले ही फूल घर की देहरी पर डाले जायें। अपने घर में ही नहीं अपितु आस-पास के उन घरों की देहरियों पर भी जिन घरों में अकेले बुजुर्ग या केवल वयस्क रह रहे हों (रिष्ते निभाने के लिये कम लोभवष ज्यादा)। चैत्र मास के अन्त में अर्थात पापड़ी (बैषाख) सक्रान्ति को ऐसे घरों से आषीर्वाद के अतिरिक्त थोड़ी-बहुत नगदी जो मिल जाती थी।

    भिलंगना की उपत्यका में बसे मेरे गांव सान्दणा से टिहरी (अब जलमग्न) दो मील हवाई दूरी और लगभग ढाई सौ मीटर गहराई पर दक्षिण पष्चिम में है जबकि मेरी माँ का मायका कठूली लगभग एक मील हवाई दूरी पर ही उत्तर-पूर्व में सौ मीटर ऊँचाई पर स्थित है। चौथी-पांचवी कक्षा में चम्पाधार स्कूल जो कि मेरे गांव व कठूली के बीच था, में पढ़ाई की तो स्कूल से छुट्टी होने के बाद महीने में एक-दो बार मैं अपने सहपाठी कठूली के सयाणा मामा के बेटे बल्ली (बलवीर) के साथ ननिहाल चला जाता था। पांचवीं कक्षा में रहा हूँगा जब एक बार चैत षुरू होने से ठीक एक दिन पहले कठूली गया तो बल्ली ने कहा कि चलो एक घर बनाते हैं। घर या घरौन्दा बनाने के मूल में एक मन्दिर बनाने व प्रकृति पूजा का भाव रहता होगा षायद। मैंने झट से हाँ कर दी, इसलिये कि यह मेरे लिये नया अनुभव था, हमारे गांव में इस तरह के घरौन्दे बनाने की परम्परा जो नहीं थी। इस काम में मैंने बढ़-चढ़ कर उसका साथ दिया। मन्दिरों की आकृति का ठीक-ठाक ज्ञान न होने के कारण उसके घर के आंगन के एक कोने में हमसे जो बना वह आम घरों की भांति ही था- वही दो मंजिला घर। स्वयं हमने गोबर-मिट्टी से उस घर की लिपाई की और ढालदार छत के साथ प्रतीक रूप में सामने दरवाजे खिड़कियां भी बना दी। दूसरी सुबह चैत की पहली तारीख को हम दोनों ने सुबह चुनकर लाये गये ताजे फ्यूंली, लैण्टाना, ग्वीर्याळ, डैंकण आदि के फूलों से उस घराैंदे को सजाया और अनाम देवी/देवता की पूजा कर व आषीर्वाद लेकर स्कूल चले गये। उस चैत महीने में कम से कम पाँच-छः बार मैं स्कूल से सीधे कठूली गया, केवल इसलिये कि उस घर की देखभाल कर फूल चढ़ा सकूं और आषीर्वाद ले सकंू। सच कहूँ तो मन में कहीं यह आषंका भी थी कि ऐसा न हो कि घरौन्दा बनाने और पूजा करने का सारा प्रतिफल अकेले बलवीर को ही मिल जाय और मैं रीता ही रह जाऊँ।
(आज बलवीर हिन्दुस्तान के सबसे खूबसूरत शहर चण्डीगढ़ में बस गया है और मैं देहरादून वाला हो गया।)

Tuesday, August 29, 2017

पलायन की पीड़ा

आज सुबह रेडियो पर एक गीत सुन रहा था। गीत का मुखड़ा है;
   ‘‘बूझ मेरा क्या नांम रे, नदी किनारे गांव रे।
  पीपल झूमे मोरे आंगना, ठण्डी-ठण्डी छांव रे।.........’’

     गीत गुरूदत्त के प्रोडक्शन में बनी, राजखोसला द्वारा निर्देशित और देव साहब, वहीदा रहमान व शकीला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘सी आई डी’ का है। यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखा गया, ओ. पी. नैयर साहब केे संगीत निर्देशन में तैयार किया गया है और सुरीली आवाज है शमशाद बेगम की। गीत भीतर तक झकझोर गया। हर शब्द मन में गहरे उतर गये। तपती दोपहरी में जैसे भटकती हुयी बदलियां बरस जाये। मन के किसी कोने फिर तो मिट्टी की सोंधी गंध, पीपल की ठण्डी बयार और नदी की कलकल ध्वनि का प्रभाव छाने लगा।     महानगरों में पली-बढ़ी युवा पीढ़ी इस गीत के मायने शायद ही जान पाये। युवा पीढ़ी ही क्यों   वे भी तो कहाँ जान पाते हैं जोे गांव के होते हुये भी गांव का सुख नहीं उठा पाये। और जो हम इस गीत का अर्थ जान पा रहे हैं, समझ रहे हैं वे भी तो मन मसोस कर रह रहे हैं। जी चाहता है सारे बन्धन तोड़कर लौट जायें अपने गांव। शहर की छाया से दूर, शहरी व्याधियों से मुक्त अपने गांव। वहाँ जहाँ बस गांव हो, खेत-खलिहान हो, पानी से भरी नहरें हों, चारों ओर हरियाली हो, खेतों में खुशहाली हो, पक्षियों का कोलाहल हो, बहते झरने हों और अपने लोग हों। बस।
    परन्तु दूसरे ही पल सोचता हूँ क्या सचमुच हम गांव में रह सकेेंगे। गांव में रहने लायक साहस जुटा सकेंगे कभी। नहीं शायद। सच! सुविधाओं के किस कदर दास बन गये हम। कितने लाचार हैं हम। कितने बेवश। बहुत सुविधाभोगी भी तो जो हो गये हैं हम। काश !!...........

