Sunday, November 26, 2017

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(2)


 खैट जाने के लिये उनके यहाँ से निकले तो थोड़ी चढ़ाई के बाद रास्ते में लगभग तीन सौ मीटर दूरी तक सिंचाई नहर की पटरी पर साथ चले। सिंचाई नहर पक्की थी, परन्तु उस पर रुके हुये पानी में गांव वालों ने भीमल की टहनियों को मुठ्ठियां बनाकर भिगोने डाल रखी थी जो पत्थरों से दबा रखी थी, ताकि पानी में डूबी रहे। पुरानी सेळू  (सन) नहर के बाहर फेंकी हुयी थी, जिससे यह तो स्पष्ठ था कि सन का उपयोग अब गांव के लोग नहीं करते हैं। भीमल की टहनियों से पूरी नहर भरी हुयी थी, मैने ऐसा पहली बार देखा। हमारे गांव में तो पास की गाड में ही भीमल की मुठ्ठियां भिगोने डाली जाती थी। कुछ समय तक पानी में रहने के बाद भीमल की छाल आसानी से उतर जाती है और उसे कूट कर सफेद सन तैयार हो जाती है। इस सन से कृषि व घरेलू उपयोग में आने वाली रस्सियां आदि बनायी जाती थी। 
 

छाल उतर जाने के बाद भीमल की सूखी लकड़ी चूल्हे में खाना पकाते समय गीली व कच्ची जलावन लकड़ी सुलगाने के काम आती। इस तरह चारे के रूप में भीमल के पत्तियों के अतिरिक्त उसकी टहनियों की छाल व लकड़ी भी बहुत उपयोगी होती है। साथ चल रहे अंकित को मैंने पूछा कि ‘तुम्हारे गांव वाले सन को इस प्रकार क्यों फेंक देते हैं?’ तो उसका जवाब था कि ‘अब गांव में कोई खेती करने को राजी नहीं है इसलिये रस्सी, दौंळी  , दांऊं, मुशके, चारपाई की रस्सियां आदि की जरूरत ही नहीं पड़ती है और बुनने वाले भी तो अब रहे कहाँ.....।’  यह कहते वक्त पलायन के कारण बंजर खेतों और उजाड़ गांवों को देखकर उपजी पीड़ा अंकित के चेहरे पर स्पष्ठ झलक रही थी। 

नहर पार करते ही रास्ता तीखी चढ़ाई वाला था। पहाड़ों में हर मौसम में दिन के दो बजे बाद से ही हवा चलनी शुरू हो जाती है और हम लोग तो भटवाड़ा से ही चार बजे के बाद निकले थे। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते गये पसीना खूब बहने लगा, भीतर बनियान गीली हो गयी यहाँ तक कि बाहर पहनी हुयी टी शर्ट भी। परन्तु माथे पर चू रही पसीना गालों तक आने से पहले ही सूख जाता, मानो हवा ने कसम ली हो कि मैं गालों को नहीं भीगने दूंगी। 

लगभग डेढ़ किलोमीटर निरन्तर चढ़ने के बाद एक जगह पर हम थोड़ा सुस्ताने बैठ गये तो मैंने अंकित से पूछा कि ‘क्या यही एक दुर्गम रास्ता है इस गांव से खैट जाने के लिये ?’  तो उसने जवाब दिया कि ‘नहीं, यह खैट
जाने का रास्ता नहीं बल्कि मवेशियों के चलने का रास्ता है। सही रास्ता तो गांव के पूर्वी किनारे से है और हम गांव के पश्चिमी छोर से चढ़ रहे हैं। आप सड़क से आधा किलोमीटर ऊपर प्रधान जी के घर तक पहले ही चढ़ चुके थे, ऐसे में नीचे उतरते और फिर उस पार जाकर चढ़ते तो बुद्धिमता नहीं होती। हाँ, वापसी में जरूर हम उसी रास्ते से आयेंगे। अब तो हम उस रास्ते के मिलान पर पहुँचने ही वाले हैं।’ तीव्र ढलान के साथ-साथ रास्ता पथरीला व संकरा भी था जिससे शरीर का सन्तुलन बनाने के साथ-साथ सारा ध्यान अपने पैरों की तरफ ही रखना पड़ रहा था। चलते-चलते अचानक जब कपड़े कभी कंटीली झाड़ियांे में उलझ जाते तो लगता जैसे कोई पीछे खींच रहा है, कोई मुझे रोकना चाह रहा है। भटवाड़ा के आसपास भीमल, डैंकण, तुंगला आदि पेड़ों के साथ-साथ आड़ू, चुलू आदि अनेक फलदार पेड़ दिखाई दिये वहीं इस ऊँचाई पर चीड़ के पेड़ ही बहुतायत में हैं। एक जगह थोड़ा रुका तो सामने चट्टान पर दौड़ते हुये दो हिरण दिखे। भोजन की तलाश में थे या खतरे की आशंका से भाग रहे थे, कह नहीं सकता। मन ही मन सोचा, इस जंगल में यदि हिरण हैं तो बाघ भी अवश्य होंगे। अतः अकेले यात्री के लिये यह मार्ग सुरक्षित नहीं है। 

खैट जाने वाले मुख्य मार्ग पर पहुँचे तो मन को सकून मिला। घने पेड़ों के बीच एक सीमेण्ट की बेंच लगी थी। अंकित ने बताया कि ‘मुख्य मार्ग पर इस प्रकार की पूरी सात बेंच है। जो कि लगभग पच्चीस साल पहले ग्राम प्रधान भटवाड़ा के सहयोग से वन विभाग द्वारा बनवायी गयी थी।’  मैंने उसे छेड़ने के अन्दाज में कहा कि ‘तब तो तुम पैदा भी नहीं होंगे फिर तब तुम यह सब कैसे जानते हो?’ ‘गांव के बड़े-बूढ़ों से यह बात सुनी है’, उसका जवाब था। इस जगह से बांज, मोरू, बुरांस, तूण, ग्वीर्याळ आदि के पेड़ मिलने शुरू हो गये थे। 

