Friday, July 14, 2017

बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है....

रफी साहब की मखमली आवाज में ‘सूरज’ फिल्म का यह गाना आज भी जब कहीं गूंजता है तो दिल अद्भुत रोमांच से भर उठता है, मन हिलोरें लेते हुये खयालों में खो जाता है, आँखे ख्वाब देखने लगती हैं, अतीत याद आने लगता है और, और.....। हाँ सचमुच, कुदरत ने गढ़वाल में एक घाटी ऐसी बनायी है जहाँ बहार सैकड़ों प्रजातियों के फूल बरसाती है मीलों तक, फूल ही फूल। बस, महबूब को थोड़ी सी तकलीफ जरूर उठानी पड़ेगी वहाँ तक पहुँचने में। और वह घाटी है चमोली जिले की तहसील जोशीमठ के अन्तर्गत विश्व प्रसिद्ध धरोहर- फूलों की घाटी।देश दुनिया देखने की तमन्ना किसे नहीं होती है? ऐसे लोग विरले ही होंगे जिन्हंे प्रकृति न लुभाती हो। मुझे तो अपने पहाड़ ही प्यारे लगते हैं। मेरा तो मन करता है कि पहाड़ी ढलान पर पसरे गांवों, सर्पीली पगडण्डियों, कल-कल निनाद करती नदियों, हरे-भरे बुग्यालों, बर्फीली चोटियों के सौन्दर्य को अपने भीतर अधिकाधिक भर लूं। कि न जाने कब शरीर ही इन पहाड़ों की यात्रा करने से मनाही कर दे। न जाने कब आँखे सुन्दर दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करना ही छोड़ दे। इसलिये इस बार कार्यक्रम बना फूलों की घाटी का।     
बद्रीनाथ मार्ग पर बद्रीनाथ से लगभग पच्चीस किलोमीटर पहले गुरू गोविन्द सिंह जी के नाम से अलकनन्दा नदी के दायें तट पर स्थित ‘गोविन्दघाट’ बसा हुआ है। यहीं से नदी पार कर पूरब दिशा में चौदह किलोमीटर पैदल चलकर पहुँचा जाता है घांघरिया। दूरी मात्र चौदह किलोमीटर परन्तु गोविन्दघाट से लगभग चौदह सौ मीटर ऊँचाई पर। अर्थात औसतन 1ः10 का ढलान (Gradient)। पुलना गांव तक अब पाँच किलोमीटर लम्बा हल्का वाहन मार्ग अवष्य बन गया है किन्तु पैदल दूरी तीन किलोमीटर ही कम हुयी। पुलना गांव लक्ष्मणगंगा के दायें तट पर बसा हुआ है और 2013 की प्रलयंकारी बाढ़ में नदी में पानी के साथ इतना मलबा आया कि पुलना के काफी मकान जमींदोज हो गये हैं।
संकरी व गहरी घाटी में पूरे वेग के साथ बह रही नदी के दोनो ओर घने जंगलों से युक्त पहाड़ ऊँचे उठे हुये हैं। इस मषीनी युग मे समय की बड़ी महत्ता है। इसलिये समय को सम्मान देते हुये हमने गोविन्दघाट से पुलना तक जीप द्वारा और पुलना से घांघरिया तक ग्यारह किलोमीटर का सफर खच्चरों से तय किया। समतल व कच्चे रास्ते पर खच्चर की सवारी करना आनन्द देता है, परन्तु चढ़ाई-उतराई भरे पहाड़ी रास्तों पर घोड़े/खच्चरों की सवारी केवल मजबूरी होती है। खड़न्जे बिछे रास्ते पर बार-बार सन्तुलन बनाना पड़ता है क्योंकि घोड़े/खच्चरों के खुरों पर लोहे की नाल लगी होती है जिससे खड़न्जे वाले रास्ते उनके खुर फिसलते हैं। इसलिये कितना भी हांक लिया जाय घोड़े/खच्चर हमेषा कच्चे भाग का में चलते हैं और ऐसे रास्तों पर कच्चा हिस्सा केवल किनारों पर मिलता है। पहाड़ी की ओर चलने पर सवारी के हाथ-पांव छिलते हैं और घाटी की ओर चलने पर नीचे गहरी खाई में गिरने की आषंका बनी रहती है। दूसरे पल सोचता हूँ कि हमारे ऐतिहासिक नायक महाराणा प्रताप रहे हों या वीर