Friday, August 18, 2017

अद्भुत-अनोखी है अनुगूंज हमारे ढोल की

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ढोल पूड़ बैठ्यां तेरा सुर्ज चन्दरमा। कुण्डली मां नागदेव, कन्दोटी ब्रह्मा।
कन्दोटी ब्रह्मा, डोरी गणेश कु वास।। चार दिना कि चान्दना ....       भाई नरेन्द्र सिंह नेगी जी की आवाज में ‘सुरमा सरेला’ का यह गीत तो सबने सुना होगा। ढोल दमाऊं गढ़वाल, कुमाऊँ ही नहीं अपितु जौनसार, हिमाचल व जम्मू आदि हिमालयी क्षेत्रों का प्रमुख वाद्ययंत्र है। ढोल क्या है, इसकी उत्पति कैसे हुयी इसका विषद वर्णन ‘ढोलसागर’ में वर्णित है। 
 ढोलसागर शिव-पार्वती संवाद के रूप में लिखा गया ग्रन्थ है। माना जाता है कि ढोलसागर ग्रन्थ ‘शंकर वेदान्त’ अर्थात ‘शब्द सागर’ का छोटा रूप है। ढोलसागर के प्रथम भाग को ‘जोगेश्वरी ढोलसागर’ कहा जाता है जिसमें सृष्टि की उत्पति के बारे में है। नाथपन्थ का इस भाग पर पूरा प्रभाव माना जाता है। ग्रन्थ के दूसरे भाग में ढोल का वर्णन, उसकी उत्पति तथा उसके बजाने की कला का सुन्दर वर्णन है। इसे ‘चिष्टकला ढोलसागर’ कहा जाता है। ढोलसागर ताल संबन्धी ग्रन्थ भी है और ताल का प्रणेता शिव को माना गया है। ताल का अर्थ शिवशक्ति (ता-शिव तथा ल-शक्ति) माना जाता है, इसलिये शिव-शक्ति को ढोल की आत्मा स्वीकारा गया है। आदि ढोल का नाम इसलिये ‘शिवजन्ती’ भी कहा गया है।
Image may contain: 2 people, people standing देवताओं का आह्वाहन और उन्हें अवतरित करने मंे सिद्धहस्त होने के कारण ही आवजियों को ‘देवदास’ कहा जाता है और ढोलसागर का ज्ञाता होने के कारण ‘सरस्वति पुत्र’ भी। .... जीवनस्तर सुधारने व विकास के नाम पर आज पलायन पूरे देश ही नहीं अपितु पूरे विश्व के सभी समाजों में व सभी स्तर पर हो रहा है। ऐसे में संक्रमण के इस दौर में आवजियों/बाजगियों द्वारा भी उन्नत जीवनयापन के लिये या अन्य कारणो से अपने पेशे से मुहँ मोड़ लेने के कारण पर्वतीय समाज में एक प्रकार की सांस्कृतिक शून्यता सी आ गयी है।
भारतीय संगीत शास्त्र में समय व मौसम के अनुसार रागों का वर्णन है। उसी प्रकार ढोलसागर में भी समय, मौसम तथा परिस्थितियों के लिये अलग-अलग तालों का वर्णन है। आवजियों द्वारा मुख्यतः बढ़ै या बढ़ई, धुयेंळ या धुयांळ, शब्द या शबद, रहमानी अर्थात अभियान और नौबत ताल ही बजाये जाते हैं। परन्तु परिस्थिति विशेष के अनुसार वे अन्य ताल भी उतनी ही शिद्दत से बजा सकते हैं। आवजी/बाजगी के पास ज्ञान का अनन्त भण्डार माना जाता है, उनको सरस्वति पुत्र कहने के पीछे भी तर्क यही है। क्योंकि लौकिक अलौकिक ही नहीं उससे परे भी जो है, उन पर आवजी की पकड़ मानी जाती है।
दो वर्ष पहले माननीय हरीश रावत जी की सरकार में संस्कृति विभाग के सौजन्य से देहरादून में आयोजित ‘झुमैलो’ कार्यक्रम यादगार बन गया था और आज माननीय सतपाल महाराज जी के प्रयास से संस्कृति विभाग द्वारा ही गंगाद्वार अर्थात हरद्वार में ‘उत्तराखण्ड की लोक परम्परा में आदि नाद ढोल-दमाउं’ अर्थात ‘नमोनाद’ का आयोजन किया गया। इसके लिये महाराज जी व संस्कृति निदेशालय, उत्तराखण्ड को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया ही जाना चाहिये। महाराज जी के प्रेमनगर आश्रम के ‘गोवर्धन हॉल’ में उत्तराखण्ड के विभिन्न जनपदों से आये हुये एक साथ बारह सौ से अधिक ढोलियों को देखना और सुनना अविस्मरणीय अनुभव है। इसकी अनुगूंज उत्तराखण्ड के वायुमण्डल में लम्बे समय तक रहेगी। उनका यह प्रयास निस्सन्देह ढोलियों के बीच सामुहिकता व सामुदायिकता की भावना को अंकुरित करेगा ही साथ ही उन्हें इस आयोजन द्वारा अपने को आंकने/परखने का मौका मिला है जिससे वे अपनी इस कला को और भी निखारेंगे। सोने को निरन्तर तपाकर निखारने की कला में सिद्धहस्त भाई प्रीतम भरतवाण और सबसे संवाद व इतनी अधिक लोगों के लिये व्यवस्था बनाये रखने के लिये हमें भाई बलराज नेगी जी का भी आभार करना नहीं भूलना चाहिये।