आगे चढ़ते हुये हम पहाड़ी की गर्दननुमा उस जगह पर पहुँचे जिसे स्थानीय लोग ‘रागस खाल’ नाम से जानते हैं। रागस खाल की आकृति कुछ-कुछ ऊंट की गर्दन जैसी है। भूविज्ञान में इस प्रकार की जगह को अभिनति आकार (Synclinal Structure) कहते हैं। इसके दक्षिण-पूरब में पहाड़ी पर सिर की ओर खैट पर्वत स्थित है और उत्तर-पश्चिम अर्थात पूंछ की ओर पीड़ी-प्रतापनगर की पहाड़ी है। इस जगह से पश्चिम में भटवाड़ा आदि गांवों का ही नहीं बल्कि पूरब में ढुंगमन्दार के अनेक गांवों का विहगंम दृश्य दिखायी दे रहा था। बीचों-बीच बह रही सुनेरी गाड के दोनो ओर हरी-भरी खेती व बड़े-बड़े गांव मन मोह रहे थे। जब सड़कें व संचार साधन नहीं थे तब ऐसे ही दूर किसी पहाड़ी के पीछे बसे गांव में ब्याही गयी बेटी मायके में रह रहे माँ-बाप, भाई-बहिनों की याद में व्याकुल होकर गाती होगी;

‘उड़ी जा कागा बादळू  बीच, मेरू रैबार ली जा मेरी माँजी मां....
 
सामने झाड़ियों पर रंगीन कपडो के टुकड़े बँधे दिखे और पास ही कुछ चूड़ियां भी। अंकित ने बताया कि इस मार्ग पर यह पहला थान (देवस्थल) है आछरी का। यहां पर पीढ़ी से खैट के लिये प्रस्तावित पाईप लाईन बिछी देखी, परन्तु योजना अभी अधूरी पड़ी है।

Tuesday, November 21, 2017

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी (1)....

        भावविभोर करती पंक्तियां  नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी...... ‘ उत्तराखण्ड युवा सिने अवार्ड-2013’, दिल्ली में पाण्डवा ग्रुप की ओर से ‘पम्मी नवल’ द्वारा गाये गये सुमधुर गीत की है। गीत में नौ बैणी (बहिनेंद्) आछरियों और बारह बैणी भराड़ियों से उत्तराखण्डी जनता की कुशलता की कामना की गयी है। आछरी, भराड़ियों, मांतरियों के बारे में हम बचपन से ही सुनते आ रहे थे। कोई बन-ठन कर कहीं जा रहा हो तो लोग मजाक में कह देते थे ‘ध्यान से जाना, कहीं आछरी न हर लें...’ । सुनते थे कि आछरी, भराड़ी सम्मोहित कर प्राण हरती है परन्तु प्रसन्न होने पर वरदान भी देती है। गढ़वाली लोकगाथाओं के नायक जीतू बगड़वाल और लाल सिंह कैन्तुरा पर आछरियां आसक्त हुयी और  सशरीर हर ले गई। आछरी अर्थात अप्सरा, परी, divine girl आदि। जौनसार-बावर, रवांई-बंगाण व फूलों की घाटी आदि अनेक निर्जन व रमणीक जगहों पर आछरी, भराड़ियों का निवास माना जाता है। टिहरी में आज भी मुखेम आदि अनेकांे धार पर आछरियों का निवास है माना जाता है, जिसमें खैटपर्वत प्रमुख है। इसीलिये ऊँचाई व निर्जन स्थान पर स्थित खैटपर्वत को नाम दिया गया है ‘परियों का देश’।
            भूत, हन्त्या और देवता तथा जादू-टोने का असर साक्षात देखने की मेरी बड़ी प्रबल इच्छा हमेशा रही है। परन्तु इस मामले में मैं भाग्यशाली नहीं हूँ। दो बार ऐसा भी हुआ कि मेरे साथ चलने वाले व्यक्ति को भूत ने दर्शन दिये और मुझे ठंेगा दिखा दिया। काला जादू के लिये विख्यात बंगाल के लोगों के साथ मैं युवावस्था में पूरे आठ-नौ साल रहा, परन्तु काले जादू का करिश्मा कभी नहीं देख पाया। देहरादून के जौनसार में ही चार साल तक सीजनल कैम्प करते आये हैं, परन्तु जादू-टोने से भेड़ बनाये जाने के लिये खामखाह बदनाम जौनसार में किसी ने भी मुझे भेड़ नहीं बनाया। भूत-प्रेत, जादू-टोना, आछरी-मांतरी न देख पाने की कसक कहीं मेरे साथ ही न खत्म हो, इसलिये मैंने एक उम्मीद के साथ आछरियों के देश जाने का फैसला लिया।
‘परियों के देश’ खैटपर्वत पर श्रीमद्भागवत कथा व शिवपुराण के आयोजन की सूचना मिली तो मैं आदतन अकेले ही चल पड़ा। देहरादून से ऋषिकेश, टिहरी होते हुये पीपलडाली तक बस से। पीपलडाली में सयोंगवश अपने पुरोहित पं0 परमानन्द भट्ट जी मिल गये जो मुझे अपनी मोटर साईकिल से पन्द्रह किलोमीटर दूर धारमण्डल पट्टी के भटवाड़ा गांव तक छोड़ आये। खैट जाने के लिये भले ही अन्य गांवों से भी रास्ते हैं परन्तु मैं भटवाड़ा से ही खैटपर्वत पर चढ़ने की योजना बना चुका था। भटवाड़ा के पूर्व प्रधान श्री शान्ति प्रसाद डंगवाल जी से फोन पर दो दिन पहले ही भतीजे बलवन्त ने बात करवा दी थी। भटवाड़ा पहुँचने पर जब डंगवाल जी ने फोन नहीं उठाया तो शंका हुयी कि वे कहीं चले न गये हांे। हमारे पुरोहित भट्ट जी ने सड़क पर जहाँ छोड़ा था वहाँ सड़क किनारे दो दुकानंे थी। एक पर सिलाई मशीन रखी हुयी थी, परन्तु वहाँ पर कोई था नहीं। मशीन पर फंसे कपड़े को देखकर स्पष्ठ था कि अभी-अभी ही कोई काम अधूरा छोड़कर कहीं गया होगा। बगल की दुकान में एक महिला बैठकर मैगी खा रही थी, लंच के रूप में या भूख लगने पर, कह नहीं सकता। वैसे भी गावों में अधिकांश लोग अब भूड़ी-पकोड़ी बनाने के झंझट में नहीं पड़ते, झट से मैगी का पैकेट मंगाया, खोला और गैस के चूल्हे पर दो मिनट में मैगी तैयार। न ज्यादा खटराग, न मेहनत और न धुआं ही। हमारी चाची-ताई, माँ-दादी का जमाना कितना मुश्किल भरा था कि दोपहर/अपरान्ह में भूख लगने पर आस-पास के खेतों, सग्वाड़े से राई, मूली, अरबी, चौलाई आदि के पत्ते नोचते या घर में रखे चार आलू-प्याज काटते और लकड़ी के चूल्हे पर जतन से पकाकर भूख शान्त करते। हालांकि घर से उठा कमबख्त धुआं गांव भर में ढिण्डोरा पीट देता कि देखो फलां के यहाँ भरी दोपहर खाना पक रहा है। कैसी आग लगी इनके पेट को। और धुएं को देखकर तो कोई न कोई चटोरा खाने के लालच में ऐन वक्त पर पहुँच भी जाता।          
             मैगी खाने वाली इस महिला से पूछा तो उसने मैगी का कौर मुहँ में रखते हुये बैठे-बैठे वहीं से डंगवाल जी के घर का रास्ता समझा दिया। कुछ चढा़ई चढ़ने के बाद मैं एक बड़े से पेड़ के नीचे स्थित पनधारे पर पहुँचा तो वहाँ सुस्ता रही व गप्पें लड़ा रही महिलाओं, जो शायद मनरेगा में कार्य करती होंगी से मैंने डंगवाल जी के घर का रास्ता फिर पूछा क्योंकि उस जगह से दो रास्ते अलग-अलग दिशाओं को जा रहे थे। रास्ता उन्होंने बता दिया परन्तु साथ ही जोड़ दिया कि उनके घर में एक कुत्ता भी है। कहावत है कि ‘अपने यहाँ के भूत और परायी जगह के कुत्तों से आदमी डरता ही है।’ कुत्ते से मुझे डर लगता है कहने पर उनमें से एक औरत ने डंगवाल जी की पत्नी को नाम लेकर पुकारा, जब उस ओर से कोई जवाब नहीं आया तो एक अधेड़ उम्र की औरत ने पुकारने वाली को ही निर्देश दिया कि ‘तू ही जा, इनको वहाँ तक छोड़ आ।’  मैंने उनका धन्यवाद किया। परन्तु मैंने गौर किया कि उन्होंने मेरा परिचय तक नहीं पूछा। तो क्या मेरा गढ़वाली बोलना ही पर्याप्त था या टी. वी., मोबाईल फोन व सोशल मीडिया वाले इस जमाने में किसी से जुड़ने और हालचाल जानने की आत्मीयता ही खत्म हो गयी? डंगवाल जी घर पर ही मिले, उन्होंने बताया कि बिजली न होने के कारण मोबाईल चार्ज नहीं हो पाया इसलिये फोन बन्द है। पूरी आत्मीयता के साथ उन्होंने अपने घर पर बिठाया और चाय-पानी पिलाकर वायदे के अनुसार विशेष हिदायत के साथ एक लड़का मेरे साथ भेज दिया। अंकित नाम के इस लड़के ने गाईड तथा पोर्टर ही नहीं सुरक्षाकर्मी की भूमिका भी निभाई। 
                                                                                                       क्रमशः अगले अंक में.............