छत्रपति षिवाजी, या महाराजा रणजीत सिंह या फिर महारानी लक्ष्मीबाई जी, ढाल, तलवार व भाले के साथ घोड़े की वल्गा थामे हुये किस तरह अपनी षूरवीरता दिखाते होंगे। झाड़ियों में, जंगलों में, घाटियों मंे, मैदानो में और पहाड़ों में अपने को बचाते हुये किस प्रकार षत्रुओं से लोहा लेते होंगे। कितने महान थे वे और एक हम है कि घोडे़/खच्चर मालिक द्वारा हंकाये जाने व बिल्कुल खाली हाथ होते हुये भी घोड़े/खच्चर की पीठ पर बैठ रहने तक डर से माथे पर पसीना टपकता रहता है।   
लगभग छः किलोमीटर दूरी के बाद भ्यंूडार गांव पहुँचे तो थोड़ा रुककर मैगी के साथ चाय ली। दस रुपये कीमत वाला मैगी का पैकेट जब दुकानदार दो मिनट उबाल कर सर्व करता है तो उसकी कीमत इस मार्ग पर चालीस रुपये हो जाती है और चाय बीस रुपये की। सन्तोश यह था कि खच्चर हांकने वाले हो या छोटे-छोटे ढाबे खोले दुकानदार, प्रायः सभी स्थानीय निवासी थे। फूलों की घाटी और हेमकुण्ड के दर्षनार्थ जो भी यात्री आता है कुछ न कुछ खर्च अवष्य करता है जिससे इस घाटी के निवासियों की आर्थिक स्थिति कमोबेष ठीक है। यह अलग बात है कि पूरा सीजन ही मात्र चार-साढ़े चार माह का है। भ्यूंडार गांव लक्ष्मणगंगा और काकभुसुण्डी नदी के संगम तट पर दायें किनारे बसा हुआ है। 2013 की बाढ़ में गांव के अनेक मकानों का नामोनिशान ही मिट गया था परन्तु अब लोगो ने कुछ पुराने मकान ठीक कर दिये हैं और कुछ नये बना दिये हैं। जहाँ पर आज लक्ष्मणगंगा बह रही है वहाँ कभी आबादी थी और नदी तब एकदम बायें किनारे से सटकर बहती थी। एक सज्जन ने बताया कि भ्यूंडार वस्तुतः पुलना गांव वालों की छानियां थी न कि गांव। भ्यूंडार से लक्ष्मणगंगा पार कर रास्ता उत्तर दिशा में मुड़ जाता है और ढलान अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। लगभग आठ फुट चौड़े सीढ़ीदार व खड़ंजे बिछे इस रास्ते पर हेमकुण्ड के प्रति आस्था रखने वाले सैकड़ों श्रद्धालुओं की आवाजाही निरन्तर बनी रहती है। लोक निर्माण विभाग, उत्तराखण्ड द्वारा बनाये गये इस रास्ते पर सफाई का जिम्मेदारी एक गैर सरकारी संगठन ‘ईको विकास समिति, भ्यूंडार’ ने उठा रखी है। जिसके एवज में वे बोझा ढोने वाले कुली और प्रत्येक खच्चर स्वामी से न्यूनतम राशि सफाई के एवज में लेते हैं। परन्तु प्रसन्नता इस बात की है कि स्थानीय यात्री को भुगतान करने से मुक्त हैं।
लगभग साढ़े तीन हजार मीटर की ऊँचाई पर घने देवदारों और दो ऊँची पहाड़ियों के बीच घाटी में बसे घांघरिया पहुँचे तो इस कस्बे को देखकर आश्चर्य हुआ। आते हुये रास्ते में मन में सवाल उठ रहे थे कि वहाँ ठिकाना मिले न मिले परन्तु घांघरिया में बड़े आलीशान होटल, दुकानें और गुरूद्वारा देखकर दंग रह गया। खच्चरों और आदमियों की पीठ पर लादकर कैसे सीमेण्ट, सरिया, रोड़ी, फर्नीचर आदि सामान यहाँ पर लाया गया होगा? रात्रि विश्राम के लिये ठिकाना मिल गया था गढ़वाल मण्डल विकास निगम का विश्राम गृह। सामान वहाँ रखने के बाद फ्रेष होकर लंज लिया और कमर सीधी करने के लिये थोड़ी देर सुस्ता लिये। सहयात्री जोषी जी से बात की कि समय काफी है क्यों न घांघरिया का ही एक चक्कर मार लें। यह जानकर खुषी हुयी कि घांघरिया में बी.एस.एन.एल. का टॉवर लगने के कारण कनेक्टिविटी थी। अन्यथा प्रत्येक दुकान के बाहर दुकानदारों ने