Saturday, December 10, 2016

वीर सैनिकों की स्मृति में आयोजित खलंगा मेला

                    देहरादून में एक लम्बा अरसा बीत गया। परन्तु हर वर्ष आयोजित होने वाले खलंगा मेले में जा ही नहीं पाया। कई बार सोचता परन्तु....। इस बार ‘बलभद्र खलंगा विकास समिति, नालापानी, देहरादून’ द्वारा आयोजित मेले के लिये समय निकाल ही लिया। कई मित्रों को फोन किया परन्तु सब कहीं न कहीं व्यस्त थे। वरिष्ठ पत्रकार व कवि चेतन खड़का जी ही साथ दे पाये। हमेशा सोचता कैसा है वह नालागढ़ जिसे दो सौ वर्ष पूर्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फौज हजारों सैनिकों की कुर्बानी के बाद भी लम्बे समय तक नहीं भेद पायी। हजारों पैदल, सैकड़ों घुड़सवार सैनिक तथा प्रचुर मात्रा में बन्दूक, गोला-बारूद, तोप से लैस अंग्रेज सेना की क्या परेशानी रही कि मुठ्ठी भर गोरखा सैनिकों को एक ही बार के आक्रमण में नहीं जीत पाये, जैसे कि उन्हें आशा थी। गोरख्याणी(गोरखा शासन) से त्रस्त गढ़वाल की प्रजा व राजा के साथ देने पर भी गोरखा सैनिकों के अन्दर
इतना आत्मबल कहाँ से आया कि उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना के नाकों चने चबवा दिये।
                देहरादून शहर के उत्तर-पूरब में लगभग आठ किलोमीटर दूरी पर और ननूरखेड़ा, मंगलूवाला, बझेत, अस्थल व किरसाली गांव के मध्य साल के घने जंगल के बीच लगभग 850 मीटर पर स्थित यह दुर्ग नुमा क्षेत्र वास्तव में बहुत दुर्गम है। आज भले ही वहाँ तक सड़क बन गयी है परन्तु दो सौ साल पूर्व की स्थिति की कल्पना की जा सकती है। वीर गाथा प्रकाशन, विद्याभवन-दोगड़ा-गढ़वाल द्वारा प्रकाशित डॉ0 शिवप्रसाद डबराल की पुस्तक ‘गोरख्याणी’ में ‘खलंगा’ का अभिप्राय ‘सैन्य शिविर’ है। इतिहासकारों के अनुसार गोरखा शासन गढ़वाल, कुमाऊँ व सिरमौर राज्यों के लिये एक काला अध्याय है। गोरखा शासन के  मात्र बारह साल के अल्पकाल में जो अत्याचार हुए वह सैकड़ों वर्ष के शासनकाल में मुगलों ने भी नहीं किया और न ही अंग्रेजों ने। प्रजा की दुर्दशा पर मोलाराम की कविता उस काल की साक्षी है।
‘मालक रहा न गढ़ मैं मुल्क षुवार हो गया।
साहेब गुलाम पाजी सब इकसार हो गया।
काजी करै न काज सित्मगार हो गया।
रैयत पै जुल्म जोर बिसियार हो गया।
क्या षूब श्रीनग्र था उजार हो गया।...........’