Tuesday, August 29, 2017

पलायन की पीड़ा

आज सुबह रेडियो पर एक गीत सुन रहा था। गीत का मुखड़ा है;
   ‘‘बूझ मेरा क्या नांम रे, नदी किनारे गांव रे।
  पीपल झूमे मोरे आंगना, ठण्डी-ठण्डी छांव रे।.........’’

     गीत गुरूदत्त के प्रोडक्शन में बनी, राजखोसला द्वारा निर्देशित और देव साहब, वहीदा रहमान व शकीला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘सी आई डी’ का है। यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखा गया, ओ. पी. नैयर साहब केे संगीत निर्देशन में तैयार किया गया है और सुरीली आवाज है शमशाद बेगम की। गीत भीतर तक झकझोर गया। हर शब्द मन में गहरे उतर गये। तपती दोपहरी में जैसे भटकती हुयी बदलियां बरस जाये। मन के किसी कोने फिर तो मिट्टी की सोंधी गंध, पीपल की ठण्डी बयार और नदी की कलकल ध्वनि का प्रभाव छाने लगा।     महानगरों में पली-बढ़ी युवा पीढ़ी इस गीत के मायने शायद ही जान पाये। युवा पीढ़ी ही क्यों   वे भी तो कहाँ जान पाते हैं जोे गांव के होते हुये भी गांव का सुख नहीं उठा पाये। और जो हम इस गीत का अर्थ जान पा रहे हैं, समझ रहे हैं वे भी तो मन मसोस कर रह रहे हैं। जी चाहता है सारे बन्धन तोड़कर लौट जायें अपने गांव। शहर की छाया से दूर, शहरी व्याधियों से मुक्त अपने गांव। वहाँ जहाँ बस गांव हो, खेत-खलिहान हो, पानी से भरी नहरें हों, चारों ओर हरियाली हो, खेतों में खुशहाली हो, पक्षियों का कोलाहल हो, बहते झरने हों और अपने लोग हों। बस।
    परन्तु दूसरे ही पल सोचता हूँ क्या सचमुच हम गांव में रह सकेेंगे। गांव में रहने लायक साहस जुटा सकेंगे कभी। नहीं शायद। सच! सुविधाओं के किस कदर दास बन गये हम। कितने लाचार हैं हम। कितने बेवश। बहुत सुविधाभोगी भी तो जो हो गये हैं हम। काश !!...........