सेटेलाईट फोन रखकर पी.सी.ओ. बूथ खोले हुये थे। सबसे पहले ईको विकास समिति के कार्यालय गये तो वहाँ पर कार्यरत लड़की ने फूलों की घाटी के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी और भी विस्तार में जानने के लिये प्रोजेक्टर चलकार एक डॉक्यूमेण्टरी फिल्म चलवा दी, प्रति व्यक्ति तीस रुपये वसूली के बाद। आधे घण्टे की इस रंगीन फिल्म में फूलों की घाटी का इतिहास, भूगोल और घाटी में पाये जाने वाले पषु-पक्षियों और खिलने वाले फूलों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। वहाँ से निकलकर घांघरिया के एक होटल में चाय जलेबी लेने के बाद कस्बे के मुख्य रास्ते पर बढ़े। पूरे कस्बे में चार-पाँच हजार लोगों से अधिक लोग रहे होंगे जिनमें नब्बे प्रतिशत सरदार व पंजाबी भाषी लोग और षेश दस प्रतिषत हमारे जैसे स्थानीय यात्री, होटलों के कर्मचारी, घोड़े/खच्चर चलाने वाले और पालकी/पिठ्ठू ढोने वाले। वातावरण में गूंज रहे पंजाबी संवादों व जोर-जोर बोलने की आवाजों से ऐसा लग रहा था मानों हम पंजाब के ही किसी कस्बे में आ गये हैं। शायद यही कारण है कि कुछ लोग इस कस्बे को ‘घांघरिया’ के स्थान पर ‘गोविन्दधाम’ लिख रहे हैं, जो कि अप्रत्यक्ष तौर पर स्थानीयता पर हमला है। घांघरिया के उत्तर-पश्चिम में हेमकुण्ड से आने वाली लक्ष्मण गंगा और फूलों की घाटी से आने वाली भ्यूंडार गाड का संगम है। 
घांघरिया से पैदल उत्तर दिशा की ओर छः-सात सौ मीटर चलने के बाद दायीं ओर सात-आठ फीट चौड़ व पक्का रास्ता हेमकुण्ड साहिब को चला जाता है और सीधा कच्चा रास्ता फूलों की घाटी के लिये। थोड़ी दूर चलने के बाद ही रास्ते के दायीं ओर फॉरेस्ट चौकी बनी हुयी मिली और बायीं ओर कार्यरत कर्मचारियों के आवासीय भवन। चौकी में फूलों की घाटी जाने वाले से 150 रुपये प्रति व्यक्ति शुल्क तथा 500 रुपये सेकुरिटी फी ली जाती है कि यात्री जो भी नमकीन, बिस्कुट आदि के पैकेट लेकर जा रहा है वह उनकी रद्दी वहाँ न फेंके, वापस ले आये। इसके लिये बाकायदा बैग चेक किये जाते हैं। फॉरेस्ट चौकी पर औपचारिकता निभाने के बाद कुछ आगे बढ़ने पर एक नाला पड़ा घुसाधार गाड। पच्चीस-तीस मीटर चौड़ाई वाली गाड के ऊपर काफी बर्फ जमी हुई थी और पानी बर्फ के नीचे से बह रहा था। मुख्य रास्ता बरसात में बह गया होगा इसलिये बर्फ के ऊपर चलकर इसे पार किया। मुझे अमरनाथ यात्रा के दौरान अमरावती नदी के ऊपर चलने की याद आ गई। घुसाधार गाड पार करने के बाद से ही ब्रह्यकमल और फन फैलाये नाग के आकार के फूल दिखने शुरू हो गये थे। आगे उफान मारती भ्यूंडार गाड पर बने पुल से गाड के दायीं तट पर पहुँचे। गाड पार से एक किलोमीटर का जिग-जैग रास्ते पर चलते हुये हम निरन्तर ऊँचाई पर बढ़ते गए। रास्ते में भोजपत्र के पेड़ प्रचुर मात्रा में मिले। संयोग से रास्ते में कुछ लोग मिले तो सोचा शैक्षणिक भ्रमण पर होंगे। परन्तु यह जानकर अच्छा लगा कि वे सूरत (गुजरात) से तीन परिवारों के सदस्यों का दल था और घाटी का आकर्षण उन्हें भी यहाँ खींच लाया था। रुकते और चलते हुये इस चढ़ाई पर एक जगह खड़े होकर गुजराती दल में से चौबीस-पच्चीस साल की हँसमुख लड़की से मैंने पूछा क्या तुमने फिल्ब ‘बाहुबली-1’ देखी है? उसने हाँ बोला तो मैंने भ्यूंडार गाड के बायीं ओर खड़ी चट्टान दिखाकर कहा कि ‘वह देखो, इस चट्टान के ऊपर विषाल माहिश्मति साम्राज्य है।’ वह मुस्कराई और कहा ‘वर्णन तो अच्छा किया सर आपने। दो सौ मीटर से अधिक इस खड़ी चट्टान को देखकर तो सचमुच ही लग रहा है कि इसके ऊपर अवष्य कोई नगर होगा।’ चढ़ाई खत्म होने के बाद कुछ आगे चलकर वक्राकार रास्ता पूरब दिशा की ओर मुड़ जाता है। यहीं से पूरब दिशा में मीलों तक फैली घाटी के अनुपम सौन्दर्य का प्रथम दर्षन हुये। बुग्याल के दोनों ओर कुछ गहराई पर और बीचों-बीच भ्यूंडार गाड धीर-मन्थर गति से बह रही थी, उसका वह रौद्र रूप यहाँ नहीं दिखाई दिया जो घांघरिया से घाटी में प्रवेश करने तक है। भ्यूंडार गाड के दोनो ओर फैली चौड़ी घाटी में खिले थे सैकड़ों प्रजातियों के फूल, दूर-दूर तक। जिस गदेरे से फूलों की घाटी शुरू मानी जाती है वहाँ से ही लगभग छः-सात किलोमीटर दूर तक फेली हुयी है। संकरी घाटियों में प्रायः एक अदृश्य भय सा व्याप्त हो जाता है, परन्तु यह घाटी इतनी चौड़ाई लिये हुये है कि इसमें आगे बढ़ते हुये न भूस्खलन का खतरा मण्डराता है और न ही संकरी घाटियों वाला वह अदृश्य भय। डर है तो यह कि जंगली जानवरों से कहीं सामना न हो जाये। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पहाड़ी की उत्तरी ढलान से बर्फ पिघलकर छोटे-छोटे नालों के रूप में बहकर भ्यूंडार गाड की जल सम्पदा में वृद्धि कर रहे थे। सुदूर पूरब में बर्फ से ढकी गौरी पर्वत घाटी को आशीर्वाद देता सा प्रतीत हो रहा था। उसके ऊपर झक सफेद बादल अठखेलियां कर रहे थे, कभी वह चाँदी की चमक वाले उस पर्वत को अपने आगोश में समेट लेते और कभी चुपचाप उसके पीछे छुप जाते। सचमुच प्रकृति ने अपने दोनों हाथों से गढ़ा है इस घाटी को। मनुष्य क्या देवता भी यहाँ स्वयं वास करने का मोह षायद ही संवरण कर पाये।    1982 में नन्दा देवी राष्ट्रीय पार्क घोषित हो जाने के बाद घाटी में पशुओं की आवाजाही बन्द है और दर्शनार्थियों द्वारा कैम्प डालकर रात को ठहरने पर भी पाबन्दी है। फूलों से लकदक इस घाटी की ओर निरन्तर बढ़ने पर मेरी पत्नी काफी उत्साहित थी और इस यात्रा में सहयात्री महेश चन्द्र जोशी जी भी खूब प्रफुल्लित दिखे। श्रीमती जोशी जी रात बुखार होने के कारण कुछ सुस्त अवश्य रही परन्तु प्रकृति के इस नैसर्गिक सौन्दर्य को देखकर वे भी अभिभूत थी। 
 सभी प्रकार के फूल अभी नहीं खिले थे तथापि कम मात्रा में खिले रंग-बिरंगे फूलों से सजे बुग्याल देखकर मेरा मन हो रहा था कि यहीं बस जाऊं, एडनबरा निवासी मिस जॉन मारग्रेट लीग(1885-1939) की तरह मैं भी यहीं समाधिस्थ हो जाऊं। फूलों की इस सुन्दर घाटी को सन् 1931 में जनता के सामने लाने वाले फ्रैंक स्माइथ को सैल्यूट कर हम वापस घांघरिया लौट आये ताकि अगले दिन हेमकुण्ड साहिब की यात्रा के लिये तरो-ताजा रह सकें।