बहरहाल! इतिहास में इतना कुछ अंकित है कि पढकर रांेगटे खड़े हो जाते हैं।
                         खलंगा मेले में भ्रमण के दौरान एक मित्र का फोन आया। कहने लगे ‘यह तो गढ़वालियों के लिये गुलामी का प्रतीक है और गढ़वालियों को इसमें शामिल ही नहीं होना चाहिये।’ मैंने कहा कि ‘लाल किला, ताजमहल आदि ही नहीं संसद भवन, गेटवे ऑव इण्डिया आदि भी तो गुलामी के प्रतीक हैं। देहरादून में एफ. आर. आई. के भवन, सर्वे ऑव इण्डिया की व्यवस्था आदि भी तो गुलामी की प्रतीक है। तो क्या हमें उनसे भी
दूर रहना चाहिये?.......’ खैर।
                        शहर से दूर होने के कारण मेले में ज्यादा भीड़ नहीं थी। मंच पर सांस्कृतिक कार्यक्रम सुबह ग्यारह बजे से देर तक चलते रहे। परन्तु दिन में ध्यान अक्सर भटक जाता है जिससे लोग इतना लुत्फ नहीं
उठा पाये। मेले में सेलु रोटी, भुटवा, चना छोला, चोमिन, मोमो आदि खूब बिक रहा था। पहली बार मैंने भी लहसुन प्याज की चटनी के साथ सेलु रोटी खायी। मेला स्थल से लगभग तीन सौ मीटर ऊपर पहाड़ी पर बलभद्र खलंगा युद्ध स्मारक (1814) देखने भी गये। इतनी ऊँचाई से देहरादून का विंहगम दृश्य देखकर बहुत अच्छा लगा। सोचा यदि यह मेला तीन-चार दिन चलता तो परिवार सहित अवश्य आता। वायु ध्वनि प्रदूषण आदि से मुक्त इस घने जंगल के बीच में कुछ पल गुजारना किसे अच्छा नहीं लगेगा।

Sunday, August 14, 2016

भारतवर्ष में बाल मजदूरी और बाल श्रम कानून

                                   आज मोटर वर्कशॉप, होटलों, दुकानों, घरों, खदानों में, बैण्ड पार्टी में या कबाड़ बीनने वाले के साथ नाबालिग बच्चों को देखकर हम द्रवित हो उठते हैं, हमारे मन में उन बच्चों के प्रति दया उमड़नी स्वाभाविक है। हम दुनिया और ईश्वर को कोसने लग जाते है। परन्तु प्रायः दूसरे ही पल हम व्यवहारिक व व्यवसायिक भी हो जाते हैं, बल्कि कभी-कभी हम उत्पीड़न करते उनके मालिकों की हाँ में हाँ भी मिलाने लग जाते हैं। विडम्बना ही है कि जिस उम्र में बच्चों को स्कूल पढ़ना चाहिये था उस उम्र में वे दो वक्त की रोटी के फेर में अपने मालिकों के हाथों पिट रहे होते हैं। हाय रे भाग्य!
                                     हमारे देश में गरीबी एक ज्वलन्त समस्या
है। जिसके लिये गरीब परिवार के अधिकाधिक सदस्यों को जीविकोपार्जन के लिये दौड़ना-भागना पड़ता है। उच्च व मध्यम वर्ग अपने बच्चों की परवरिश व शिक्षा-दीक्षा भली भांति कर सकता है। वहीं निम्न मध्यम वर्ग भी येन-केन प्रकार से अपने बच्चों के लिये भोजन व शिक्षा की व्यवस्था कर लेता है। परन्तु गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले परिवारों को अक्सर मजबूरन अपने नाबालिग बच्चों को भी मजदूरी की तपिश में झोंकना पड़ता है।
                            भारतवर्ष में बाल श्रम को रोकने के लिये ‘बाल श्रम (निषेध व निवारण) अधिनियम 1986 (1986 की अधिनियम संख्या-61)’ में स्पष्ठ उल्लेख है कि बाल श्रमिकों को कुछ विशेष कार्यों में संलिप्त नहीं
किया जा सकता। और ऐसा करने पर अधिनियम की धारा-3 के अनुसार न्यूनतम तीन माह सश्रम कारावास का प्राविधान है। यदि इस अधिनियम को शक्ती से लागू किया जाये तो बाल श्रम रोका जा सकता है।
चिन्तन: अन्धकारमय जीवन जी रहे ऐसे बच्चों के लिये हम या हमारा समाज क्या कुछ कर सकता है?
     