Friday, August 18, 2017

अद्भुत-अनोखी है अनुगूंज हमारे ढोल की

Image may contain: one or more people, people sitting and outdoor
ढोल पूड़ बैठ्यां तेरा सुर्ज चन्दरमा। कुण्डली मां नागदेव, कन्दोटी ब्रह्मा।
कन्दोटी ब्रह्मा, डोरी गणेश कु वास।। चार दिना कि चान्दना ....       भाई नरेन्द्र सिंह नेगी जी की आवाज में ‘सुरमा सरेला’ का यह गीत तो सबने सुना होगा। ढोल दमाऊं गढ़वाल, कुमाऊँ ही नहीं अपितु जौनसार, हिमाचल व जम्मू आदि हिमालयी क्षेत्रों का प्रमुख वाद्ययंत्र है। ढोल क्या है, इसकी उत्पति कैसे हुयी इसका विषद वर्णन ‘ढोलसागर’ में वर्णित है। 
 ढोलसागर शिव-पार्वती संवाद के रूप में लिखा गया ग्रन्थ है। माना जाता है कि ढोलसागर ग्रन्थ ‘शंकर वेदान्त’ अर्थात ‘शब्द सागर’ का छोटा रूप है। ढोलसागर के प्रथम भाग को ‘जोगेश्वरी ढोलसागर’ कहा जाता है जिसमें सृष्टि की उत्पति के बारे में है। नाथपन्थ का इस भाग पर पूरा प्रभाव माना जाता है। ग्रन्थ के दूसरे भाग में ढोल का वर्णन, उसकी उत्पति तथा उसके बजाने की कला का सुन्दर वर्णन है। इसे ‘चिष्टकला ढोलसागर’ कहा जाता है। ढोलसागर ताल संबन्धी ग्रन्थ भी है और ताल का प्रणेता शिव को माना गया है। ताल का अर्थ शिवशक्ति (ता-शिव तथा ल-शक्ति) माना जाता है, इसलिये शिव-शक्ति को ढोल की आत्मा स्वीकारा गया है। आदि ढोल का नाम इसलिये ‘शिवजन्ती’ भी कहा गया है।
Image may contain: 2 people, people standing देवताओं का आह्वाहन और उन्हें अवतरित करने मंे सिद्धहस्त होने के कारण ही आवजियों को ‘देवदास’ कहा जाता है और ढोलसागर का ज्ञाता होने के कारण ‘सरस्वति पुत्र’ भी। .... जीवनस्तर सुधारने व विकास के नाम पर आज पलायन पूरे देश ही नहीं अपितु पूरे विश्व के सभी समाजों में व सभी स्तर पर हो रहा है। ऐसे में संक्रमण के इस दौर में आवजियों/बाजगियों द्वारा भी उन्नत जीवनयापन के लिये या अन्य कारणो से अपने पेशे से मुहँ मोड़ लेने के कारण पर्वतीय समाज में एक प्रकार की सांस्कृतिक शून्यता सी आ गयी है।
भारतीय संगीत शास्त्र में समय व मौसम के अनुसार रागों का वर्णन है। उसी प्रकार ढोलसागर में भी समय, मौसम तथा परिस्थितियों के लिये अलग-अलग तालों का वर्णन है। आवजियों द्वारा मुख्यतः बढ़ै या बढ़ई, धुयेंळ या धुयांळ, शब्द या शबद, रहमानी अर्थात अभियान और नौबत ताल ही बजाये जाते हैं। परन्तु परिस्थिति विशेष के अनुसार वे अन्य ताल भी उतनी ही शिद्दत से बजा सकते हैं। आवजी/बाजगी के पास ज्ञान का अनन्त भण्डार माना जाता है, उनको सरस्वति पुत्र कहने के पीछे भी तर्क यही है। क्योंकि लौकिक अलौकिक ही नहीं उससे परे भी जो है, उन पर आवजी की पकड़ मानी जाती है।
दो वर्ष पहले माननीय हरीश रावत जी की सरकार में संस्कृति विभाग के सौजन्य से देहरादून में आयोजित ‘झुमैलो’ कार्यक्रम यादगार बन गया था और आज माननीय सतपाल महाराज जी के प्रयास से संस्कृति विभाग द्वारा ही गंगाद्वार अर्थात हरद्वार में ‘उत्तराखण्ड की लोक परम्परा में आदि नाद ढोल-दमाउं’ अर्थात ‘नमोनाद’ का आयोजन किया गया। इसके लिये महाराज जी व संस्कृति निदेशालय, उत्तराखण्ड को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया ही जाना चाहिये। महाराज जी के प्रेमनगर आश्रम के ‘गोवर्धन हॉल’ में उत्तराखण्ड के विभिन्न जनपदों से आये हुये एक साथ बारह सौ से अधिक ढोलियों को देखना और सुनना अविस्मरणीय अनुभव है। इसकी अनुगूंज उत्तराखण्ड के वायुमण्डल में लम्बे समय तक रहेगी। उनका यह प्रयास निस्सन्देह ढोलियों के बीच सामुहिकता व सामुदायिकता की भावना को अंकुरित करेगा ही साथ ही उन्हें इस आयोजन द्वारा अपने को आंकने/परखने का मौका मिला है जिससे वे अपनी इस कला को और भी निखारेंगे। सोने को निरन्तर तपाकर निखारने की कला में सिद्धहस्त भाई प्रीतम भरतवाण और सबसे संवाद व इतनी अधिक लोगों के लिये व्यवस्था बनाये रखने के लिये हमें भाई बलराज नेगी जी का भी आभार करना नहीं भूलना चाहिये।

Friday, July 14, 2017

बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है....

