Saturday, September 05, 2015

फिल्म समीक्षा - मांझी : दि माउण्टेन मैन

        किसी भी फिल्म की सफलता के लिये आवश्यक होता है कुशल निर्देशन, मंझे हुये सितारे, एक अच्छी कहानी, बेहतरीन पटकथा, कसे हुये संवाद, कर्णप्रिय गीत-संगीत आदि आदि। परन्तु कभी कुछ फिल्म केवल कुशल निर्देशन या अच्छी कहानी या बडी स्टार कास्ट या गीत-संगीत के बल पर भी चल पड़ती है। और कभी सब कुछ ठीक-ठाक होने के बावजूद भी फिल्म अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाती है। ऐसे कई उदाहरण है जब बड़े बजट की फिल्म बॉक्स आफिस पर लुढ़क गयी और छोटे बजट की फिल्म झण्डे गाड़ गयी, दर्शकों की वाहवाही बटोर ले गयी।
    केतन मेहता द्वारा निर्देशित और नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, पंकज त्रिपाठी, गौरव द्विवेदी, अशराफुलहक, दीपा साही, तिग्मांशु धूलिया, प्रशान्त नारायण आदि द्वारा अभिनीत फिल्म मांझी: दि माउण्टेन मैन की रिलीज के दिन से ही देखने की उत्सुकता थी, परन्तु देखकर निराशा ही हाथ लगी।  होली, सरदार, भवनी भवाई, मिर्च मसाला, मंगल पाण्डे: द राईजिंग व रंग रसिया जैसी एक से एक बेहतरीन फिल्म देने वाले केतन मेहता जी शायद अबकी चूक गये। लगा जैसे इस फिल्म में सारी जिम्मेदारी नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे केे कन्धों पर डालकर वेे चुपचाप जाकर कैमरे के पीछे बैठ गये। इतनी चर्चित और दमदार कहानी हाथ आने और अभिनय के क्षेत्र में अपना लोहा मनवा लेने वाले कलाकार साथ होने के बावजूद फिल्म में कहीं कोई कसाव नहीं, कहीं गति नहीं, कोई रवानगी नहीं। फिल्म देखते समय यह उत्सुकता ही नहीं जागती कि अब आगे क्या होगा, आगे क्या होगा। जैसा कि अमूमन हर फिल्म देखते हुये या कहानी-उपन्यास पढ़ते हुये होता है। हॉल में अन्तिम समय तक इसलिये बैठे रहे कि घर से इस बहाने निकले हुये थे और फिर टिकट खरीद रखी थी।
     -गांव में एक हरिजन पुरूष के जूते पहन लेने पर दबंग सवर्णों द्वारा उसके पांव काट दिये जाते हैं। परन्तु कोई आक्रोश नहीं, कोई प्रतिकार नहीं। यहाँ तक कि गांव में दबी जुबान भी कोई चर्चा नहीं करता। बीसवीं सदी की नहीं चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी की घटना हो जैसे।
     -बचपन में घर से भाग जाने के बाद दशरथ मांझी सात साल बाद जब गांव लौटकर आता है तो सवर्णों द्वारा उसकी पिटाई कर दी जाती है परन्तु उसके चेहरे पर पीड़ा नहीं दिखायी देती और न ही कोई आक्रोश झलकता है। इस घटना को बिल्कुल सहजता से ले लेता है वह।
     -गहलोर गांव की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का फिल्मांकन कमजोर है जबकि मदर इण्डिया की भांति उनकी निर्धनता को बेहतरीन ढंग से दर्शाया जा सकता था। यहाँ तक कि शादी के बहाने उस क्षेत्र के लोकगीत, लोकनृत्यों को फिल्माये जाने की संभावना थी। परन्तु निर्देशक चूक गये।

     -हासिल, मकबूल, पान सिंह तोमर आदि फिल्मों का निर्देशन कर और गैंग्स ऑव वासेपुर फिल्म में अपने अभिनय का लोहा मनवा लेने वाले तिग्मांशु धूलिया की भूमिका प्रभावहीन रही। न कहीं कोई रौब, न ठाकुरों जैसी अकड़। बिल्कुल भावहीन चेहरा।
    -नायिका के पहाड़ से फिसल जाने के बाद नायक द्वारा उसे जिस तेजी से अस्पताल पहुँचाया जाता है वह तो फिल्म के अनुरूप है। परन्तु अस्पताल में नायक की न तड़प देखी गयी न आशमान सिर पर उठा देने की वेदना और न ही दहाड़ मार कर रोना। बल्कि एक कोने में अपराधी सा बैठकर चुपचाप टुकुर-टुकुर देखना।
    - तकनीकी तौर पर देखें तो खामियां नजर आती है जैसे कि नायक का पिता
(अशराफुलहक) शुरू से अन्त तक बिल्कुल उसी मेकअप में नजर आता है। वह बुढ़ाता ही नहीं है। जबकि फिल्म में नायक के बचपन से लेकर बूढ़े होने तक की कहानी है।
    -सर्वविदित है कि राजनीतिक दल कांग्रेस द्वारा केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार की विफलता के बाद ही सन् 1980 के चुनाव में हाथ को चुनावचिन्ह बनाया गया था। परन्तु फिल्म के एक दृश्य में आपातकाल से पहले ही इन्दिरा गांधी द्वारा ‘हाथ’ को मजबूत करने की अपील जनता से की जा रही है। 
   -नायक के बजीरपुर से पैदल ही दिल्ली कूच करने पर तेरह सौ किलोमीटर लम्बे रास्ते की कठिनाइयों को उभारा
नहीं गया है।
   -गांव के मुखिया व बीडीओ द्वारा रुपये हड़प लिये जाने को मीडिया नहीं उठाता है। यहाँ तक कि पूरा पहाड़ काट लेने पर रास्ता बन जाने को भी मीडिया ज्यादा तवज्जो देता नहीं दिखायी देता।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे द्वारा अपने अभिनय के बल पर फिल्म को सफल बनाने की पूरी कोशीश की गयी है किन्तु निर्देशक थोड़ा मेहनत करते थे तो निश्चित तौर पर यह फिल्म शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से आगे की श्रेणी में रखी जा सकती थी।

1 comment:

  1. समीक्षा पसंद आई रावत साब। वाकई कुछ खामियां हैं फिल्म में। एक बात और ...बहुत से लोग मांझी के अंसभव काम को संभव करने के लिए उसकी तारीफ करते नहीं थकते लेकिन वो खुद मांझी से कुछ नहीं सीखते। तो फिर मांझी से उन्होंने कैसी प्रेरणा ली है? मेरा इशारा जातिवाद की तरफ है.....कहते हैं जातिवाद कभी खत्म नहीं होगा इसलिए आरक्षण भी नहीं। अरे भाई...अब जातिवाद से हार क्यों मान रहो हो। ठान लो तो जातिवाद भी खत्म होगा जैसा मांझी ने ठान लिया तो पहाड़ से रास्ता बनाया न। आप भी ठान लो तो जातिवाद भी खत्म होगा।

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