Sunday, July 17, 2016

पातीण और पातनी देवी

        पिछले साल विजय दशमी पर गांव जाना हुआ। ट्राली(Rope way) से टिहरी झील पार की और पैदल गांव को चल पड़ा। सोचा दो मील की दूरी के लिये गाड़ी का इन्तजार क्यों करूं। आधा मील ही पहुँचा कि मेरे गांव व मदननेगी जाने वाले रास्ते के मिलान पर पातनी (पातीण) देवी में हाथ स्वतः ही जुड़ गये। पीठ से बैग उतार कर नीचे रखा, यंत्रवत पास ही पातीण के झुरमुट से कुछ पत्तियां तोड़कर देवी के थान पर चढ़ाकर आशीर्वाद लिया और बैठ गया। मेरे गांव के आस-पास ही पातनी देवी के कई थान (स्थान) हैं। गांव से मदननेगी, चम्पाधार, माण्डू होते हुये कठूली जाने वाले रास्ते पर और एक यह अर्थात अलग-अलग दिशा को जाने वाले रास्तों पर। हमारे क्षेत्र के अन्य गांवों के रास्तों पर भी पातनी देवी के  कई थान हैं। पातनी देवी के थान से मतलब बिना किसी ढांचे का मन्दिर। जिसमें दीप, धूप, चढ़ावा आदि कुछ नहीं चढ़ता। दो-चार पत्ते पातीण के डाल दो और हाथ जोड़ दो। रास्ते किनारे ढलान से ऊपर की ओर प्रतीक के तौर पर एक-दो पत्थर और पातीण के कुछ सूखे व हरे पत्तों का ढेर का नाम है पातनीदेवी का थान।
         आखिर क्या है पातनी देवी? माना जाता है कि धर्म की अवधारणा व्यक्ति को अनुशासन में रखने के लिये हुयी है। सामाजिक बन्धनों के साथ-साथ मनुष्य धार्मिक बन्धनों में बान्धने से ही अनुशासित रह सकता है, हमारे पूर्वजों की सोच रही है। लाखों, करोड़ों देवी-देवताओं का उल्लेख हमारे धर्मशास्त्रों में है। तैंतीस करोड़ देवताओं की ‘लिस्ट’ मंे पातनी देवी है या नहीं, कुछ कह नहीं सकता। मेरा मानना है कि पातनीदेवी के थान के मूल में सम्भवतः पातीण के पौधों को समूल नष्ट होने से बचाना भी रहा हो।
उत्तराखण्ड हिमालय में 2000 से 5000 फीट ऊँचाई तक पाये जाना वाला पातीण वह पौधा है जिसे पालतू पशुओं के नीचे बिछाया जाता है- पशुओं को आराम देने की भावना से। परन्तु मूलतः गोबर खाद तैयार करने के निमित्त। यह जौनसार में निनस, निनावा व निनावं, गढ़वाल में तुंगला व पातीण तथा कुमाऊँ में तंग नाम से जाना जाता है। इसे हिन्दी में तुंगला व संस्कृत में तिन्त्रिणी कहा जाता है। अंग्रेजी नाम small flowered poison sumac है और वानस्पतिक नाम Rush parviflora है। जैसा कि संस्कृत नाम(तिन्त्रिणी अर्थात तीन तृण) से ही स्पष्ठ है कि इसकी शाखा पर 0.6 से 2 इन्च आकार के तीन पत्ते फूटते हैं, जिसमें ऊपर का पत्ता बड़ा और आशमान की ओर सिर उठाये होता है जबकि उसके नीचे आमने-सामने के पत्ते छोटे व लम्बवत होते हैं। मई, जून में जहाँ पातीण पर फूल निकलने शुरू हो जाते हैं, वहीं जुलाई, अगस्त में फल पड़ते हैं। तोर के दानों से भी छोटे अर्थात लगभग चार-पाँच मिलीमीटर ब्यास के इसके फल पकने पर हरे से भूरे रंग में बदल जाते हैं। आयुर्वेदिक औषधि के लिये विख्यात अंगूर की भांति गुच्छों के रूप में लदे इन फलों को चिड़िया, गिलहरी, बन्दर ही नहीं बल्कि वनों पर आश्रित पशुचारक, घसियारिनें आदि भी बड़े चाव से खाते हैं।
         पातीण व पातनी देवी से जुड़ी अनेक यादें है। उपयुक्त जलवायु होने के कारण हमारे गांव के उत्तर, दक्षिण व पूरब में पातीण बहुतायत में है। अतः छुट्टी के दिन घर से आदेश मिलता कि अपनी सामर्थ अनुसार खाली बोरी ले जाओ और पातीण काट कर लाओ। यह तीन-चार घण्टे का ही कार्य(हॉफ डे टास्क) होता। परन्तु मन मुताबिक साथी मिल गये तो हम पूरा दिन भी लगा लेते एक बोरी पातीण काटने में। बोरी ठूंस ठूंस कर भर देने के बाद उसे जंगल में साफ जगह पर रख कर कभी बाधा दौड़ में बाधा(हर्डल) के तौर पर बोरियों को रखा जाता और दौड़ लगाते। कभी दौड़कर आते और बोरियों के ऊपर कूदते, यानि बोरियां गद्दों के रूप में इस्तेमाल होती। घर लौटते समय जहाँ हल्की ढालूदार साफ जगह मिलती वहाँ बोरियां नीचे रख दी जाती और लातों से बोरी धकियाकर कुछ दूरी तय कर लेते। एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि जंगल में दिशा-शौच को गये और पानी नहीं मिला। वापसी पर रास्ते में पातनीदेवी का थान पड़ा तो पातनी देवी अपवित्र न हो जाये, इस भावना से थान से एक निश्चित दूरी बनाने के चक्कर में हाथ-पैर कांटों से बुरी तरह छिल गये। चार-पाँच साल पहले एक शाम चम्पाधार होतेे हुये गांव लौट रहा था तो रास्ते में पातीण की आड़ में एक जोड़ा प्रेमालाप में लीन था। पलायन और घरों में ढोर-डंगर कम होने के कारण जंगल में पातीण के बड़े-बड़े झुरमुट जो हो गये हैं।