रफी साहब की मखमली आवाज में ‘सूरज’ फिल्म का यह गाना आज भी जब कहीं गूंजता है तो दिल अद्भुत रोमांच से भर उठता है, मन हिलोरें लेते हुये खयालों में खो जाता है, आँखे ख्वाब देखने लगती हैं, अतीत याद आने लगता है और, और.....। हाँ सचमुच, कुदरत ने गढ़वाल में एक घाटी ऐसी बनायी है जहाँ बहार सैकड़ों प्रजातियों के फूल बरसाती है मीलों तक, फूल ही फूल। बस, महबूब को थोड़ी सी तकलीफ जरूर उठानी पड़ेगी वहाँ तक पहुँचने में। और वह घाटी है चमोली जिले की तहसील जोशीमठ के अन्तर्गत विश्व प्रसिद्ध धरोहर- फूलों की घाटी।देश दुनिया देखने की तमन्ना किसे नहीं होती है? ऐसे लोग विरले ही होंगे जिन्हंे प्रकृति न लुभाती हो। मुझे तो अपने पहाड़ ही प्यारे लगते हैं। मेरा तो मन करता है कि पहाड़ी ढलान पर पसरे गांवों, सर्पीली पगडण्डियों, कल-कल निनाद करती नदियों, हरे-भरे बुग्यालों, बर्फीली चोटियों के सौन्दर्य को अपने भीतर अधिकाधिक भर लूं। कि न जाने कब शरीर ही इन पहाड़ों की यात्रा करने से मनाही कर दे। न जाने कब आँखे सुन्दर दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करना ही छोड़ दे। इसलिये इस बार कार्यक्रम बना फूलों की घाटी का।     
बद्रीनाथ मार्ग पर बद्रीनाथ से लगभग पच्चीस किलोमीटर पहले गुरू गोविन्द सिंह जी के नाम से अलकनन्दा नदी के दायें तट पर स्थित ‘गोविन्दघाट’ बसा हुआ है। यहीं से नदी पार कर पूरब दिशा में चौदह किलोमीटर पैदल चलकर पहुँचा जाता है घांघरिया। दूरी मात्र चौदह किलोमीटर परन्तु गोविन्दघाट से लगभग चौदह सौ मीटर ऊँचाई पर। अर्थात औसतन 1ः10 का ढलान (Gradient)। पुलना गांव तक अब पाँच किलोमीटर लम्बा हल्का वाहन मार्ग अवष्य बन गया है किन्तु पैदल दूरी तीन किलोमीटर ही कम हुयी। पुलना गांव लक्ष्मणगंगा के दायें तट पर बसा हुआ है और 2013 की प्रलयंकारी बाढ़ में नदी में पानी के साथ इतना मलबा आया कि पुलना के काफी मकान जमींदोज हो गये हैं।
संकरी व गहरी घाटी में पूरे वेग के साथ बह रही नदी के दोनो ओर घने जंगलों से युक्त पहाड़ ऊँचे उठे हुये हैं। इस मषीनी युग मे समय की बड़ी महत्ता है। इसलिये समय को सम्मान देते हुये हमने गोविन्दघाट से पुलना तक जीप द्वारा और पुलना से घांघरिया तक ग्यारह किलोमीटर का सफर खच्चरों से तय किया। समतल व कच्चे रास्ते पर खच्चर की सवारी करना आनन्द देता है, परन्तु चढ़ाई-उतराई भरे पहाड़ी रास्तों पर घोड़े/खच्चरों की सवारी केवल मजबूरी होती है। खड़न्जे बिछे रास्ते पर बार-बार सन्तुलन बनाना पड़ता है क्योंकि घोड़े/खच्चरों के खुरों पर लोहे की नाल लगी होती है जिससे खड़न्जे वाले रास्ते उनके खुर फिसलते हैं। इसलिये कितना भी हांक लिया जाय घोड़े/खच्चर हमेषा कच्चे भाग का में चलते हैं और ऐसे रास्तों पर कच्चा हिस्सा केवल किनारों पर मिलता है। पहाड़ी की ओर चलने पर सवारी के हाथ-पांव छिलते हैं और घाटी की ओर चलने पर नीचे गहरी खाई में गिरने की आषंका बनी रहती है। दूसरे पल सोचता हूँ कि हमारे ऐतिहासिक नायक महाराणा प्रताप रहे हों या वीर छत्रपति षिवाजी, या महाराजा रणजीत सिंह या फिर महारानी लक्ष्मीबाई जी, ढाल, तलवार व भाले के साथ घोड़े की वल्गा थामे हुये किस तरह अपनी षूरवीरता दिखाते होंगे। झाड़ियों में, जंगलों में, घाटियों मंे, मैदानो में और पहाड़ों में अपने को बचाते हुये किस प्रकार षत्रुओं से लोहा लेते होंगे। कितने महान थे वे और एक हम है कि घोडे़/खच्चर मालिक द्वारा हंकाये जाने व बिल्कुल खाली हाथ होते हुये भी घोड़े/खच्चर की पीठ पर बैठ रहने तक डर से माथे पर पसीना टपकता रहता है।   