Friday, July 01, 2016

मेरी प्यारी घुघुती जैली

         घुघुती का महत्व किसी अन्य क्षेत्र के लिये कितना है कहना मुश्किल है। परन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती सबके गले की घुघुती है। चैत-बैसाख की बात हो और घुघुती न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। खुदेड़(विरह) गीतों की बात हो और घुघुती न हो ऐसा भी नहीं हो सकता। घुघुती हमारे लोक में इस तरह रच-बस गयी है कि हम घुघूती के बिना गांव की कल्पना ही नहीं कर सकते। गांव याद आता है तो गांव में घुघुती याद आ जाती है। कभी ओखली के आस-पास, कभी चौक में, कभी बर्तन धोने वाली जगह पर, कभी छत की मुण्डेर पर और कभी आंगन किनारे खड़े पेड़ों पर।
       घुघुती की महत्ता हमारे लिये कितनी है यह आप समझ सकते हैं; बचपन में दादी, नानी अक्सर एक लोरी सुनाया करती थी- ‘‘घुघुती, बासुती, क्या खान्दी, दूधभाती.......’’
       किशोरावस्था में रेडियो पर एक गाना सुनते; ‘‘ना बास घुघुती चैत की, खुद लगीं छ माँ मैत की।......’’.
      पिछली सदी के आठवें दशक में अक्सर गोेपाल बाबू गोस्वामी के स्वर में यह गाना जरूर बजता था; ‘‘आमा की डायी मां घुघुती न बासा, घुघुती न बासा......’’
     फिर नेगी जी का जमाना आया तो उनके स्वर मेें यह गीत प्रायः सुनाई पड़ता; ‘‘घुघुती घुरॉण लगीं म्यारा मैत की, बौड़ी-बौड़ी ऐगे ऋतु ऋतु चैत की।.......’’
      नेगी जी ने तो उपमा केे तौर पर भी घुघुती की सांकी(गर्दन) को महत्ता दी है; ‘‘कख बटि लै होली घुघुती सी सांकी, कख पायी होली स्या छुंयाळ आँखी....’’
       और अब किशन महिपाल जी तो घुघुती वाले इस लोकगीत के साथ माणा से मुम्बई तक धूम मचाये हुये है; ‘‘किंगर का छाला घुघुती, पंगर का डाळा घुघुती, भै घुर घुरॉन्दि घुघुती, फुर उड़ॉन्दि घुघुती......’’
      हिन्दी फिल्म या साहित्य में कबूतर को पत्रवाहक के रूप में दिखाया जाता है। परन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती पत्रवाहक नहीं स्वयं सन्देशवाहक के रूप में गीतों में मौजूद है;   ‘....उड़ि जा ऐ घुघुती न्हैं जा लदाख, हाल म्यरा बतै दिया म्यारा स्वामी पास।.....’
या फिर- ‘...मेरी प्यारी घुघुती जैली, मेरी माँजी तैं पूछि ऐली।.......’
      घुघुती हमें कितनी प्रिय है वह इस बात से देखा जा सकता है कि मुम्बई में बसी उत्तराखण्डी एक महिला का ब्लॉग का नाम ही है ‘घुघुती बासुती’।
       कूर्माचल सांस्कृतिक परिषद, देहरादून की स्मारिका का नाम भी है ‘घुघुती’।
        और हिन्दी साहित्य की कहानी, कविता, सम-सामयिक आदि विभिन्न विधाओं पर सतत लेखन करने वाले स्वनाम धन्य विद्वान लेखक देवेश जोशी जी ने अपनी एक किताब का नाम ही रख डाला है ‘घुघुती ना बास’
.         .इससे यह सोच सकते हैं कि घुघुती हमारे लोकजीवन व जनमानस में कही गहरी छाप छोड़े हुये है जिसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।

Monday, June 13, 2016

और हमारे गांव का सेळ्वाणि सूख गया।

                 पिछले महीने एक शादी के सिलसिले में गांव गया तो भोपाल सिंह भाई जी ने बताया कि सेळ्वाणि सूख गया है। यह अप्रत्याशित तो नहीं था फिर भी मुझे धक्का पहुँचा। लग भी रहा था कि वह सूखने वाला है। क्योंकि इधर कई वर्षों से सेळ्वाणि के ऊपर वाले सैकड़ों खेत बंजर हो गये हैं। जलवाल गांव व खोला गांव के उन खेतों में फसल नहीं बोयी जा रही है और जब फसल नहीं तो न हल चलाया जा रहा है और न सिंचाई ही। फिर वर्षा का औसत भी तो वर्ष दर वर्ष कम हो रहा है। जमीन रिचार्ज कहाँ से होगी? थोड़ा बहुत जो बरसता है वह कब तक रिसेगा?
               सेळ्वाणि अर्थात प्राकृतिक जलस्रोत। जिसे गढ़वाल में धारा या मंगरा भी कहा जाता है। सेळ्वाणि शब्द शायद सेळि शब्द से बना है शायद। सेळि अर्थात ठण्डक पड़ना, सकून मिलना। गरम दोपहरी में ठण्डा पानी मिल जाये तो ‘सेळि पड़गी’ या बच्चा देर से घर लौटे तो ‘अब पड़ी जिकुड़ा सेळि’ अक्सर कहा जाता है। सेळि में पाणी शब्द जुड़ने से ही यह सम्भवतः सेळ्वाणि बना होगा। हमारे गांव का सेळ्वाणि मेरे लिये केवल धारा या मंगरा नहीं था, बल्कि इसके साथ मेरी अनेक खट्टी मीठी यादें भी जुड़ी हैं।