लगभग छः किलोमीटर दूरी के बाद भ्यंूडार गांव पहुँचे तो थोड़ा रुककर मैगी के साथ चाय ली। दस रुपये कीमत वाला मैगी का पैकेट जब दुकानदार दो मिनट उबाल कर सर्व करता है तो उसकी कीमत इस मार्ग पर चालीस रुपये हो जाती है और चाय बीस रुपये की। सन्तोश यह था कि खच्चर हांकने वाले हो या छोटे-छोटे ढाबे खोले दुकानदार, प्रायः सभी स्थानीय निवासी थे। फूलों की घाटी और हेमकुण्ड के दर्षनार्थ जो भी यात्री आता है कुछ न कुछ खर्च अवष्य करता है जिससे इस घाटी के निवासियों की आर्थिक स्थिति कमोबेष ठीक है। यह अलग बात है कि पूरा सीजन ही मात्र चार-साढ़े चार माह का है। भ्यूंडार गांव लक्ष्मणगंगा और काकभुसुण्डी नदी के संगम तट पर दायें किनारे बसा हुआ है। 2013 की बाढ़ में गांव के अनेक मकानों का नामोनिशान ही मिट गया था परन्तु अब लोगो ने कुछ पुराने मकान ठीक कर दिये हैं और कुछ नये बना दिये हैं। जहाँ पर आज लक्ष्मणगंगा बह रही है वहाँ कभी आबादी थी और नदी तब एकदम बायें किनारे से सटकर बहती थी। एक सज्जन ने बताया कि भ्यूंडार वस्तुतः पुलना गांव वालों की छानियां थी न कि गांव। भ्यूंडार से लक्ष्मणगंगा पार कर रास्ता उत्तर दिशा में मुड़ जाता है और ढलान अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। लगभग आठ फुट चौड़े सीढ़ीदार व खड़ंजे बिछे इस रास्ते पर हेमकुण्ड के प्रति आस्था रखने वाले सैकड़ों श्रद्धालुओं की आवाजाही निरन्तर बनी रहती है। लोक निर्माण विभाग, उत्तराखण्ड द्वारा बनाये गये इस रास्ते पर सफाई का जिम्मेदारी एक गैर सरकारी संगठन ‘ईको विकास समिति, भ्यूंडार’ ने उठा रखी है। जिसके एवज में वे बोझा ढोने वाले कुली और प्रत्येक खच्चर स्वामी से न्यूनतम राशि सफाई के एवज में लेते हैं। परन्तु प्रसन्नता इस बात की है कि स्थानीय यात्री को भुगतान करने से मुक्त हैं।
लगभग साढ़े तीन हजार मीटर की ऊँचाई पर घने देवदारों और दो ऊँची पहाड़ियों के बीच घाटी में बसे घांघरिया पहुँचे तो इस कस्बे को देखकर आश्चर्य हुआ। आते हुये रास्ते में मन में सवाल उठ रहे थे कि वहाँ ठिकाना मिले न मिले परन्तु घांघरिया में बड़े आलीशान होटल, दुकानें और गुरूद्वारा देखकर दंग रह गया। खच्चरों और आदमियों की पीठ पर लादकर कैसे सीमेण्ट, सरिया, रोड़ी, फर्नीचर आदि सामान यहाँ पर लाया गया होगा? रात्रि विश्राम के लिये ठिकाना मिल गया था गढ़वाल मण्डल विकास निगम का विश्राम गृह। सामान वहाँ रखने के बाद फ्रेष होकर लंज लिया और कमर सीधी करने के लिये थोड़ी देर सुस्ता लिये। सहयात्री जोषी जी से बात की कि समय काफी है क्यों न घांघरिया का ही एक चक्कर मार लें। यह जानकर खुषी हुयी कि घांघरिया में बी.एस.एन.एल. का टॉवर लगने के कारण कनेक्टिविटी थी। अन्यथा प्रत्येक दुकान के बाहर दुकानदारों ने
सेटेलाईट फोन रखकर पी.सी.ओ. बूथ खोले हुये थे। सबसे पहले ईको विकास समिति के कार्यालय गये तो वहाँ पर कार्यरत लड़की ने फूलों की घाटी के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी और भी विस्तार में जानने के लिये प्रोजेक्टर चलकार एक डॉक्यूमेण्टरी फिल्म चलवा दी, प्रति व्यक्ति तीस रुपये वसूली के बाद। आधे घण्टे की इस रंगीन फिल्म में फूलों की घाटी का इतिहास, भूगोल और घाटी में पाये जाने वाले पषु-पक्षियों और खिलने वाले फूलों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। वहाँ से निकलकर घांघरिया के एक होटल में चाय जलेबी लेने के बाद कस्बे के मुख्य रास्ते पर बढ़े। पूरे कस्बे में चार-पाँच हजार लोगों से अधिक लोग रहे होंगे जिनमें नब्बे प्रतिशत सरदार व पंजाबी भाषी लोग और षेश दस प्रतिषत हमारे जैसे स्थानीय यात्री, होटलों के कर्मचारी, घोड़े/खच्चर चलाने वाले और पालकी/पिठ्ठू ढोने वाले। वातावरण में गूंज रहे पंजाबी संवादों व जोर-जोर बोलने की आवाजों से ऐसा लग रहा था मानों हम पंजाब के ही किसी कस्बे में आ गये हैं। शायद यही कारण है कि कुछ लोग इस कस्बे को ‘घांघरिया’ के स्थान पर ‘गोविन्दधाम’ लिख रहे हैं, जो कि अप्रत्यक्ष तौर पर स्थानीयता पर हमला है। घांघरिया के उत्तर-पश्चिम में हेमकुण्ड से आने वाली लक्ष्मण गंगा और फूलों की घाटी से आने वाली भ्यूंडार गाड का संगम है। 
घांघरिया से पैदल उत्तर दिशा की ओर छः-सात सौ मीटर चलने के बाद दायीं ओर सात-आठ फीट चौड़ व पक्का रास्ता हेमकुण्ड साहिब को चला जाता है और सीधा कच्चा रास्ता फूलों की घाटी के लिये। थोड़ी दूर चलने के बाद ही रास्ते के दायीं ओर फॉरेस्ट चौकी बनी हुयी मिली और बायीं ओर कार्यरत कर्मचारियों के आवासीय भवन। चौकी में फूलों की घाटी जाने वाले से 150 रुपये प्रति व्यक्ति शुल्क तथा 500 रुपये सेकुरिटी फी ली जाती है कि यात्री जो भी नमकीन, बिस्कुट आदि के पैकेट लेकर जा रहा है वह उनकी रद्दी वहाँ न फेंके, वापस ले आये। इसके लिये बाकायदा बैग चेक किये जाते हैं। फॉरेस्ट चौकी पर औपचारिकता निभाने के बाद कुछ आगे बढ़ने पर एक नाला पड़ा घुसाधार गाड। पच्चीस-तीस मीटर चौड़ाई वाली गाड के ऊपर काफी बर्फ जमी हुई थी और पानी बर्फ के नीचे से बह रहा था। मुख्य रास्ता बरसात में बह गया होगा इसलिये बर्फ के ऊपर चलकर इसे पार किया। मुझे अमरनाथ यात्रा के दौरान अमरावती नदी के ऊपर चलने की याद आ गई। घुसाधार गाड पार करने के बाद से ही ब्रह्यकमल और फन फैलाये नाग के आकार के फूल दिखने शुरू हो गये थे। आगे उफान मारती भ्यूंडार गाड पर बने पुल से गाड के दायीं तट पर पहुँचे। गाड पार से एक किलोमीटर का जिग-जैग रास्ते पर चलते हुये हम निरन्तर ऊँचाई पर बढ़ते गए। रास्ते में भोजपत्र के पेड़ प्रचुर मात्रा में मिले। संयोग से रास्ते में कुछ लोग मिले तो सोचा शैक्षणिक भ्रमण पर होंगे। परन्तु यह जानकर अच्छा लगा कि वे सूरत (गुजरात) से तीन परिवारों के सदस्यों का दल था और घाटी का आकर्षण उन्हें भी यहाँ खींच लाया था। रुकते और चलते हुये इस चढ़ाई पर एक जगह खड़े होकर गुजराती दल में से चौबीस-पच्चीस साल की हँसमुख लड़की से मैंने पूछा क्या तुमने फिल्ब ‘बाहुबली-1’ देखी है? उसने हाँ बोला तो मैंने भ्यूंडार गाड के बायीं ओर खड़ी चट्टान दिखाकर कहा कि ‘वह देखो, इस चट्टान के ऊपर विषाल माहिश्मति साम्राज्य है।’ वह मुस्कराई और कहा ‘वर्णन तो अच्छा किया सर आपने। दो सौ मीटर से अधिक इस खड़ी चट्टान को देखकर तो सचमुच ही लग रहा है कि इसके ऊपर अवष्य कोई नगर होगा।’ चढ़ाई खत्म होने के बाद कुछ आगे चलकर वक्राकार रास्ता पूरब दिशा की ओर मुड़ जाता है। यहीं से पूरब दिशा में मीलों तक फैली घाटी के अनुपम सौन्दर्य का प्रथम दर्षन हुये। बुग्याल के दोनों ओर कुछ गहराई पर और बीचों-बीच भ्यूंडार गाड धीर-मन्थर गति से बह रही थी, उसका वह रौद्र रूप यहाँ नहीं दिखाई दिया जो घांघरिया से घाटी में प्रवेश करने तक है। भ्यूंडार गाड के दोनो ओर फैली चौड़ी घाटी में खिले थे सैकड़ों प्रजातियों के फूल, दूर-दूर तक। जिस गदेरे से फूलों की घाटी शुरू मानी जाती है वहाँ से ही लगभग छः-सात किलोमीटर दूर तक फेली हुयी है। संकरी घाटियों में प्रायः एक अदृश्य भय सा व्याप्त हो जाता है, परन्तु यह घाटी इतनी चौड़ाई लिये हुये है कि इसमें आगे बढ़ते हुये न भूस्खलन का खतरा मण्डराता है और न ही संकरी घाटियों वाला वह अदृश्य भय। डर है तो यह कि जंगली जानवरों से कहीं सामना न हो जाये। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पहाड़ी की उत्तरी ढलान से बर्फ पिघलकर छोटे-छोटे नालों के रूप में बहकर भ्यूंडार गाड की जल सम्पदा में वृद्धि कर रहे थे। सुदूर पूरब में बर्फ से ढकी गौरी पर्वत घाटी को आशीर्वाद देता सा प्रतीत हो रहा था। उसके ऊपर झक सफेद बादल अठखेलियां कर रहे थे, कभी वह चाँदी की चमक वाले उस पर्वत को अपने आगोश में समेट लेते और कभी चुपचाप उसके पीछे छुप जाते। सचमुच प्रकृति ने अपने दोनों हाथों से गढ़ा है इस घाटी को। मनुष्य क्या देवता भी यहाँ स्वयं वास करने का मोह षायद ही संवरण कर पाये।    1982 में नन्दा देवी राष्ट्रीय पार्क घोषित हो जाने के बाद घाटी में पशुओं की आवाजाही बन्द है और दर्शनार्थियों द्वारा कैम्प डालकर रात को ठहरने पर भी पाबन्दी है। फूलों से लकदक इस घाटी की ओर निरन्तर बढ़ने पर मेरी पत्नी काफी उत्साहित थी और इस यात्रा में सहयात्री महेश चन्द्र जोशी जी भी खूब प्रफुल्लित दिखे। श्रीमती जोशी जी रात बुखार होने के कारण कुछ सुस्त अवश्य रही परन्तु प्रकृति के इस नैसर्गिक सौन्दर्य को देखकर वे भी अभिभूत थी। 
 सभी प्रकार के फूल अभी नहीं खिले थे तथापि कम मात्रा में खिले रंग-बिरंगे फूलों से सजे बुग्याल देखकर मेरा मन हो रहा था कि यहीं बस जाऊं, एडनबरा निवासी मिस जॉन मारग्रेट लीग(1885-1939) की तरह मैं भी यहीं समाधिस्थ हो जाऊं। फूलों की इस सुन्दर घाटी को सन् 1931 में जनता के सामने लाने वाले फ्रैंक स्माइथ को सैल्यूट कर हम वापस घांघरिया लौट आये ताकि अगले दिन हेमकुण्ड साहिब की यात्रा के लिये तरो-ताजा रह सकें।