                 पाईप लाईन द्वारा पीने का पानी हमारे गांव में मेरे जन्म से पहले ही पहुँच गया था। गांव के आगे आंगन की तरह फैले खेतों में सिंचाई के लिये तीन नहरें है, पानी की कमी नहीं है। फ्रिज का जमाना नहीं था इसलिये बैसाख-जेठ की प्यास सेळ्वाणि से ही बुझती थी। गरमियों में स्कूल की छुट्टियां होती और सेळ्वाणि पानी लाने की ड्यूटी लड़कों की होती। यह गांव से लगभग आधा मील दूर उत्तर-पश्चिम में गाड(पहाड़ी नदी) के किनारे है। सेळ्वाणि लाने के बहाने अपने-अपने बर्तन लेकर हम शाम को जल्दी ही निकल पड़ते। रास्ते में हमारी बानर सेना लोगों के खेतों से टमाटर, ककड़ी, प्याज या कच्चे आम चुराकर गाड में बड़े-बड़े गंगलोढ़ों पर बैठकर घर से लाये हुये नमक के साथ खाते। लम्बी-लम्बी बातें हांकते, एक-दूसरे से झगड़ते और रोज डेढ़-दो घण्टा बरबाद करके घर लौटते। घर में अक्सर डांट पड़ती। परन्तु हम थे कि कभी नहीं सुधरे। सेळ्वाणि से जुड़ा एक किस्सा और भी है। भाषली गांव के किशोर सिंह पढ़ाई के लिये अपनी फुफू के पास हमारे गांव आया। वह मेरे से एक क्लास सीनियर था। उसके हाथों में एक बार चर्मरोग हो गया। उसके फूफा (स्व0 भगत सिंह खरोला) ने उसे कहा कि वह रोज सुबह सेळ्वाणि जाकर नहाये, जैसे कोई सजा सुना दी हो। परन्तु मजबूरन उसने बात मानी और ताज्जुब कि एक-दो माह में ही रोग दूर हो गया।

         नौकरी के दौरान भी गांव जाने पर मदननेगी आते-जाते मैं सेळ्वाणि में अवश्य रुकता। ठण्डा पानी पीकर वहाँ पर घड़ी भर बैठना भी न भूलता। फिर मन में खयाली पुलाव पकाता कि यदि कभी बहुत सारा धन मेरे पास आ जायेगा तो वहाँ एक-दो अच्छे बाथरूम और शेष पानी को रोककर एक पूल बनाऊँगा, जहाँ पर गांव के लड़के खुल कर नहा सके। परन्तु नौकरी से पेट का गड्ढा ही नहीं भरता कभी। जितना मिले कम ही कम। बहरहाल।

             सेळ्वाणि सूख गया है। घर-घर में अब फ्रिज हैं, इसलिये शायद गांववालों को इसकी कमी नहीं अखरेगी। परन्तु इस तरह हमारे प्राकृतिक जलस्रोत सूख जाना चिन्ता का विषय तो है ही। खेती-बाड़ी से मोहभंग और पलायन का ही परिणाम है यह।

Saturday, September 05, 2015

फिल्म समीक्षा - मांझी : दि माउण्टेन मैन

        किसी भी फिल्म की सफलता के लिये आवश्यक होता है कुशल निर्देशन, मंझे हुये सितारे, एक अच्छी कहानी, बेहतरीन पटकथा, कसे हुये संवाद, कर्णप्रिय गीत-संगीत आदि आदि। परन्तु कभी कुछ फिल्म केवल कुशल निर्देशन या अच्छी कहानी या बडी स्टार कास्ट या गीत-संगीत के बल पर भी चल पड़ती है। और कभी सब कुछ ठीक-ठाक होने के बावजूद भी फिल्म अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाती है। ऐसे कई उदाहरण है जब बड़े बजट की फिल्म बॉक्स आफिस पर लुढ़क गयी और छोटे बजट की फिल्म झण्डे गाड़ गयी, दर्शकों की वाहवाही बटोर ले गयी।
    केतन मेहता द्वारा निर्देशित और नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, पंकज त्रिपाठी, गौरव द्विवेदी, अशराफुलहक, दीपा साही, तिग्मांशु धूलिया, प्रशान्त नारायण आदि द्वारा अभिनीत फिल्म मांझी: दि माउण्टेन मैन की रिलीज के दिन से ही देखने की उत्सुकता थी, परन्तु देखकर निराशा ही हाथ लगी।  होली, सरदार, भवनी भवाई, मिर्च मसाला, मंगल पाण्डे: द राईजिंग व रंग रसिया जैसी एक से एक बेहतरीन फिल्म देने वाले केतन मेहता जी शायद अबकी चूक गये। लगा जैसे इस फिल्म में सारी जिम्मेदारी नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे केे कन्धों पर डालकर वेे चुपचाप जाकर कैमरे के पीछे बैठ गये। इतनी चर्चित और दमदार कहानी हाथ आने और अभिनय के क्षेत्र में अपना लोहा मनवा लेने वाले कलाकार साथ होने के बावजूद फिल्म में कहीं कोई कसाव नहीं, कहीं गति नहीं, कोई रवानगी नहीं। फिल्म देखते समय यह उत्सुकता ही नहीं जागती कि अब आगे क्या होगा, आगे क्या होगा। जैसा कि अमूमन हर फिल्म देखते हुये या कहानी-उपन्यास पढ़ते हुये होता है। हॉल में अन्तिम समय तक इसलिये बैठे रहे कि घर से इस बहाने निकले हुये थे और फिर टिकट खरीद रखी थी।
     -गांव में एक हरिजन पुरूष के जूते पहन लेने पर दबंग सवर्णों द्वारा उसके पांव काट दिये जाते हैं। परन्तु कोई आक्रोश नहीं, कोई प्रतिकार नहीं। यहाँ तक कि गांव में दबी जुबान भी कोई चर्चा नहीं करता। बीसवीं सदी की नहीं चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी की घटना हो जैसे।
     -बचपन में घर से भाग जाने के बाद दशरथ मांझी सात साल बाद जब गांव लौटकर आता है तो सवर्णों द्वारा उसकी पिटाई कर दी जाती है परन्तु उसके चेहरे पर पीड़ा नहीं दिखायी देती और न ही कोई आक्रोश झलकता है। इस घटना को बिल्कुल सहजता से ले लेता है वह।
     -गहलोर गांव की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का फिल्मांकन कमजोर है जबकि मदर इण्डिया की भांति उनकी निर्धनता को बेहतरीन ढंग से दर्शाया जा सकता था। यहाँ तक कि शादी के बहाने उस क्षेत्र के लोकगीत, लोकनृत्यों को फिल्माये जाने की संभावना थी। परन्तु निर्देशक चूक गये।

     -हासिल, मकबूल, पान सिंह तोमर आदि फिल्मों का निर्देशन कर और गैंग्स ऑव वासेपुर फिल्म में अपने अभिनय का लोहा मनवा लेने वाले तिग्मांशु धूलिया की भूमिका प्रभावहीन रही। न कहीं कोई रौब, न ठाकुरों जैसी अकड़। बिल्कुल भावहीन चेहरा।
    -नायिका के पहाड़ से फिसल जाने के बाद नायक द्वारा उसे जिस तेजी से अस्पताल पहुँचाया जाता है वह तो फिल्म के अनुरूप है। परन्तु अस्पताल में नायक की न तड़प देखी गयी न आशमान सिर पर उठा देने की वेदना और न ही दहाड़ मार कर रोना। बल्कि एक कोने में अपराधी सा बैठकर चुपचाप टुकुर-टुकुर देखना।
    - तकनीकी तौर पर देखें तो खामियां नजर आती है जैसे कि नायक का पिता
(अशराफुलहक) शुरू से अन्त तक बिल्कुल उसी मेकअप में नजर आता है। वह बुढ़ाता ही नहीं है। जबकि फिल्म में नायक के बचपन से लेकर बूढ़े होने तक की कहानी है।
    -सर्वविदित है कि राजनीतिक दल कांग्रेस द्वारा केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार की विफलता के बाद ही सन् 1980 के चुनाव में हाथ को चुनावचिन्ह बनाया गया था। परन्तु फिल्म के एक दृश्य में आपातकाल से पहले ही इन्दिरा गांधी द्वारा ‘हाथ’ को मजबूत करने की अपील जनता से की जा रही है। 
   -नायक के बजीरपुर से पैदल ही दिल्ली कूच करने पर तेरह सौ किलोमीटर लम्बे रास्ते की कठिनाइयों को उभारा
नहीं गया है।
   -गांव के मुखिया व बीडीओ द्वारा रुपये हड़प लिये जाने को मीडिया नहीं उठाता है। यहाँ तक कि पूरा पहाड़ काट लेने पर रास्ता बन जाने को भी मीडिया ज्यादा तवज्जो देता नहीं दिखायी देता।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे द्वारा अपने अभिनय के बल पर फिल्म को सफल बनाने की पूरी कोशीश की गयी है किन्तु निर्देशक थोड़ा मेहनत करते थे तो निश्चित तौर पर यह फिल्म शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से आगे की श्रेणी में रखी जा सकती थी।