Wednesday, January 04, 2017

मनुस्मृति में क्या है ?

       चौबीस दिसम्बर को प्रतिवर्श ‘उत्तराखण्ड के गांधी’ नाम से विख्यात इन्द्रमणी बडोनी जी और पच्चीस दिसम्बर को पेषावर काण्ड के नायक चन्द्र सिंह गढ़वाली जी का जन्मदिवस पूरे उत्तराखण्ड में मनाया जाता है। पच्चीस दिसम्बर को ही क्रिसमस की धूम-धाम पूरे विष्व में रहती है। परन्तु इस वर्श चौबीस व पच्चीस दिसम्बर देहरादून वासियों के लिये खास रहा। क्योंकि चौबीस व पच्चीस दिसम्बर को ही(पूरे दो दिन) ‘समय साक्ष्य’ के तत्वाधान में देहरादून के राजपुर में ‘लिट्रेचर फेस्टिवल’ भी मनाया गया। इधर पच्चीस दिसम्बर को ही सोषल मीडिया ‘वर्डसऐप’ पर ‘लोक का बाना’ ग्रुप से इन्द्रेष आईसा (इन्द्रेष मैखुरी)जी का लेख पढ़ा कि ‘‘1927 में पच्चीस दिसम्बर को ही भीम राव अम्बेडकर की नेतृत्व में ‘मनुस्मृति’ को जलाया गया ।‘‘           वामपंथी नेता इन्द्रेष मैखुरी जितने प्रखर वक्ता हैं उतने ही वे ऊर्जावान लेखक भी। वे लिखते हैं कि ‘‘....जातीय श्रेश्ठता के नकली बोध से ग्रसित हमारे समाज के लिये वह घटना एक बड़ी चुनौती थी। मनु स्मृति ही वो संहिता है जो हिन्दू समाज के श्रमषील हिस्से को अछूत मानकर उसके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार को जायज ठहराने का अधार प्रदान करती है। महिलाओं के प्रति भी यह संहिता काफी क्रूर दृश्टिकोण लिये हुये है।.......’’
       मनुस्मृति क्या है- हिन्दू धर्मशास्त्रों में मनुस्मृति एक प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता है। सम्भवतः यह पहला संस्कृत ग्रन्थ है जिसका अनुवाद ब्रिटिश शासनकाल सन् 1794 में ‘सर विलियम जॉन्स’ द्वारा किया गया है। आज मनुस्मृति के पचास से अधिक हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं परन्तु सबसे पहले प्रचलन में आया व सर्वाधिक बार अनुवादित हुआ संस्करण ही अठारहवीं सदी से प्रमाणिक माना जाता है। मनुस्मृति के रचनाकाल के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत हैं। परन्तु अधिकांश विद्वानों का मानना है कि इस ग्रन्थ की रचना ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी और ईसा की तीसरी शताब्दी के मध्य हुयी। ऐसा माना जाता है कि ‘मनु’ और ‘भृगु’ ऋषि के मध्य धर्म सम्बन्धी हुयी वार्ता इसका आधार है।
         संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब(वेद नगर), बरेली से प्रकाषित एवं डॉ0 चमनलाल गौतम द्वारा सम्पादित ‘मनुस्मृति’ के 2004 संस्करण में सम्पादक/प्रकाषक ने दो षब्द षीर्शक में लिखा है कि ‘....यह ग्रन्थ निरा धर्मग्रन्थ ही नहीं है वरन विषेश रूप से नीतिगत भी है। आज भी इसकी मान्यता और उपयोगिता उतनी ही है जितनी कि पुरातन युग में थी। हिन्दू धर्म सम्बन्धी विवादों में अब भी विधि ग्रन्थ के रूप में इसके प्रमाण न्यायालयों में मान्य किये जाते हैं। .....राजा के लिये आवष्यक है कि वह योग्य दण्डधर होकर न्यायपूर्वक राज्य का पालन करे। उसे देष, काल, षक्ति, विद्या और वित्त के अनुसार अपराधियों को दण्ड देना चाहिये। ‘स राजा पुरुशो दण्डः स नेता षासिता च स’ के अनुसार दण्ड ही राजा है, वही नेता, षासक और रक्षक है तथा ‘दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः’ पण्डितजन दण्ड को ही धर्म कहते हैं।..... ’
             इस मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं। जगदुत्पतिकथन, ब्रह्मोत्पति, स्त्री पुरुश की सृश्टि, मनु एवं मरीच्यादि की उत्पति, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैष्य-षूद्र के कर्म, ब्राह्मण का श्रेश्ठतव, धर्म के सामान्य लक्षण, धर्म की वेदमूलता, ब्रह्मवर्तदेषीय सदाचार, द्विजातियों का वैदिक मंत्र से गर्भाधानदि कर्तव्य, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राषन, चूड़ाकरण, ब्रह्मचारी के कर्तव्य, गुरुकुल-वास के नियम, ब्रह्मचर्य विधि, असपिण्ड कन्या से विवाह, चारों वर्णों का भार्या-परिग्रह, विवाह के आठ प्रकार, ब्राह्मादि विवाह फल, सवर्णाविवाह विधि, युग्म तिथि में पुत्रोत्पति, कन्या विक्रय दोश, पिण्डदानादि विधि, तर्पण फल, ब्रह्मचर्य गार्हस्थ्य काल इन्द्रियार्थ आसक्ति निशेध, वय-कुल के अनुरूप आचरण, रजस्वला गमनादि निशेध, नग्न स्नानादि निशेध, रात्रि में तिल भोजन और नग्न षयन निशेध, षूद्र से व्रत कथनादि निशेध, आचार प्रषंसा, यम नियम श्रद्धा-दान का फल, असत्य कथन निन्दा, मृत्यु विषयक प्रश्न, वृथा मांसादि निषेध, आचमन विधि, स्त्री धर्म कथन,
पर-पुरुष गमन निन्दा, वानप्रस्थाश्रम, अथितिचर्या, महाप्रस्थान, राजधर्म, प्रजारक्षण, न्यायवर्ती राजा की प्रंशसा, प्रजारक्षण, काम-क्रोधादि त्याग, सन्धि विग्रह काल, सैन्य प्रशिक्षण, उदासीन गुण, न्यायालय प्रवेश, असत्य कथन दोष, सीमा विवाद स्थल, स्त्री-पुरुष पशु आदि का हरण, दासों के सत्रह प्रकार, स्त्री रक्षा, व्यभिचार प्रायश्चित, कुपुत्र निन्दा, द्विजाति के श्रेष्ठ कर्म, परधर्म जीवन निन्दा, द्विज वर्ण कथन, राज्याधिकार, पंचमहापातक, प्रायश्चित, पापानुताप, निन्दा, तप, वेदाभ्यास, त्रिदण्डी परिचय, पाप से कुत्सिता गति, धर्मज्ञ लक्षण आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ‘लोकानां तु निवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपाधतः। ब्राह्मणं क्षत्रियं वैष्यं षूद्रं च निरवर्तयेत्।।’ (31/अध्याय- एक) अर्थात लोकों की वृद्धि के लिये प्रभु ने मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैष्य एवं चरण से षूद्र उत्पन्न किये। ‘एकमेव तु षूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिषत्। एतेशामेव वर्णानां सुश्रुशामनसूयया।।’ (91/अध्याय- एक) 
अर्थात षूद्र के लिये प्रभु ने एक ही कर्म का आदेष दिया कि वह उक्त तीनों वर्णों की सेवा ईर्श्या छोड़ कर करें।

‘स्वभाव एश नारीणां नराणामिह दूशणम्। अतोर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपष्चितः।।’ (213/अध्याय- दो) अर्थात स्त्रियों का स्वभाव पुरुशों को दूशित करने वाला होने के कारण युवतियों के प्रति ज्ञानी पुरुश असावधान नहीं रहते।
‘षूद्रैव भार्या षूद्रस्य स च स्वा च विषः स्मृते। ते च स्वा चैव राजष्च ताष्च स्वा चाग्रजन्मनः।।’ (13/अध्याय- तीन) अर्थात षूद्र की भार्या षूद्र होती है, वैष्य अपनी सवर्णा और षूद्रा से, क्षत्रिय अपनी सवर्णा, वैष्य और षूद्रा से तथा ब्राह्मण चारों वर्ण की कन्याओं से विवाह कर सकता है। ‘वृशलीफेनपीतस्य निःष्वासोपहतस्य च। तस्यां चैव प्रसूतस्य निश्कृतिर्न विधीयते।।’ (19/अध्याय- तीन) अर्थात षूद्रा के अधर का थूक चाटने वाला ब्राह्मण उसके साथ षयन करके उसके निःष्वास से अपने प्राणों को दूशित करता हुआ सन्तानोत्पादन करता है, उसके उद्धार का कोई प्रतिकार नहीं।
       इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं इस मनुस्मृति में। अतः बाबा साहेब अम्बेडकर साहेब ही क्या एक सामान्य व्यक्ति को भी मनुस्मृति में वर्णित कुछ बातों पर आपत्ति होना स्वाभाविक है। परन्तु यह भी सम्भव है कि मूल ग्रन्थ में ऐसा कुछ न रहा हो जो आज आपत्तिजनक माना जाता है।